श्रीगर्ग-संहिता
(गोलोकखण्ड)
अठारहवाँ अध्याय (पोस्ट
02)
नन्द, उपनन्द और
वृषभानुओंका परिचय तथा श्रीकृष्णकी मृद्भक्षण-लीला
एकदा
यमुनातीरे मृत्कृष्णेनावलीढिता ।
यशोदां बालकाः प्राहुरत्ति बालो मृदं तव ॥१३॥
बलभद्रे च वदति तदा सा नंदगेहिनी ।
करे गृहीत्वा स्वसुतं भीरुनेत्रमुवाच ह ॥१४॥
श्रीयशोदा उवाच -
कस्मान्मृदं भक्षितवान् महाज्ञ
भवान्वयस्याश्च वदंति साक्षात् ।
ज्यायान्बलोऽयं वदति प्रसिद्धं
मा एवमर्थं न जहाति नेष्टम् ॥१५॥
श्रीभगवानुवाच -
सर्वे मृषावादरथा व्रजार्भका
मातर्मया क्वापि न मृत्प्रभक्षिता ।
यदा समीचीनमनेन वाक्पथं
तदा मुखं पश्य मदीयमंजसा ॥१६॥
श्रीनारद उवाच -
अथ गोपी बालकस्य पश्यंती सुंदरं मुखम् ।
प्रसारितं च ददृशे ब्रह्मांडं रचितं गुणैः ॥१७॥
सप्तद्वीपान्सप्त सिंधून्सखंडान्सगिरीन्दृढान् ।
आब्रह्मलोकाँल्लोकाँस्त्रीन्स्वात्मभिः सव्रजैः सह ॥१८॥
दृष्ट्वा निमीलिताक्षी सा भूत्वा श्रीयमुनातटे ।
बालोऽयं मे हरिः साक्षादिति ज्ञानमयी ह्यभूत् ॥१९॥
तदा जहास श्रीकृष्णो मोहयन्निव मायया ।
यशोदा वैभवं दृष्टं न सस्मार गतस्मृतिः ॥२०॥
एक
दिनकी बात है, यमुनाके तटपर श्रीकृष्णने
मिट्टीका आस्वादन किया। यह देख बालकोंने यशोदाजीके पास आकर कहा – 'अरी मैया ! तुम्हारा लाला तो मिट्टी खाता है।' बलभद्रजीने
भी उनकी हाँ में हाँ मिला दी । तब नन्दरानी ने अपने पुत्र का हाथ पकड़ लिया। बालक के
नेत्र भयभीत से हो उठे। मैया ने उससे कहा ।। १३-१४ ॥
यशोदाजीने
पूछा- ओ महामूढ़ ! तूने क्यों मिट्टी खायी ! तेरे ये साथी भी बता रहे हैं और
साक्षात् बड़े भैया ये बलराम भी यही बात कहते हैं कि 'माँ ! मना करने पर भी यह मिट्टी खाना नहीं छोड़ता । इसे मिट्टी बड़ी
प्यारी लगती है' ॥ १५ ॥
श्रीभगवान्
ने कहा - मैया ! व्रजके ये सारे बालक झूठ बोल रहे हैं। मैंने कहीं भी मिट्टी नहीं
खायी । यदि तुम्हें मेरी बातपर विश्वास न हो तो मेरा मुँह देख लो ॥ १६ ॥
श्रीनारदजी
कहते हैं- राजन् ! तब गोपी यशोदाने बालकका सुन्दर मुख खोलकर देखा । यशोदाको उसके
भीतर तीनों गुणोंद्वारा रचित और सब ओर फैला हुआ ब्रह्माण्ड दिखायी दिया। सातों
द्वीप,
सात समुद्र, भारत आदि वर्ष, सुदृढ़ पर्वत, ब्रह्मलोक-पर्यन्त तीनों लोक तथा
समस्त व्रज- मण्डलसहित अपने शरीरको भी यशोदा ने अपने पुत्रके मुखमें देखा ।। १७-१८
॥
यह
देखते ही उन्होंने आँखें बंद कर लीं और श्रीयमुनाजीके तटपर बैठकर सोचने लगीं - 'यह मेरा बालक साक्षात् श्रीनारायण है।' इस तरह वे
ज्ञाननिष्ठ हो गयीं। तब श्रीकृष्ण उन्हें अपनी मायासे मोहित-सी करते हुए हँसने लगे
। यशोदाजी की स्मरण शक्ति विलुप्त हो गयी। उन्होंने श्रीकृष्ण का जो वैभव देखा था,
वह सब वे तत्काल भूल गयीं ॥ १९ - २० ॥
इस
प्रकार श्रीगर्गसंहितामें गोलोकखण्डके अन्तर्गत नारद- बहुलाश्व-संवादमें 'ब्रह्माण्डदर्शन' नामक अठाहरवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥
१८ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से