गुरुवार, 4 अप्रैल 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध - नवां अध्याय..(पोस्ट..११)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--नवाँ अध्याय..(पोस्ट ११)

युधिष्ठिरादिका भीष्मजीके पास जाना और भगवान्‌ श्रीकृष्णकी स्तुति 
करते हुए भीष्मजीका प्राणत्याग करना

विजयरथकुटुम्ब आत्ततोत्रे
धृतहयरश्मिनि तत् श्रियेक्षणीये ।
भगवति रतिरस्तु मे मुमूर्षोः
यमिह निरीक्ष्य हता गताः स्वरूपम् ॥ ३९ ॥
ललित गति विलास वल्गुहास
प्रणय निरीक्षण कल्पितोरुमानाः ।
कृतमनुकृतवत्य उन्मदान्धाः
प्रकृतिमगन् किल यस्य गोपवध्वः ॥ ४० ॥
मुनिगण नृपवर्यसङ्कुलेऽन्तः
सदसि युधिष्ठिर राजसूय एषाम् ।
अर्हणं उपपेद ईक्षणीयो
मम दृशिगोचर एष आविरात्मा ॥ ४१ ॥
तमिममहमजं शरीरभाजां
हृदि हृदि धिष्ठितमात्म कल्पितानाम् ।
प्रतिदृशमिव नैकधार्कमेकं
समधिगतोऽस्मि विधूत भेदमोहः ॥ ४२ ॥

(भीष्मजी कहते हैं) अर्जुन के रथ की रक्षा में सावधान जिन श्रीकृष्ण के बायें हाथ में घोड़ों की रास थी और दाहिने हाथमें चाबुक, इन दोनोंकी शोभासे उस समय जिनकी अपूर्व छवि बन गयी थी, तथा महाभारत युद्धमें मरनेवाले वीर जिनकी इस छविका दर्शन करते रहनेके कारण सारूप्य मोक्षको प्राप्त हो गये, उन्हीं पार्थसारथि भगवान्‌ श्रीकृष्णमें मुझ मरणासन्नकी परम प्रीति हो ॥ ३९ ॥ जिनकी लटकीली सुन्दर चाल, हाव-भावयुक्त चेष्टाएँ, मधुर मुसकान और प्रेमभरी चितवनसे अत्यन्त सम्मानित गोपियाँ रासलीलामें उनके अन्तर्धान हो जानेपर प्रेमोन्माद से मतवाली होकर जिनकी लीलाओं का अनुकरण करके तन्मय हो गयी थीं, उन्हीं भगवान्‌ श्रीकृष्ण में मेरा परम प्रेम हो ॥ ४० ॥ जिस समय युधिष्ठिरका राजसूय यज्ञ हो रहा था, मुनियों और बड़े-बड़े राजाओंसे भरी हुई सभामें सबसे पहले सबकी ओरसे इन्हीं सबके दर्शनीय भगवान्‌ श्रीकृष्णकी मेरी आँखोंके सामने पूजा हुई थी; वे ही सबके आत्मा प्रभु आज इस मृत्युके समय मेरे सामने खड़े हैं ॥ ४१ ॥ जैसे एक ही सूर्य अनेक आँखोंसे अनेक रूपोंमें दीखते हैं, वैसे ही अजन्मा भगवान्‌ श्रीकृष्ण अपने ही द्वारा रचित अनेक शरीरधारियोंके हृदयमें अनेक रूप-से जान पड़ते हैं; वास्तवमें तो वे एक और सबके हृदयमें विराजमान हैं ही। उन्हीं इन भगवान्‌ श्रीकृष्णको मैं भेद-भ्रमसे रहित होकर प्राप्त हो गया हूँ ॥ ४२ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्ट संस्करण) पुस्तक कोड 1535 से


बुधवार, 3 अप्रैल 2024

श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) छठा अध्याय (पोस्ट 02)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(गोलोकखण्ड)

छठा अध्याय  (पोस्ट 02)

 

कालनेमि के अंश से उत्पन्न कंस के महान् बल-पराक्रम और दिग्विजय का वर्णन

 

द्वंद्वयोधी ततः कंसो भुजवीर्यमदोद्धतः ।
माहिष्मतीं ययौ वीरोऽथैकाकी चण्डविक्रमः ॥१६॥
चाणूरो मुष्टिकः कूटः शलस्तोशलकस्तथा ।
माहिष्मतीपतेः पुत्रा मल्ला युद्धजयैषिणः ॥१७॥
कंसस्तानाह साम्नापि दीयध्वं रंगमेव हे ।
अहं दासो भवेयं वो भवंतो जयिनो यदि ॥१८॥
अहं जयी चेद्‌भवतो दासान्सर्वान्करोम्यहम् ।
सर्वेषां पश्यतां तेषां नागराणां महात्मनाम् ॥१९॥
इति प्रतिज्ञां कृत्वाथ युयुधे तैर्जयैषिभिः ।
यदागतं स चाणूरं गृहीत्वा यादवेश्वरः ॥२०॥
भूपृष्ठे पोथयामास शब्दमुच्चैः समुच्चरन् ।
तदाऽऽयान्तं मुष्टिकाख्यं मुष्टिभिर्युधि निर्गतम् ॥२१॥
एकेन मुष्टिना तं वै पातयामास भूतले ।
कूटं समागतं कंसो गृहीत्वा पादयोश्च तम् ॥२२॥
भुजमास्फोट्य धावन्तं शलं नीत्वा भुजेन सः ।
पातयित्वा पुनर्नीत्वा भूमिं तं विचकर्ष ह ॥२३॥
अथ तोशलकं कंसो गृहीत्वा भुजयोर्बलात् ।
निपात्य भूमावुत्थाप्य चिक्षेप दशयोजनम् ॥२४॥
दासभावे च तान्कृत्वा तैः सार्द्धं यादवेश्वरः ।
मद्वाक्येन ययावाशु प्रवर्षणगिरिं वरम् ॥२५॥
तस्मै निवेद्याभिप्रायं युयुधे वानरेण सः ।
द्विविदेनापि विंशत्या दिनैः कंसो ह्यविश्रमम् ॥२६॥
द्विविदो गिरिमुत्पाट्य चिक्षेप तस्य मूर्द्धनि ।
कंसो गिरिं गृहीत्वा च तस्योपरि समाक्षिपत् ॥२७॥
द्विविदो मुष्टिना कंसं घातयित्वा नभो गतः ।
धावन्कंसश्च तं नीत्वा पातयामास भूतले ॥२८॥
मूर्छितस्तत्प्रहारेण परं कल्मषमाययौ ।
क्षीणसत्त्वश्चूर्णितोऽस्थिदासभावं गतस्तदा ॥२९॥
तेनैवाथ गतः कंसः ऋष्यमूकवनं ततः ।
तत्र केशी महादैत्यो हयरूपो घनस्वनः ॥३०॥
मुष्टिभिस्ताडयित्वा तं वशीकृत्यारुरोह तम् ।
इत्थं कंसो महावीर्यो महेंद्राख्यं गिरिं ययौ ॥३१॥

