रविवार, 19 मई 2024

श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) सोलहवाँ अध्याय (पोस्ट 01)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(गोलोकखण्ड)

सोलहवाँ अध्याय (पोस्ट 01)

 

भाण्डीर-वनमें नन्दजीके द्वारा श्रीराधाजीकी स्तुति; श्रीराधा और श्रीकृष्णका ब्रह्माजीके द्वारा विवाह; ब्रह्माजीके द्वारा श्रीकृष्णका स्तवन तथा नव-दम्पति की मधुर लीलाएँ  

 

श्रीनारद उवाच –


गाश्चारयन् नन्दनमङ्कदेशे
संलालयन् दूरतमं सकाशात् ।
कलिंदजातीरसमीरकंपितं
नंदोऽपि भांडीरवनं जगाम ॥१॥
कृष्णेच्छया वेगतरोऽथ वातो
घनैरभून्मेदुरमंबरं च ।
तमालनीपद्रुमपल्लवैश्च
पतद्‌भिरेजद्‍‌भिरतीव भाः कौ ॥२॥
तदांधकारे महति प्रजाते
बाले रुदत्यंकगतेऽतिभीते ।
नंदो भयं प्राप शिशुं स बिभ्र-
द्धरिं परेशं शरणं जगाम ॥३॥
तदैव कोट्यर्कसमूहदीप्ति-
रागच्छतीवाचलती दिशासु ।
बभूव तस्यां वृषभानुपुत्रीं
ददर्श राधां नवनंदराजः ॥४॥
कोटींदुबिंबद्युतिमादधानां
नीलांबरां सुंदरमादिवर्णाम् ।
मंजीरधीरध्वनिनूपुराणा-
माबिभ्रतीं शब्दमतीव मंजुम् ॥५॥
कांचीकलाकंकणशब्दमिश्रां
हारांगुलीयांगदविस्फुरंतीम् ।
श्रीनासिकामौक्तिकहंसिकीभिः
श्रीकंठचूडामणिकुंडलाढ्याम् ॥६॥
तत्तेजसा धर्षित आशु नंदो
नत्वाथ तामाह कृतांजलिः सन् ।
अयं तु साक्षात्पुरुषोत्तमस्त्वं
प्रियास्य मुख्यासि सदैव राधे ॥७॥
गुप्तं त्विदं गर्गमुखेन वेद्मि
गृहाण राधे निजनाथमंकात् ।
एनं गृहं प्रापय मेघभीतं
वदामि चेत्थं प्रकृतेर्गुणाढ्यम् ॥८॥

 

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! एक दिन नन्दजी अपने नन्दनको अङ्कमें लेकर लाड़ लड़ाते और गौएँ चराते हुए खिरकके पाससे बहुत दूर निकल गये। धीरे-धीरे भाण्डीर-वन जा पहुँचे, जो कालिन्दी-नीरका स्पर्श करके बहनेवाले तीरवर्ती शीतल समीरके झोंकेसे कम्पित हो रहा था। थोड़ी ही देरमें श्रीकृष्णकी इच्छासे वायुका वेग अत्यन्त प्रखर हो उठा । आकाश मेघोंकी घटासे आच्छादित हो गया । तमाल और कदम्ब वृक्षों- के पल्लव टूट-टूटकर गिरने, उड़ने और अत्यन्त भयका उत्पादन करने लगे। उस समय महान् अन्धकार छा गया। नन्दनन्दन रोने लगे। वे पिताकी गोदमें बहुत भयभीत दिखायी देने लगे। नन्दको भी भय हो गया। वे शिशुको गोद में लिये परमेश्वर श्रीहरिकी शरणमें गये ॥ १-३ ॥

 

उसी क्षण करोड़ों सूर्योंके समूहकी सी दिव्य दीप्ति उदित हुई, जो सम्पूर्ण दिशाओं में व्याप्त थी; वह क्रमशः निकट आती-सी जान पड़ी उस दीप्तिराशि के भीतर नौ नन्दों के राजा ने वृषभानुनन्दिनी श्रीराधा को देखा। वे करोड़ों चन्द्रमण्डलों की कान्ति धारण किये हुए थीं। उनके श्रीअङ्गोंपर आदिवर्ण नील रंगके सुन्दर वस्त्र शोभा पा रहे थे। चरणप्रान्त में मञ्जीरों की धीर-ध्वनिसे युक्त नूपुरोंका अत्यन्त मधुर शब्द हो रहा था । उस शब्दमें काञ्चीकलाप और कङ्कणों की झनकार भी मिली थी । रत्नमय हार, मुद्रिका और बाजूबंदोंकी प्रभासे वे और भी उद्भासित हो रही थीं । नाकमें मोतीकी बुलाक और नकबेसरकी अपूर्व शोभा हो रही थी। कण्ठमें कंठा, सीमन्तपर चूड़ामणि और कानोंमें कुण्डल झलमला रहे थे ॥ ४-६ ॥

 

श्रीराधाके दिव्य तेज से अभिभूत हो नन्द ने तत्काल उनके सामने मस्तक झुकाया और हाथ जोड़कर कहा— 'राधे ! ये साक्षात् पुरुषोत्तम हैं और तुम इनकी मुख्य प्राणवल्लभा हो, यह गुप्त रहस्य मैं गर्गजीके मुखसे सुनकर जानता हूँ। राधे! अपने प्राणनाथको मेरे अङ्क से ले लो। ये बादलोंकी गर्जनासे डर गये हैं । इन्होंने लीलावश यहाँ प्रकृतिके गुणोंको स्वीकार किया है। इसीलिये इनके विषयमें इस प्रकार भयभीत होनेकी बात कही गयी है। देवि ! मैं तुम्हें नमस्कार करता हूँ। तुम इस भूतलपर मेरी यथेष्ट रक्षा करो। तुमने कृपा करके ही मुझे दर्शन दिया है, वास्तव में तो तुम सब लोगोंके लिये दुर्लभ हो'  ॥ ७ – ८ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध पंद्रहवां अध्याय..(पोस्ट..०४)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध-पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०४)

कृष्णविरहव्यथित पाण्डवों का 
परीक्षित्‌ को राज्य देकर स्वर्ग सिधारना

सौत्ये वृतः कुमतिनाऽऽत्मद ईश्वरो मे 
यत्पादपद्ममभवाय भजन्ति भव्याः ।
मां श्रान्तवाहमरयो रथिनो भुविष्ठं 
न प्राहरन् यदनुभावनिरस्तचित्ता:: ॥१७॥
नर्माण्युदाररुचिरस्मितशोभितानि 
हे पार्थ हेऽर्जुन सखे कुरुनन्दनेति ।
संजल्पितानि नरदेव हृदिस्पृशानि 
स्मर्तुर्लुठन्ति हृदयं मम माधवस्य ॥१८॥
शय्यासनाटनविकत्थनभोजनादि- 
ष्वैक्याद्वयस्य ऋतवानिति विप्रलब्धः ।
सख्युः सखेव पितृवत्तनयस्य सर्वं 
सेहे महान्महितया कुमतेरघं मे ॥१९॥
सोऽहं नृपेन्द्र रहितः पुरुषोत्तमेन 
सख्या प्रियेण सुहृदा हृदयेन शून्यः ।
अध्वन्युरुक्रमपरिग्रहमंग रक्षन् 
गोपैरसाद्भिबलेव विनिर्जितोऽस्मि ॥२०॥
तद्वै धनुस्त इषवः स रथो हयास्ते 
सोऽहं रथी नॄपतयो यत आनमन्ति ।
सर्व क्षणेन तदभुदसदीशरिक्तं 
भस्मन् हुतं कुहकराद्भमोवोत्पमुष्याम् ॥२१॥

