रविवार, 26 मई 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध सोलहवां अध्याय..(पोस्ट..०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध-सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०१)

परीक्षित्‌ की दिग्विजय 
तथा धर्म और पृथ्वी का संवाद

सूत उवाच ।
ततः परीक्षिद् द्विजवर्यशिक्षया 
महीं महाभागवतः शशास ह ।
यथा हि सूत्यामभिजातकोविदाः 
समादिशन् विप्र महद्गुणस्तथा ॥१॥
स उत्तरस्य तनयामुपयेम इरावतीम् ।
जनमेजयादींश्चतुरस्तस्यामुत्पादयत् सुतान् ॥२॥
आजहाराश्वमेधांस्त्रीन् गंगायां भूरिदक्षिणान् ।
शारद्वतं गुरुं कृत्वा देवा यत्राक्षिगोचराः ॥३॥
निजग्राहौजसा वीरः कलिं दिग्विजये क्वचित् ।
नृपलिंगधरं शूद्रं घ्नन्तं गोमिथुनं पदा ॥४॥

शौनक उवाच ।
कस्य हेतोर्निजग्राह कलिं द्विग्विजये नृपः ।
नृदेवचिन्हधृक् शुद्रकोऽसौ गां यः पदाहनत् ।
तत्कथ्यतां महाभाग यदि कृष्णकथाश्रयम् ॥५॥
अथवास्य पदाम्भोजमकरन्दलिहं सताम ।
किमन्यैरसदालापैरायुषो यदसद्व्ययः ॥६॥

सूतजी कहते हैं—शौनकजी ! पाण्डवों के महाप्रयाण के पश्चात् भगवान्‌ के परम भक्त राजा परीक्षित्‌ श्रेष्ठ ब्राह्मणोंकी शिक्षाके अनुसार पृथ्वीका शासन करने लगे। उनके जन्मके समय ज्योतिषियोंने उनके सम्बन्धमें जो कुछ कहा था, वास्तवमें वे सभी महान् गुण उनमें विद्यमान थे ॥ १ ॥ उन्होंने उत्तर की पुत्री इरावती से विवाह किया। उससे उन्होंने जनमेजय आदि चार पुत्र उत्पन्न किये ॥ २ ॥ तथा कृपाचार्य को आचार्य बनाकर उन्होंने गङ्गा के तटपर तीन अश्वमेध-यज्ञ किये, जिनमें ब्राह्मणों को पुष्कल दक्षिणा दी गयी। उन यज्ञों में देवताओं ने प्रत्यक्षरूप में प्रकट होकर अपना भाग ग्रहण किया था ॥ ३ ॥ एक बार दिग्विजय करते समय उन्होंने देखा कि शूद्र के रूप में कलियुग राजा का वेष धारण करके एक गाय और बैल के जोड़े को ठोकरों से मार रहा है। तब उन्होंने उसे बलपूर्वक पकडक़र दण्ड दिया ॥ ४ ॥
शौनकजी ने पूछा—महाभाग्यवान् सूतजी ! दिग्विजय के समय महाराज परीक्षित्‌ ने कलियुग को दण्ड देकर ही क्यों छोड़ दिया—मार क्यों नहीं डाला ? क्योंकि राजाका वेष धारण करनेपर भी था तो वह अधम शूद्र ही, जिसने गाय को लात से मारा था ? यदि यह प्रसङ्ग भगवान्‌ श्रीकृष्णकी लीलासे अथवा उनके चरणकमलों के मकरन्द-रसका पान करनेवाले रसिक महानुभावोंसे सम्बन्ध रखता हो तो अवश्य कहिये। दूसरी व्यर्थकी बातोंसे क्या लाभ। उनमें तो आयु व्यर्थ नष्ट होती है ॥ ५-६ ॥ 

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्ट संस्करण)  पुस्तक कोड 1535 से


शनिवार, 25 मई 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध पंद्रहवां अध्याय..(पोस्ट..१०)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध-पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट १०)

कृष्णविरहव्यथित पाण्डवों का 
परीक्षित्‌ को राज्य देकर स्वर्ग सिधारना

सर्वे तमनु निर्जग्मुर्भ्रातरः कृतनिश्चयाः ।
कलिनाधर्ममित्रेण दृष्टा स्पृष्टाः प्रजा भुवि ॥४५॥
ते साधुकृतसर्वार्था ज्ञात्वाऽऽत्यन्तिकमात्मनः ।
मनसा धारयामासुर्वैकुठचरणाम्बुजम् ॥४६॥
तद्धनोद्रिक्तया भक्त्या विशुद्धधिषणाः परे ।
तस्मिन् नारायणपदे एकान्तमतयो गतिम् ॥४७॥
अवापुर्दुरवापां ते असद्भिर्विषयात्मभिः ।
विधूतकल्मषास्थाने विरजेनात्मनैव हि ॥४८॥
विदुरोऽपि परित्यज्य प्रभासे देहमात्मवान् ।
कृष्णावेशेन तच्चित्तः पितृभिः स्वक्षयं ययौ ॥४९॥
द्रौपदी च तदाऽऽज्ञाय पतीनामनपेक्षताम् ।
वासुदेवे भगवति ह्येकान्तमतिराप तम् ॥५०॥
यः श्रद्धयैतद् भगवत्प्रियाणां 
पाण्डोः सुतानामिती सम्प्रयाणम् ।
श्रुणोत्यलं स्वत्ययनं पवित्रं 
लब्ध्या हरौ भक्तिमुपैति सिद्धिम् ॥५१॥