कंस द्वन्द्वयुद्ध का प्रेमी था । अपने बाहुबल के मद से अकेला ही द्वन्द्वयुद्धके  लिये उन्मत्त रहता था । वह प्रचण्डपराक्रमी वीर माहिष्मतीपुरीमें गया। माहिष्मतीनरेशके पाँच पुत्र प्रख्यात मल्ल थे और मल्लयुद्धमें विजय पानेका हौंसला रखते थे। उनके नाम थे— चाणूर, मुष्टिक, कूट, शल और तोशल ॥ १६-१७ ॥

कंस ने सामनीति का आश्रय ले प्रेमपूर्वक उनसे कहा— 'तुमलोग मेरे साथ मल्लयुद्ध करो। यदि तुम्हारी विजय हो जायगी तो मैं तुम्हारा सेवक होकर रहूँगा; और कदाचित् मेरी विजय हो गयी तो तुम सबको भी मैं अपना सेवक बना लूँगा।' वहाँ जितने भी नागरिक महान् पुरुष थे, उन सबके सामने कंसने इस प्रकारकी प्रतिज्ञा की और विजय पानेकी इच्छा रखनेवाले उन वीरोंके साथ मल्लयुद्ध आरम्भ कर दिया। ज्यों ही चाणूर आया, यादवेश्वर कंसने उच्चस्वरसे गर्जना करते हुए उसे पकड़कर पृथ्वीपर दे मारा। उसी क्षण मुष्टिक भी वहाँ आ गया। वह रोषसे मुक्का ताने हुए था। कंसने उसे भी एक ही मुक्केसे धराशायी कर दिया। अब कूट आया, कंसने उसके दोनों पैर पकड़ लिये और जमीनपर दे मारा। फिर ताल ठोंकता हुआ शल भी दौड़कर आ पहुँचा। कंसने उसे एक ही हाथसे पकड़ा और जमीनपर पटककर घसीटने लगा। इसके बाद कंसने तोशलके दोनों हाथ बलपूर्वक पकड़ लिये और जमीनपर पटक दिया। फिर तत्काल उठाकर दस योजनकी दूरीपर फेंक दिया। इस प्रकार यादवेश्वर कंस उन सभी वीरोंको अपना सेवक बनाकर, मेरे (नारदजीके) कहनेसे उन योद्धाओंके साथ उसी क्षण श्रेष्ठ पर्वत प्रवर्षणगिरिपर जा पहुँचा ॥ १८-२५ ॥

वहाँ वह वानर द्विविद को अपना अभिप्राय बताकर उसके साथ बीस दिनोंतक अविराम युद्ध करता रहा । द्विविद ने पर्वत की चट्टान उठाकर उसे कंस के मस्तक पर फेंका, किंतु कंसने उस शिलाखण्डको पकड़कर उसीके ऊपर चला दिया। तब द्विविद कंसपर मुक्केसे प्रहार करके आकाशमें उड़ गया। कंसने भी उसका पीछा करके उसे पकड़ लिया और लाकर जमीनपर पटक दिया । कंसके प्रहारसे द्विविदको मूर्च्छा आ गयी। उसकी सारी उत्साह शक्ति जाती रही। हड्डियाँ चूर- चूर हो गयीं। फिर तो वह भी कंसका सेवक बन गया ।। १६–२९ ॥

तदनन्तर कंस द्विविदके साथ वहाँसे ऋष्यमूक- वनमें गया। वहाँ 'केशी' नामसे विख्यात एक महादैत्य रहता था, जिसकी घोड़ेके समान आकृति थी । वह बादलके समान गर्जता था। उसे मुक्कोंकी मारसे अपने वशमें करके कंस उसपर सवार हो गया। इस प्रकार वह महान् पराक्रमी कंस महेन्द्रगिरि पर जा पहुँचा ।। ३०-३१ ॥

 

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध - नवां अध्याय..(पोस्ट..१०)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--नवाँ अध्याय..(पोस्ट १०)

युधिष्ठिरादिका भीष्मजीके पास जाना और भगवान्‌ श्रीकृष्णकी स्तुति 
करते हुए भीष्मजीका प्राणत्याग करना

स्वनिगममपहाय मत्प्रतिज्ञां
ऋतमधि कर्तुमवप्लुतो रथस्थः ।
धृतरथ चरणोऽभ्ययात् चलद्‍गुः
हरिरिव हन्तुमिभं गतोत्तरीयः ॥ ३७ ॥
शितविशिखहतो विशीर्णदंशः
क्षतजपरिप्लुत आततायिनो मे ।
प्रसभं अभिससार मद्वधार्थं
स भवतु मे भगवान् गतिर्मुकुन्दः ॥ ३८ ॥

(भीष्मजी कहते हैं) मैंने प्रतिज्ञा कर ली थी कि मैं श्रीकृष्णको शस्त्र ग्रहण कराकर छोङूँगा; उसे सत्य एवं ऊँची करनेके लिये उन्होंने अपनी शस्त्र ग्रहण न करनेकी प्रतिज्ञा तोड़ दी। उस समय वे रथसे नीचे कूद पड़े और सिंह जैसे हाथीको मारनेके लिये उसपर टूट पड़ता है, वैसे ही रथका पहिया लेकर मुझपर झपट पड़े। उस समय वे इतने वेगसे दौड़े कि उनके कंधेका दुपट्टा गिर गया और पृथ्वी काँपने लगी ॥ ३७ ॥ मुझ आततायीने तीखे बाण मार-मारकर उनके शरीरका कवच तोड़ डाला था, जिससे सारा शरीर लहूलुहान हो रहा था, अर्जुनके रोकनेपर भी वे बलपूर्वक मुझे मारनेके लिये मेरी ओर दौड़े आ रहे थे। वे ही भगवान्‌ श्रीकृष्ण, जो ऐसा करते हुए भी मेरे प्रति अनुग्रह और भक्तवत्सलतासे परिपूर्ण थे, मेरी एकमात्र गति हों—आश्रय हों ॥ ३८ ॥ 

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मंगलवार, 2 अप्रैल 2024

श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) छठा अध्याय (पोस्ट 01)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(गोलोकखण्ड)

छठा अध्याय  (पोस्ट 01)

 

कालनेमि के अंश से उत्पन्न कंस के महान् बल-पराक्रम और दिग्विजय का वर्णन

 

श्रीबहुलाश्व उवाच -
कंसः कोऽयं दैत्यो महाबलपराक्रमः ।
तस्य जन्मानि कर्माणि ब्रूहि देवर्षिसत्तम ॥१॥


श्रीनारद उवाच -
समुद्रमथने पूर्वं कालनेमिर्महासुरः ।
युयुधे विष्णुना सार्द्धं युद्धे तेन हतो बलात् ॥२॥
शुक्रेण जीवितस्तत्र संजीविन्या च विद्यया ।
पुनर्विष्णुं योद्धुकाम उद्योगं मनसाकरोत् ॥३॥
तपस्तेपे तदा दैत्यो मन्दराचलसन्निधौ ।
नित्यं दूर्वारसं पीत्वा भजन्देवं पितामहम् ॥४॥
दिव्येषु शतवर्षेषु व्यतीतेषु पितामहः ।
अस्थिशेषं सवल्मीकं वरं ब्रूहीत्युवाच तम् ॥५॥
ब्रह्माण्डे ये स्थिता देवा विष्णुमूला महाबलाः ।
तेषां हस्तैर्न मे मृत्युः पूर्णानामपि मा भवेत् ॥६॥