(अर्जुन युधिष्ठिरसे कह रहे हैं) श्रेष्ठ पुरुष संसारसे मुक्त होनेके लिये जिनके चरणकमलों का सेवन करते हैं, अपने-आप तक को दे डालनेवाले उन भगवान्‌ को मुझ दुर्बुद्धि ने सारथि तक बना डाला। अहा ! जिस समय मेरे घोड़े थक गये थे और मैं रथसे उतरकर पृथ्वीपर खड़ा था, उस समय बड़े-बड़े महारथी शत्रु भी मुझपर प्रहार न कर सके; क्योंकि श्रीकृष्णके प्रभावसे उनकी बुद्धि मारी गयी थी ॥ १७ ॥ महाराज ! माधवके उन्मुक्त और मधुर मुसकानसे युक्त, विनोदभरे एवं हृदयस्पर्शी वचन, और उनका मुझे ‘पार्थ, अर्जुन, सखा, कुरुनन्दन’ आदि कहकर पुकारना, मुझे याद आनेपर मेरे हृदयमें उथल-पुथल मचा देते हैं ॥ १८ ॥ सोने, बैठने, टहलने और अपने सम्बन्धमें बड़ी-बड़ी बातें करने तथा भोजन आदि करनेमें हम प्राय: एक साथ रहा करते थे। किसी-किसी दिन मैं व्यंग्यसे उन्हें कह बैठता, ‘मित्र ! तुम तो बड़े सत्यवादी हो !’ उस समय भी वे महापुरुष अपनी महानुभावताके कारण, जैसे मित्र अपने मित्रका और पिता अपने पुत्रका अपराध सह लेता है उसी प्रकार, मुझ दुर्बुद्धिके अपराधोंको सह लिया करते थे ॥ १९ ॥ महाराज ! जो मेरे सखा, प्रिय मित्र—नहीं-नहीं मेरे हृदय ही थे, उन्हीं पुरुषोत्तम भगवान्‌से मैं रहित हो गया हूँ। भगवान्‌ की पत्नियों को द्वारका से अपने साथ ला रहा था, परंतु मार्गमें दुष्ट गोपोंने मुझे एक अबला की भाँति हरा दिया और मैं उनकी रक्षा नहीं कर सका ॥ २० ॥ वही मेरा गाण्डीव धनुष है, वे ही बाण है, वही रथ है, वही घोड़े हैं और वही मैं रथी अर्जुन हूँ, जिसके सामने बड़े-बड़े राजा लोग सिर झुकाया करते थे। श्रीकृष्णके बिना ये सब एक ही क्षण में नहीं के समान सारशून्य हो गये—ठीक उसी तरह, जैसे भस्ममें डाली हुई आहुति, कपटभरी सेवा और ऊसरमें बोया हुआ बीज व्यर्थ जाता है ॥ २१ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्ट संस्करण)  पुस्तक कोड 1535 से


शनिवार, 18 मई 2024

श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) पंद्रहवाँ अध्याय (पोस्ट 05)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(गोलोकखण्ड)

पंद्रहवाँ अध्याय  (पोस्ट 05)

 

यशोदाद्वारा श्रीकृष्णके मुखमें सम्पूर्ण ब्रह्माण्डका दर्शन; नन्द और यशोदाके पूर्व- पुण्य का परिचय; गर्गाचार्यका नन्द भवनमें जाकर बलराम और श्रीकृष्णके नामकरण - संस्कार करना तथा वृषभानुके यहाँ जाकर उन्हें श्रीराधा-कृष्णके नित्य-सम्बन्ध एवं माहात्म्यका ज्ञान कराना

 

श्रीगर्ग उवाच -
अहं न कारयिष्यामि विवाहमनयोर्नृप ।
तयोर्विवाहो भविता भांडीरे यमुनातटे ॥६०॥
वृंदावनसमीपे च निर्जने सुंदरस्थले ।
परमेष्ठी समागत्य विवाहं कारयिष्यति ॥६१॥
तस्माद्‌राधां गोपवर विद्ध्यर्धांगीं वरस्य च ।
लोके चूडामणिः साक्षाद्‌राज्ञीं गोलोकमंदिरे ॥६२॥
यूयं सर्वेऽपि गोपाला गोलोकादागता भुवि ।
तथा गोपीगणा गोपा गोलोके राधिकेच्छया ॥६३॥
यद्दर्शनं दुर्लभमेव दुर्घटं
देवैश्च यज्ञैर्न च जन्मभिः किमु ।
सविग्रहां तां तव मंदिराजिरे
लक्ष्यंति गुप्तां बहुगोपगोपिकाः ॥६४॥


श्रीनारद उवाच -
तदा च विस्मितौ राजन् दंपती हर्षितौ परम् ।
राधाकृष्णप्रभावं च श्रुत्वा श्रीगर्गमूचतुः ॥६५॥


दंपती ऊचतुः -
राधाशब्दस्य हे ब्रह्मन् व्याख्यानं वद तत्त्वतः ।
त्वत्तो न संशयच्छेत्ता कोऽपि भूमौ महामुने ॥६६॥


श्रीगर्ग उवाच -
सामवेदस्य भावार्थं गंधमादनपर्वते ।
शिष्येणापि मया तत्र नारायणमुखाच्छ्रुतम् ॥६७॥
रमया तु रकारः स्यादाकारस्त्वादिगोपिका ।
धकारो धरया हि स्यादाकारो विरजा नदी ॥६८॥
श्रीकृष्णस्य परस्यापि चतुर्द्धा तेजसोऽभवत् ।
लीलाभूः श्रीश्च विरजा चतस्रः पत्‍न्य एव हि ॥६९॥
संप्रलीनाश्च ताः सर्वा राधायां कुंजमंदिरे ।
परिपूर्णतमां राधां तस्मादाहुर्मनिषिणः ॥७०॥


श्रीनारद उवाच -
राधाकृष्णेति हे गोप ये जपंति पुनः पुनः ।
चतुष्पदार्थं किं तेषां साक्षात्कृष्णोऽपि लभ्यते ॥७१॥
तदातिविस्मितो राजन् वृषभानुः प्रियायुतः ।
राधाकृष्णप्रभावं तं ज्ञात्वाऽऽनंदमयो ह्यभूत् ॥७२॥
इत्थं गर्गो ज्ञानिवरः पूजितो वृषभानुना ।
जगाम स्वगृहं साक्षान्मुनीन्द्रः सर्ववित्कविः ॥७३॥

श्रीगर्गजीने कहा- राजन् ! श्रीराधा और श्रीकृष्णका पाणिग्रहण-संस्कार मैं नहीं कराऊँगा । यमुनाके तटपर भाण्डीर वनमें इनका विवाह होगा । वृन्दावनके निकट जनशून्य सुरम्य स्थानमें स्वयं श्रीब्रह्माजी पधारकर इन दोनोंका विवाह करायेंगे । गोपवर ! तुम इन श्रीराधिकाको भगवान् श्रीकृष्णकी वल्लभा समझो। संसारमें राजाओंके शिरोमणि तुम हो और लोकोंका शिरोमणि गोलोकधाम है। तुम सम्पूर्ण गोप गोलोकधामसे ही इस भूमण्डलपर आये हो। वैसे ही समस्त गोपियाँ भी श्रीराधिकाजीकी आज्ञा मानकर गोलोकसे आयी हैं। बड़े-बड़े यज्ञ करनेपर देवताओं- को भी अनेक जन्मों तक जिनकी झाँकी सुलभ नहीं होती, उनके लिये भी जिनका दर्शन दुर्घट है, वे साक्षात् श्रीराधिका जी तुम्हारे मन्दिर के आँगन में गुप्तरूप से विराज रही हैं और बहुसंख्यक गोप और गोपियाँ उनका साक्षात् दर्शन करती हैं ।। ६० - ६४ ।।

