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सोमवार, 8 अप्रैल 2024
श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध दसवां अध्याय..(पोस्ट..०३)
रविवार, 7 अप्रैल 2024
श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) सातवाँ अध्याय (पोस्ट 02)
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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(गोलोकखण्ड)
सातवाँ
अध्याय (पोस्ट 02)
कंसकी
दिग्विजय - शम्बर, व्योमासुर, बाणासुर, वत्सासुर, कालयवन तथा
देवताओंकी पराजय
श्रीनारद
उवाच -
इत्युक्त्वा सौहृदं हृद्यं सद्यो वै कंसबाणयोः ।
चकार परया शान्त्या शिवः साक्षान्महेश्वरः ॥१४॥
अथ कंसो दिक्प्रतीच्यां श्रुत्वा वत्सं महासुरम् ।
तेन सार्द्धं स युयुधे वत्सरूपेण दैत्यराट् ॥१५॥
पुच्छे गृहीत्वा तं वत्सं पोथयामास भूतले ।
वशे कृत्वाथ तं शैलं म्लेच्छदेशांस्ततो ययौ ॥१६॥
मन्मुखात्कालयवनः श्रुत्वा दैत्यं महाबलम् ।
निर्ययौ संमुखे योद्धुं रक्तश्मश्रुर्गदाधरः ॥१७॥
कंसो गदां गृहीत्वा स्वां लक्षभारविनिर्मिताम् ।
प्राक्षिपद्यवनेन्द्राय सिंहनादमथाकरोत् ॥१८॥
गदायुद्धमभूद्घोरं तदा हि कंसकालयोः ।
विस्फुलिंगान् क्षरंत्यौ द्वे गदे चूर्णीबभूवतुः ॥१९॥
कंसः कालं संगृहीत्वा पातयामास भूतले ।
पुनर्गृहीत्वा निष्पात्य मृततुल्यं चकार ह ॥२०॥
बाणवर्षं प्रकुर्वन्तीं सेनां तां यवनस्य च ।
गदया पोथयामास कंसो दैत्याधिपो बली ॥२१॥
गजांस्तुरगान्सुरथान्वीरान् भूमौ निपात्य च ।
जगर्ज घनवद्वीरो गदायुद्धे मृधाङ्गणे ॥२२॥
ततश्च दुद्रुवुर्म्लेच्छास्त्यक्त्वा स्वं स्वं रणं परम् ।
भीतान् पलायितान् म्लेच्छान्न जघानाथ नीतिमान् ॥२३॥
उच्चपादो दीर्घजानुः स्तंभोरुर्लघिमा कटिः ।
कपाटवक्षाः पीनांसः पुष्टः प्रांशुर्बृहद्भुजः ॥२४॥
पद्मनेत्रो बृहत्केशोऽरुणवर्णोऽसिताम्बरः ।
किरीटी कुंडली हारी पद्ममाली लयार्करुक् ॥२५॥
खड्गी निषंगी कवची मुद्गराढ्यो धनुर्धरः ।
मदोत्कटो ययौ जेतुं देवान्कंसोऽमरावतीम् ॥२६॥
चाणूरमुष्टिकारिष्टशलतोशलकेशिभिः ।
प्रलंबेन बकेनापि द्विविदेन समावृतः ॥२७॥
तृणावर्त्ताघकूटैश्च भौमबाणाख्यशंबरैः ।
व्योमधेनुकवत्सैश्च रुरुधे सोऽमरावतीम् ॥२८॥
श्रीनारदजी
कहते हैं- राजन् ! यों कहकर साक्षात् महेश्वर शिवने कंस और बाणासुरमें तत्काल बड़ी
शान्तिके साथ मनोरम सौहार्द स्थापित कर दिया। तदनन्तर पश्चिम दिशामें महासुर
वत्सका नाम सुनकर कंस वहाँ गया । उस दैत्यराजने बछड़ेका रूप धारण करके कंसके साथ
युद्ध छेड़ दिया। कंसने उस बछड़े की पूँछ पकड़ ली और उसे पृथ्वीपर दे मारा। इसके
बाद उसके निवासभूत पर्वतको अपने अधिकारमें करके कंसने म्लेच्छ देशोंपर धावा किया।
मेरे मुखसे महाबली दैत्य कंसके आक्रमणका समाचार सुनकर कालयवन उसका सामना करनेके
लिये निकला। उसकी दाढ़ी-मूँछका रंग लाल था और उसने हाथमें गदा ले रखी थी। कंसने भी
लाख भार लोहेकी बनी हुई अपनी गदा लेकर यवनराजपर चलायी और सिंहके समान गर्जना की।