ब्रह्मोवाच -
दुर्लभोऽयं वरो दैत्य यस्त्वया प्रार्थितः परः ।
कालान्तरे ते प्राप्तः स्यान्मद्वाक्यं न मृषा भवेत् ॥७॥


श्रीनारद उवाच -
कौमारेऽपि महामल्लैः सततं स युयोध ह ।
उग्रसेनस्य पत्‍न्यां कौ जन्म लेभेऽसुरः पुनः ॥८॥
जरासंधो मगधेंद्रो दिग्जयाय विनिर्गतः ।
यमुनानिकटे तस्य शिबिरोऽभूदितस्ततः ॥९॥
द्विपः कुवलयापीडः सह्स्रद्विपसत्त्वभूत् ।
बभञ्ज श्रृङ्खलासङ्घं दुद्राव शिबिरान्मदी ॥१०॥
निपातयन्स शिबिरान्गृहांश्च भूभृतस्तटान् ।
रंगभूम्यामाजगाम यत्र कंसोऽप्ययुध्यत ॥११॥
पलायितेषु मल्लेषु कंसस्तं तु समागतम् ।
शुण्डाशुण्डे सङ्गृहीत्वा पातयामास भूतले ॥१२॥
पुनर्गृहीत्वा हस्ताभ्यां भ्रामयित्वोग्रसेनजः ।
जरासन्धस्य सेनायां चिक्षेप शतयोजनम् ॥१३॥
तदद्‌भुतं बलं दृष्ट्वा प्रसन्नो मगधेश्वरः ।
अस्तिप्राप्ती ददौ कन्ये तस्मै कंसाय शंसिते ॥१४॥
अश्वार्बुदं हस्तिलक्षं रथानां च त्रिलक्षकम् ।
अयुतं चैव दासीनां पारिबर्हं जरासुतः ॥१५॥

राजा बहुलाश्व ने कहा- देवर्षिशिरोमणे ! यह महान् बल और पराक्रम से सम्पन्न कंस पहले किस दैत्यके नाम से विख्यात था ? आप इसके पूर्वजन्मों और कर्मों का विवरण मुझे सुनाइये ॥ १ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं-राजन् ! पूर्वकाल में समुद्र मन्थन के अवसर पर महान् असुर कालनेमि ने भगवान् विष्णु के साथ युद्ध किया। उस युद्धमें भगवान् ने उसे बलपूर्वक मार डाला। उस समय शुक्राचार्यजी ने अपनी संजीवनी विद्या के बलसे उसे पुनः जीवित कर दिया। तब वह पुनः भगवान् विष्णुसे युद्ध करने के लिये मन-ही-मन उद्योग करने लगा ॥ २-३ ॥

उस समय वह दानव मन्दराचल पर्वत के समीप तपस्या करने लगा। प्रतिदिन दूब का रस पीकर उसने देवेश्वर ब्रह्माकी आराधना की। देवताओं के कालमान से सौ वर्ष बीत जानेपर ब्रह्माजी उसके पास गये। उस समय कालनेमि के शरीर में केवल हड्डियाँ रह गयी थीं और उसपर दीमकें चढ़ गयी थीं। ब्रह्माजी ने उससे कहा- 'वर माँगो' ॥ ४-५ ॥

कालनेमिने कहा – इस ब्रह्माण्डमें जो-जो महाबली देवता स्थित हैं, उन सबके मूल भगवान् विष्णु हैं। उन सम्पूर्ण देवताओंके हाथसे भी मेरी मृत्यु न हो ॥ ६ ॥

ब्रह्माजीने कहा- दैत्य ! तुमने जो यह उत्कृष्ट वर माँगा है, वह तो अत्यन्त दुर्लभ है; तथापि किसी दूसरे समय तुम्हें यह प्राप्त हो सकता है। मेरी वाणी कभी झूठी नहीं हो सकती ॥७॥

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! फिर वही कालनेमि नामक असुर पृथ्वीपर उग्रसेनकी स्त्री (पद्मावती) के गर्भसे उत्पन्न हुआ। कुमारावस्थामें ही वह बड़े-बड़े पहलवानोंके साथ कुश्ती लड़ा करता था। (एक समयकी बात है — ) मगधराज जरासंध दिग्विजयके लिये निकला। यमुना नदीके निकट इधर-उधर उसकी छावनी पड़ गयी ॥ ८-९ ॥

उसके पास 'कुवलयापीड़' नामका एक हाथी था, जिसमें हजार हाथियोंके समान शक्ति थी । उसके गण्डस्थल से मद चू रहा था। एक दिन उसने बहुत-सी साँकलों को तोड़ डाला और शिविरसे बाहरकी ओर दौड़ चला । शिविरों, गृहों और पर्वतीय तटोंको तोड़ता-फोड़ता हुआ वह उस रङ्गभूमि (अखाड़े) में जा धमका, जहाँ कंस भी कुश्ती लड़ रहा था। उसके आनेपर सभी शूरवीर भाग चले। उसे आया देख कंसने उस हाथीकी सूँड़ पकड़ी और पृथ्वीपर गिरा दिया ॥ १०-१२ ॥

इसके बाद कंस ने कुवलयापीड़ को पुनः दोनों हाथों से पकड़कर घुमाया और जरासंध की सेना में, जो वहाँसे बहुत दूर थी, फेंक दिया। मगधनरेश जरासंध कंसके इस अद्भुत बलको देखकर अत्यन्त प्रसन्न हुआ और उसने 'अस्ति' तथा 'प्राप्ति' नामकी अपनी दो परमसुन्दरी कन्याओं का विवाह उसके साथ कर दिया। उस जरापुत्रने एक अरब घोड़े, एक लाख हाथी, तीन लाख रथ और दस हजार दासियाँ कंस को दहेज में दीं ॥ १३-१५ ॥

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध - नवां अध्याय..(पोस्ट..०९)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--नवाँ अध्याय..(पोस्ट ०९)

युधिष्ठिरादिका भीष्मजीके पास जाना और भगवान्‌ श्रीकृष्णकी स्तुति 
करते हुए भीष्मजीका प्राणत्याग करना

सपदि सखिवचो निशम्य मध्ये
     निजपरयोर्बलयो रथं निवेश्य ।
स्थितवति परसैनिकायुरक्ष्णा
     हृतवति पार्थसखे रतिर्ममास्तु ॥ ३५ ॥
व्यवहित पृतनामुखं निरीक्ष्य
     स्वजनवधात् विमुखस्य दोषबुद्ध्या ।
कुमतिम अहरत् आत्मविद्यया यः
     चश्चरणरतिः परमस्य तस्य मेऽस्तु ॥ ३६ ॥