भीमसेन, अर्जुन आदि युधिष्ठिर के छोटे भाइयोंने भी देखा कि अब पृथ्वी में सभी लोगों को अधर्म के सहायक कलियुग ने प्रभावित कर डाला है; इसलिये वे भी श्रीकृष्ण चरणोंकी प्राप्तिका दृढ़ निश्चय करके अपने बड़े भाईके पीछे-पीछे चल पड़े ॥ ४५ ॥ उन्होंने जीवनके सभी लाभ भलीभाँति प्राप्त कर लिये थे; इसलिये यह निश्चय करके कि भगवान्‌ श्रीकृष्णके चरण-कमल ही हमारे परम पुरुषार्थ हैं, उन्होंने उन्हें हृदयमें धारण किया ॥ ४६ ॥ पाण्डवोंके हृदयमें भगवान्‌ श्रीकृष्णके चरण-कमलोंके ध्यानसे भक्ति-भाव उमड़ आया, उनकी बुद्धि सर्वथा शुद्ध होकर भगवान्‌ श्रीकृष्णके उस सर्वोत्कृष्ट स्वरूपमें अनन्य भावसे स्थिर हो गयी; जिसमें निष्पाप पुरुष ही स्थिर हो पाते हैं। फलत: उन्होंने अपने विशुद्ध अन्त:करणसे स्वयं ही वह गति प्राप्त की, जो विषयासक्त दुष्ट मनुष्योंको कभी प्राप्त नहीं हो सकती ॥ ४७-४८ ॥ संयमी एवं श्रीकृष्णके प्रेमावेशमें मुग्ध भगवन्मय विदुरजीने भी अपने शरीरको प्रभास-क्षेत्रमें त्याग दिया। उस समय उन्हें लेनेके लिये आये हुए पितरोंके साथ वे अपने लोक (यमलोक) को चले गये ॥ ४९ ॥ द्रौपदीने देखा कि अब पाण्डवलोग निरपेक्ष हो गये हैं; तब वे अनन्य प्रेमसे भगवान्‌ श्रीकृष्णका ही चिन्तन करके उन्हें प्राप्त हो गयीं ॥ ५० ॥

भगवान्‌ के प्यारे भक्त पाण्डवों के महाप्रयाणकी इस परम पवित्र और मङ्गलमयी कथाको जो पुरुष श्रद्धासे सुनता है, वह निश्चय ही भगवान्‌ की भक्ति और मोक्ष प्राप्त करता है ॥ ५१ ॥

इति श्रीमद्भगवते महापुराणे पारमहंस्या संहितायं प्रथमस्कन्धे पाण्डवस्वर्गाहणं नाम पंचदशोऽध्यायः ॥१५॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्ट संस्करण)  पुस्तक कोड 1535 से


शुक्रवार, 24 मई 2024

श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) सोलहवाँ अध्याय (पोस्ट 06)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(गोलोकखण्ड)

सोलहवाँ अध्याय (पोस्ट 06)

 

भाण्डीर-वनमें नन्दजीके द्वारा श्रीराधाजीकी स्तुति; श्रीराधा और श्रीकृष्णका ब्रह्माजीके द्वारा विवाह; ब्रह्माजीके द्वारा श्रीकृष्णका स्तवन तथा नव-दम्पति की मधुर लीलाएँ  

 

श्रीरासरंगे जनवर्जिते परे
रेमे हरी रासरसेन राधया ।
वृंदावने भृङ्गमयूरकूज-
ल्लते चरत्येव रतीश्वरः परः ॥४४॥
श्रीराधया कृष्णहरिः परात्मा
ननर्त गोवर्द्धनकंदरासु ।
मत्तालिषु प्रस्रवणैः सरोभि-
र्विराजितासु द्युतिमल्लतासु ॥४५॥
चकार कृष्णो यमुनां समेत्य
वरं विहारं वृषभानुपुत्र्या ।
राधाकराल्लक्षदलं सपद्मं
धावन्गृहीत्वा यमुनाजलेषु ॥४६॥
राधा हरेः पीतपटं च वंशीं
वेत्रं गृहीत्वा सहसा हसंती ।
देहीति वंशीं वदतो हरेश्च
जगाद राधा कमलं नु देहि ॥४७॥
तस्यै ददौ देववरोऽथ पद्मं
राधा ददौ पीततटं च वंशीम् ।
वेत्रं च तस्मै हरये तयोः पुन-
र्बभूव लीला यमुनातटेषु ॥४८॥
ततश्च भांडीरवने प्रियाया-
श्चकार शृङ्गारमलं मनोज्ञम् ।
पत्रावलीयावककज्जलाद्यैः
पुष्पैः सुरत्‍नैर्व्रजगोपरत्‍नः ॥४९॥
हरेश्च शृङ्गारमलं प्रकर्तुं
समुद्यता तत्र यदा हि राधा ।
तदैव कृष्णस्तु बभूव बालो
विहाय कैशोरवपुः स्वयं हि ॥५०॥
नंदेन दत्तं शिशुमेव यादृशं
भूमौ लुठंतं प्ररुदंतमाययौ ।
हरिं विलोक्याशु रुरोद राधिका
तनोषि मायां नु कथं हरे मयि ॥५१॥
इत्थं रुदंतीं सहसा विषण्णा-
माकाशवागाह तदैव राधाम् ।
शोचं नु राधे इह मा कुरु त्वं
मनोरथस्ते भविया हि पश्चात् ॥५२॥
श्रुत्वाथ राधा हि हरिं गृहीत्वा
गताऽऽशु गेहे व्रजराजपत्‍न्याः ।
दत्त्वा च बालं किल नंदपत्‍न्या
उवाच दत्तः पथि ते च भर्त्रा ॥५३॥
उवाच राधां नृप नंदगेहिनी
धन्याऽसि राधे वृषभानुकन्यके ।
त्वया शिशुर्मे परिरक्षितो भया-
न्मेघावृते व्योम्नि भयातुरो वने ॥५४॥
संपूजिता श्लाघितसद्‌गुणा सा
सुनंदिता श्रीवृषभानुपुत्री ।
तदा ह्यनुज्ञाप्य यशोमतीं सा
शनैः स्वगेहं हि जगाम राधा ॥५५॥
इत्थं हरेर्गुप्तकथा च वर्णिता
राधाविवाहस्य सुमंगलावृता ।
श्रुत्वा च यैर्वा पठिता च पाठिता
तान्पापवृन्दा न कदा स्पृशंति ॥५६॥