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! श्रीराधिकाजी और भगवान् श्रीकृष्णका यह प्रशंसनीय प्रभाव सुनकर श्रीवृषभानु और कीर्ति — दोनों अत्यन्त विस्मित तथा आनन्दसे आह्लादित हो उठे और गर्गजीसे कहने लगे ॥ ६५ ॥

दम्पती बोले- ब्रह्मन् ! 'राधा' शब्दकी तात्त्विक व्याख्या बताइये। महामुने ! इस भूतलपर मन के संदेह को दूर करने वाला आपके समान दूसरा कोई नहीं है ॥ ६६ ॥

श्रीगर्गजीने कहा- एक समयकी बात है, मैं गन्धमादन पर्वतपर गया। साथमें शिष्यवर्ग भी थे। वहीं भगवान् नारायण के श्रीमुख से मैंने सामवेद का यह सारांश सुना है। 'रकार' से रमा का, 'आकार' से गोपिकाओं का, 'धकार' से धराका तथा 'आकार' से विरजा नदीका ग्रहण होता है । परमात्मा भगवान् श्रीकृष्णका सर्वोत्कृष्ट तेज चार रूपोंमें विभक्त हुआ । लीला, भू, श्री और विरजा ये चार पत्नियाँ ही उनका चतुर्विध तेज हैं। ये सब की सब कुञ्जभवनमें जाकर श्रीराधिकाजी के श्रीविग्रह में लीन हो गयीं। इसीलिये विज्ञजन श्रीराधाको 'परिपूर्णतमा' कहते हैं । गोप ! जो मनुष्य बारंबार 'राधाकृष्ण' के इस नामका उच्चारण करते हैं, उन्हें चारों पदार्थ तो क्या, साक्षात् भगवान् श्रीकृष्ण भी सुलभ हो जाते हैं  ॥ ६७-७१ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं— राजन् ! उस समय भार्या- सहित श्रीवृषभानुके आश्चर्यकी सीमा न रही। श्रीराधा- कृष्णके दिव्य प्रभावको जानकर वे आनन्दके मूर्तिमान् विग्रह बन गये । इस प्रकार श्रीवृषभानुने ज्ञानिशिरोमणि श्रीगर्गजीकी पूजा की। तब वे सर्वज्ञ एवं त्रिकालदर्शी मुनीन्द्र गर्ग स्वयं अपने स्थानको सिधारे ।। ७२-७३ ।।

 

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें गोलोकखण्डके अन्तर्गत नारद- बहुलाश्व-संवादमें 'नन्द-पत्नीका विश्वरूपदर्शन तथा श्रीकृष्ण-बलरामका नामकरण संस्कार' नामक पंद्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १५ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध पंद्रहवां अध्याय..(पोस्ट..०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध-पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०३)

कृष्णविरहव्यथित पाण्डवों का 
परीक्षित्‌ को राज्य देकर स्वर्ग सिधारना

यत्तेजसाथ भगवान युधि शुलपाणि-
र्विस्मापितः सगिरिजोऽस्त्रमदान्निजं मे ।
अन्येऽपि चाहममुनैव कलेवरेण 
प्राप्तो महेन्द्रभवने महदासनार्धम् ॥१२॥
तत्रैव मे विहरतो भुजदण्डयुग्मं 
गाण्डीवलक्षणमरातिवधाय देवाः ।
सेन्द्रा श्रिता यदनुभावितमाजमीढ 
तेनाहमद्य मुषितः पुरुषेण भूम्र ॥१३॥
यद्वान्धवः कुरुबलाब्धिमनन्तपार- 
मेको रथेन ततरेऽहमतार्यसत्त्वम् ।
प्रत्याहृतं बहु धनं च मयो परेषां 
तेजास्पदं मणीमयं च हृतं शिरोभ्यः ॥१४॥
यो भीष्मकर्णगुरुशल्यमूष्वदभ्र- 
रजन्यवर्यरथमण्डलमन्डितासु ।
अग्रेचरो मम विभो रथयूथपाना- 
मायुर्मनांसि च दृशा सह ओज आर्च्छत् ॥१५॥
यद्दोष्षु मा प्राणीहितं गुरुभीष्मकर्ण- 
नप्तृत्रिगर्तशलसैन्धवबाह्लिकाद्येः ।
अस्त्राण्यमोघमहिमानि निरूपितानि 
नो पस्पृशुर्नृहरिदासमिवासुराणि ॥१६॥

(अर्जुन युधिष्ठिरसे कह रहे हैं) उनके(श्रीकृष्ण के)  प्रतापसे मैंने युद्ध में पार्वतीसहित भगवान्‌ शङ्कर को आश्चर्यमें डाल दिया तथा उन्होंने मुझको अपना पाशुपत नामक अस्त्र दिया; साथ ही दूसरे लोकपालों ने भी प्रसन्न होकर अपने-अपने अस्त्र मुझे दिये। और तो क्या, उनकी कृपासे मैं इसी शरीर से स्वर्गमें गया और देवराज इन्द्र की सभामें उनके बराबर आधे आसन पर बैठने का सम्मान मैंने प्राप्त किया ॥ १२ ॥ उनके आग्रह से जब मैं स्वर्ग में ही कुछ दिनोंतक रह गया, तब इन्द्रके साथ समस्त देवताओंने मेरी इन्हीं गाण्डीव धारण करनेवाली भुजाओंका निवातकवच आदि दैत्योंको मारनेके लिये आश्रय लिया। महाराज ! यह सब जिनकी महती कृपाका फल था, उन्हीं पुरुषोत्तम भगवान्‌ श्रीकृष्णने मुझे आज ठग लिया ? ॥ १३ ॥ महाराज ! कौरवोंकी सेना भीष्म-द्रोण आदि अजेय महामत्स्योंसे पूर्ण अपार समुद्रके समान दुस्तर थी, परंतु उनका आश्रय ग्रहण करके अकेले ही रथपर सवार हो मैं उसे पार कर गया। उन्हींकी सहायतासे, आपको याद होगा, मैंने शत्रुओं से राजा विराट का सारा गोधन तो वापिस ले ही लिया, साथ ही उनके सिरों पर से चमकते हुए मणिमय मुकुट तथा अङ्गों के अलङ्कार तक छीन लिये थे ॥ १४ ॥ भाई जी ! कौरवोंकी सेना भीष्म, कर्ण, द्रोण, शल्य तथा अन्य बड़े-बड़े राजाओं और क्षत्रिय वीरों के रथोंसे शोभायमान थी। उसके सामने मेरे आगे-आगे चलकर वे अपनी दृष्टिसे ही उन महारथी यूथपतियों की आयु, मन, उत्साह और बलको छीन लिया करते थे ॥ १५ ॥ द्रोणाचार्य, भीष्म, कर्ण, भूरिश्रवा, सुशर्मा, शल्य, जयद्रथ और बाह्लीक आदि वीरों ने मुझपर अपने कभी न चूकनेवाले अस्त्र चलाये थे; परंतु जैसे हिरण्यकशिपु आदि दैत्योंके अस्त्र-शस्त्र भगवद्भक्त प्रह्लादका स्पर्श नहीं करते थे, वैसे ही उनके शस्त्रास्त्र मुझे छू तक नहीं सके। यह श्रीकृष्ण के भुजदण्डों की छत्रछाया में रहनेका ही प्रभाव था ॥ १६ ॥ 