(भीष्मजी कहते हैं) अपने मित्र अर्जुनकी बात सुनकर, जो तुरंत ही पाण्डव-सेना और कौरव-सेनाके बीचमें अपना रथ ले आये और वहाँ स्थित होकर जिन्होंने अपनी दृष्टिसे ही शत्रुपक्षके सैनिकोंकी आयु छीन ली, उन पार्थसखा भगवान्‌ श्रीकृष्णमें मेरी परम प्रीति हो ॥ ३५ ॥ अर्जुन ने जब दूरसे कौरवोंकी सेनाके मुखिया हमलोगोंको देखा, तब पाप समझकर वह अपने स्वजनोंके वधसे विमुख हो गया। उस समय जिन्होंने गीताके रूपमें आत्मविद्याका उपदेश करके उसके सामयिक अज्ञानका नाश कर दिया, उन परमपुरुष भगवान्‌ श्रीकृष्णके चरणोंमें मेरी प्रीति बनी रहे ॥ ३६ ॥ 

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सोमवार, 1 अप्रैल 2024

श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) पाँचवाँ अध्याय (पोस्ट 02)

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(गोलोकखण्ड)

पाँचवाँ अध्याय  (पोस्ट 02)

 

भिन्न-भिन्न स्थानों तथा विभिन्न वर्गों की स्त्रियों के गोपी होने के कारण एवं अवतार-व्यवस्था का वर्णन

 

अत्रिरुवाच -
गोदोहं कुरुताश्वद्य पृथ्वीयं धारणामयी ।
सर्वं दास्यति वो दुर्गं मनोरथमहार्णवम् ॥१७॥
मनोरथं प्रदुदुहुर्मनःपात्रेण ताश्च गाम् ।
तस्माद्‌गोप्यो भविष्यन्ति वृन्दारण्ये पितामह ॥१८॥
कामसेनामोहनार्थं दिव्या अप्सरसो वराः ।
नारायणस्य सहसा बभूवुर्गन्धमादने ॥१९॥
भर्तुकामाश्च ता आह सिद्धो नारायणो मुनिः ।
मनोरथो वो भविता व्रजोगोप्यो भविष्यथ ॥२०॥
स्त्रियः सुतलवासिन्यो वामनं वीक्ष्य मोहिताः ।
तपस्तप्ता भविष्यन्ति गोप्यो वृन्दावने विधे ॥२१॥
नागेन्द्रकन्या याः शेषं भेजुर्भक्त्या वरेच्छया ।
संकर्षणस्य रासार्थं भविष्यंति व्रजे च ताः ॥२२॥
कश्यपो वसुदेवश्च देवकी चादितिः परा ।
शूरः प्राणो ध्रुवः सोऽपि देवकोऽवतरिष्यति ॥२३॥
वसुश्चैवोद्धवः साक्षाद्दक्षोऽक्रूरो दयापरः ।
हृदीको धनदश्चैव कृतवर्मा त्वपांपतिः ॥२४॥
गदः प्राचीनबर्हिश्च मरुतो ह्युग्रसेन उत् ।
तस्य रक्षां करिष्यामि राज्यं दत्त्वा विधानतः ॥२५॥
युयुधानश्चाम्बरीषः प्रह्लादः सात्यकिस्तथा ।
क्षीराब्धिः शन्तनुः साक्षाद्‌भीष्मो द्रोणो वसूत्तमः ॥२६॥
शलश्चैव दिवोदासो धृतराष्ट्रो भगो रविः ।
पाण्डुः पूषा सतां श्रेष्ठो धर्मो राजा युधिष्ठिरः ॥२७॥
भीमो वायुर्बलिष्ठश्च मनुः स्वायंभुवोऽर्जुनः ।
शतरूपा सुभद्रा च सविता कर्ण एव हि ॥२८॥
नकुलः सहदेवश्च स्मृतौ द्वावश्विनीसुतौ ।
धाता बाह्लीकवीरश्च वह्निर्द्रोणः प्रतापवान् ॥२९॥
दुर्योधनः कलेरंशोऽभिमन्युः सोम एव च ।
द्रौणिः साक्षाच्छिवस्यापि रूपं भूमौ भविष्यति ॥३०॥
इत्थं यदोः कौरवाणामन्येषां भूभुजां नृणाम् ।
कुले कुले च भवतः स्वांशैः स्त्रीभिर्मदाज्ञया ॥३१॥
ये येऽवतारा मे पूर्वं तेषां राज्ञ्यो रमांशकाः ।
भविष्या राजराज्ञीषु सहस्राणि च षोडश ॥३२॥


श्रीनारद उवाच -
इत्युक्त्वा श्रीहरिस्तत्र ब्रह्माणं कमलासनम् ।
दिव्यरूपां भगवतीं योगमायामुवाच ह ॥३३॥
देवक्याः सप्तमं गर्भं संनिकृष्य महामते ।
वसुदेवस्य भार्यायां कंसत्रासभयात्पुनः ॥३४॥
नन्दव्रजे स्थितायां च रोहिण्यां सन्निवेशय ।
नंदपत्‍न्यां भव त्वं वै कृत्वेदं कर्म चाद्‌भुतम् ॥३५॥


श्रीनारद उवाच -
श्रुत्वा ब्रह्मा देवगणैर्नत्वा कृष्णं परात्पराम् ।
भूमिमाश्वास्य वाणीभिः स्वधाम च समाययौ ॥३६॥
परिपूर्णतमं साक्षाच्छ्रीकृष्णं विद्धि मैथिल ।
कंसादीनां वधार्थाय प्राप्तोयं भूमिमण्डले ॥३७॥
रोममात्रतनौ जिव्हा भवंत्वित्थं यदा नृप ।
तदापि श्रीहरेस्तस्य वर्ण्यते न गुणो महान् ॥३८॥
नभः पतन्ति विहगा यथा ह्यात्मसमं नृप ।
तथा कृष्णगतिं दिव्यां वदन्तीह विपश्चितः ॥३९॥

 

अत्रि जी ने कहा- तुम सब शीघ्र ही आज इस गौको दुहो। यह सम्पूर्ण पदार्थोंको धारण करनेवाली धारणामयी धरणी देवी है। तुम्हारे सारे मनोरथोंको- चाहे वे समुद्रके समान अगाध, अपार एवं दुर्गम ही क्यों न हों - अवश्य पूर्ण कर देंगी ॥ १७ ॥

ब्रह्मन् ! तब उन स्त्रियोंने मनको दोहन - पात्र बनाकर अपने मनोरथोंका दोहन किया। इसी कारणसे वे सब की सब वृन्दावनमें गोपियाँ होंगी। बहुत-सी श्रेष्ठ अप्सराएँ, जिनका रूप अत्यन्त मनोहर था और जो कामदेवकी सेनाएँ थीं, भगवान् नारायण ऋषिको मोहित करनेके लिये गन्धमादन पर्वतपर गयीं । परंतु उन्हें देखकर वे भी अपनी सुध-बुध खो बैठीं। उनके मनमें भगवान्‌को पति बनानेकी इच्छा उत्पन्न हो गयी। तब सिद्धतपस्वी नारायण मुनिने कहा- 'तुम व्रजमें गोपियाँ होओगी और वहीं तुम्हारा मनोरथ पूर्ण होगा' ।।१८-२० ॥

