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रविवार, 21 अप्रैल 2024
श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध ग्यारहवां अध्याय..(पोस्ट..०८)
शनिवार, 20 अप्रैल 2024
श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) ग्यारहवाँ अध्याय (पोस्ट 04)
#
श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(गोलोकखण्ड)
ग्यारहवाँ
अध्याय (पोस्ट 04)
भगवान्
का वसुदेव-देवकीमें आवेश; देवताओंद्वारा
उनका स्तवन; आविर्भावकाल; अवतार-विग्रहकी
झाँकी; वसुदेव-देवकीकृत भगवत्-स्तवन; भगवान्
द्वारा उनके पूर्वजन्मके वृत्तान्तवर्णनपूर्वक अपनेको नन्दभवनमें पहुँचानेका आदेश;
कंसद्वारा नन्दकन्या योगमायासे कृष्णके प्राकट्यकी बात जानकर
पश्चात्ताप पूर्वक वसुदेव- देवकीको बन्धनमुक्त करना, क्षमा
माँगना और दैत्योंको बाल-वध का आदेश देना
श्रीभगवानुवाच
-
इयं च पृश्निः पतिदेवता च
त्वं पूर्वसर्गे सुतपा प्रजार्थी ।
ब्रह्माज्ञया दिव्यतपो युवाभ्यां
कृतं परं निर्जलभोजनाभ्याम् ॥३७॥
कालेषु मन्वन्तरके व्यतीते
तपः परं तत्तपसः प्रजार्थी ।
तदा प्रसन्नो युवयोरभूवं
वरं परं ब्रूत मया तदोक्तम् ॥३८॥
श्रुत्वा युवाभ्यां कथितं तदैव
भूयात्सुतस्त्वत्सदृशः किलावयोः ।
तथास्तु चोक्त्वाथ गते मयि प्रजा-
पती ह्यभूत स्वकृतेन दम्पती ॥३९॥
न मत्समः कोऽपि सुतो जगत्यलं
विचार्य तद्वामभवं परेश्वरः ।
श्रीपृश्निगर्भो भुवि विश्रुतः पुन-
र्द्वितीयकालेऽहमुपेन्द्रवामनः ॥४०॥
तथाऽभवं ह्यद्यतमे परात्परो
नीत्वाऽथ मां प्रापय नन्दमन्दिरम्
अतो न भूयाद्भयमौग्रसेनतः
सुतां समादाय सुखी भविष्यथः ॥४१॥
श्रीनारद उवाच -
तूष्णीं भूत्वा हरिस्तत्र तद्भूयः पश्यतोस्तयोः ।
दृश्यं ह्यप्रकटं कृत्वा बालोऽभूत्कौ यथा नटः ॥४२॥
प्रेंखे धृत्वाऽथ तं शौरिर्यावद्गन्तुं समुद्यतः ।
तवाद्व्रजे नन्दपत्न्यां योगमायाऽजनि स्वतः ॥४३॥
तया शयाने विश्वस्मिन् रक्षकेषु स्वपत्सु च ।
द्वार उद्घाटिताः सर्वाः प्रस्फुटच्छृङ्खलार्गलाः ॥४४॥
निर्गते वसुदेवे च मूर्ध्नि श्रीकृष्णशोभिते ।
सूर्योदये यथा सद्यस्तमोनाशोऽभवत्स्वतः ॥४५॥
घनेषु व्योम्नि वर्षत्सु सहस्रवदनः स्वराट् ।
निवारयन्दीर्घफणैरासारं शौरिमन्वगात् ॥४६॥
ऊर्म्यावर्ताकुलावेगैः सिंहसर्पादिवाहिनी ।
सद्यो मार्गं ददौ तस्मै कालिन्दी सरितां वरा ॥४७॥
नन्दव्रजं समेत्यासौ प्रसुप्तं सर्वतः परम् ।
शिशुं यशोदाशयने निधायाशु ददर्श ताम् ॥४८॥
तत्सुतां समुपादाय पुनर्गेहाज्जगाम सः ।
तीर्त्वा श्रीयमुनां शौरिः स्वागारे पूर्ववत्स्थितः ॥४९॥
सुतं सुतां वा जातं चाज्ञात्वा गोपी यशोमती ।
परिश्रान्ता स्वशयने सुष्वापानन्दनिद्रया ॥५०॥
अथ बालध्वनिं श्रुत्वा रक्षकाः समुपस्थिताः ।
ऊचुः कंसाय वीराय गत्वा तद्राजमन्दिरम् ॥५१॥
सूतीगृहं त्वरं प्रागात्कंसो वै भयकातरः ।
स्वसाथ भ्रातरं प्राह रुदती दीनवत्सती ॥५२॥
श्रीभगवान्
ने कहा- पूर्वसृष्टिमें ये माता पतिव्रता पृश्नि थीं और आप प्रजापति सुतपा । आप
दोनों ने संतान के लिये ब्रह्माजी की आज्ञा से अन्न और जलका त्याग करके बड़ी भारी
तपस्या की थी। एक मन्वन्तर का समय बीत जाने पर भी प्रजा की कामना से आपकी तपस्या
चलती रही,
तब मैं आप दोनोंपर प्रसन्न होकर बोला- 'आपलोग
कोई उत्तम वर माँग लें' ॥ ३७-३८ ॥
मेरी
बात सुनकर आप तत्काल बोले- 'प्रभो! हम
दोनोंको आपके समान पुत्र प्राप्त हो।' उस समय 'तथास्तु' कहकर जब मैं चला आया, तब आप दोनों दम्पति अपने पुण्यकर्मके फलस्वरूप प्रजापति हुए। संसारमें