रास-रङ्गस्थलीके निर्जन प्रदेशमें पहुँचकर श्रीहरिने श्रीराधाके साथ रासका रस लेते हुए लीला-रमण किया । भ्रमरों और मयूरोंके कल-कूजनसे मुखरित लताओंवाले वृन्दावनमें वे दूसरे कामदेवकी भाँति विचर रहे थे। परमात्मा श्रीकृष्ण हरि ने, जहाँ मतवाले भ्रमर गुञ्जारव करते थे, बहुत-से झरने तथा सरोवर जिनकी शोभा बढ़ाते थे और जिनमें दीप्तिमती लता वल्लरियाँ प्रकाश फैलाती थीं, गोवर्धन की उन कन्दराओं में श्रीराधा के साथ नृत्य किया ॥ ४४-४५ ।।

 

तत्पश्चात् श्रीकृष्णने यमुना में प्रवेश करके वृषभानु- नन्दिनी के साथ विहार किया। वे यमुनाजल में खिले हुए लक्षदल कमल को राधाके हाथ से छीनकर भाग चले । तब श्रीराधाने भी हँसते-हँसते उनका पीछा किया और उनका पीताम्बर, वंशी तथा बेंतकी छड़ी अपने अधिकारमें कर लीं। श्रीहरि कहने लगे- 'मेरी बाँसुरी दे दो ।' तब राधाने उत्तर दिया- 'मेरा कमल लौटा दो ।' तब देवेश्वर श्रीकृष्णने उन्हें कमल दे दिया। फिर राधाने भी पीताम्बर, वंशी और बेंत श्रीहरिके हाथमें लौटा दिये। इसके बाद फिर यमुनाके किनारे उनकी मनोहर लीलाएँ होने लगीं ॥। ४६ – ४८ ॥

 

तदनन्तर भाण्डीर वनमें जाकर व्रज - गोप - रत्न श्रीनन्दनन्दनने अपने हाथोंसे प्रियाका मनोहर शृङ्गार किया— उनके मुखपर पत्र - रचना की, दोनों पैरोंमें महावर लगाया, नेत्रों में काजलकी पतली रेखा खींच दी तथा उत्तमोत्तम रत्नों और फूलोंसे भी उनका शृङ्गार किया। इसके बाद जब श्रीराधा भी श्रीहरिको शृङ्गार धारण करानेके लिये उद्यत हुईं, उसी समय श्रीकृष्ण अपने किशोररूपको त्यागकर छोटे-से बालक बन गये । नन्दने जिस शिशुको जिस रूपमें राधाके हाथोंमें दिया था, उसी रूपमें वे धरतीपर लोटने और भयसे रोने लगे। श्रीहरिको इस रूपमें देखकर श्रीराधिका भी तत्काल विलाप करने लगीं और बोलीं- 'हरे ! मुझपर माया क्यों फैलाते हो ?' इस प्रकार विषादग्रस्त होकर रोती हुई श्रीराधासे सहसा आकाशवाणीने कहा— 'राधे ! इस समय सोच न करो। तुम्हारा मनोरथ कुछ कालके पश्चात् पूर्ण होगा' ।। ४९ - ५२ ॥

 

यह सुनकर श्रीराधा शिशुरूपधारी श्रीकृष्णको लेकर तुरंत व्रजराजकी धर्मपत्नी यशोदाजीके घर गयीं और उनके हाथमें बालकको देकर बोलीं- 'आपके पतिदेवने मार्गमें इस बालकको मुझे दे दिया था ।' उस समय नन्द- गृहिणीने श्रीराधासे कहा – 'वृषभानु- नन्दिनि राधे ! तुम धन्य हो; क्योंकि तुमने इस समय, जब कि आकाश मेघोंकी घटासे आच्छन्न है, वनके भीतर भयभीत हुए मेरे नन्हे-से लालाकी पूर्णतया रक्षा की है।' यों कहकर नन्दरानीने श्रीराधाका भलीभाँति सत्कार किया और उनके सद्गुणोंकी प्रशंसा की। इससे वृषभानुनन्दिनी श्रीराधाको बड़ी प्रसन्नता हुई। वे यशोदाजीकी आज्ञा ले धीरे-धीरे अपने घर चली गयीं ॥ ५३ गयीं ॥। ५३ – ५५ ॥

 

राजन इस प्रकार श्रीराधाके विवाहकी परम मङ्गल- मयी गुप्त कथाका यहाँ वर्णन किया गया। जो लोग इसे सुनते-पढ़ते अथवा सुनाते हैं, उन्हें कभी पापोंका स्पर्श नहीं प्राप्त होता ।। ५६ ।।

 

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें गोलोकखण्डके अन्तर्गत श्रीनारद-बहुलाश्व-संवादमें 'श्रीराधिकाके विवाहका वर्णन' नामक सोलहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १६ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध पंद्रहवां अध्याय..(पोस्ट..०९)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध-पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०९)

कृष्णविरहव्यथित पाण्डवों का 
परीक्षित्‌ को राज्य देकर स्वर्ग सिधारना

विसृज्य तत्र तत् सर्वं दुकूलवलयादिकम् ।
निर्ममो निरहंकारः संछिन्नाशेषबन्धनः ॥४०॥
वाचं जुहाव मनसि तत्प्राण इतरे च तम् ।
मृत्यावपानं सोत्सर्गं तं पंचत्वे ह्यजोहवीत् ॥४१॥
त्रित्वे हुत्वाथ पंचत्वं तच्चेकत्वेऽजुहोन्मुनिः ।
सर्वमात्मन्यजुहवीद् ब्रह्मण्यात्मानमव्यये ॥४२॥
चीरवासा निराहारो बद्धवाङ् मुक्तमूर्धजः ।
दर्शयन्नात्मनो रूपं जडोन्मत्तपिशाचवत् ॥४३॥
अनपेक्षमाणो निरगादश्रृण्वन्बधिरो यथा ।
उदीचीं प्रविवेशाशां गतपूर्वा महात्मभिः ।
हृदि ब्रह्मा परं ध्यायान्नवर्तेत यतो गतः ॥४४॥