उस समय कंस और कालयवनमें बड़ा भयानक गदा-युद्ध हुआ। दोनोंकी गदाओंसे आगकी
चिनगारियाँ बरस रही थीं। वे दोनों गदाएँ परस्पर टकराकर चूर-चूर हो गयीं। तब कंसने
कालयवनको पकड़कर उसे धरतीपर दे मारा और पुनः उठाकर उसे पटक दिया । इस तरह उसने उस
यवनको मृतक तुल्य बना दिया। यह देख कालयवनकी सेना कंसपर बाणोंकी वर्षा करने लगी।
तब बलवान् दैत्यराज कंसने गदाकी मारसे उस सेनाका कचूमर निकाल दिया । बहुत-से हाथियों,
घोड़ों, उत्तम रथों और वीरोंको धराशायी करके
गदा-युद्ध करनेवाला वीर कंस समराङ्गणमें मेघके समान गर्जना करने लगा ।। १४–२२ ॥
फिर
तो सारे म्लेच्छ सैनिक रणभूमि छोड़कर भाग निकले । कंस बड़ा नीतिज्ञ था;
उसने भयभीत होकर भागते हुए म्लेच्छोंपर आघात नहीं किया। कंसके पैर
ऊँचे थे, दोनों घुटने बड़े थे, जाँघें
खंभोंके समान जान पड़ती थीं। उसका कटिप्रदेश पतला, वक्षःस्थल
किवाड़ोंके समान चौड़ा और कंधे मोटे थे। उसका शरीर हृष्ट-पुष्ट, कद ऊँचा और भुजाएँ विशाल थीं। नेत्र प्रफुल्ल कमलके समान प्रतीत होते थे।
सिरके बाल बड़े-बड़े थे, देहकी कान्ति अरुण थी। उसके
अङ्गोंपर काले रंगका वस्त्र सुशोभित था । मस्तकपर किरीट, कानोंमें
कुण्डल, गलेमें हार और वक्षपर कमलोंकी माला शोभा दे रही थी।
वह प्रलयकालके सूर्यकी भाँति तेजस्वी जान पड़ता था । खड्ग, तूणीर,
कवच और मुद्गर आदिसे सम्पन्न धनुर्धर एवं मदमत्त वीर कंस देवताओंको
जीतनेके लिये अमरावती पुरीपर जा चढ़ा। चाणूर, मुष्टिक,
अरिष्ट, शल, तोशल,
केशी, प्रलम्ब, वक,
द्विविद, तृणावर्त, अघासुर,
कूट, भौम, बाण, शम्बर, व्योम, धेनुक और वत्स
नामक असुरों के साथ कंस ने अमरावतीपुरी पर चारों ओर से घेरा डाल दिया ।। २३-२८ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध दसवां अध्याय..(पोस्ट..०२)
शनिवार, 6 अप्रैल 2024
श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) सातवाँ अध्याय (पोस्ट 01)
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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(गोलोकखण्ड)
सातवाँ
अध्याय (पोस्ट 01)
कंसकी
दिग्विजय - शम्बर, व्योमासुर, बाणासुर, वत्सासुर, कालयवन तथा
देवताओंकी पराजय
अथ
कंसः प्रलंबाद्यैरन्यैः पूर्वं जितैश्च तैः ।
शंबरस्य पुरं प्रागात्स्वाभिप्रायं न्यवेदयत् ॥१॥
शंबरो ह्यतिवीर्योऽपि न युयोध स तेन वै ।
चकार सौहृदं कंसे सर्वैरतिबलैः सह ॥२॥
त्रिशृङ्गशिखरे शेते व्योमो नामाऽसुरो बली ।
कंसपादप्रबुद्धोऽभूत्क्रोधसंरक्तलोचनः ॥३॥
कंसं जघान चोत्थाय प्रबलैर्दृढमुष्टिभिः ।
तयोर्युद्धमभूद्घोरमितरेतरमुष्टिभिः ॥४॥
कंसस्य मुष्टिभिः सोऽपि निःसत्त्वोऽभूद्भ्रमातुरः ।
भृत्यं कृत्वाथ तं कसः प्राप्तं मां प्रणनाम ह ॥५॥
हे देव युद्धकांक्षोऽस्मि क्व यामि त्वं वदाशु मे ।
प्रोवाच तं तदा गच्छ दैत्य बाणं महाबलम् ॥६॥
प्रेरितश्चेति कंसाख्यो मया युद्धदिदृक्षुणा ।
भुजवीर्यमदोन्नद्धः शोणिताख्यं पुरं ययौ ॥७॥
बाणासुरस्तत्प्रतिज्ञां श्रुत्वा क्रुद्धो ह्यभून्महान् ।