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्ट संस्करण)  पुस्तक कोड 1535 से


शुक्रवार, 17 मई 2024

श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) पंद्रहवाँ अध्याय (पोस्ट 04)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(गोलोकखण्ड)

पंद्रहवाँ अध्याय  (पोस्ट 04)

 

यशोदाद्वारा श्रीकृष्णके मुखमें सम्पूर्ण ब्रह्माण्डका दर्शन; नन्द और यशोदाके पूर्व- पुण्य का परिचय; गर्गाचार्यका नन्द भवनमें जाकर बलराम और श्रीकृष्णके नामकरण - संस्कार करना तथा वृषभानुके यहाँ जाकर उन्हें श्रीराधा-कृष्णके नित्य-सम्बन्ध एवं माहात्म्यका ज्ञान कराना

 

श्रीवृषभानुरुवाच -
सतां पर्यटनं शांतं गृहिणां शांतये स्मृतम् ।
नृणामंतस्तमोहारी साधुरेव न भास्करः ॥४६॥
तीर्थीभूता वयं गोपा जातास्त्वद्दर्शनात्प्रभो ।
तीर्थानि तीर्थीकुर्वंति त्वादृशाः साधवः क्षितौ ॥४७॥
हे मुने राधिकानाम कन्या मे मंगलायना ।
कस्मै वराय दातव्या वद त्वं मे सुनिश्चितम् ॥४८॥
त्वं पर्यटन्नर्क इव त्रिलोकीं दिव्यदर्शनः ।
वरोऽनया समो यो वै तस्मै दास्यामि कन्यकाम् ॥४९॥


श्रीनारद उवाच -
हस्तं गृहीत्वा श्रीगर्गो वृषभानोर्महामुनिः ।
जगाम यमुनातीरं निर्जनं सुंदरस्थलम् ॥५०॥
कालिन्दीजलकल्लोककोलाहलसमाकुलम् ।
तत्रोपवेश्य गोपेशं मुनींद्रः प्राह धर्मवित् ॥५१॥


श्रीगर्ग उवाच -
हे गोप गुप्तमाख्यानं कथनीयं न च त्वया ।
परिपूर्णतमः साक्षाच्छ्रीकृष्णो भगवान्स्वयम् ॥५२॥
असंख्यब्रह्मांडपतिर्गोलोकेशः परात्परः ।
तस्मात्परो वरो नास्ति जातो नंदगृहे पतिः ॥५३॥


श्रीवृषभानुरुवाच -
अहोभाग्यमहोभाग्यं नंदस्यापि महामुने ।
श्रीकृष्णस्यावतारस्य सर्वं त्वं वद कारणम् ॥५४॥


श्रीगर्ग उवाच -
भुवो भारावताराय कंसादीनां वधाय च ।
ब्रह्मणा प्राथितः कृष्णो बभूव जगतीतले ॥५५॥
श्रीकृष्णपट्टराज्ञी या गोलोके राधिकाभिधा ।
त्वद्‌गृहे सापि संजाता त्वं न जानासि तां पराम् ॥५६॥


श्रीनारद उवाच -
तदा प्रहर्षितो गोपो वृषभानुः सुविस्मितः ।
कलावतीं समाहूय तया सार्द्धं विचार्य च ॥५७॥
राधाकृष्णानुभावं च ज्ञात्वा गोपवरः परः ।
आनंदाश्रुकलां मुंचन्पुनराह महामुनिम् ॥५८॥


श्रीवृषभानुरुवाच -
तस्मै दास्यामि हे ब्रह्मन् कन्यां कमललोचनाम् ।
त्वया पंथा दर्शितो मे त्वया कार्योऽयमुद्वहः ॥५९॥

श्रीवृषभानु ने कहा- संत पुरुषों का विचरण शान्तिमय है; क्योंकि वह गृहस्थजनों को परम शान्ति प्रदान करनेवाला है। मनुष्यों के भीतरी अन्धकार का नाश महात्माजन ही करते हैं, सूर्यदेव नहीं। भगवन् ! आपका दर्शन पाकर हम सभी गोप पवित्र हो गये। भूमण्डल पर आप जैसे साधु-महात्मा पुरुष तीर्थों को भी पावन बनानेवाले होते हैं। मुने! मेरे यहाँ एक कन्या हुई है, जो मङ्गल की धाम है और जिसका 'राधिका' नाम है। आप भली-भाँति विचारकर यह बताने की कृपा कीजिये कि इसका शुभ विवाह किसके साथ किया जाय। सूर्य की भाँति आप तीनों लोकों में विचरण करते हैं। आप दिव्यदर्शन हैं, जो इसके अनुरूप सुयोग्य वर होगा, उसीके हाथ में इस कल्याणमयी कन्या को दूँगा । ४६ – ४९ ।।

श्रीनारदजी कहते हैं— राजन् ! तदनन्तर मुनिवर गर्गजी वृषभानुजीका हाथ पकड़े यमुनाके तटपर गये। वहाँ एक निर्जन और अत्यन्त सुन्दर स्थान था, जहाँ कालिन्दीजलकी कल्लोलमालाओंकी कल-कल ध्वनि सदा गूँजती रहती थी। वहीं गोपेश्वर वृषभानुको बैठाकर धर्मज्ञ मुनीन्द्र गर्ग इस प्रकार कहने लगे । ५०-५१ ॥

श्रीगर्गजी बोले- वृषभानुजी ! एक गुप्त बात है, यह तुम्हें किसीसे नहीं कहनी चाहिये। जो असंख्य ब्रह्माण्डोंके अधिपति, गोलोकधामके स्वामी, परात्पर तथा साक्षात् परिपूर्णतम हैं; जिनसे बढ़कर दूसरा कोई नहीं है; स्वयं वे ही भगवान् श्रीकृष्ण नन्दके घरमें प्रकट हुए हैं ।। ५२-५३ ।।

श्रीवृषभानुने कहा- महामुने ! नन्दजीका भी भाग्य अद्भुत है, धन्य एवं अवर्णनीय है। अब आप भगवान् श्रीकृष्ण के अवतार का सम्पूर्ण कारण मुझे बताइये ॥ ५४ ॥

श्रीगर्ग जी बोले- पृथ्वी का भार उतारने और कंस आदि दुष्टों का विनाश करने के लिये ब्रह्माजी के प्रार्थना करने पर भगवान् श्रीकृष्ण पृथ्वीपर अवतीर्ण हुए हैं। उन्हीं परम प्रभु श्रीकृष्णकी पटरानी, जो प्रिया श्रीराधिकाजी गोलोकधाममें विराजती हैं, वे ही तुम्हारे

घर पुत्रीरूप से प्रकट हुई हैं। तुम उन पराशक्ति राधिकाको नहीं जानते ।। ५५-५६ ॥

 

श्रीनारदजी कहते हैं - राजन् ! उस समय गोप वृषभानुके मनमें आनन्दकी बाढ़ आ गयी और वे अत्यन्त विस्मित हो गये। उन्होंने कलावती (कीर्ति) को बुलाकर उनके साथ विचार किया। पुनः श्रीराधा- कृष्णके प्रभावको जानकर गोपवर वृषभानु आनन्दके आँसू बहाते हुए पुनः महामुनि गर्गसे कहने लगे ।। ५७-५८ ॥

श्रीवृषभानुने कहा – द्विजवर ! उन्हीं भगवान् श्रीकृष्णको मैं अपनी यह कमलनयनी कन्या समर्पण करूँगा। आपने ही मुझे यह सन्मार्ग दिखलाया है; अतः आपके द्वारा ही इसका शुभ विवाह-संस्कार सम्पन्न होना चाहिये ।। ५९ ।।