युधिष्ठिरने अपने सब वस्त्राभूषण आदि वहीं छोड़ दिये एवं ममता और अहंकारसे रहित होकर समस्त बन्धन काट डाले ॥ ४० ॥ उन्होंने दृढ़ भावनासे वाणीको मनमें, मनको प्राणमें, प्राणको अपानमें और अपानको उसकी क्रियाके साथ मृत्युमें, तथा मृत्युको पञ्चभूतमय शरीरमें लीन कर लिया ॥ ४१ ॥ इस प्रकार शरीरको मृत्युरूप अनुभव करके उन्होंने उसे त्रिगुणमें मिला दिया, त्रिगुणको मूल प्रकृतिमें, सर्वकारणरूपा प्रकृतिको आत्मामें, और आत्माको अविनाशी ब्रह्ममें विलीन कर दिया। उन्हें यह अनुभव होने लगा कि यह सम्पूर्ण दृश्यप्रपञ्च ब्रह्मस्वरूप है ॥ ४२ ॥ इसके पश्चात् उन्होंने शरीरपर चीर-वस्त्र धारण कर लिया, अन्न-जलका त्याग कर दिया, मौन ले लिया और केश खोलकर बिखेर लिये। वे अपने रूपको ऐसा दिखाने लगे जैसे कोई जड, उन्मत्त या पिशाच हो ॥ ४३ ॥ फिर वे बिना किसीकी बाट देखे तथा बहरेकी तरह बिना किसीकी बात सुने, घरसे निकल पड़े। हृदयमें उस परब्रह्मका ध्यान करते हुए, जिसको प्राप्त करके फिर लौटना नहीं होता, उन्होंने उत्तर दिशाकी यात्रा की, जिस ओर पहले बड़े-बड़े महात्मा जन जा चुके हैं ॥ ४४ ॥

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गुरुवार, 23 मई 2024

श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) सोलहवाँ अध्याय (पोस्ट 05)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(गोलोकखण्ड)

सोलहवाँ अध्याय (पोस्ट 05)

 

भाण्डीर-वनमें नन्दजीके द्वारा श्रीराधाजीकी स्तुति; श्रीराधा और श्रीकृष्णका ब्रह्माजीके द्वारा विवाह; ब्रह्माजीके द्वारा श्रीकृष्णका स्तवन तथा नव-दम्पति की मधुर लीलाएँ  

 

पुष्पाणि देवा ववृषुस्तदा नृप
विद्याधरीभिर्ननृतुः सुरांगनाः ।
गंधर्वविद्याधरचारणाः कलं
सकिन्नराः कृष्णसुमंगलं जगुः ॥३५॥
मृदंगवीणामुरुयष्टिवेणवः
शंखानका दुंदुभयः सतालकाः ।
नेदुर्मुहुर्देववरैर्दिवि स्थितै-
र्जयेत्यभून्मङ्गलशब्दमुच्चकैः ॥३६॥
उवाच तत्रैव विधिं हरिः स्वयं
यथेप्सितं त्वं वद विप्र दक्षिणाम् ।
तदा हरिं प्राह विधिः प्रभो मे
देहि त्वदंघ्र्योर्निजभक्तिदक्षिणाम् ॥३७॥
तथास्तु वाक्यं वदतो विधिर्हरेः
श्रीराधिकायाश्च पदद्वयं शुभम् ।
नत्वा कराभ्यां शिरसा पुनः पुन-
र्जगाम गेहं प्रणतः प्रहर्षितः ॥३८॥
ततो निकुंजेषु चतुर्विधान्नं
दिव्यं मनोज्ञं प्रियया प्रदत्तम् ।
जघास कृष्णः प्रहसन्परात्मा
कृष्णेन दत्तं क्रमुकं च राधा ॥३९॥
ततः करेणापि करं प्रियाया
हरिर्गृहीत्वा प्रचचाल कुंजे ।
जगाम जल्पन्मधुरं प्रपश्यन्
वृंदावनं श्रीयमुनां लताश्च ॥४०॥
श्रीमल्लताकुंजनिकुंजमध्ये
निलीयमानं प्रहसंतमेव ।
विलोक्य शाखांतरितं च राधा
जग्राह पीतांबरमाव्रजंती ॥४१॥
दुद्राव राधा हरिहस्तपद्मा
झंकारमंघ्र्योः प्रतिकुर्वती कौ ।
निलीयमाना यमुनानिकुंजे
पुनर्व्रजंती हरिहस्तमात्रात् ॥४२॥
यथा तमालः कलधौतवल्ल्या
घनो यथा चंचलया चकास्ति ।
नीलोऽद्रिराजो निकषाश्मखन्या
श्रीराधयाऽऽद्यस्तु तया रमण्या ॥४३॥

राजन् ! उस समय देवताओंने फूल बरसाये और विद्याधरियोंके साथ देवाङ्गनाओंने नृत्य किया। गन्धर्वों, विद्याधरों, चारणों और किंनरोंने मधुर स्वरसे श्रीकृष्णके लिये सुमङ्गल-गान किया ॥ ३५ ॥

 

मृदङ्ग, वीणा, मुरचंग, वेणु, शङ्ख, नगारे, दुन्दुभि तथा करताल आदि बाजे बजने लगे तथा आकाशमें खड़े हुए श्रेष्ठ देवताओंने मङ्गल - शब्दका उच्चस्वरसे उच्चारण करते हुए बारंबार जय-जयकार किया ॥ ३६ ॥