तताड लत्तां भूमध्ये जगर्ज घनवद्बली ॥८॥
आजानुभूमिगां लत्तां पातालांतमुपागताम् ।
कृत्वा तमाह बाणस्तु पूर्वं चैनां समुद्धर ॥९॥
श्रृत्वा वचः कराभ्यां तामुज्जहार मदोत्कटः ।
प्रचंडविक्रमः कंसः खरदण्डं गजौ यथा ॥१०॥
तया चोद्धृतयोत्खाता लोकाः सप्ततला दृढाः ।
निपेतुर्गिरयोऽनेका विचेलुर्दृढदिग्गजाः ॥११॥
योद्धुं तमुद्यतं बाणं दृष्ट्वाऽऽगत्य वृषध्वजः ।
सर्वान्संबोधयामास प्रोवाच बलिनन्दनम् ॥१२॥
कृष्णं विनापरं चैनं भूमौ कोऽपि न जेष्यति ।
भार्गवेण वरं दत्तं धनुरस्मै च वैष्णवम् ॥१३॥
श्रीनारदजी
कहते हैं-राजन् ! तदनन्तर कंस पहलेके जीते हुए प्रलम्ब आदि अन्य दैत्योंके साथ
शम्बरासुरके नगर में गया। वहाँ उसने अपना युद्ध- विषयक अभिप्राय कह सुनाया।
शम्बरासुरने अत्यन्त पराक्रमी होनेपर भी कंसके साथ युद्ध नहीं किया । कंसने उन सभी
अत्यन्त बलशाली असुरोंके साथ मैत्री स्थापित कर ली । त्रिकूट पर्वतके शिखरपर
व्योमनामक एक बलवान् असुर सो रहा था। कंसने वहाँ पहुँचकर उसके ऊपर लात चलायी। उसके
प्रहारसे व्योमासुरकी निद्रा टूट गयी और उसने उठकर सुदृढ बँधे हुए जोरदार
मुक्कोंसे कंसपर आघात किया। उस समय उसके नेत्र क्रोधसे लाल हो रहे थे। कंस और
व्योमासुरमें भयंकर युद्ध छिड़ गया। वे दोनों एक-दूसरेको मुक्कोंसे मारने लगे।
कंसके मुक्कोंकी मारसे व्योमासुर अपनी शक्ति और उत्साह खो बैठा। उसको चक्कर आने
लगा। यह देख कंसने उसको अपना सेवक बना लिया। उसी समय मैं (नारद) वहाँ जा पहुँचा।
कंसने मुझे प्रणाम किया और पूछा - 'हे
देव ! मेरी युद्धविषयक आकाङ्क्षा अभी पूरी नहीं हुई है। मुझे शीघ्र बताइये,
अब मैं कहाँ, किसके पास जाऊँ ?' तब मैंने उससे कहा- 'तुम महाबली दैत्य बाणासुरके पास
जाओ।' मुझे तो युद्ध देखनेका चाव रहता ही है। मेरी इस
प्रकारकी प्रेरणासे प्रेरित हो बाहुबलके मदसे उन्मत्त रहनेवाला कंस शोणितपुर गया ।
।। १–७ ॥
कंसकी
युद्धविषयक प्रतिज्ञाको सुनकर महाबली बाणासुर अत्यन्त कुपित हो उठा। उसने मेघके
समान गम्भीर गर्जना करके पृथ्वीपर बड़े जोरसे लात मारी । उसका वह पैर घुटनेतक
धरतीमें धँस गया और पातालके निकटतक जा पहुँचा। ऐसा करके बाणने कंससे कहा – 'पहले मेरे इस पैरको तो उठाओ !' उसकी यह बात सुनकर
मदोन्मत्त कंसने दोनों हाथोंसे उसके पैरको उखाड़कर ऊपर कर दिया। उसका पराक्रम बड़ा
प्रचण्ड था। जैसे हाथी गड़े हुए कठोर दण्ड या खंभे को अनायास ही उखाड़ लेता है,
उसी प्रकार कंसने बाणासुरके पैरको खींचकर ऊपर कर दिया। उसके पैरके
उखड़ते ही पृथ्वीतलके लोक और सातों पाताल हिल उठे, अनेक
पर्वत धराशायी हो गये और सुदृढ़ दिग्गज भी अपने स्थानसे विचलित हो उठे। अब बाणासुर
को युद्ध के लिये उद्यत हुआ देख भगवान् शंकर स्वयं वहाँ आ गये और सबको समझा-
बुझाकर युद्ध से रोक दिया। फिर उन्होंने बलिनन्दन बाणसे कहा – 'दैत्यराज ! भगवान् श्रीकृष्णको छोड़कर भूतलपर दूसरा कोई ऐसा वीर नहीं है,
जो युद्धमें इसे जीत सकेगा। परशुरामजीने इसे ऐसा ही वर दिया है और