मेरे समान तो कोई पुत्र है नहीं - यह विचारकर मैं स्वयं परमेश्वर ही आपका पुत्र
हुआ । उस समय भूतलपर मैं 'पृश्निगर्भ' नामसे
विख्यात हुआ । फिर दूसरे जन्ममें जब आप कश्यप और अदिति हुए, तब
मैं आपका पुत्र वामन आकारवाला उपेन्द्र हुआ । उसी प्रकार इस वर्तमान जन्ममें भी
मैं परात्पर परमेश्वर आप दोनोंका पुत्र हुआ हूँ। पिताजी ! अब आप मुझे नन्दभवनमें
पहुँचा दें। इससे आप दोनोंको कंससे कोई भय नहीं होगा । नन्दरायकी पुत्रीको यहाँ ले
आकर आप सुखी होइयेगा ।। ३९ – ४१ ॥
श्रीनारदजी
कहते हैं- राजन् ! यों कहकर भगवान् वहाँ मौन हो, उन दोनोंके देखते-देखते वर्तमान स्वरूपको अदृश्य करके, बालरूप हो पृथ्वीपर पड़ गये-जैसे किसी नटने क्षणभरमें वेष-परिवर्तन कर
लिया हो । शिशुको पालनेमें सुलाकर ज्यों ही वसुदेवजी ले जानेको उद्यत हुए, त्यों-ही महावनमें नन्दपत्नीके गर्भसे योगमायाने स्वतः जन्मग्रहण किया ।। ४२
– ४३ ॥
उसीके
प्रभावसे सब लोग सो गये। पहरेदार भी नींद लेने लगे। सारे दरवाजे मानो किसीने खोल
दिये। साँकल और अर्गलाएँ टूट-फूट गयीं। श्रीकृष्णको माथेपर लिये जब वसुदेवजी गृहसे
बाहर निकले, उस समय उनके भीतरका अज्ञान और
बाहरका अँधेरा स्वतः दूर हो गया- ठीक उसी तरह, जैसे सूर्योदय
होनेपर अन्धकारका तत्काल नाश हो जाता है। आकाशमें बादल घिर आये और वे जलकी वृष्टि
करने लगे। तब सहस्र मुखवाले स्वयंप्रकाश शेषनाग अपने फनोंसे छत्रछाया करके गिरती
हुई जलकी धाराओंका निवारण करते हुए उनके पीछे- पीछे चलने लगे ।। ४४ – ४६ ॥
उस
समय यमुनामें जलके वेगसे बहनेके कारण ऊँची लहरें उठतीं और भँवरें पड़ रही थीं । वे
सिंह और सर्पादि जन्तुओंको भी बहाये लिये जाती थीं; किंतु सरिताओंमें श्रेष्ठ उन कलिन्दनन्दिनी यमुनाने वसुदेवजीको तत्काल
मार्ग दे दिया । नन्द- रायजीका सारा व्रज गाढ़ी नींदमें सो रहा था। वहाँ पहुँचकर
वसुदेवजीने अपने परम शिशुको यशोदाजी- की शय्यापर शीघ्र सुलाकर उस दिव्य कन्याको
देखा । यशोदाजीकी उस कन्याको गोदमें लेकर वसुदेवजी पुनः अपने घर लौट आये। वे
यमुनाजीको पार करके पूर्ववत् अपने घरमें स्थित हो गये । ४७ – ४९ ॥
उधर
गोपी यशोदाको इतना ही ज्ञात हुआ कि उसे कोई पुत्र या पुत्री हुई है। वे प्रसव
वेदनाके श्रमसे अत्यन्त थकी होनेके कारण अपनी शय्यापर आनन्दकी नींद लेती हुई सो
गयी थीं। इधर बालकके रोनेकी आवाज सुनकर पहरेदार राजभवनमें उपस्थित हुए और जाकर वीर
कंसको बालकके जन्मनेकी सूचना दी। यह समाचार कानमें पड़ते ही कंस भयसे कातर हो
तुरंत सूतीगृहमें जा पहुँचा । उस समय सती-साध्वी बहिन देवकी दीनकी तरह रोती हुई
भाईसे बोलीं ॥ ५०-५२ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध ग्यारहवां अध्याय..(पोस्ट..०७)
शुक्रवार, 19 अप्रैल 2024
श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) ग्यारहवाँ अध्याय (पोस्ट 03)
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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(गोलोकखण्ड)
ग्यारहवाँ
अध्याय (पोस्ट 03)
भगवान्
का वसुदेव-देवकीमें आवेश; देवताओंद्वारा
उनका स्तवन; आविर्भावकाल; अवतार-विग्रहकी
झाँकी; वसुदेव-देवकीकृत भगवत्-स्तवन; भगवान्
द्वारा उनके पूर्वजन्मके वृत्तान्तवर्णनपूर्वक अपनेको नन्दभवनमें पहुँचानेका आदेश;
कंसद्वारा नन्दकन्या योगमायासे कृष्णके प्राकट्यकी बात जानकर
पश्चात्ताप पूर्वक वसुदेव- देवकीको बन्धनमुक्त करना, क्षमा
माँगना और दैत्योंको बाल-वध का आदेश देना
सतडित्घनदिव्यसौभगं