उस अवसरपर श्रीहरिने विधातासे कहा- 'ब्रह्मन् ! आप अपनी इच्छाके अनुसार दक्षिणा बताइये ।' तब ब्रह्माजीने श्रीहरिसे इस प्रकार कहा - 'प्रभो! मुझे अपने युगलचरणोंकी भक्ति ही दक्षिणाके रूपमें प्रदान कीजिये ।' ॥ ३७ ॥

श्रीहरिने 'तथास्तु' कहकर उन्हें अभीष्ट वरदान दे दिया। तब ब्रह्माजीने श्रीराधिकाके मङ्गलमय युगल चरणारविन्दोंको दोनों हाथों और मस्तकसे बारंबार प्रणाम करके अपने धामको प्रस्थान किया। उस समय प्रणाम करके जाते हुए ब्रह्माजीके मनमें अत्यन्त हर्षोल्लास छा रहा था ।। ३८ ॥

 

तदनन्तर निकुञ्जभवनमें प्रियतमाद्वारा अर्पित दिव्य मनोरम चतुर्विध अन्न परमात्मा श्रीहरिने हँसते-हँसते ग्रहण किया और श्रीराधाने भी श्रीकृष्णके हाथोंसे चतुर्विध अन्न ग्रहण करके उनकी दी हुई पान-सुपारी भी खायी। इसके बाद श्रीहरि अपने हाथसे प्रियाका हाथ पकड़कर कुञ्जकी ओर चले। वे दोनों मधुर आलाप करते तथा वृन्दावन, यमुना तथा वनकी लताओंको देखते हुए आगे बढ़ने लगे । सुन्दर लता- कुञ्जों और निकुञ्जों में हँसते और छिपते हुए श्रीकृष्णको शाखाकी ओटमें देखकर पीछेसे आती हुई श्रीराधाने उनके पीताम्बरका छोर पकड़ लिया ॥ ३९-४१ ॥

 

फिर श्रीराधा भी माधवके कमलोपम हाथोंसे छूटकर भागीं और युगल- चरणोंके नूपुरोंकी झनकार प्रकट करती हुई यमुना- निकुञ्ज में छिप गयीं। जब श्रीहरिसे एक हाथकी दूरीपर रह गयीं, तब पुनः उठकर भाग चलीं। जैसे तमाल सुनहरी लतासे और मेघ चपलासे सुशोभित होता है तथा जैसे नीलमका महान् पर्वत स्वर्णाङ्कित कसौटीसे शोभा पाता है, उसी प्रकार रमणी श्रीराधासे नन्दनन्दन श्रीकृष्ण सुशोभित हो रहे थे ॥ ४२-४३ ॥

 

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध पंद्रहवां अध्याय..(पोस्ट..०८)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध-पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०८)

कृष्णविरहव्यथित पाण्डवों का 
परीक्षित्‌ को राज्य देकर स्वर्ग सिधारना

यदा मुकुन्दो भगवानिमां महीं 
जहौ स्वतन्वा श्रवणीयसत्कथः ।
तदाहरेवाप्रतिबुद्धचेतसा- 
मधर्महेतु: कलिरन्ववर्तत ॥३६॥
युधिष्ठिरस्तत्परिसर्पणं बुधः 
पुरे च राष्ट्रे च गृहे तथाऽऽत्मनि ।
विभाव्य लोभानृतजिह्महिंसना- 
द्यधर्मचक्रं गमनाय पर्यधात् ॥३७॥
स्वराट् पौत्रं विनयिनमात्मनः सुसमं गुणैः ।
तोयनीव्याः पतिं भूमेरभ्यषिंचद गजाह्वये ॥३८॥
मथुरायां तथा वज्रं शूरसेनपतिं ततः ।
प्राजापत्यां निरुप्योष्टिमग्नीनपिबदीश्वरः ॥३९॥

जिनकी मधुर लीलाएँ श्रवण करनेयोग्य हैं, उन भगवान्‌ श्रीकृष्ण ने जब अपने मनुष्य के-से शरीर से इस पृथ्वी का परित्याग कर दिया, उसी दिन विचारहीन लोगों को अधर्म में फँसानेवाला कलियुग आ धमका ॥ ३६ ॥ महाराज युधिष्ठिरसे कलियुगका फैलना छिपा न रहा। उन्होंने देखा—देशमें, नगरमें, घरोंमें और प्रणियोंमें लोभ, असत्य, छल, हिंसा आदि अधर्मोंकी बढ़ती हो गयी है। तब उन्होंने महाप्रस्थानका निश्चय किया ॥ ३७ ॥ उन्होंने अपने विनयी पौत्र परीक्षित्‌को, जो गुणोंमें उन्हींके समान थे, समुद्रसे घिरी हुई पृथ्वीके सम्राट् पदपर हस्तिनापुरमें अभिषिक्त किया ॥ ३८ ॥ उन्होंने मथुरा में शूरसेनाधिपति के रूपमें अनिरुद्ध के पुत्र वज्र का अभिषेक किया। इसके बाद समर्थ युधिष्ठिर ने प्राजापत्य यज्ञ करके आहवनीय आदि अग्नियोंको अपनेमें लीन कर दिया अर्थात् गृहस्थाश्रमके धर्मसे मुक्त होकर उन्होंने संन्यास ग्रहण किया ॥ ३९ ॥ 

शेष आगामी पोस्ट में --
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बुधवार, 22 मई 2024

श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) सोलहवाँ अध्याय (पोस्ट 04)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(गोलोकखण्ड)

सोलहवाँ अध्याय (पोस्ट 04)

 

भाण्डीर-वनमें नन्दजीके द्वारा श्रीराधाजीकी स्तुति; श्रीराधा और श्रीकृष्णका ब्रह्माजीके द्वारा विवाह; ब्रह्माजीके द्वारा श्रीकृष्णका स्तवन तथा नव-दम्पति की मधुर लीलाएँ  

 