 

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध पंद्रहवां अध्याय..(पोस्ट..०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध-पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०२)

कृष्णविरहव्यथित पाण्डवों का 
परीक्षित्‌ को राज्य देकर स्वर्ग सिधारना

यत्संनिधावहमु खाण्डवमग्नयेऽदा-
मिन्द्रं च सामरगणं तरसा विजित्य ।
लब्धा सभ मयकृताद्भुतशिल्पमाया 
दिग्भोऽहरन्नृपतयो बलिमध्वरे ते ॥८॥
यत्तेजसा नृपशिरोऽडघ्रिमहन्मखार्थे 
आर्योऽनुजस्तव गजायुतसत्ववीर्यः ।
तेनाहृताः प्रमथनाथमखाय भूपा 
यन्मोचितास्तदनयन बलिमध्वरे ते ॥९॥
पत्‍न्यास्तवधिमखक्लृप्तमहाभिषेक-
श्‍लाघिष्ठन्चारुकाबरं कितवैः सभायाम ।
स्पृष्टं विकीर्य पदयोः पतिताश्रुमुख्या 
यस्तत्स्त्रियोऽकृत हतेशविमुक्तकेशाः ॥१०॥
यो नो जुगोप वनमेत्य दुरन्तकृच्छ्राद् 
दुर्वाससोऽरिविहतादयुताग्रभुग् यः ।
शाकान्नशिशःटमुपयुज्य यतास्त्रिलोकीं 
तृप्ताममंस्त सलिले विनिमंग्नसंघः ॥११॥

(अर्जुन युधिष्ठिरसे कह रहे हैं) श्रीकृष्ण की सन्निधिमात्र से मैंने समस्त देवताओंके साथ इन्द्रको अपने बलसे जीतकर अग्निदेवको उनकी तृप्तिके लिये खाण्डव वनका दान कर दिया और मय दानवकी निर्माण की हुई, अलौकिक कलाकौशल से युक्त मायामयी सभा प्राप्त की और आपके यज्ञ में सब ओर से आ-आकर राजाओं ने अनेकों प्रकार की भेंटें समर्पित कीं ॥ ८ ॥ दस हजार हाथियों की शक्ति और बलसे सम्पन्न आपके इन छोटे भाई भीमसेन ने उन्हीं की  शक्तिसे राजाओं के सिर पर पैर रखनेवाले अभिमानी जरासन्धका वध किया था; तदनन्तर उन्हीं भगवान्‌ने उन बहुत-से राजाओंको मुक्त किया, जिनको जरासन्धने महाभैरव-यज्ञमें बलि चढ़ानेके लिये बंदी बना रखा था। उन सब राजाओंने आपके यज्ञमें अनेकों प्रकारके उपहार दिये थे ॥ ९ ॥ महारानी द्रौपदी राजसूय यज्ञके महान् अभिषेकसे पवित्र हुए अपने उन सुन्दर केशोंको, जिन्हें दुष्टोंने भरी सभामें छूनेका साहस किया था, बिखेरकर तथा आँखोंमें आँसू भरकर जब श्रीकृष्णके चरणोंमें गिर पड़ी, तब उन्होंने उसके सामने उसके उस घोर अपमानका बदला लेनेकी प्रतिज्ञा करके उन धूर्तोंकी स्त्रियोंकी ऐसी दशा कर दी कि वे विधवा हो गयीं और उन्हें अपने केश अपने हाथों खोल देने पड़े ॥ १० ॥ वनवासके समय हमारे वैरी दुर्योधनके षड्यन्त्रसे दस हजार शिष्योंको साथ बिठाकर भोजन करनेवाले महर्षि दुर्वासाने हमें दुस्तर संकटमें डाल दिया था। उस समय उन्होंने द्रौपदीके पात्रमें बची हुई शाककी एक पत्तीका ही भोग लगाकर हमारी रक्षा की। उनके ऐसा करते ही नदीमें स्नान करती हुई मुनिमण्डलीको ऐसा प्रतीत हुआ मानो उनकी तो बात ही क्या, सारी त्रिलोकी ही तृप्त हो गयी है [*] ॥ ११ ॥ 

................................................................
[*] एक बार राजा दुर्योधनने महर्षि दुर्वासाकी बड़ी सेवा की। उससे प्रसन्न होकर मुनिने दुर्योधनसे वर माँगनेको कहा। दुर्योधनने यह सोचकर कि ऋषिके शापसे पाण्डवोंको नष्ट करनेका अच्छा अवसर है, मुनिसे कहा—‘‘ब्रह्मन् ! हमारे कुलमें युधिष्ठिर प्रधान हैं, आप अपने दस सहस्र शिष्योंसहित उनका आतिथ्य स्वीकार करें। किंतु आप उनके यहाँ उस समय जायँ जबकि द्रौपदी भोजन कर चुकी हो, जिससे उसे भूखका कष्ट न उठाना पड़े।’’ द्रौपदीके पास सूर्यकी दी हुई एक ऐसी बटलोई थी, जिसमें सिद्ध किया हुआ अन्न द्रौपदीके भोजन कर लेनेसे पूर्व शेष नहीं होता था; किन्तु उसके भोजन करनेके बाद वह समाप्त हो जाता था। दुर्वासाजी दुर्योधनके कथनानुसार उसके भोजन कर चुकनेपर मध्याह्नमें अपनी शिष्यमण्डलीसहित पहुँचे और धर्मराजसे बोले—‘‘हम नदीपर स्नान करने जाते हैं, तुम हमारे लिये भोजन तैयार रखना।’’ इससे द्रौपदीको बड़ी चिन्ता हुई और उसने अति आर्त होकर आर्तबन्धु भगवान्‌ श्रीकृष्णकी शरण ली। भगवान्‌ तुरंत ही अपना विलासभवन छोडक़र द्रौपदीकी झोंपड़ीपर आये और उससे बोले—‘‘कृष्णे ! आज बड़ी भूख लगी है, कुछ खानेको दो।’’ द्रौपदी भगवान्‌की इस अनुपम दयासे गद्गद हो गयी और बोली ‘‘प्रभो ! मेरा बड़ा भाग्य है, जो आज विश्वम्भरने मुझसे भोजन माँगा; परन्तु क्या करूँ ? अब तो कुटीमें कुछ भी नहीं है।’’ भगवान्‌ने कहा—‘‘अच्छा, वह पात्र तो लाओ; उसमें कुछ होगा ही।’’ द्रौपदी बटलोई ले आयी; उसमें कहीं शाकका एक कण लगा था। विश्वात्मा हरिने उसीको भोग लगाकर त्रिलोकीको तृप्त कर दिया और भीमसेनसे कहा कि मुनिमण्डलीको भोजनके लिये बुला लाओ। किन्तु मुनिगण तो पहले ही तृप्त होकर भाग गये थे। (महाभारत)

शेष आगामी पोस्ट में --
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गुरुवार, 16 मई 2024

श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) पंद्रहवाँ अध्याय (पोस्ट 03)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(गोलोकखण्ड)

पंद्रहवाँ अध्याय  (पोस्ट 03)

 

यशोदाद्वारा श्रीकृष्णके मुखमें सम्पूर्ण ब्रह्माण्डका दर्शन; नन्द और यशोदाके पूर्व- पुण्य का परिचय; गर्गाचार्यका नन्द भवनमें जाकर बलराम और श्रीकृष्णके नामकरण - संस्कार करना तथा वृषभानुके यहाँ जाकर उन्हें श्रीराधा-कृष्णके नित्य-सम्बन्ध एवं माहात्म्यका ज्ञान कराना