चलनीलालकवृन्दभृन्मुखम् ।
चलदंशु तमोहरं परं
शुभदं सुन्दरमंबुजेक्षणम् ॥२७॥
कृतपत्रविचित्रमंडनं
सततं कोटिमनोजमोहनम् ।
परिपूर्णतमं परात्परं
कलवेणुध्वनिवाद्यतत्परम् ॥२८॥
तमवेक्ष्य सुतं यदूत्तमो
हरिजन्मोत्सवफुल्ललोचनः ।
अथ विप्रजनेषु चाशु वै
नियुतं सन्मनसा गवां ददौ ॥२९॥
हरिमानकदुंदुभिः स्तवैः
स्तवनं तं प्रणिपत्य विस्मितः ।
अकरोदुदितप्रभूदयो
गतभीः सूतिगृहे कृतांजलिः ॥३०॥
श्रीवसुदेव उवाच -
एको यः प्रकृतिगुणैरनेकधासि
हर्ता त्वं जनक उतास्य पालकस्त्वम् ।
निर्लिप्तः स्फटिक इवाद्य देहवर्णै-
स्तस्मै श्रीभुवनपते नमामि तुभ्यम् ॥३१॥
एधःसु त्वनल इवात्र वर्तमानो
योऽन्तस्थो बहिरपि चाम्बरं यथा हि ।
आधारो धरणिरिवास्य सर्वसाक्षी
तस्मै ते नम इव सर्वगो नभस्वान् ॥३२॥
भूभारोद्भटहरणार्थमेव जातो
गोदेवद्विजनिजवत्सपालकोऽसि ।
गेहे मे भुवि पुरुषोत्तमोत्तमस्त्वं
कंसान्मां भुवनपते प्रपाहि पापात् ॥३३॥
श्रीनारद उवाच -
परिपूर्णतमं साक्षाच्छ्रीकृष्णं श्यामसुन्दरम् ।
ज्ञात्वा नत्वाथ तं प्राह देवकी सर्वदेवता ॥३४॥
श्रीदेवक्युवाच -
हे कृष्ण हे विगणिताण्डपते परेश
गोलोकधामधिषणध्वज आदिदेव ।
पूर्णेश पूर्ण परिपूर्णतम प्रभो मां
त्वं पाहि परमेश्वर कंसपापात् ॥३५॥
श्रीनारद उवाच -
तच्छ्रुत्वा भगवान्कृष्णः परिपूर्णतमः स्वयम् ।
सस्मितो देवकीं शौरिं प्राह स वृजिनार्दनः ॥३६॥
श्यामसुन्दर
विग्रहपर सुशोभित वह पीताम्बर विद्युद्विलाससे विलसित नीलमेघके सौभाग्यपूर्ण
सौन्दर्यको छीने लेता था। मुखके ऊपर शिरोदेशमें काले-काले घुँघराले केश शोभा पाते
थे। मुखचन्द्रकी चञ्चल रश्मियाँ वहाँका सम्पूर्ण अन्धकार दूर किये देती थीं। वह
परम सुन्दर शुभद आनन प्रफुल्ल इन्दीवर - सदृश युगल नेत्रोंसे सुशोभित था । उसपर
विचित्र रीतिसे मनोहर पत्ररचना की गयी थी, जिससे
मण्डित अभिराम मुख सदैव करोड़ों कामदेवोंको मोहे लेता था । वे परिपूर्णतम परात्पर
भगवान् मधुर ध्वनिसे वेणु बजाने में तत्पर थे ॥ २७-२८ ॥
ऐसे
पुत्र का अवलोकन करके यदुकुलतिलक वसुदेवजी के नेत्र भगवान् के जन्मोत्सवजनित
आनन्दसे खिल उठे । फिर उन्होंने शीघ्र ही ब्राह्मणों को एक लाख गो-दान करने का
मन-ही-मन संकल्प किया। सूतिकागार में प्रभु का आविर्भाव प्रत्यक्ष हो गया,
इससे वसुदेवजीका सारा भय जाता रहा। वे अत्यन्त विस्मित हो, हाथ जोड़कर आदि-अन्तरहित श्रीहरिको प्रणाम करके, स्तोत्रों
द्वारा उनका स्तवन करने लगे ।। २९-३० ॥
श्री
वसुदेव जी बोले- भगवन् ! जो एकमात्र अद्वितीय हैं, वे ही परब्रह्म परमात्मा आप प्रकृति के सत्वगुणों के कारण अनेक रूपों में
प्रतीत होते हैं | आप ही संहार, आप ही उत्पादक तथा आप ही इस जगत के पालक हैं | हे
आदिदेव ! हे त्रिभुवनपते ! परमात्मन् ! जैसे स्फटिकमणि औपाधिक रंगोंसे लिप्त नहीं
होती, उसी प्रकार आप देहके वर्णोंसे निर्लिप्त ही रहते हैं।
ऐसे आप परमेश्वरको मेरा नमस्कार है ॥ ३१ ॥
जैसे
ईंधनमें आग छिपी रहती है, उसी तरह आप
अव्यक्तरूप से इस सम्पूर्ण जगत् में विद्यमान हैं; तथा जैसे
आकाश सबके भीतर और बाहर भी रहता है, उसी प्रकार आप सबके भीतर
और बाहर भी स्थित हैं। आप ही पृथ्वीकी भाँति इस समस्त जगत् के आधार हैं, सबके साक्षी हैं तथा वायु की भाँति सर्वत्र जानेकी शक्ति रखते हैं। आप गौ,
देवता, ब्राह्मण, अपने
भक्तजन तथा बछड़ों के पालक हैं और उद्भट भूभार का हरण करनेके लिये ही मेरे घर में
अवतीर्ण हुए हैं। इस भूतलपर समस्त पुरुषोंत्तमों से भी उत्तम आप ही हैं। भुवनपते !