त्वं ब्रह्म चेयं प्रकृतिस्तटस्था
कालो यदेमां च विदुः प्रधानाम् ।
महान्यदा त्वं जगदंकुरोऽसि
राधा तदेयं सगुणा च माया ॥२५॥
यदांतरात्मा विदितश्चतुर्भि-
स्तदा त्वियं लक्षणरूपवृत्तिः ।
यदा विराड्‍देहधरस्त्वमेव
तदाखिलं वा भुवि धारणेयम् ॥२६॥
श्यामं च गौरं विदितं द्विधा मह-
स्तवैव साक्षात्पुरुषोत्तमोत्तम ।
गोलोकधामाधिपतिं परेशं
परात्परं त्वां शरणं व्रजाम्यहम् ॥२७॥
सदा पठेद्यो युगलस्तवं परं
गोलोकधामप्रवरं प्रयाति सः ।
इहैव सौंदर्यसमृद्धिसिद्धयो
भवंति तस्यापि निसर्गतः पुनः ॥२८॥
यदा युवां प्रीतियुतौ च दंपती
परात्परौ तावनुरूपरूपितौ ।
तथापि लोकव्यवहारसङ्ग्रहा-
द्विधिं विवाहस्य तु कारयाम्यहम् ॥२९॥


श्रीनारद उवाच -
तदा स उत्थाय विधिर्हुताशनं
प्रज्वाल्य कुंडे स्थितयोस्तयोः पुरः ।
श्रुतेः करग्राहविधिं विधानतो
विधाय धाता समवस्थितोऽभवत् ॥३०॥
स वाहयामास हरिं च राधिकां
प्रदक्षिणं सप्तहिरण्यरेतसः ।
ततश्च तौ तं प्रणमय्य वेदवि-
त्तौ पाठयामास च सप्तमंत्रकम् ॥३१॥
ततो हरेर्वक्षसि राधिकायाः
करं च संस्थाप्य हरेः करं पुनः ।
श्रीराधिकायाः किल पृष्ठदेशके
संस्थाप्य मंत्रांश्च विधिः प्रपाठयन् ॥३२॥
राधा कराभ्यां प्रददौ च मालिकां
किंजल्किनीं कृष्णगलेऽलिनादिनीम् ।
हरेः कराभ्यां वृषभानुजा गले ।
ततश्च वह्निं प्रणमय्य वेदवित् ॥३३॥
संवासयामास सुपीठयोश्च तौ
कृतांजली मौनयुतौ पितामहः ।
तौ पाठयामास तु पंचमंत्रकं
समर्प्य राधां च पितेव कन्यकाम् ॥३४॥

आप 'ब्रह्म' हैं और ये तटस्था प्रकृति'। आप जब 'काल' रूपसे स्थित होते हैं, तब इन्हें 'प्रधान' (प्रकृति) के रूप में जाना जाता है। जब आप जगत् के अङ्कुर 'महान्' (महत्तत्त्व) रूपमें स्थित होते हैं। तब ये श्रीराधा 'सगुणा माया' रूपसे स्थित होती हैं ॥ २५ ॥

 

जब आप मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार- इन चारों अन्तःकरणोंके साथ 'अन्तरात्मा' रूपसे स्थित होते हैं, तब ये श्रीराधा 'लक्षणावृत्ति' के रूपमें विराजमान होती हैं। जब आप 'विराट्' रूप धारण करते हैं, तब ये अखिल भूमण्डलमें 'धारणा' कहलाती हैं ॥ २६ ॥

 

पुरुषोत्तमोत्तम ! आपका ही श्याम और गौर — द्विविध तेज सर्वत्र विदित है। आप गोलोकधामके अधिपति परात्पर परमेश्वर हैं। मैं आपकी शरण लेता हूँ ॥ २७ ॥

 

जो इस युगलरूप की उत्तम स्तुतिका सदा पाठ करता है, वह समस्त धामोंमें श्रेष्ठ गोलोकधाममें जाता है और इस लोकमें भी उसे स्वभावतः सौन्दर्य, समृद्धि और सिद्धियोंकी प्राप्ति होती है । यद्यपि आप दोनों नित्य दम्पति हैं और परस्पर प्रीतिसे परिपूर्ण रहते हैं, परात्पर होते हुए भी एक-दूसरेके अनुरूप रूप धारण करके लीला-विलास करते हैं; तथापि मैं लोक- व्यवहार की सिद्धि या लोकसंग्रह के लिये आप दोनों की वैवाहिक विधि सम्पन्न कराऊँगा ॥ २८–२९ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! इस प्रकार स्तुति करके ब्रह्माजीने उठकर कुण्डमें अग्नि प्रज्वलित की और अग्निदेवके सम्मुख बैठे हुए उन दोनों प्रिया- प्रियतमके वैदिक विधानसे पाणिग्रहण-संस्कारकी विधि पूरी की। यह सब करके ब्रह्माजीने खड़े होकर श्रीहरि और राधिकाजी से अग्निदेव की सात परिक्रमाएँ करवायीं । तदनन्तर उन दोनों को प्रणाम करके वेदवेत्ता विधाता ने उन दोनोंसे सात मन्त्र पढ़वाये। उसके बाद श्रीकृष्ण के वक्षःस्थलपर श्रीराधिका का हाथ रखवाकर और श्रीकृष्णका हाथ श्रीराधिका के पृष्ठदेश में स्थापित करके विधाता ने उनसे मन्त्रों का उच्चस्वर से पाठ करवाया ॥ ३०-३२ ॥

 

उन्होंने राधाके हाथोंसे श्रीकृष्णके कण्ठमें एक केसरयुक्त माला पहनायी, जिसपर भ्रमर गुञ्जार कर रहे थे। इसी तरह श्रीकृष्णके हाथोंसे भी वृषभानु- नन्दिनीके गलेमें माला पहनवाकर वेदज्ञ ब्रह्माजीने उन दोनोंसे अग्निदेवको प्रणाम करवाया और सुन्दर सिंहासनपर उन अभिनव दम्पतिको बैठाया । वे दोनों हाथ जोड़े मौन रहे । पितामहने उन दोनोंसे पाँच मन्त्र पढ़वाये और जैसे पिता अपनी पुत्रीका सुयोग्य वरके हाथमें दान करता है, उसी प्रकार उन्होंने श्रीराधा को श्रीकृष्ण के हाथमें सौंप दिया ॥ ३३ - ३४ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध पंद्रहवां अध्याय..(पोस्ट..०७)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध-पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०७)