अपना वैष्णव धनुष भी अर्पित कर दिया है ॥ ८-१३ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध दसवां अध्याय..(पोस्ट..०१)
शुक्रवार, 5 अप्रैल 2024
श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) छठा अध्याय (पोस्ट 04)
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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(गोलोकखण्ड)
छठा
अध्याय (पोस्ट 04)
कालनेमि
के अंश से उत्पन्न कंस के महान् बल-पराक्रम और दिग्विजय का वर्णन
श्रीनारद
उवाच -
अथ नत्वा मुनिं कंसो विचरन्स मदोन्मदः ।
न केऽपि युयुधुस्तेन राजानश्च बलिं ददुः ॥४४॥
समुद्रस्य तटे कंसो दैत्यं नाम्ना ह्यघासुरम् ।
सर्पाकारं च फीत्कारैर्लेलिहानं ददर्श ह ॥४५॥
आगच्छन्तं दशन्तं च गृहीत्वा तं निपात्य सः ।
चकार स्वगले हारं निर्भयो दैत्यराड् बली ॥४६॥
प्राच्यां तु बंगदेशेषु दैत्योऽरिष्टो महावृषः ।
तेन सार्द्धं स युयुधे गजेनापि गजो यथा ॥४७॥
शृङ्गाभ्यां पर्वतानुच्चांश्चिक्षेप कंसमूर्द्धनि ।
कंसो गिरिं संगृहीत्वा चाक्षिपत्तस्य मस्तके ॥४८॥
जघान मुष्टिनारिष्टं कंसो वै दैत्यपुंगवः ।
मूर्च्छितं तं विनिर्जित्य तेनोदीचीं दिशं गतः ॥४९॥
प्राग्ज्योतिषेश्वरं भौमं नरकाख्यं महाबलम् ।
उवाच कंसो युद्धार्थी युद्धं मे देहि दैत्यराट् ॥५०॥
अहं दासो भवेयं वो भवन्तो जयिनो यदि ।
अहं जयो चेद्भवतो दासान्सर्वान्करोम्यहम् ॥५१॥
श्रीनारद उवाच -
पूर्वं प्रलंबो युयुधे कंसेनापि महाबलः ।
मृगेन्द्रेण मृगेन्द्रोऽद्रावुद्भटेन यथोद्भटः ॥५२॥
मल्लयुद्धे गृहीत्वा तं कंसो भूमौ निपात्य च ।
पुनर्गृहीत्वा चिक्षेप प्राग्ज्योतिषपुरं प्रति ॥५३॥
आगतो धेनुको नाम्ना कंसं जग्राह रोषतः ।
नोदयामास दूरेण बलं कृत्वाऽथ दारुणम् ॥५४॥
कंसस्तं नोदयामास धेनुकं शतयोजनम् ।
निपात्य चूर्णयामास तदङ्गं मुष्टिभिर्दृढैः ॥५५॥
तृणावर्तो भौमवाक्यात्कंसं नीत्वा नभो गतः ।
तत्रैव युयुधे दैत्य ऊर्ध्वं वै लक्षयोजनम् ॥५६॥
कंसोऽनन्तबलं कृत्वा दैत्यं नीत्वा तदाम्बरात् ।
भूमौ स पातयामास बमन्तं रुधिरं मुखात् ॥५७॥
तुण्डेनाथ ग्रसन्तं च बकं दैत्यं महाबलम् ।
कंसो निपातयामास मुष्टिना वज्रघातिना ॥५८॥
उत्थाय दैत्यो बलवान् सितपक्षो घनस्वनः ।
क्रोधयुक्तः समुत्पत्य तीक्ष्णतुण्डोऽग्रसच्च तम् ॥५९॥
निगीर्णोऽपि स वज्राङ्गो तद्गले रोधकृच्च यः ।
सद्यश्चच्छर्द तं कंसं क्षतकण्ठो महाबकः ॥६०॥
कंसो बकं संगृहीत्वा पातयित्वा महीतले ।
कराभ्यां भ्रामयित्वा च युद्धे तं विचकर्ष ह ॥६१॥
तत्स्वसारं पूतनाख्यां योद्धुकमामवस्थिताम् ।
तामाह कंसः प्रहसन्वाक्यं मे शृणु पूतने ॥६२॥
स्त्रिया सार्धमहं युद्धं न करोमि कदाचन ।
बकासुरः स्यान्मे भ्राता त्वं च मे भगिनी भव ॥६३॥
ततोऽनन्तबलं कंसं वीक्ष्य भौमोऽपि धर्षितः ।
चकार सौहृदं कंसे साहाय्यार्थं सुरान्प्रति ॥६४॥
श्रीनारदजी
कहते हैं—राजन् ! तदनन्तर बल के मदसे उन्मत्त रहनेवाला कंस मुनिवर परशुरामजीको
प्रणाम करके भूतलपर विचरने लगा। किन्हीं राजाओंने उसके साथ युद्ध नहीं किया— सबने