पापी कंससे मुझे बचाइये । ॥ ३२-३३ ॥
श्रीनारदजी
कहते हैं—मिथिलापते ! सर्व- देवतास्वरूपिणी देवकीको भी यह ज्ञात हो गया कि मेरे
घरमें परिपूर्णतम भगवान् साक्षात् श्यामसुन्दर श्रीकृष्णका आविर्भाव हुआ है। अतः
वे भी उन्हें नमस्कार करके बोलीं ॥ ३४ ॥
देवकीने
कहा - हे सच्चिदानन्दघन श्रीकृष्ण ! हे अगणित ब्रह्माण्डोंके स्वामी ! हे परमेश्वर
! हे गोलोक- धाममन्दिर की ध्वजा ! हे आदिदेव ! हे पूर्णरूप ईश्वर ! हे परिपूर्णतम
परमेश ! हे प्रभो ! आप पापी कंसके भय से मेरी रक्षा कीजिये,
रक्षा कीजिये ॥ ३५ ॥
श्रीनारदजी
कहते हैं— राजन् ! पिता-माताकी ओरसे किया गया वह स्तवन सुनकर पापनाशन साक्षात्
परिपूर्णतम भगवान् श्रीकृष्ण मन्द मन्द मुस्कराते हुए देवकी तथा वसुदेवजीसे बोले -
॥ ३६ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध ग्यारहवां अध्याय..(पोस्ट..०६)
गुरुवार, 18 अप्रैल 2024
श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) ग्यारहवाँ अध्याय (पोस्ट 02)
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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(गोलोकखण्ड)
ग्यारहवाँ
अध्याय (पोस्ट 02)
भगवान्
का वसुदेव-देवकीमें आवेश; देवताओंद्वारा
उनका स्तवन; आविर्भावकाल; अवतार-विग्रहकी
झाँकी; वसुदेव-देवकीकृत भगवत्-स्तवन; भगवान्
द्वारा उनके पूर्वजन्मके वृत्तान्तवर्णनपूर्वक अपनेको नन्दभवनमें पहुँचानेका आदेश;
कंसद्वारा नन्दकन्या योगमायासे कृष्णके प्राकट्यकी बात जानकर
पश्चात्ताप पूर्वक वसुदेव- देवकीको बन्धनमुक्त करना, क्षमा
माँगना और दैत्योंको बाल-वध का आदेश देना
श्रीनारद
उवाच -
नत्वा हरिं तदा देवा ब्रह्माद्या मुनिभिः सह ।
गायन्तस्तं प्रशंसन्तः स्वधामानि ययुर्मुदा ॥१४॥
अथ मैथिलराजेन्द्र जन्मकाले हरेः सति ।
अंबरं निर्मलं भूतं निर्मलाश्च दिशो दश ॥१५॥
उज्ज्वलास्तारका जाताः प्रसन्नं भूमिमंडलम् ।
नदा नद्यः समुद्राश्च प्रसन्नापः सरोवराः ॥१६॥
सहस्रदलपद्मानि शतपत्राणि सर्वतः ।
विचकानि मरुत्स्पर्शैः पतद्गन्धिरजांसि च ॥१७॥
तेषु नेदुर्मधुकरा नदन्तश्चित्रपक्षिणः ।
शीतला मन्दयानाश्च गंधाक्ता वायवो ववुः ॥१८॥
ऋद्धा जनपदा ग्रामा नगरा मंगलायनाः ।
देवा विप्रा नगा गावो बभूवुः सुखसंवृताः ॥१९॥
देवदुन्दुभयो नेदुर्जयध्वनिसमाकुलाः ।
यत्र तत्र महाराज सर्वेषां मंगलं परम् ॥२०॥
विद्याधराश्च गंधर्वाः सिद्धकिन्नरचारणाः ।
जगुः सुनायका देवास्तुष्टुवुः स्तुतिभिः परम् ॥२१॥
ननृतुर्दिवि गन्धर्वा विद्याधर्य्यो मुदान्विताः ।
पारिजातकमन्दारमालतीसुमनांसि च ॥२२॥
मुमुचुर्देवमुख्याश्च गर्जन्तश्च घना जले ।
भाद्रे बुधे कृष्णपक्षे धात्रर्क्षे हर्षणे वृषे ।
कर्णेऽष्टम्यामर्द्धरात्रे नक्षत्रेशमहोदये ॥२३॥
अन्धकारावृते काले देवक्यां शौरिमन्दिरे ।
आविरासीद्धरिः साक्षादरण्यामध्वरेऽग्निवत् ॥२४॥
स्फुरदक्षविचित्रहारिणं
विलसत्कौस्तुभरत्नधारिणम् ।
परिधिद्युतिनूपुरांगदं
धृतबालार्ककिरीटकुंडलम् ॥२५॥
चलदद्भुतवन्हिकंकणं
तडिदूर्जितगुणमेखलाञ्चितम् ।
मधुभृद्ध्वनिपद्ममालिनं
नवजांबूनददिव्यवाससम् ॥२६॥
श्रीनारद
जी बोले - उस समय मुनियोंसहित ब्रह्मा आदि सब देवता श्रीहरि को नमस्कार करके उनकी
महिमा का गान तथा स्वभाव की प्रशंसा करते हुए प्रसन्नतापूर्वक अपने-अपने धामको चले
गये। मिथिला-सम्राट् बहुलाश्व ! तदनन्तर जब श्रीहरि के प्राकट्य का समय आया,