कृष्णविरहव्यथित पाण्डवों का 
परीक्षित्‌ को राज्य देकर स्वर्ग सिधारना

निशम्य भगवन्मार्गं संस्थां यदुकुलस्य च ।
स्वःपथाय मतिं चक्रे निभृतात्मा युधिष्ठिरः ॥३२॥
पृथाप्यनुश्रुत्य धनंजयोदितं
नाश यदूनां भगवद्गतिं च ताम् ।
एकान्तभक्त्या भगवत्यधोक्षजे 
निवेशितात्मोपरराम संसृतेः ॥३३॥
ययाहरद् भुवो भारं तां तनुं विजहावजः ।
कण्टकं कण्टकेनेव द्वयं चापीशितु: समम् ॥३४॥
यथा मत्स्यादिरूपाणि धत्ते जह्याद् यथा नटः ।
भूभरः क्षपितो येन जहौ तच्च कलेवरम् ॥३५॥

भगवान्‌ के स्वधाम-गमन और यदुवंशके संहार का वृत्तान्त सुनकर निश्चलमति युधिष्ठिर ने स्वर्गारोहण का निश्चय किया ॥ ३२ ॥ कुन्ती ने भी अर्जुन के मुखसे यदुवंशियों के नाश और भगवान्‌ के स्वधाम-गमनकी बात सुनकर अनन्य भक्तिसे अपने हृदयको भगवान्‌ श्रीकृष्णमें लगा दिया और सदाके लिये इस जन्म-मृत्युरूप संसारसे अपना मुँह मोड़ लिया ॥ ३३ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्णने लोक-दृष्टिमें जिस यादवशरीर से पृथ्वी का भार उतारा था, उसका वैसे ही परित्याग कर दिया, जैसे कोई काँटे से काँटा निकालकर फिर दोनों को फेंक दे। भगवान्‌ की दृष्टि में दोनों ही समान थे ॥ ३४ ॥ जैसे वे नट के समान मत्स्यादि रूप धारण करते हैं और फिर उनका त्याग कर देते हैं वैसे ही उन्होंने जिस यादवशरीर से पृथ्वी का भार दूर किया था, उसे त्याग भी दिया ॥ ३५ ॥ 

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मंगलवार, 21 मई 2024

श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) सोलहवाँ अध्याय (पोस्ट 03)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(गोलोकखण्ड)

सोलहवाँ अध्याय (पोस्ट 03)

 

भाण्डीर-वनमें नन्दजीके द्वारा श्रीराधाजीकी स्तुति; श्रीराधा और श्रीकृष्णका ब्रह्माजीके द्वारा विवाह; ब्रह्माजीके द्वारा श्रीकृष्णका स्तवन तथा नव-दम्पतिकी मधुर लीलाएँ  

 

तदैव साक्षात्पुरुषोत्तमोत्तमो
बभूव कैशोरवपुर्घनप्रभः ।
पीतांबरः कौस्तुभरत्‍नभूषणो
वंशीधरो मन्मथराशिमोहनः ॥१७॥
भुजेन संगृह्य हसन्प्रियां हरि-
र्जगाम मध्ये सुविवाहमंडपम् ।
विवाहसंभारयुतः समेखलं
सदर्भमृद्‌वारिघटादिमंडितम् ॥१८॥
तत्रैव सिंहासन उद्‌गते वरे
परस्परं संमिलितौ विरेजतुः ।
परं ब्रुवंतौ मधुरं च दंपती
स्फुरत्प्रभौ खे च तडिद्‌घनाविव ॥१९॥
तदांबराद्‌देववरो विधिः प्रभुः
समागतस्तस्य परस्य संमुखे ।
नत्वा तदंघ्री ह्युशती गिराभिः
कृताञ्जलिश्चारु चतुर्मुखो जगौ ॥२०॥


श्रीब्रह्मोवाच -
अनादिमाद्यं पुरुषोत्तमोत्तमं
श्रीकृष्णचन्द्रं निजभक्तवत्सलम् ।
स्वयं त्वसंख्यांडपतिं परात्परं
राधापतिं त्वां शरणं व्रजाम्यहम् ॥२१॥
गोलोकनाथस्त्वमतीव लीलो
लीलावतीयं निजलोकलीला ।
वैकुंठनाथोऽसि यदा त्वमेव
लक्ष्मीस्तदेयं वृषभानुजा हि ॥२२॥
त्वं रामचंद्रो जनकात्मजेयं
भूमौ हरिस्त्वं कमलालयेयम् ।
यज्ञावतारोऽसि यदा तदेयं
श्रीदक्षिणा स्त्री प्रतिपत्‍निमुख्या ॥२३॥
त्वं नारसिंहोऽसि रमा तदेयं
नारायणस्त्वं च नरेण युक्तः ।
तदा त्वियं शांतिरतीव साक्षा-
च्छायेव याता च तवानुरूपा ॥२४॥

दिव्यधामकी शोभाका अवतरण होते ही साक्षात् पुरुषोत्तमोत्तम घनश्याम भगवान् श्रीकृष्ण किशोरावस्थाके अनुरूप दिव्य देह धारण करके श्रीराधाके सम्मुख खड़े हो गये । उनके श्रीअङ्गोंपर पीताम्बर शोभा पा रहा था। । कौस्तुभमणिसे विभूषित हो, हाथमें वंशी धारण किये वे नन्दनन्दन राशि राशि मन्मथों (कामदेवों) को मोहित करने लगे। उन्होंने हँसते हुए प्रियतमाका हाथ अपने हाथमें थाम लिया और उनके साथ विवाह मण्डपमें प्रविष्ट हुए। उस मण्डपमें विवाहकी सब सामग्री संग्रह करके रखी गयी थी। मेखला, कुशा, सप्तमृत्तिका और जलसे भरे कलश आदि उस मण्डपकी शोभा बढ़ा रहे थे ॥ १७-१८ ॥