 

वसवश्चेंद्रियाणीति तद्देवश्चित्तमेव हि ।
तस्मिन्यश्चेष्टते सोऽपि वासुदेव इति स्मृतः ॥३३॥
वृषभानुसुता राधा या जाता कीर्तिमंदिरे ।
तस्याः पतिरयं साक्षात्तेन राधापतिः स्मृतः ॥३४॥
परिपूर्णतमः साक्षाच्छ्रीकृष्णो भगवान्स्वयम् ।
असंख्यब्रह्माण्डपतिः गोलोके धाम्नि राजते ॥३५॥
सोऽयं तव शिशुर्जातो भारावतरणाय च ।
कंसादीनां वधार्थाय भक्तानां रक्षणाय च ॥३६॥
अनंतान्यस्य नामानि वेदगुह्यानि भारत ।
लीलाभिश्च भविष्यंति तत्कर्मसु न विस्मयः ॥३७॥
अहोभाग्यं तु ते नंद साक्षाच्छ्रीपुरुषोत्तमः ।
त्वद्‌गृहे वर्तमानोऽयं शिशुरूपः परात्परः ॥३८॥
इत्युक्त्वाथ गते गर्गे स्वात्मानं पूर्णमाशिषाम् ।
मेने प्रमुदितः पत्‍न्या नंदराजो महामतिः ॥३९॥
अर्थ गर्गो ज्ञानिवरो ज्ञानदो मुनिसत्तमः ।
कालिंदीतीरशोभाढ्यां वृषभानुपुरं गतः ॥४०॥
छत्रेण शोभितं विप्रं द्वितीयमिव वासवम् ।
दंडेन राजितं साक्षाद्धर्मराजमिव स्थितम् ॥४१॥
तेजसा द्योतितदिशं साक्षात्सूर्यमिवापरम् ।
पुस्तकीमेखलायुक्तं द्वितीयमिव पद्मजम् ॥४२॥
शोभितं शुक्लवासोभिर्देवं विष्णुमिव स्थितम् ।
तं दृष्ट्वा मुनिशार्दूलं सहसोत्थाय सादरम् ॥४३॥
प्रणम्य शिरसा सद्यः संमुखोऽभूत् कृतांजलिः ।
मुनिं च पीठके स्थाप्य पाद्याद्यैरुपचारवित् ॥४४॥
पूजयामास विधिवच्छ्रीगर्गं ज्ञानिनां वरम् ।
ततः प्रदक्षिणीकृत्य वृषभानुवरो महान् ॥४५॥

इनका एक नाम 'वासुदेव' भी है। इसकी व्युत्पत्ति इस प्रकार है- 'वसु' नाम है इन्द्रियोंका । इनका देवता है— चित्त । उस चित्त में स्थित रहकर जो चेष्टाशील हैं, उन अन्तर्यामी भगवान्‌ को 'वासुदेव' कहते हैं। वृषभानुकी पुत्री राधा जो कीर्तिके भवनमें प्रकट हुई हैं, उनके ये साक्षात् प्राणनाथ बनेंगे; अतः इनका एक नाम 'राधापति' भी है ॥ ३३-३४ ॥

जो साक्षात् परिपूर्णतम स्वयं भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र हैं, असंख्य ब्रह्माण्ड जिनके अधीन हैं और जो गोलोकधाम में विराजते हैं, वे ही परम प्रभु तुम्हारे यहाँ बालकरूपसे प्रकट हुए हैं। पृथ्वीका भार उतारना, कंस आदि दुष्टोंका संहार करना और भक्तोंकी रक्षा करना — ये ही इनके अवतार के उद्देश्य हैं ।। ३५-३६ ।।

भरतवंशोद्भव नन्द ! इनके नामोंका अन्त नहीं है । वे सब नाम वेदोंमें गूढ़रूपसे कहे गये हैं । इनकी लीलाओंके कारण भी उन-उन कर्मों के अनुसार इनके नाम विख्यात होंगे। इनके अद्भुत कर्मोंको लेकर आश्चर्य नहीं करना चाहिये। तुम्हारा अहोभाग्य है; क्योंकि जो साक्षात् परिपूर्णतम परात्पर श्रीपुरुषोत्तम प्रभु हैं, वे तुम्हारे घर पुत्रके रूपमें शोभा पा रहे हैं ।। ३७-३८ ।।

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! यों कहकर श्रीगर्गजी जब चले गये, तब प्रमुदित हुए महामति नन्दरायने यशोदा-सहित अपनेको पूर्णकाम एवं कृतकृत्य माना ॥ तदनन्तर ज्ञानिशिरोमणि ज्ञानदाता मुनिश्रेष्ठ श्रीगर्गजी यमुनातटपर सुशोभित वृषभानुजीकी पुरी में पधारे। छत्र धारण करनेसे वे दूसरे इन्द्रकी तथा दण्ड धारण करने से साक्षात् धर्मराज की भाँति सुशोभित होते थे ॥ ३९-४१ ॥

 

साक्षात् दूसरे सूर्य की भाँति वे अपने तेजसे सम्पूर्ण दिशाओंको प्रकाशित कर रहे थे। पुस्तक तथा मेखलासे युक्त विप्रवर गर्ग दूसरे ब्रह्माकी भाँति प्रतीत होते थे। शुक्ल वस्त्रोंसे सुशोभित होनेके कारण वे भगवान् विष्णुकी-सी शोभा पाते थे । उन मुनिश्रेष्ठको देखकर वृषभानुजीने तुरंत उठकर अत्यन्त आदरके साथ सिर झुकाकर उन्हें प्रणाम किया और हाथ जोड़कर वे उनके सामने खड़े हो गये। पूजनोपचारके ज्ञाता वृषभानुने मुनिको एक मङ्गलमय आसनपर बिठाकर पाद्य आदिके द्वारा उन ज्ञानिशिरोमणि गर्गका विधिवत् पूजन किया। फिर उनकी परिक्रमा करके महान् 'वृषभानुवर' इस प्रकार बोले ।। ४२–४५ ॥

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध पंद्रहवां अध्याय..(पोस्ट..०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध-पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०१)

कृष्णविरहव्यथित पाण्डवों का 
परीक्षित्‌ को राज्य देकर स्वर्ग सिधारना

सूत उवाच ।
एवं कृष्णसखः कृष्णो भ्रात्र राज्ञाऽऽविकल्पितः ।
नानाशंकास्पदं रूपं कृष्णविश्लेषकर्षितः ॥१॥
शोकेन शुष्यद्वदनहृत्सरोजो हतप्रभः ।
विभुं तमेवानुध्यायन्नाशक्रोत्प्रतिभाषितुम् ॥२॥
कृच्छ्रेण संस्तभ्य शुचः पाणिनाऽऽमृज्य नेत्रयोः ।
परोक्षेण समुन्नद्धप्रणयौत्कण्ठ्यकातरः ॥३॥
सख्य मैत्रीं सौहृदं च सारथ्यादिषु संस्मरन् ।
नृपमग्रजमित्याह बाष्पगद्गदया गिरा ॥४॥

अर्जुन उवाच ।
वचिंतोऽहं महाराज हरिणा बन्धुरुपिणा ।
येन मेऽपहृतं तेजो देवविस्मापनं महत् ॥५॥
यस्य क्षणवियोगेन लोको ह्राप्रियदर्शनः ।
उक्थेन रहितो ह्योष मृतकः प्रोच्यते यथा ॥६॥
यत्संश्रयाद द्रुपदगेहमुपागतानां 
राज्ञा स्वयंवरमुखे स्मरदुर्मदानाम् ।
तेजो हृतं खलु मयाभिहतश्च मत्स्यः 
सज्जीकृतेन धनुष्याधिगता च कृष्णा ॥७॥