आकाश स्वच्छ हो गया। दसों दिशाएँ निर्मल हो गयीं ॥ १४-१५ ॥
तारे
अत्यन्त उद्दीप्त हो उठे। भूमण्डल में प्रसन्नता छा गयी । नदी,
नद, सरोवर और समुद्र के जल स्वच्छ हो गये। सब
ओर सहस्रदल तथा शतदल कमल खिल उठे। वायुके स्पर्शसे उनके सुगन्धयुक्त पराग सब
दिशाओं में फैलने लगे ॥ १६-१७ ॥
उन
कमलों पर भ्रमर गुंजार करने लगे। शीतल, मन्द,
सुगन्ध वायु बहने लगी। जनपद और ग्राम सुख-सुविधा से सम्पन्न हो गये।
बड़े-बड़े नगर तो मङ्गल के धाम बन गये। देवता, ब्रह्मण,
पर्वत, वृक्ष और गौएँ– सभी सुख -सामग्रीसे
परिपूर्ण हो गये ॥ १८-१९ ॥
देवताओं
की दुन्दुभियाँ बज उठीं। साथ ही जय-जयकार की ध्वनि सब ओर व्याप्त हो गयी । महाराज
! जहाँ-तहाँ सब जगह सब का परम मङ्गल हो गया। गायन कलामें निपुण विद्याधर,
गन्धर्व, सिद्ध, किंनर
तथा चारण गीत गाने लगे। देवता लोग स्तोत्र पढ़कर उन परम पुरुषका स्तवन करने लगे । ॥
२०-२१ ॥
देवलोकमें
गन्धर्व तथा विद्याधरियाँ आनन्दमग्न होकर नाचने लगीं। मुख्य-मुख्य देवता पारिजात,
मन्दार तथा मालतीके मनोरम फूल बरसाने लगे और मेघ गर्जना करते हुए
जलकी वृष्टि करने लगे। भाद्रपद मास, कृष्णपक्ष, रोहिणी नक्षत्र, हर्षण योग तथा वृष लग्नमें अष्टमी
तिथिको आधी रातके समय चन्द्रोदय-कालमें, जब कि जगत्में
अन्धकार छा रहा था, वसुदेव-मन्दिर में देवकी के गर्भसे
साक्षात् श्रीहरि प्रकट हुए-ठीक उसी तरह, जैसे अरणिकाष्ठ से
अग्नि का आविर्भाव होता है ॥ २२- २४ ॥
कण्ठ
में प्रकाशमान स्वच्छ एवं विचित्र मुक्ताहार, वक्षपर
शोभा - प्रभा-समन्वित सुन्दर कौस्तुभ मणि तथा रत्नों की माला, चरणों में नूपुर तथा बाहों में बाजूबंद धारण किये भगवान् मण्डलाकार
प्रभापुञ्ज से उद्भासित हो रहे थे । मस्तकपर किरीट तथा कानोंमें कुण्डल-युगल
बालरवि के सदृश उद्दीप्त हो रहे थे। कलाइयोंमें प्रज्वलित अग्निके समान कान्तिमान्
अद्भुत कङ्कण हिल रहे थे । कटिकी करधनीमें जो डोर या जंजीर लगी थी, उसकी प्रभा विद्युत् के समान सब ओर व्याप्त हो रही थी । कण्ठदेश में कमलों
की माला शोभा पाती थी, जिसके ऊपर मधु-लोलुप मधुकर मँडरा रहे
थे। उनके श्रीअङ्गों पर जो दिव्य पीतवस्त्र था, वह नूतन (
तपाये हुए) जाम्बूनद (सुवर्ण) की शोभा को तिरस्कृत कर रहा था ॥ २५- २६ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध ग्यारहवां अध्याय..(पोस्ट..०५)
बुधवार, 17 अप्रैल 2024
श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) ग्यारहवाँ अध्याय (पोस्ट 01)
श्रीगर्ग-संहिता
(गोलोकखण्ड)
ग्यारहवाँ अध्याय (पोस्ट 01)
भगवान् का
वसुदेव-देवकीमें आवेश;
देवताओंद्वारा उनका स्तवन; आविर्भावकाल;
अवतार-विग्रहकी झाँकी; वसुदेव-देवकीकृत
भगवत्-स्तवन; भगवान द्वारा उनके पूर्वजन्मके
वृत्तान्तवर्णनपूर्वक अपनेको नन्दभवनमें पहुँचानेका आदेश; कंसद्वारा
नन्दकन्या योगमायासे कृष्णके प्राकट्यकी बात जानकर पश्चात्ताप पूर्वक वसुदेव-
देवकीको बन्धनमुक्त करना, क्षमा माँगना और दैत्योंको बाल-वध का
आदेश देना
श्रीनारद उवाच -
परिपूर्णतमः साक्षाच्छ्रीकृष्णो भगवान् स्वयम् ।
विवेश वसुदेवस्य मनः पूर्वं परात्परः ॥१॥
सूर्येन्दुवह्निसंकाशो वसुदेवो महामनाः ।
बभूवात्यन्तमहसा साक्षाद्यज्ञ इवापरः ॥२॥
देवक्यामागते कृष्णे सर्वेषामभयंकरे ।
रराज तेन सा गेहे घने सौदामिनी यथा ॥३॥
तेजोवतीं च तां वीक्ष्य कंसः प्राह भयातुरः ।
प्राप्तोऽयं प्राणहन्ता मे पूर्वमेषा न चेदृशी ॥४॥