उसे कर देना स्वीकार कर लिया। अब कंस समुद्रके तटपर गया। वहाँ 'अघासुर' नामक एक दानव रहता था, जो सर्प के आकार का था। वह फुफकारता और लपलपाती जीभ से चाटता-सा दिखायी
देता था। वह आकर कंस- को डँसने लगा। यह देख पराक्रमी दैत्यराजने निर्भयतापूर्वक
उसे पकड़ा और धरतीपर पटक दिया। फिर उसे अपने गलेकी माला बना लिया ॥ ४४-४६ ॥
उन
दिनों पूर्वदिशावर्ती बंगदेशमें 'अरिष्ट' नामक दैत्य रहता था, जिसकी आकृति बैलके समान थी। उस
दैत्यके साथ कंस इस प्रकार जा भिड़ा जैसे एक हाथीके साथ दूसरा हाथी लड़ता है। वह
दानव अपनी सींगोंसे बड़े-बड़े पर्वतोंको उठाता और कंसके मस्तकपर पटक देता था। कंस
भी उसी पर्वत को हाथ में लेकर अरिष्टासुर पर दे मारता था। उस युद्धमें दैत्यराज
कंसने मुक्केसे अरिष्टासुरपर प्रहार किया, जिससे वह दानव
मूर्च्छित हो गया। इस प्रकार उस अरिष्टासुर को पराजित करके उसके साथ ही कंस उत्तर
दिशाकी ओर चल दिया।
प्राग्ज्योतिषपुर
के स्वामी महाबली भूमिपुत्र 'नरक' के पास जाकर युद्धार्थी कंस ने उससे कहा-- 'दैत्येश्वर
! तुम मुझे युद्ध करने का अवसर दो । यदि संग्राम में तुम्हारी जीत हो गयी तो मैं
तुम्हारा सेवक बन जाऊँगा । साथ ही मुझे विजय प्राप्त होनेपर तुम सबको मेरा भृत्य
बनना पड़ेगा ।। ४७–५१ ॥
श्रीनारदजी
कहते हैं- राजन् ! प्राग्ज्योतिषपुर में सर्वप्रथम महापराक्रमी प्रलम्बासुर कंस के
साथ इस प्रकार युद्ध करने लगा, जैसे किसी
पर्वतपर एक उद्भट सिंह के साथ दूसरा उद्भट सिंह लड़ता हो । कंस ने उस मल्लयुद्ध में
प्रलम्बासुर को पकड़ा और पृथ्वी पर दे मारा। फिर उसे उठाकर प्राग्ज्योतिषपुर के
स्वामी भौमासुर के पास फेंक दिया। तदनन्तर 'धेनुक' नाम से विख्यात दानव ने आकर कंस को रोषपूर्वक पकड़ लिया। उसने दारुण बल का
प्रयोग करके कंस को दूर तक पीछे हटा दिया। तब कंस ने भी धेनुकासुर को बहुत दूर
पीछे ढकेल दिया और सुदृढ़ घूँसों से मारकर उसके शरीर को चूर-चूर कर दिया । तदनन्तर
भौमासुर- की आज्ञा से 'तृणावर्त' कंस को
पकड़कर लाख योजन ऊपर आकाश में ले गया और वहीं युद्ध करने लगा ॥ ५२-५६ ॥
कंस
ने अपनी अनन्त शक्ति लगाकर बलपूर्वक उस दैत्य को आकाश से खींचकर पृथ्वीपर पटक दिया
। उस समय तृणावर्त के मुँह से खून की धार बह चली । इसके बाद महाबली 'बकासुर' आकर अपनी चोंचसे कंसको निगल जानेकी चेष्टा
करने लगा। कंसने वज्रके समान कठोर मुक्केसे प्रहार करके उसे भी धराशायी कर दिया।
बलवान् बकासुर फिर उठ गया । उसके पंख सफेद थे। वह मेघके समान गम्भीर गर्जना करता
था । क्रोधपूर्वक उड़कर तीखी चोंचवाले उस बकासुरने कंसको निगल लिया ॥ ५७-५९ ॥
कंस
का शरीर वज्र की भाँति कठोर था । निगले जानेपर उसने उस दानवके गलेकी नलीको रूँध
दिया। फिर महान् बली बकासुरने कण्ठ छिद जानेके कारण कंसको मुँहसे बाहर उगल दिया ।
तदनन्तर कंसने उस दैत्यको पकड़कर जमीनपर पटका और दोनों हाथोंसे घुमाता हुआ उसे वह