सूतजी कहते हैं—भगवान्‌ श्रीकृष्णके प्यारे सखा अर्जुन एक तो पहले ही श्रीकृष्णके विरहसे कृश हो रहे थे, उसपर राजा युधिष्ठिरने उनकी विषादग्रस्त मुद्रा देखकर उसके विषयमें कई प्रकारकी आशङ्काएँ करते हुए प्रश्नों की झड़ी लगा दी ॥ १ ॥ शोकसे अर्जुनका मुख और हृदय-कमल सूख गया था, चेहरा फीका पड़ गया था। वे उन्हीं भगवान्‌ श्रीकृष्णके ध्यानमें ऐसे डूब रहे थे कि बड़े भाईके प्रश्रोंका कुछ भी उत्तर न दे सके ॥ २ ॥ श्रीकृष्णकी आँखोंसे ओझल हो जानेके कारण वे बढ़ी हुई प्रेमजनित उत्कण्ठाके परवश हो रहे थे। रथ हाँकने, टहलने आदिके समय भगवान्‌ने उनके साथ जो मित्रता, अभिन्नहृदयता और प्रेमसे भरे हुए व्यवहार किये थे, उनकी याद-पर-याद आ रही थी; बड़े कष्टसे उन्होंने अपने शोकका वेग रोका, हाथसे नेत्रोंके आँसू पोंछे और फिर रुँधे हुए गलेसे अपने बड़े भाई महाराज युधिष्ठिर से कहा ॥ ३-४ ॥
अर्जुन बोले—महाराज ! मेरे ममेरे भाई अथवा अत्यन्त घनिष्ठ मित्रका रूप धारणकर श्रीकृष्णने मुझे ठग लिया। मेरे जिस प्रबल पराक्रमसे बड़े-बड़े देवता भी आश्चर्यमें डूब जाते थे, उसे श्रीकृष्ण ने मुझसे छीन लिया ॥ ५ ॥ जैसे यह शरीर प्राणसे रहित होनेपर मृतक कहलाता है, वैसे ही उनके क्षणभरके वियोगसे यह संसार अप्रिय दीखने लगता है ॥ ६ ॥ उनके आश्रयसे द्रौपदी-स्वयंवरमें राजा द्रुपदके घर आये हुए कामोन्मत्त राजाओंका तेज मैंने हरण कर लिया, धनुषपर बाण चढ़ाकर मत्स्यवेध किया और इस प्रकार द्रौपदीको प्राप्त किया था ॥ ७ ॥ 

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बुधवार, 15 मई 2024

श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) पंद्रहवाँ अध्याय (पोस्ट 02)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(गोलोकखण्ड)

पंद्रहवाँ अध्याय  (पोस्ट 02)

 

यशोदाद्वारा श्रीकृष्णके मुखमें सम्पूर्ण ब्रह्माण्डका दर्शन; नन्द और यशोदाके पूर्व- पुण्य का परिचय; गर्गाचार्यका नन्द भवनमें जाकर बलराम और श्रीकृष्णके नामकरण - संस्कार करना तथा वृषभानुके यहाँ जाकर उन्हें श्रीराधा-कृष्णके नित्य-सम्बन्ध एवं माहात्म्यका ज्ञान कराना

 

श्रीबहुलाश्व उवाच -
नंदगेहे हरिः साक्षाच्छिशुरूपः सनातनः ।
किं चकार बलेनापि तन्मे ब्रूहि महामुने ॥१७॥


श्रीनारद उवाच -
एकदा शिष्यसहोतो गर्गाचार्यो महामुनिः ।
शौरिणा नोदितः साक्षादाययौ नंदमंदिरम् ॥१८॥
नंदः संपूज्य विधिवत्पाद्याद्यैर्मुनिसत्तमम् ।
ततः प्रदक्षिणीकृत्य साष्टांगं प्रणनाम ह ॥१९॥


श्रीनन्द उवाच -
अद्य नः पितरो देवाः संतुष्टा अग्नयश्च नः ।
पवित्रं मंदिरं जातं युष्मच्चरणरेणुभिः ॥२०॥
मत्पुत्रनामकरणं कुरु द्विज महामुने ।
पुण्यैस्तीर्थैश्च दुष्प्राप्यं भवदागमनं प्रभो ॥२१॥


श्रीगर्ग उवाच -
ते पुत्रनामकरणं करिष्यामि न संशयः ।
पूर्ववार्तां गदिष्यामि गच्छ नंद रहःस्थलम् ॥२२॥


श्रीनारद उवाच -
उत्थाप्य गर्गो नन्देन बालाभ्यां च यशोदया ।
एकांते गोव्रजे गत्वा तयोर्नाम चकार ह ।
संपूज्य गणनाथादीन् ग्रहान्संशोध्य यत्‍नतः ।
नंदं प्राह प्रसन्नांगो गर्गाचार्यो महामुनिः ॥२४॥
रोहिणीनंदनस्यास्य नामोच्चारं शृणुष्व च ।
रमन्ते योगिनो ह्यस्मिन्सर्वत्र रमतीति वा ॥२५॥
गुणैश्च रमयन् भक्ताण्स्तेन रामं विदुः परे ।
गर्भसंकर्षणादस्य संकर्षण इति स्मृतः ॥२६॥
सर्वावशेषाद्यं शेषं बलाधिक्याद्‌बलं विदुः ।
स्वपुत्रस्यापि नामानि शृणु नंद ह्यतन्द्रितः ॥२७॥
सद्यः प्राणिपवित्राणि जगतां मंगलानि च ।
ककारः कमलाकांत ऋकारो राम इत्यपि ॥२८॥
षकारः षड्‍गुणपतिः श्वेतद्वीपनिवासकृत् ।
णकारो नारसिंहोऽयमकारो ह्यक्षरोऽग्निभुक् ॥२९॥
विसर्गौ च तथा ह्येतौ नरनारायणावृषी ।
संप्रलीनाश्च षट् पूर्णा यस्मिञ्छुद्धे महात्मनि ॥३०॥
परिपूर्णतमे साक्षात्तेन कृष्णः प्रकीर्तितः ।
शुक्लो रक्तस्तथा पीतो वर्णोऽस्यानुयुगं धृतः ॥३१॥
द्वापरान्ते कलेरादौ बालोऽयं कृष्णतां गतः ।
तस्मात्कृष्ण इति ख्यातो नाम्नायं नंदनंदनः ॥३२॥

श्रीबहुलाश्वने पूछा- महामुने ! शिशुरूपधारी उन सनातन पुरुष भगवान् श्रीहरिने बलरामजीके साथ कौन-कौन-सी लीलाएँ कीं, यह मुझे बताइये ॥ १७ ॥

श्रीनारदजीने कहा- राजन् ! एक दिन वसुदेव- जीके भेजे हुए महामुनि गर्गाचार्य अपने शिष्योंके साथ नन्दभवनमें पधारे। नन्दजीने पाद्य आदि उत्तम उपचारों- द्वारा मुनिश्रेष्ठ गर्गकी विधिवत् पूजा की और प्रदक्षिणा करके उन्हें साष्टाङ्ग प्रणाम किया ॥ १८-१९ ॥

नन्दजी बोले - आज हमारे पितर देवता और अग्नि- सभी संतुष्ट हो गये। आपके चरणोंकी धूलि पड़नेसे हमारा घर परम पवित्र हो गया। महामुने ! आप मेरे बालकका नामकरण कीजिये । विप्रवर प्रभो ! अनेक पुण्यों और तीर्थोंका सेवन करनेपर भी आपका शुभागमन सुलभ नहीं होता ।। २०-२१ ॥