ब्रह्मन् ! सुतल देशकी स्त्रियाँ भगवान् वामनको देखकर उन्हें पानेके लिये उत्कट इच्छा प्रकट करने लगीं। फिर तो उन्होंने तपस्या आरम्भ कर दी। अतः वे भी वृन्दावनमें गोपियाँ होंगी। जिन नागराज- कन्याओंने शेषावतार भगवान्‌को देखकर उन्हें पति बनानेकी इच्छासे उनकी सेवा-समाराधना की हैं, वे सब बलदेवजीके साथ रासविहार करनेके लिये व्रजमें उत्पन्न होंगी ।। २१-२२ ॥

कश्यपजी वासुदेव होंगे | परम पूजनीया अदिति देवकीके रूपमें अवतार लेंगी। प्राण नामक वसु शूरसेन और 'ध्रुव' नामक वसु देवक होंगे। 'वसु' नामके जो वसु हैं, उनका उद्धवके रूपमें प्राकट्य होगा। दयापरायण दक्ष प्रजापति अक्रूरके रूपमें अवतार लेंगे। कुबेर हृदीक नामसे और जल के स्वामी वरुण कृतवर्मा नाम से प्रसिद्ध होंगे ।। २३-२४ ॥

पुरातन राजा प्राचीनवर्हि गद एवं मरुत देवता उग्रसेन बनेंगे। उन उग्रसेनको मैं विधानतः राजा बनाऊँगा और उनकी भलीभाँति रक्षा करूँगा । भक्त राजा अम्बरीष युयुधान और भक्तप्रवर प्रह्लाद सात्यकिके नामसे प्रकट होंगे। क्षीरसागर शंतनु होगा। वसुओंमें श्रेष्ठ द्रोण साक्षात् भीष्मपितामहके रूपमें उत्पन्न होंगे ।। २५-२६ ॥

 

दिवोदास शल के रूप में एवं भग नामके सूर्य धृतराष्ट्रके रूपमें अवतीर्ण होंगे

पूषा नामसे विख्यात देवता पाण्डु होंगे । सत्पुरुषोंमें आदर पानेवाले धर्मराज ही राजा युधिष्ठिरके रूपमें अवतार लेंगे ।। २७-२८ ॥

वायु देवता महान् पराक्रमी भीमसेनके तथा स्वायम्भुव मनु अर्जुनके वेषमें प्रकट होंगे। शतरूपाजी सुभद्रा होंगी और सूर्यनारायण कर्णके रूपसे अवतार लेंगे। अश्विनीकुमार नकुल एवं सहदेव होंगे । धाता महान् बलशाली बाह्लीक नामसे विख्यात होंगे। अग्निदेवता महान् प्रतापी द्रोणाचार्य के रूप में अवतार लेंगे। कलि का अंश दुर्योधन होगा। चन्द्रमा अभिमन्यु के रूपमें अवतार लेंगे । पृथ्वीपर द्रोणपुत्र अश्वत्थामा साक्षात् भगवान् शंकर का रूप होगा ।। २९-३० ॥

इस प्रकार तुम सब देवता मेरी आज्ञा के अनुसार अपने अंशों और स्त्रियों के साथ यदुवंशी, कुरुवंशी तथा अन्यान्य वंशोंके राजाओंके कुलमें प्रकट होओ। पूर्व समयमें मेरे जितने अवतार हो चुके हैं, उनकी रानियाँ रमा का अंश रही हैं। वे भी मेरी रानियों में सोलह हजार की संख्या में प्रकट होंगी ।। ३१ – ३२ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! कमलासन ब्रह्मा से यों कहकर भगवन् श्रीहरि ने दिव्यरूपधारिणी भगवती योगमाया से कहा- ॥ ३३ ॥

भगवान् श्रीहरि बोले—महामते ! तुम देवकी  के सातवें गर्भ को खींचकर उसे वसुदेवकी पत्नी रोहिणीके गर्भमें स्थापित कर दो। वे देवी कंसके डरसे व्रज में नन्द के घर रहती हैं। साथ ही तुम भी ऐसे अलौकिक कार्य करके नन्दरानी के गर्भ से प्रकट हो जाना ।। ३४-३५ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं— परमश्रेष्ठ राजन् ! भगवान् श्रीकृष्णके वचन सुनकर सम्पूर्ण देवताओं के साथ ब्रह्माजीने परात्पर भगवान् श्रीकृष्णको प्रणाम किया और अपने वचनोंद्वारा पृथ्वीदेवीको धीरज दे, वे अपने धामको चले गये। मिथिलेश्वर जनक ! तुम भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रको साक्षात् परिपूर्णतम परमात्मा समझो। कंस आदि दुष्टोंका विनाश करनेके लिये ही ये इस धराधामपर पधारे हैं ॥ ३६-३७

शरीर में जितने रोएँ हैं, उतनी जिह्वाएँ हो जायँ, तब भी भगवान् श्रीकृष्णके असंख्य महान् गुणोंका वर्णन नहीं किया जा सकता। महाराज ! जिस प्रकार पक्षीगण अपनी शक्तिके अनुसार ही आकाशमें उड़ते हैं, वैसे ही ज्ञानीजन भी अपनी मति एवं शक्तिके अनुसार ही भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रकी दिव्य लीलाओंका गायन करते हैं ॥ ३८-३९ ॥

 

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें गोलोकखण्डके अन्तर्गत नारद-बहुलाश्व-संवादमें 'अवतार-व्यवस्थाका वर्णन' नामक पाँचवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ५ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से

 

 



रविवार, 31 मार्च 2024

श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) पाँचवाँ अध्याय (पोस्ट 01)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(गोलोकखण्ड)

पाँचवाँ अध्याय  (पोस्ट 01)

 

भिन्न-भिन्न स्थानों तथा विभिन्न वर्गों की स्त्रियों के गोपी होने के कारण एवं अवतार-व्यवस्था का वर्णन

 

श्रीभगवानुवाच

रमावैकुण्ठवासिन्यः श्वेतद्वीपसखीजनाः ।
ऊर्ध्वं वैकुण्ठवासिन्यस्तथाजितपदाश्रिताः ॥१॥
श्रीलोकाचलवासिन्यः श्रीसख्योऽपि समुद्रजाः ।
ता गोप्योऽभिभविष्यन्ति लक्ष्मीपतिवराद्‌व्रजे ॥२॥
काश्चिद्दिव्या अदिव्याश्च तथा त्रिगुणवृत्तयः ।
भूमिगोप्यो भविष्यन्ति पुण्यैर्नानाविधैः कृतैः ॥३॥
यज्ञावतारं रुचिरं रुचिपुत्रं दिवस्पतिम् ।
मोहिताः प्रीतिभावेन वीक्ष्य देवजनस्त्रियः ॥४॥
ताश्च देवलवाक्येन तपस्तेपुर्हिमाचले ।
भक्त्या परमया ता मे गोप्यो भाव्या व्रजे विधे ॥५॥
अन्तर्हिते भगवति देवे धन्वन्तरौ भुवि ।
ओषध्यो दुःखमापन्ना निष्फला भारतेऽभवन् ॥६॥
सिद्ध्यर्थं तास्तपस्तेपुः स्त्रियो भूत्वा मनोहराः ।
चतुर्युगे व्यतीते तु प्रसन्नोऽभूद्धरिः परम् ॥७॥
वरं वृणीत चेत्यृक्तं श्रुत्वा नार्यो महावने ।
तं दृष्ट्वा मोहमापन्ना ऊचुर्भर्ता भवात्र नः ॥८॥
वृन्दावने द्वापरान्ते लता भूत्वा मनोहराः ।
भविष्यथ स्त्रियो रासे करिष्यामि वचश्च वः ॥९॥