युद्धभूमि में घसीटने लगा। बकासुर की एक बहन थी । उसका नाम था- 'पूतना' । वह भी युद्ध करने के लिये उद्यत हो गयी।
उसे उपस्थित देखकर कंसने हँसते हुए कहा – 'पूतने ! मेरी बात
सुन लो। तुम स्त्री हो, मैं तुम्हारे साथ कभी भी लड़ नहीं
सकता। अब यह बकासुर मेरा भाई और तुम बहन होकर रहो' ॥ तदनन्तर
महान् पराक्रमी कंसको देखकर भौमासुरने भी पराजय स्वीकार कर ली। फिर देवताओंसे
युद्ध करनेके समय सहायता प्रदान करनेके लिये वह कंसके साथ सौहार्दपूर्ण बर्ताव
करने लगा ।। ६० - ६४ ॥
इस
प्रकार श्रीगर्गसंहितामें गोलोकखण्डके अन्तर्गत नारद- बहुलाश्व-संवाद में 'कंसके बलका
वर्णन'
नामक छठा अध्याय पूरा हुआ ॥ ६ ॥
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा
प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260
से
श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध - नवां अध्याय..(पोस्ट..१२)
गुरुवार, 4 अप्रैल 2024
श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) छठा अध्याय (पोस्ट 03)
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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(गोलोकखण्ड)
छठा
अध्याय (पोस्ट 03)
कालनेमि
के अंश से उत्पन्न कंस के महान् बल-पराक्रम और दिग्विजय का वर्णन
शतवारं
चोज्जहार गिरिमुत्पाट्य दैत्यराट् ।
पुनस्तत्र स्थितं रामं क्रोधसंरक्तलोचनम् ॥३२॥
प्रलयार्कप्रभं दृष्ट्वा ननाम शिरसा मुनिम् ।
पुनः प्रदक्षिणीकृत्य तदंघ्र्योर्निपपात ह ॥३३॥
ततः शान्तो भार्गवोऽपि कंसं प्राह महोग्रदृक् ।
हे कीटमर्कटीडिंभ तुच्छोऽसि मशको यथा ॥३४॥
अद्यैव त्वां हन्मि दुष्ट क्षत्रियं वीर्यमानिनम् ।
मत्समीपे धनुरिदं लक्षभारसमं महत् ॥३५॥
इदं च विष्णुना दत्तं शंभवे त्रैपुरे युधि ।
शंभोः करादिह प्राप्तं क्षत्रियाणां वधाय च ॥३६॥
यदि चेदं तनोषि त्वं तदा च कुशलं भवेत् ।
चेदस्य कर्षणं न स्याद्घातयिष्यामि ते बलम् ॥३७॥
श्रुत्वा वचस्तदा दैत्यः कोदण्डं सप्ततालकम् ।
गृहीत्वा पश्यतस्तस्य सज्जं कृत्वाथ लीलया ॥३८॥
आकृष्य कर्णपर्यंतं शतवारं ततान ह ।
प्रत्यञ्चास्फोटनेनैव टङ्कारोऽभूत्तडित्स्वनः ॥३९॥
ननाद तेन ब्रह्माण्डं सप्त लोकैर्बिलैः सह ।
विचेलुर्दिग्गजास्तारा ह्यपतन् भूमिमंडले ॥४०॥
धनुः संस्थाप्य तत्कंसो नत्वा नत्वाह भार्गवम् ।
हे देव क्षत्रियो नास्मि दैत्योऽहं ते च किंकरः ॥४१॥
तव दासस्य दासोऽहं पाहि मां पुरुषोत्तम ।
श्रुत्वा प्रसन्नः श्रीरामस्तस्मै प्रादाद्धनुश्च तत् ॥४२॥
श्रीजामदग्न्य उवाच -
यत्कोदण्डं वैष्णवं तद्येन भंगीभविष्यति ।
परिपूर्णतमो नात्र सोऽपि त्वां घातयिष्यति ॥४३॥
दानवराज
कंस ने उस पर्वत को सौ बार उखाड़कर ऊपर को उठा लिया। फिर वहाँ रहनेवाले मुनिवर
परशुरामजी के, जिनके नेत्र क्रोधसे लाल थे और जो
प्रलयकाल के सूर्य की भाँति तेजस्वी थे, चरणों में मस्तक
झुकाया और बार-बार उनकी प्रदक्षिणा की। फिर उनके दोनों चरणोंमें वह लेट गया। तब
अत्यन्त उग्र दृष्टिवाले परशुरामजीकी क्रोधाग्नि शान्त हो गयी। वे बोले- रे कीट !