जातमात्रं हनिष्यामीत्युक्त्वाऽऽस्ते भयविह्वलः ।
पश्यन्सर्वत्र च हरिं पूर्वशत्रुं विचिन्तयन् ॥५॥
अहो वैरानुबन्धेन साक्षात्कृष्णोऽपि दृश्यते ।
तस्माद्वैरं प्रकुर्वन्ति कृष्णप्राप्त्यर्थमासुराः ॥६॥
अथ ब्रह्मादयो देवा मुनीन्द्रैरस्मदादिभिः ।
शौरिगेहोपरि प्राप्ताः स्तवं चक्रुः प्रणम्य तम् ॥७॥
देवा ऊचुः -
यज्जागरादिषु भवेषु परं ह्यहेतु-
र्हेतुः स्विदस्य विचरन्ति गुणाश्रयेण ।
नैतद्विशन्ति महदिन्द्रियदेवसंघा-
स्तस्मै नमोऽग्निमिव विस्तृतविस्फुलिंगाः ॥८॥
नैवेशितुं प्रभुरयं बलिनां बलीयान्
माया न शब्द उत नो विषयीकरोति ।
तद्ब्रह्म पूर्णममृतं परमं प्रशान्तं
शुद्धं परात्परतरं शरणं गताः स्मः ॥९॥
अंशांशकांशककलाद्यवतारवृन्दै-
रावेशपूर्णसहितैश्च परस्य यस्य ।
सर्गादयः किल भवन्ति तमेव कृष्णं
पूर्णात्परं तु परिपूर्णतमं नताः स्मः ॥१०॥
मन्वन्तरेषु च युगेषु गतागतेषु
कल्पेषु चांशकलया स्ववपुर्बिभर्षि ।
अद्यैव धाम परिपूर्णतमं तनोषि
धर्मं विधाय भुवि मंगलमातनोषि ॥११॥
यद्दुर्लभं विशदयोगिभिरप्यगम्यं
गम्यं द्रवद्भिरमलाशयभक्तियोगैः ।
आनंदकंद चरतस्तव मन्दयानं
पादारविन्दमकरन्दरजो दधामः ॥१२॥
पूर्वं तथात्र कमनीयवपुष्मयं त्वां
कंदर्पकोटिशतमोहनमद्भुतं च ।
गोलोकधामधिषणद्युतिमादधानं
राधापतिं धरणिधुर्यधनं दधामः ॥१३॥
श्रीनारदजी
कहते हैं- मिथिलेश्वर ! तदनन्तर परात्पर एवं परिपूर्णतम साक्षात् भगवान् श्रीकृष्ण
पहले वसुदेवजीके मनमें आविष्ट हुए। भगवान्का आवेश होते ही महामना वसुदेव सूर्य,
चन्द्रमा और अग्निके समान महान् तेजसे उद्भासित हो उठे, मानो उनके रूपमें दूसरे यज्ञनारायण ही प्रकट हो गये हों। फिर सबको अभय
देनेवाले श्रीकृष्ण देवी देवकीके गर्भमें आविष्ट हुए। इससे उस कारागृहमें देवकी
उसी तरह दिव्य दीप्तिसे दमक उठीं, जैसे घनमाला में चपला चमक
उठती है। देवकीके उस तेजस्वी रूपको देखकर कंस मन-ही-मन भयसे व्याकुल होकर बोला- 'यह मेरा प्राणहन्ता आ गया; क्योंकि इसके पहले यह ऐसी
तेजस्विनी नहीं थी। इस शिशु को जन्म लेते ही मैं अवश्य मार डालूँगा ।' यों कहकर वह भयसे विह्वल हो उस बालकके जन्मकी प्रतीक्षा करने लगा। भयके
कारण अपने पूर्वशत्रु भगवान् विष्णुका चिन्तन करते हुए वह सर्वत्र उन्हींको देखने
लगा। अहो ! दृढ़तापूर्वक वैर बँध जाने से भगवान् कृष्णका भी प्रत्यक्षकी भाँति
दर्शन होने लगता है। इसलिये असुर श्रीकृष्णकी प्राप्तिके उद्देश्यसे ही उनके साथ
वैर करते हैं। जब भगवान् गर्भमें आविष्ट हुए, तब ब्रह्मादि
देवता तथा अस्मदादि (नारद-प्रभृति) मुनीश्वर वसुदेवके गृह के ऊपर आकाशमें स्थित हो,
भगवान् को प्रणाम करके उनकी स्तुति करने लगे ॥ १-७ ॥
देवता
बोले- जाग्रत्, स्वप्न आदि अवस्थाओं- में प्रतीत
होनेवाले विश्वके जो एकमात्र हेतु होते हुए भी अहेतु हैं, जिनके
गुणोंका आश्रय लेकर ही ये प्राणिसमुदाय सब ओर विचरते हैं तथा जैसे अग्निसे निकलकर
सब ओर फैले हुए विस्फुलिङ्ग (चिनगारियाँ) पुनः उसमें प्रवेश नहीं करते, उसी प्रकार महत्तत्त्व, इन्द्रियवर्ग तथा उनके
अधिष्ठाता देव-समुदाय जिनसे प्रकट हो पुनः उनमें प्रवेश नहीं पाते, उन परमात्मा आप भगवान् श्रीकृष्णको हमारा सादर नमस्कार है ॥ ८ ॥
बलवानों
में भी सबसे अधिक बलिष्ठ यह काल भी जिनपर शासन करनेमें समर्थ नहीं है,
माया भी जिनपर कोई प्रभाव नहीं डाल सकती तथा नित्यशब्द (वेद) जिनको