श्रीभगवानुवाच -
भक्तिभावसमायुक्ता भूरिभाग्या वरांगनाः ।
लतागोप्यो भविष्यन्ति वृन्दारण्ये पितामह ॥१०॥
जालन्धर्य्यश्च या नार्यो वीक्ष्य वृन्दापतिं हरिम् ।
ऊचुर्वायं हरिः साक्षादस्माकं तु वरो भवेत् ॥११॥
आकाशवागभूत्तासां भजताशु रमापतिम् ।
यथा वृन्दा तथा यूयं वृन्दारण्ये भविष्यथ ॥१२॥
समुद्रकन्याः श्रीमत्स्यं हरिं दृष्ट्वा च मोहिताः ।
ता हि गोप्यो भविष्यन्ति श्रीमत्स्यस्य वराद्‌व्रजे ॥१३॥
आसीद्‌राजा पृथुः साक्षान्ममांशश्चण्डविक्रमः ।
जित्वा शत्रून्नृपश्रेष्ठो धरां कामान्दुदोह ह ॥१४॥
बर्हिष्मतीभवास्तत्र पृथुं दृष्ट्वा पुरस्त्रियः ।
अत्रेः समीपमागत्य ता ऊचुर्मोहविह्वलाः ॥१५॥
अयं तु राजराजेन्द्रः पृथुः पृथुलविक्रमः ।
कथं वरो भवेन्नो वै तद्‌वद त्वं महामुने ॥१६॥

भगवान् श्रीहरि कहते हैं – वैकुण्ठ में विराजने वाली रमादेवी की सहचरियाँ, श्वेतद्वीपकी सखियाँ, भगवान् अजित (विष्णु) के चरणोंके आश्रित ऊर्ध्व वैकुण्ठमें निवास करनेवाली देवियाँ तथा श्रीलोकाचलपर्वतपर रहनेवाली, समुद्रसे प्रकटित श्रीलक्ष्मीकी सखियाँ - ये सभी भगवान् कमलापति के वरदानसे व्रजमें गोपियाँ होंगी । पूर्वकृत विविध पुण्योंके प्रभावसे कोई दिव्य, कोई अदिव्य और कोई सत्त्व, रज, तम - तीनों गुणोंसे युक्त देवियाँ व्रजमण्डलमें गोपियाँ होगीं ॥ १ - ३ ॥

रुचिके यहाँ पुत्ररूपसे अवतीर्ण, द्युलोकपति रुचिरविग्रह भगवान् यज्ञको देखकर देवाङ्गनाएँ प्रेम-रसमें निमग्न हो गयीं। तदनन्तर वे देवलजीके उपदेशसे हिमालय पर्वतपर जाकर परम भक्तिभावसे तपस्या करने लगीं। ब्रह्मन् ! वे सब मेरे व्रजमें जाकर गोपियाँ होंगी ।। ४-५ ॥

भगवान् धन्वन्तरि जब इस भूतलपर अन्तर्धान हुए, उस समय सम्पूर्ण ओषधियाँ अत्यन्त दुःखमें डूब गयीं और भारतवर्षमें अपनेको निष्फल मानने लगीं। फिर सबने सुन्दर स्त्रीका वेष धारण करके तपस्या आरम्भ की। चार युग व्यतीत होनेपर भगवान् श्रीहरि उनपर अत्यन्त प्रसन्न हुए और बोले— 'तुम सब वर माँगो ।' यह सुनकर स्त्रियोंने उस महान् वनमें जब आँखें खोलीं, तब उन श्रीहरिका दर्शन करके वे सब- की सब मोहित हो गयीं और बोलीं- 'आप हमारे पतितुल्य आराध्यदेव होनेकी कृपा करें' ॥ ६-८ ॥

भगवान् श्रीहरि बोले- ओषधिस्वरूपा स्त्रियो ! द्वापरके अन्तमें तुम सभी लतारूपसे वृन्दावनमें रहोगी और वहाँ रासमें मैं तुम्हारा मनोरथ पूर्ण करूँगा । ९ ॥

श्रीभगवान् कहते हैं - ब्रह्मन् ! भक्तिभावसे परिपूर्ण वे बड़भागिनी वराङ्गनाएँ वृन्दावनमें 'लता- गोपी' होंगी। इसी प्रकार जालंधर नगरकी स्त्रियाँ वृन्दापति भगवान् श्रीहरिका दर्शन करके मन-ही-मन संकल्प करने लगीं- 'ये साक्षात् श्रीहरि हम सबके स्वामी हों।' उस समय उनके लिये आकाशवाणी हुई - 'तुम सब शीघ्र ही रमापतिकी आराधना करो; फिर वृन्दाकी ही भाँति तुम भी वृन्दावनमें भगवान्‌की प्रिया गोपी होओगी।' मत्स्यावतारके समय मत्स्यविग्रह श्रीहरिको देखकर समुद्रकी कन्याएँ मुग्ध हो गयी थीं। श्रीमत्स्यभगवान्‌के वरदानसे वे भी व्रजमें गोपियाँ होंगी ॥। १० – १४ ॥

मेरे अंशभूत राजा पृथु बड़े प्रतापी थे । उन महाराजने सम्पूर्ण शत्रुओंको जीतकर पृथ्वीसे सारी अभीष्ट वस्तुओंका दोहन किया था। उस समय बर्हिष्मती नगरीमें रहनेवाली बहुत-सी स्त्रियाँ उन्हें देखकर मुग्ध हो गयीं और प्रेमसे विह्वल हो अनिजीके पास जाकर बोलीं- 'महामुने! समस्त राजाओंमें श्रेष्ठ महाराजा पृथु बड़े ही पराक्रमी हैं। ये किस प्रकारसे हमारे पति होंगे ? यह बतानेकी कृपा कीजिये ।। १५-१६ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध - नवां अध्याय..(पोस्ट..०८)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--नवाँ अध्याय..(पोस्ट ०८)

युधिष्ठिरादिका भीष्मजीके पास जाना और भगवान्‌ श्रीकृष्णकी स्तुति 
करते हुए भीष्मजीका प्राणत्याग करना