रे बँदरिया के बच्चे ! तू मच्छर के समान तुच्छ है। तू बलके घमंड में चूर रहनेवाला
दुष्ट क्षत्रिय है । मैं आज ही तुझे मौतके मुखमें भेजता हूँ। देख, मेरे पास यह महान् धनुष है। इसकी गुरुता लाख भार (लगभग तीन लाख मन) के
बराबर है ॥ ३२-३५ ॥
त्रिपुरासुर-
से युद्ध के समय भगवान् विष्णु ने यह धनुष भगवान् शंकर को दिया था । फिर
क्षत्रियों का विनाश करने के लिये यह शंकरजी के हाथ से मुझे प्राप्त हुआ । यदि तू
इसे चढ़ा सका, तब तो कुशल है; यदि नहीं चढ़ा सका तो तेरे सारे बल का विनाश कर दूँगा ' ॥ ३६-३७ ॥
परशुराम
जी की बात सुनकर कंस ने उस धनुष को, जो
सात ताड़ के बराबर लंबा था, उठा लिया और परशुरामजी के
देखते-देखते उसे लीलापूर्वक चढ़ा दिया। फिर कान तक
खींच-खींचकर
उसे सौ बार फैलाया। उसकी प्रत्यञ्चा- के खींचने से बिजली की गड़गड़ाहट के समान
टंकार शब्द होने लगा । उसकी भीषण ध्वनि से सातों लोकों और पातालोंके साथ पूरा
ब्रह्माण्ड गूँज उठा, दिग्गज विचलित हो गये
और तारागण टूट-टूटकर जमीन पर गिरने लगे। फिर कंस ने धनुष को नीचे रख दिया और
परशुराम जी को बारंबार प्रणाम करके कहा- 'भगवन्! मैं
क्षत्रिय नहीं हूँ। मैं आपका सेवक दैत्य हूँ । आपके दासोंका दास हूँ। पुरुषोत्तम !
मेरी रक्षा कीजिये।' कंसकी ऐसी प्रार्थना सुनकर परशुरामजी
प्रसन्न हो गये। फिर वह धनुष उन्होंने कंसको ही दे दिया ।। ३८-४२ ॥
परशुरामजी
ने कहा- यह धनुष भगवान् विष्णुका है। इसे जो तोड़ देगा,
वहीं यहाँ साक्षात् परिपूर्णतम पुरुष है । उसी के हाथ से तुम्हारी
मृत्यु होगी ॥ ४३ ॥
शेष
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श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध - नवां अध्याय..(पोस्ट..११)
बुधवार, 3 अप्रैल 2024
श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) छठा अध्याय (पोस्ट 02)
श्रीगर्ग-संहिता
(गोलोकखण्ड)
छठा अध्याय (पोस्ट 02)
कालनेमि के अंश से उत्पन्न कंस के
महान् बल-पराक्रम और दिग्विजय का वर्णन
द्वंद्वयोधी
ततः कंसो भुजवीर्यमदोद्धतः ।
माहिष्मतीं ययौ वीरोऽथैकाकी चण्डविक्रमः ॥१६॥
चाणूरो मुष्टिकः कूटः शलस्तोशलकस्तथा ।
माहिष्मतीपतेः पुत्रा मल्ला युद्धजयैषिणः ॥१७॥
कंसस्तानाह साम्नापि दीयध्वं रंगमेव हे ।
अहं दासो भवेयं वो भवंतो जयिनो यदि ॥१८॥
अहं जयी चेद्भवतो दासान्सर्वान्करोम्यहम् ।
सर्वेषां पश्यतां तेषां नागराणां महात्मनाम् ॥१९॥
इति प्रतिज्ञां कृत्वाथ युयुधे तैर्जयैषिभिः ।
यदागतं स चाणूरं गृहीत्वा यादवेश्वरः ॥२०॥
भूपृष्ठे पोथयामास शब्दमुच्चैः समुच्चरन् ।
तदाऽऽयान्तं मुष्टिकाख्यं मुष्टिभिर्युधि निर्गतम् ॥२१॥
एकेन मुष्टिना तं वै पातयामास भूतले ।
कूटं समागतं कंसो गृहीत्वा पादयोश्च तम् ॥२२॥
भुजमास्फोट्य धावन्तं शलं नीत्वा भुजेन सः ।
पातयित्वा पुनर्नीत्वा भूमिं तं विचकर्ष ह ॥२३॥
अथ तोशलकं कंसो गृहीत्वा भुजयोर्बलात् ।
निपात्य भूमावुत्थाप्य चिक्षेप दशयोजनम् ॥२४॥
दासभावे च तान्कृत्वा तैः सार्द्धं यादवेश्वरः ।
मद्वाक्येन ययावाशु प्रवर्षणगिरिं वरम् ॥२५॥
तस्मै निवेद्याभिप्रायं युयुधे वानरेण सः ।