अपना विषय नहीं बना पाता, उन परम अमृत, प्रशान्त, शुद्ध, परात्पर
पूर्ण ब्रह्मस्वरूप आप भगवान्की हम शरणमें आये हैं। जिन परमेश्वरके अंशावतार,
अंशांशावतार, कलावतार, आवेशावतार
तथा पूर्णावतारसहित विभिन्न अवतारों द्वारा इस विश्वके सृष्टिपालन आदि कार्य
सम्पादित होते हैं, उन्हीं पूर्णसे भी परे परिपूर्णतम भगवान्
श्रीकृष्णको हम प्रणाम करते हैं। प्रभो! अतीत, वर्तमान और
अनागत (भविष्य) मन्वन्तरों, युगों तथा कल्पोंमें आप अपने अंश
और कलाद्वारा अवतार - विग्रह धारण करते हैं। किंतु आज ही वह सौभाग्यपूर्ण अवसर आया
है, जब कि आप अपने परिपूर्णतम धाम (तेजःपुञ्ज) का यहाँ
विस्तार कर रहे हैं! अब इस परिपूर्णतम अवतारद्वारा भूतलपर धर्मकी स्थापना करके आप
लोकमें मङ्गल (कल्याण) का प्रसार करेंगे ॥ ९-११ ॥
आनन्दकंद
! देवकीनन्दन ! आपकी जो चरणरज विशुद्ध अन्तःकरणवाले योगियोंके लिये भी दुर्लभ और
अगम्य है,
वही उन बड़भागी भक्तोंके लिये परम सुलभ है, जो
अपने निर्मल हृदयमें भक्तियोग धारण करके, सदा प्रीतिरसमें
निमग्न हो, द्रवित-चित्त रहते हैं। शिशुरूपमें मन्द मन्द
विचरनेवाले आपके चरणारविन्दोंके मकरन्द एवं परागको हम सानुराग सिरपर धारण करें,
यही हमारी आन्तरिक अभिलाषा है । आप पहले से ही परम कमनीय कलेवरधारी
हैं और यहाँ इस अवतारमें भी उसी कमनीय रूपसे आप सुशोभित होंगे । आपका रूप कोटिशत
कामदेवोंको भी मोहित करनेवाला और परम अद्भुत है। आप गोलोकधाममें धारित दिव्य
दीप्ति-राशिको यहाँ भी धारण करेंगे। सर्वोत्कृष्ट धर्मधन के धारयिता आप
श्रीराधावल्लभ को हम [ह्रदय में] धारण करते हैं ॥ १२- १३ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध ग्यारहवां अध्याय..(पोस्ट..०४)
मंगलवार, 16 अप्रैल 2024
श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) दसवाँ अध्याय (पोस्ट 03)
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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(गोलोकखण्ड)
दसवाँ
अध्याय (पोस्ट 03)
कंस
के अत्याचार; बलभद्रजी का अवतार
तथा व्यासदेव द्वारा उनका स्तवन
श्रीव्यास
उवाच -
अहोभाग्यं तु ते नंद शिशुः शेषः सनातनः ।
देवक्यां वसुदेवस्य जातोऽयं मथुरापुरे ॥३२॥
कृष्णेच्छया तदुदरात्प्रणीतो रोहिणीं शुभाम् ।
नंदराज त्वया दृश्यो दुर्लभो योगिनामपि ॥३३॥
तद्दर्शनार्थं प्राप्तोऽहं वेदव्यासो महामुनिः ।
तस्मात्त्वं दर्शयास्माकं शिशुरूपं परात्परम् ॥३४॥
श्रीनारद उवाच -
अथ नंदः शिशुं शेषं दर्शयामास विस्मितः ।
दृष्ट्वा प्रेंखस्थितं प्राह नत्वा सत्यवतीसुतः ॥३५॥
श्रीव्यास उवाच -
देवाधिदेव भगवन्कामपाल नमोऽस्तु ते ।
नमोऽनन्ताय शेषाय साक्षाद्रामाय ते नमः ॥३६॥
धराधराय पूर्णाय स्वधाम्ने सीरपाणये ।
सहस्रशिरसे नित्यं नमः संकर्षणाय ते ॥३७॥
रेवतीरमण त्वं वै बलदेवोऽच्युताग्रजः ।
हलायुधः प्रलंबघ्नः पाहि मां पुरुषोत्तम ॥३८॥
बलाय बलभद्राय तालांकाय नमो नमः ।
नीलांबराय गौराय रौहिणेयाय ते नमः ॥३९॥
धेनुकारिर्मुष्टिकारिः कुम्भाण्डारिस्त्वमेव हि ।
रुक्म्यरिः कूपकर्णारिः कूटारिर्बल्वलान्तकः ॥४०॥
कालिन्दीभेदनोऽसि त्वं हस्तिनापुरकर्षकः ।
द्विविदारिर्यादवेन्द्रो व्रजमण्डलमंडनः ॥४१॥
कंसभ्रातृप्रहन्ताऽसि तीर्थयात्राकरः प्रभुः ।
दुर्योधनगुरुः साक्षात्पाहि पाहि जगत्प्रभो ॥४२॥
जयजयाच्युत देव परात्पर
स्वयमनन्त दिगन्तगतश्रुत ।
सुरमुनीन्द्रफणीन्द्रवराय ते
मुसलिने बलिने हलिने नमः ॥४३॥