 

वहीं एक श्रेष्ठ सिंहासन प्रकट हुआ, जिसपर वे दोनों प्रिया- प्रियतम एक-दूसरेसे सटकर विराजित हो गये और अपनी दिव्य शोभाका प्रसार करने लगे। वे दोनों एक-दूसरेसे मीठी-मीठी बातें करते हुए मेघ और विद्युत्‌ की भाँति अपनी प्रभासे उद्दीप्त हो रहे थे। उसी समय देवताओंमें श्रेष्ठ विधाता – भगवान् ब्रह्मा आकाशसे उतरकर परमात्मा श्रीकृष्णके सम्मुख आये और उन दोनोंके चरणोंमें प्रणाम करके, हाथ जोड़, कमनीय वाणीद्वारा चारों मुखोंसे मनोहर स्तुति करने लगे ।। १९ - २० ॥

 

श्रीब्रह्माजी बोले- प्रभो ! आप सबके आदिकारण हैं, किंतु आपका कोई आदि-अन्त नहीं । आप समस्त पुरुषोत्तमोंमें उत्तम हैं। अपने भक्तोंपर सदा वात्सल्यभाव रखनेवाले और 'श्रीकृष्ण' नामसे विख्यात हैं। अगणित ब्रह्माण्डोंके पालक-पति हैं। ऐसे आप परात्पर प्रभु राधा-प्राणवल्लभ श्रीकृष्ण- चन्द्र की मैं शरण लेता हूँ ॥२१॥

 

आप गोलोकधामके अधिनाथ हैं, आपकी लीलाओंका कहीं अन्त नहीं है। आपके साथ ये लीलावती श्रीराधा अपने लोक (नित्यधाम) में ललित लीलाएँ किया करती हैं । जब आप ही 'वैकुण्ठनाथ' के रूपमें विराजमान होते हैं, तब ये वृषभानुनन्दिनी ही 'लक्ष्मी' रूपसे आपके साथ सुशोभित होती हैं। जब आप 'श्रीरामचन्द्र' के रूपमें भूतलपर अवतीर्ण होते हैं, तब ये जनकनन्दिनी 'सीता' के रूपमें आपका सेवन करती हैं। आप 'श्रीविष्णु' हैं और ये कमलवनवासिनी 'कमला' हैं; जब आप 'यज्ञ- पुरुष' का अवतार धारण करते हैं, तब ये श्रीजी आपके साथ 'दक्षिणा' रूप में निवास करती हैं। आप पतिशिरोमणि हैं तो ये पत्नियोंमें प्रधान हैं ॥ २२-२३ ॥

 

आप 'नृसिंह' हैं तो ये आपके हृदयमें 'रमा' रूपसे निवास करती हैं। आप ही 'नर-नारायण' रूपसे रहकर तपस्या करते हैं, उस समय आपके साथ ये 'परम शान्ति' के रूपमें विराजमान होती हैं। आप जहाँ जिस रूपमें रहते हैं, वहाँ तदनुरूप देह धारण करके ये छायाकी भाँति आपके साथ रहती हैं ॥ २४ ॥

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध पंद्रहवां अध्याय..(पोस्ट..०६)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध-पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०६)

कृष्णविरहव्यथित पाण्डवों का 
परीक्षित्‌ को राज्य देकर स्वर्ग सिधारना

सूत उवाच ।

एवं चिन्तयतो जिष्णोः कृष्णपादसरोरुहम ।
सौहार्देनातिगाढेन शान्ताऽऽसीद्विमला मतिः ॥२८॥
वासुदेवांघ्र्यनुध्यानपरिबृंहितरंहसा ।
भक्त्या निर्मथिताशेषकषायाधिषणोऽर्जुनः ॥२९॥
गीतं भगवता ज्ञान यत् तत् संग्राममूर्धनि ।
कालकर्मतमोरुद्धं पुनरध्यगमद् विभुः ॥३०॥
विशोको ब्रह्मसम्पत्या संछिन्नद्वैतसंशयः ।
लीनप्रकृतिनैर्गुण्यादलिंगत्वादसम्भवः ॥३१॥

सूतजी कहते हैं—इस प्रकार प्रगाढ़ प्रेम से भगवान्‌ श्रीकृष्ण के चरण-कमलों का चिन्तन करते- करते अर्जुन की चित्तवृत्ति अत्यन्त निर्मल और प्रशान्त हो गयी ॥ २८ ॥ उनकी प्रेममयी भक्ति भगवान्‌ श्रीकृष्ण के चरणकमलों के अहर्निश चिन्तन से अत्यन्त बढ़ गयी। भक्ति के वेगने उनके हृदय को मथकर उसमें से सारे विकारों को बाहर निकाल दिया ॥ २९ ॥ उन्हें युद्ध के प्रारम्भ में भगवान्‌ के द्वारा उपदेश किया हुआ गीता-ज्ञान पुन: स्मरण हो आया, जिसकी काल के व्यवधान और कर्मों के विस्तार के कारण प्रमादवश कुछ दिनों के लिये विस्मृति हो गयी थी ॥ ३० ॥ ब्रह्मज्ञान- की प्राप्ति से माया का आवरण भङ्ग होकर गुणातीत अवस्था प्राप्त हो गयी। द्वैत का संशय निवृत्त हो गया। सूक्ष्मशरीर भङ्ग हुआ। वे शोक एवं जन्म-मृत्युके चक्र से सर्वथा मुक्त हो गये ॥ ३१ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट१०)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट१०) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन विश...