द्विविदेनापि विंशत्या दिनैः कंसो ह्यविश्रमम् ॥२६॥
द्विविदो गिरिमुत्पाट्य चिक्षेप तस्य मूर्द्धनि ।
कंसो गिरिं गृहीत्वा च तस्योपरि समाक्षिपत् ॥२७॥
द्विविदो मुष्टिना कंसं घातयित्वा नभो गतः ।
धावन्कंसश्च तं नीत्वा पातयामास भूतले ॥२८॥
मूर्छितस्तत्प्रहारेण परं कल्मषमाययौ ।
क्षीणसत्त्वश्चूर्णितोऽस्थिदासभावं गतस्तदा ॥२९॥
तेनैवाथ गतः कंसः ऋष्यमूकवनं ततः ।
तत्र केशी महादैत्यो हयरूपो घनस्वनः ॥३०॥
मुष्टिभिस्ताडयित्वा तं वशीकृत्यारुरोह तम् ।
इत्थं कंसो महावीर्यो महेंद्राख्यं गिरिं ययौ ॥३१॥
कंस
द्वन्द्वयुद्ध का प्रेमी था । अपने बाहुबल के मद से अकेला ही द्वन्द्वयुद्धके लिये उन्मत्त रहता था । वह प्रचण्डपराक्रमी वीर
माहिष्मतीपुरीमें गया। माहिष्मतीनरेशके पाँच पुत्र प्रख्यात मल्ल थे और
मल्लयुद्धमें विजय पानेका हौंसला रखते थे। उनके नाम थे— चाणूर,
मुष्टिक, कूट, शल और
तोशल ॥ १६-१७ ॥
कंस
ने सामनीति का आश्रय ले प्रेमपूर्वक उनसे कहा— 'तुमलोग मेरे साथ मल्लयुद्ध करो। यदि तुम्हारी विजय हो जायगी तो मैं
तुम्हारा सेवक होकर रहूँगा; और कदाचित् मेरी विजय हो गयी तो
तुम सबको भी मैं अपना सेवक बना लूँगा।' वहाँ जितने भी नागरिक
महान् पुरुष थे, उन सबके सामने कंसने इस प्रकारकी प्रतिज्ञा
की और विजय पानेकी इच्छा रखनेवाले उन वीरोंके साथ मल्लयुद्ध आरम्भ कर दिया। ज्यों
ही चाणूर आया, यादवेश्वर कंसने उच्चस्वरसे गर्जना करते हुए
उसे पकड़कर पृथ्वीपर दे मारा। उसी क्षण मुष्टिक भी वहाँ आ गया। वह रोषसे मुक्का
ताने हुए था। कंसने उसे भी एक ही मुक्केसे धराशायी कर दिया। अब कूट आया, कंसने उसके दोनों पैर पकड़ लिये और जमीनपर दे मारा। फिर ताल ठोंकता हुआ शल
भी दौड़कर आ पहुँचा। कंसने उसे एक ही हाथसे पकड़ा और जमीनपर पटककर घसीटने लगा।
इसके बाद कंसने तोशलके दोनों हाथ बलपूर्वक पकड़ लिये और जमीनपर पटक दिया। फिर
तत्काल उठाकर दस योजनकी दूरीपर फेंक दिया। इस प्रकार यादवेश्वर कंस उन सभी वीरोंको
अपना सेवक बनाकर, मेरे (नारदजीके) कहनेसे उन योद्धाओंके साथ
उसी क्षण श्रेष्ठ पर्वत प्रवर्षणगिरिपर जा पहुँचा ॥ १८-२५ ॥
वहाँ
वह वानर द्विविद को अपना अभिप्राय बताकर उसके साथ बीस दिनोंतक अविराम युद्ध करता
रहा । द्विविद ने पर्वत की चट्टान उठाकर उसे कंस के मस्तक पर फेंका,
किंतु कंसने उस शिलाखण्डको पकड़कर उसीके ऊपर चला दिया। तब द्विविद
कंसपर मुक्केसे प्रहार करके आकाशमें उड़ गया। कंसने भी उसका पीछा करके उसे पकड़
लिया और लाकर जमीनपर पटक दिया । कंसके प्रहारसे द्विविदको मूर्च्छा आ गयी। उसकी
सारी उत्साह शक्ति जाती रही। हड्डियाँ चूर- चूर हो गयीं। फिर तो वह भी कंसका सेवक
बन गया ।। १६–२९ ॥
तदनन्तर
कंस द्विविदके साथ वहाँसे ऋष्यमूक- वनमें गया। वहाँ 'केशी' नामसे विख्यात एक महादैत्य रहता था, जिसकी घोड़ेके समान आकृति थी । वह बादलके समान गर्जता था। उसे मुक्कोंकी
मारसे अपने वशमें करके कंस उसपर सवार हो गया। इस प्रकार वह महान् पराक्रमी कंस
महेन्द्रगिरि पर जा पहुँचा ।। ३०-३१ ॥
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