श्रीभीष्म उवाच ।

इति मतिरुपकल्पिता वितृष्णा
भगवति सात्वतपुङ्गवे विभूम्नि ।
स्वसुखमुपगते क्वचित् विहर्तुं
प्रकृतिमुपेयुषि यद्‍भवप्रवाहः ॥ ३२ ॥
त्रिभुवनकमनं तमालवर्णं
रविकरगौरवराम्बरं दधाने ।
वपुरलककुलावृत आननाब्जं
विजयसखे रतिरस्तु मेऽनवद्या ॥ ३३ ॥
युधि तुरगरजो विधूम्र विष्वक्
कचलुलितश्रमवारि अलङ्कृतास्ये ।
मम निशितशरैर्विभिद्यमान
त्वचि विलसत्कवचेऽस्तु कृष्ण आत्मा ॥ ३४ ॥

भीष्मजीने कहा—अब मृत्युके समय मैं अपनी यह बुद्धि, जो अनेक प्रकारके साधनोंका अनुष्ठान करनेसे अत्यन्त शुद्ध एवं कामनारहित हो गयी है, यदुवंश-शिरोमणि अनन्त भगवान्‌ श्रीकृष्णके चरणोंमें समर्पित करता हूँ, जो सदा-सर्वदा अपने आनन्दमय स्वरूपमें स्थित रहते हुए ही कभी विहार करनेकी—लीला करनेकी इच्छासे प्रकृतिको स्वीकार कर लेते हैं, जिससे यह सृष्टि परम्परा चलती है ॥ ३२ ॥ जिनका शरीर त्रिभुवन-सुन्दर एवं श्याम तमालके समान साँवला है, जिसपर सूर्य-रश्मियोंके समान श्रेष्ठ पीताम्बर लहराता रहता है और कमल-सदृश मुखपर घुँघराली अलकें लटकती रहती हैं, उन अर्जुन-सखा श्रीकृष्णमें मेरी निष्कपट प्रीति हो ॥ ३३ ॥ मुझे युद्धके समयकी उनकी वह विलक्षण छबि याद आती है। उनके मुखपर लहराते हुए घुँघराले बाल घोड़ोंकी टापकी धूलसे मटमैले हो गये थे और पसीनेकी छोटी-छोटी बूँदें शोभायमान हो रही थीं। मैं अपने तीखे बाणोंसे उनकी त्वचाको बींध रहा था। उन सुन्दर कवचमण्डित भगवान्‌ श्रीकृष्णके प्रति मेरा शरीर, अन्त:करण और आत्मा समर्पित हो जायँ ॥ ३४ ॥ 

शेष आगामी पोस्ट में --
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शनिवार, 30 मार्च 2024

श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) चौथा अध्याय (पोस्ट 04)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(गोलोकखण्ड)

चौथा अध्याय  (पोस्ट 04)

 

नन्द आदि के लक्षण; गोपीयूथ का परिचय; श्रुति आदि के गोपीभाव की प्राप्ति में कारणभूत पूर्वप्राप्त वरदानों का विवरण

 

वरं वृणीत मुनयः श्रीरामस्तानुवाच ह ।
यथा सीता तथा सर्वे भूयाःस्म इति वादिनः ॥५१॥


श्रीराम उवाच -
यथा हि लक्ष्मणो भ्राता तथा प्रार्थ्यो वरो यदि ।
अद्यैव सफलो भाव्यो भवद्‌भिर्मत्प्रसंगतः ॥५२॥
सीतोपमेयवाक्येन दुर्घटो दुर्लभो वरः ।
एकपत्‍नीव्रतोऽहं वै मर्यादापुरुषोत्तमः ॥५३॥
तस्मात्तु मद्‌वरेणापि द्वापरान्ते भविष्यथ ।
मनोरथं करिष्यामि भवतां वाञ्छितं परम् ॥५४॥
इति दत्त्वा वरं रामस्ततः पंचवटीं गतः ।
पर्णशाला समासाद्य वनवासं चकार ह ॥५५॥
तद्दर्शनस्मररुजः पुलिन्द्यः प्रेमविह्वलाः ।
श्रीमत्पादरजो धृत्वा प्राणांस्त्यक्तुं समुद्युताः ॥५६॥
ब्रह्मचारीवपुर्भूत्वा रामस्तत्र समागतः ।
उवाच प्राणसंत्यागं मा कुरुत स्त्रियो वृथा ॥५७॥
वृन्दावने द्वापरान्ते भविता वो मनोरथः ।
इत्युक्त्वा ब्रह्मचारी तु तत्रैवान्तरधीयत ॥५८॥
अथ रामो वानरेन्द्रै रावणादीन्निशाचरान् ।
जित्वा लङ्कामेत्य सीता पुष्पकेण पुरीं ययौ ॥५९॥
सीतां तत्त्याज राजेन्द्रो वने लोकापवादतः ।
अहो सतामपि भुवि भवनं भूरि दुःखदम् ॥६०॥
यदा यदाकरोद्यज्ञं रामो राजीवलोचनः ।
तदा तदा स्वर्णमयीं सीतां कृत्वा विधानतः ॥६१॥
यज्ञसीतासमूहोऽभून्मन्दिरे राघवस्य च ।
ताश्चैतन्यघना भूत्वा रन्तुं रामं समागताः ॥६२॥
ता आह राघवेशेन्द्रो नाहं गृह्णामि हे प्रियाः ।
तदोचुस्ताः प्रेमपरा रामं दशरथात्मजम् ॥६३॥
कथं चास्मान्न गृह्णासि भजन्तीर्मैथिलीः सतीः ।
अर्धाङ्गीर्यज्ञकालेषु सततं कार्यसाधनीः ॥६४॥
धर्मिष्ठस्त्वं श्रुतिधरोऽधर्मवद्‌भाषसे कथम् ।
करं गृहीत्वा त्यजसि ततः पापमवाप्यसि ॥६५॥


श्रीराम उवाच -
समीचीनं वचस्सत्यो युष्माभिर्गदितं च मे ।
एकपत्‍नीव्रतोऽहं हि राजर्षिः सीतयैकया ॥६६॥
तस्माद्‌यूयं द्वापरान्ते पुण्ये वृन्दावने वने ।
भविष्यथ करिष्यामि युष्माकं तु मनोरथम् ॥६७॥


श्रीभगवान् उवाच -
ता व्रजेऽपि भविष्यन्ति यज्ञसीताश्च गोपिकाः ।
अन्यासां चैव गोपीनां लक्षणं शृणु तद्विधे ॥६८॥

तब श्रीरामने कहा - 'मुनियो ! वर माँगो ।' यह सुनकर सभीने एक स्वरसे कहा- 'जिस भाँति सीता आपके प्रेमको प्राप्त हैं, वैसे ही हम भी चाहते हैं' ॥ ५१ ॥

श्रीराम बोले- यदि तुम्हारी ऐसी प्रार्थना हो कि जैसे भाई लक्ष्मण हैं, वैसे ही हम भी आपके भाई बन जायँ, तब तो आज ही मेरेद्वारा तुम्हारी अभिलाषा पूर्ण हो सकती है; किंतु तुमने तो 'सीता' के समान होनेका वर माँगा है। अतः यह वर महान् कठिन और दुर्लभ है; क्योंकि इस समय मैंने एकपत्नी व्रत धारण कर रखा है। मैं मर्यादा की रक्षा में तत्पर रहकर 'मर्यादापुरुषोत्तम' भी कहलाता हूँ। अतएव तुम्हें मेरे वरका आदर करके द्वापरके अन्तमें जन्म धारण करना होगा और वहीं मैं तुम्हारे इस उत्तम मनोरथको पूर्ण करूँगा ॥ ५२ - ५४ ॥