इह पठेत्सततं स्तवनं तु यः
स तु हरेः परमं पदमाव्रजेत् ।
जगति सर्वबलं त्वरिमर्दनं
भवति तस्य जयः स्वधनं धनम् ॥४४॥
श्रीनारद उवाच -
बलं परिक्रम्य शतं प्रणम्य
तैर्द्वैपायनो देव पराशरात्मजः ।
विशालबुद्धिर्मुनिबादरायणः
सरस्वतीं सत्यवतीसुतो ययौ ॥४५॥
श्रीव्यासजी
बोले-नन्द ! तुम्हारा अद्भुत सौभाग्य है, इस
शिशुके रूपमें साक्षात् सनातन देवता शेषनाग पधारे हैं। पहले तो मथुरापुरीमें
वसुदेवसे देवकीके गर्भमें इनका आविर्भाव हुआ। फिर भगवान् श्रीकृष्णकी इच्छासे इनका
देवकीके उदरसे कल्याणमयी रोहिणीके गर्भमें आगमन हुआ है। नन्दराय ! ये योगियोंके
लिये भी दुर्लभ हैं, किंतु तुम्हें इनका प्रत्यक्ष दर्शन हुआ
है। मैं महामुनि वेदव्यास इनके दर्शनके लिये ही यहाँ आया हूँ, अतः तुम शिशुरूप धारी इन परात्पर देवताका हम सबको दर्शन कराओ। ॥ ३२ – ३४ ॥
श्रीनारदजी
कहते हैं- राजन् ! तदनन्तर नन्दने विस्मित होकर शिशुरूपधारी शेषका उन्हें दर्शन
कराया । पालनेमें विराजमान शेषजीका दर्शन करके सत्यवतीनन्दनने उन्हें प्रणाम किया
और उनकी स्तुति की — ॥ ३५ ॥
श्रीव्यासजी
बोले- भगवन् ! आप देवताओंके भी अधिदेवता और कामपाल (सबका मनोरथ पूर्ण करनेवाले)
हैं,
आपको नमस्कार है। आप साक्षात् अनन्तदेव शेषनाग हैं, बलराम हैं; आपको मेरा प्रणाम है । आप धरणीधर,
पूर्णस्वरूप, स्वयंप्रकाश, हाथ में हल धारण करनेवाले, सहस्र मस्तकों से सुशोभित
तथा संकर्षणदेव हैं, आपको नमस्कार है ॥३६–३७॥
रेवती-
रमण ! आप ही बलदेव तथा श्रीकृष्णके अग्रज हैं। हलायुध एवं प्रलम्बासुरके नाशक हैं।
पुरुषोत्तम ! आप मेरी रक्षा कीजिये । आप बल, बलभद्र
तथा तालके चिह्नसे युक्त ध्वजा धारण करनेवाले हैं; आपको
नमस्कार है। आप नीलवस्त्रधारी, गौरवर्ण तथा रोहिणीके सुपुत्र
हैं; आपको मेरा प्रणाम है। आप ही धेनुक, मुष्टिक, कुम्भाण्ड, रुक्मी,
कूपकर्ण, कूट तथा बल्वल के शत्रु हैं ॥ ३८-४० ॥
कालिन्दी
की धारा को मोड़ने वाले और हस्तिनापुर को गङ्गा की ओर आकर्षित करने वाले आप ही
हैं। आप द्विविद के विनाशक, यादवों के स्वामी तथा
व्रजमण्डल के मण्डन (भूषण)
हैं।
आप कंस के भाइयों का वध करनेवाले तथा तीर्थयात्रा करनेवाले प्रभु हैं। दुर्योधनके
गुरु भी साक्षात् आप ही हैं । प्रभो ! जगत्की रक्षा कीजिये,
रक्षा कीजिये ॥ ४१-४२ ॥
अपनी
महिमा से कभी च्युत न होनेवाले परात्पर देवता साक्षात् अनन्त ! आपकी जय हो,
जय हो। आपका सुयश समस्त दिगन्तमें व्याप्त है। आप सुरेन्द्र,
मुनीन्द्र और फणीन्द्रोंमें सर्वश्रेष्ठ हैं। मुसलधारी, हलधर तथा बलवान् हैं; आपको नमस्कार है । जो इस जगत्
में सदा ही इस स्तवन का पाठ करेगा, वह श्रीहरि के परमपद को
प्राप्त होगा। संसार में उसे शत्रुओं का संहार करनेवाला सम्पूर्ण बल प्राप्त होगा
। उसकी सदा जय होगी और वह प्रचुर धनका स्वामी होगा ॥ ४३-४४ ॥
श्रीनारदजी
कहते हैं - राजन् ! पराशरनन्दन विशाल-बुद्धि बादरायण मुनि सत्यवतीकुमार
श्रीकृष्णद्वैपायन वेदव्यास उन मुनियोंके साथ बलरामजी को सौ बार प्रणाम और
परिक्रमा करके सरस्वती नदीके तटपर चले गये ॥ ४५ ॥
इस
प्रकार श्रीगर्ग संहिता में गोलोकखण्ड के अन्तर्गत श्रीनारद - बहुलाश्व-संवाद में 'बलभद्रजी के जन्म का वर्णन' नामक दसवाँ अध्याय पूरा
हुआ ॥ १० ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट१०)
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