 

श्रीगर्गजीने कहा –नन्दरायजी ! मैं तुम्हारे पुत्रका नामकरण करूँगा, इसमें संशय नहीं है; किंतु कुछ पूर्वकालकी बात बताऊँगा, अतः एकान्त स्थानमें चलो ॥ २२ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! तदनन्तर गर्गजी नन्द-यशोदा तथा दोनों बालक- श्रीकृष्ण एवं बलरामको साथ लेकर गोशालामें, जहाँ दूसरा कोई नहीं था, चले गये। वहाँ उन्होंने उन बालकोंका नामकरण संस्कार किया । सर्वप्रथम उन्होंने गणेश आदि देवताओंका पूजन किया, फिर यत्नपूर्वक ग्रहोंका शोधन (विचार) करके हर्षसे पुलकित हुए महामुनि गर्गाचार्य नन्दसे बोले ॥ २३-२४ ॥

गर्गजीने कहा- ये जो रोहिणीके पुत्र हैं, इनका नाम बताता हूँ — सुनो । इनमें योगीजन रमण करते हैं अथवा ये सब में रमते हैं या अपने गुणों द्वारा भक्तजनों के मन को रमाया करते हैं, इन कारणोंसे उत्कृष्ट ज्ञानीजन इन्हें 'राम' नामसे जानते हैं। योगमायाद्वारा गर्भका संकर्षण होनेसे इनका प्रादुर्भाव हुआ है, अतः ये 'संकर्षण' नामसे प्रसिद्ध होंगे। अशेष जगत् का संहार होनेपर भी ये शेष रह जाते हैं, अतः इन्हें लोग 'शेष' नामसे जानते हैं। सबसे अधिक बलवान् होनेसे ये 'बल' नामसे भी विख्यात होंगे ॥२५-२६॥

 

नन्द ! अब अपने पुत्रके नाम सावधानीके साथ सुनो- ये सभी नाम तत्काल प्राणिमात्रको पावन करनेवाले तथा चराचर समस्त जगत् के लिये परम कल्याणकारी हैं। '' का अर्थ है— कमलाकान्त; ''कारका अर्थ है— राम; '' अक्षर षड्विध ऐश्वर्यके स्वामी श्वेतद्वीपनिवासी भगवान् विष्णुका - वाचक है। '' नरसिंहका प्रतीक है और 'अकार' अक्षर अग्निभुक् (अग्निरूप से हविष्य के भोक्ता अथवा अग्निदेव के रक्षक) का वाचक है तथा दोनों विसर्गरूप बिंदु (:) नर-नारायण के बोधक हैं। ये छहों पूर्ण तत्त्व जिस महामन्त्ररूप परिपूर्णतम शब्दमें लीन हैं, वह इसी व्युत्पत्तिके कारण 'कृष्ण' कहा गया है। अतः इस बालकका एक नाम 'कृष्ण' है। सत्ययुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग — इन युगोंमें इन्होंने शुक्ल, रक्त, पीत तथा कृष्ण कान्ति ग्रहण की है। द्वापरके अन्त और कलिके आदिमें यह बालक 'कृष्ण' अङ्गकान्तिको प्राप्त हुआ है, इस कारणसे भी यह नन्दनन्दन 'कृष्ण' नामसे विख्यात होगा  ॥ २७-३२ ॥

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध--चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०५)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण

प्रथम स्कन्ध--चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०५)

अपशकुन देखकर महाराज युधिष्ठिर का शंका करना और अर्जुन का द्वारका से लौटना

कच्चित्तेऽनामयं तात भ्रष्टतेजा विभासि मे ।

अलब्धमानोऽवज्ञातः किं वा तात चिरोषितः ॥ ३९ ॥

कच्चित् नाभिहतोऽभावैः शब्दादिभिरमङ्‌गलैः ।

न दत्तमुक्तमर्थिभ्य आशया यत्प्रतिश्रुतम् ॥ ४० ॥

कच्चित्त्वं ब्राह्मणं बालं गां वृद्धं रोगिणं स्त्रियम् ।

शरणोपसृतं सत्त्वं नात्याक्षीः शरणप्रदः ॥ ४१ ॥

कच्चित्त्वं नागमोऽगम्यां गम्यां वासत्कृतां स्त्रियम् ।

पराजितो वाथ भवान् नोत्तमैर्नासमैः पथि ॥ ४२ ॥

अपि स्वित्पर्यभुङ्‌क्थास्त्वं सम्भोज्यान् वृद्धबालकान् ।

जुगुप्सितं कर्म किञ्चित् कृतवान्न यदक्षमम् ॥ ४३ ॥

कच्चित्प्रेष्ठतमेनाथ हृदयेनात्मबन्धुना ।

शून्योऽस्मि रहितो नित्यं मन्यसे तेऽन्यथा न रुक् ॥ ४४ ॥

(युधिष्ठिर कहते हैं) भाई अर्जुन ! यह भी बताओ कि तुम स्वयं तो कुशलसे हो न ? मुझे तुम श्रीहीन-से दीख रहे हो; वहाँ बहुत दिनोंतक रहे, कहीं तुम्हारे सम्मानमें तो किसी प्रकारकी कमी नहीं हुई ? किसीने तुम्हारा अपमान तो नहीं कर दिया ? ॥ ३९ ॥ कहीं किसीने दुर्भावपूर्ण अमङ्गल शब्द आदिके द्वारा तुम्हारा चित्त तो नहीं दुखाया ? अथवा किसी आशासे तुम्हारे पास आये हुए याचकोंको उनकी माँगी हुई वस्तु अथवा अपनी ओरसे कुछ देनेकी प्रतिज्ञा करके भी तुम नहीं दे सके ? ॥ ४० ॥ तुम सदा शरणागतोंकी रक्षा करते आये हो; कहीं किसी भी ब्राह्मण, बालक, गौ, बूढ़े, रोगी, अबला अथवा अन्य किसी प्राणीका, जो तुम्हारी शरणमें आया हो, तुमने त्याग तो नहीं कर दिया ? ॥ ४१ ॥ कहीं तुमने अगम्या स्त्रीसे समागम तो नहीं किया ? अथवा गमन करनेयोग्य स्त्रीके साथ असत्कारपूर्वक समागम तो नहीं किया ? कहीं मार्गमें अपनेसे छोटे अथवा बराबरीवालोंसे हार तो नहीं गये ? ॥ ४२ ॥ अथवा भोजन करानेयोग्य बालक और बूढ़ोंको छोडक़र तुमने अकेले ही तो भोजन नहीं कर लिया ? मेरा विश्वास है कि तुमने ऐसा कोई निन्दित काम तो नहीं किया होगा, जो तुम्हारे योग्य न हो ॥ ४३ ॥ हो-न-हो अपने परम प्रियतम अभिन्नहृदय परम सुहृद् भगवान्‌ श्रीकृष्णसे तुम रहित हो गये हो। इसीसे अपनेको शून्य मान रहे हो । इसके सिवा दूसरा कोई कारण नहीं हो सकता, जिससे तुमको इतनी मानसिक पीड़ा हो॥ ४४ ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

प्रथमस्कन्धे युधिष्टिरवितर्को नाम चतुर्दशोऽध्यायः ॥ १४ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्ट संस्करण)  पुस्तक कोड 1535 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-छठा अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - छठा अध्याय..(पोस्ट०२) विराट् शरीर की उत्पत्ति हिरण्मयः स पुरुषः सहस्रपरिवत्सर...