 

इस प्रकार वर देकर श्रीराम स्वयं पञ्चवटी पधारे। वहाँ पर्णकुटीमें रहकर वनवासकी अवधि पूरी करने लगे। उस समय भीलोंकी स्त्रियोंने उन्हें देखा । उनमें मिलनेकी उत्कट इच्छा उत्पन्न होनेके कारण वे प्रेमसे विह्वल हो गयीं । यहाँतक कि श्रीरामके चरणोंकी धूल मस्तकपर रखकर अपने प्राण छोड़नेकी तैयारी करने लगीं। उस समय श्रीराम ब्रह्मचारीके वेषमें वहाँ आये और इस प्रकार बोले- 'स्त्रियो ! तुम व्यर्थ ही प्राण त्यागना चाहती हो, ऐसा मत करो। द्वापरके शेष होनेपर वृन्दावनमें तुम्हारा मनोरथ पूर्ण होगा।' इस प्रकारका आदेश देकर श्रीरामका वह ब्रह्मचारी रूप वहीं अन्तर्हित हो गया ।। ५५ - ५८ ।।

तत्पश्चात् श्रीरामने सुग्रीव आदि प्रधान वानरोंकी सहायतासे लङ्कामें जाकर रावण प्रभृति राक्षसोंको परास्त किया। फिर सीताको पाकर पुष्पक विमान- द्वारा अयोध्या चले गये। राजाधिराज श्रीराम ने लोकापवाद के कारण सीता को वनमें छोड़ दिया । अहो ! भूमण्डलपर दुर्जनों का होना बहुत ही दुःखदायी है ।। ५९-६० ।।

जब-जब कमललोचन श्रीराम यज्ञ करते थे, तब-तब विधिपूर्वक सुवर्णमयी सीता की प्रतिमा बनायी जाती थी । इसलिये श्रीराम-भवन में यज्ञ-सीताओंका एक समूह ही एकत्र हो गया। वे सभी दिव्य चैतन्य- घनस्वरूपा होकर श्रीराम के पास गयीं ।। ६१-६२ ।।

उस समय श्रीराम ने उनसे कहा- 'प्रियाओ ! मैं तुम्हें स्वीकार नहीं कर सकता।' वे सभी प्रेमपरायणा सीता-मूर्तियाँ दशरथनन्दन श्रीराम से कहने लगी- 'ऐसा क्यों ? हम तो आपकी सेवा करनेवाली हैं। हमारा नाम भी मिथिलेशकुमारी सीता है और हम उत्तम व्रत का आचरण करनेवाली सतियाँ भी हैं; फिर हमें आप ग्रहण क्यों नहीं करते ? यज्ञ करते समय हम आपकी अर्धाङ्गनी बनकर निरन्तर कार्यों का संचालन करती रही ।। ६३-६४ ।।

आप धर्मात्मा और वेद के मार्ग का अवलम्बन करनेवाले हैं, यह अधर्मपूर्ण बात आपके श्रीमुख से कैसे निकल रही है ? यदि आप स्त्रीका हाथ पकड़- कर उसे त्यागते हैं तो आपको पाप का भागी होना पड़ेगा ।। ६५ ॥

श्रीराम बोले- सतियो ! तुमने मुझसे जो बात कही है, वह बहुत ही उचित और सत्य है। परंतु मैंने 'एकपत्नीव्रत' धारण कर रखा है ? सभी लोग मुझे 'राजर्षि' कहते हैं। अतः नियम को छोड़ भी नहीं सकता। एकमात्र सीता ही मेरी सहधर्मिणी है। इसलिये तुम सभी द्वापर के अन्त में श्रेष्ठ वृन्दावन में पधारना, वहीं तुम्हारी मनःकामना पूर्ण करूँगा ।। ६६-६७ ॥

भगवान् श्रीहरिने कहा- ब्रह्मन् ! वे यज्ञ-सीता ही व्रज में गोपियाँ होंगी । अन्य गोपियोंका भी लक्षण सुनो ॥ ६८ ॥

 

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें गोलोकखण्डके अन्तर्गत भगवद् ब्रह्म-संवादमें 'अवतारके उद्योगविषयक प्रश्नका वर्णन' नामक चौथा अध्याय पूरा हुआ ॥ ४ ॥

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध - नवां अध्याय..(पोस्ट..०७)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--नवाँ अध्याय..(पोस्ट ०७)

युधिष्ठिरादिका भीष्मजीके पास जाना और भगवान्‌ श्रीकृष्णकी स्तुति 
करते हुए भीष्मजीका प्राणत्याग करना

धर्मं प्रवदतस्तस्य स कालः प्रत्युपस्थितः ।
यो योगिनः छन्दमृत्योः वाञ्छितस्तु उत्तरायणः ॥ २९ ॥
तदोपसंहृत्य गिरः सहस्रणीः
विमुक्तसङ्गं मन आदिपूरुषे ।
कृष्णे लसत्पीतपटे चतुर्भुजे
पुरः स्थितेऽमीलित दृग् व्यधारयत् ॥ ३० ॥
विशुद्धया धारणया हताशुभः
तदीक्षयैवाशु गतायुधश्रमः ।
निवृत्त सर्वेन्द्रिय वृत्ति विभ्रमः
तुष्टाव जन्यं विसृजन् जनार्दनम् ॥ ३१ ॥

भीष्मपितामह इस प्रकार धर्मका प्रवचन कर ही रहे थे कि वह उत्तरायणका समय आ पहुँचा, जिसे मृत्युको अपने अधीन रखनेवाले भगवत्परायण योगीलोग चाहा करते हैं ॥ २९ ॥ उस समय हजारों रथियोंके नेता भीष्मपितामह ने वाणी का संयम करके मनको सब ओर से हटाकर अपने सामने स्थित आदिपुरुष भगवान्‌ श्रीकृष्ण में लगा दिया। भगवान्‌ श्रीकृष्णके सुन्दर चतुर्भुज विग्रहपर उस समय पीताम्बर फहरा रहा था। भीष्मजीकी आँखें उसीपर एकटक लग गयीं ॥ ३० ॥ उनको शस्त्रोंकी चोटसे जो पीड़ा हो रही थी, वह तो भगवान्‌के दर्शनमात्रसे ही तुरन्त दूर हो गयी तथा भगवान्‌ की विशुद्ध धारणासे उनके जो कुछ अशुभ शेष थे, वे सभी नष्ट हो गये। अब शरीर छोडऩेके समय उन्होंने अपनी समस्त इन्द्रियोंके वृत्ति-विलासको रोक दिया और बड़े प्रेमसे भगवान्‌ की स्तुति की ॥ ३१ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-छठा अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - छठा अध्याय..(पोस्ट०२) विराट् शरीर की उत्पत्ति हिरण्मयः स पुरुषः सहस्रपरिवत्सर...