श्रीगर्ग-संहिता
( श्रीवृन्दावनखण्ड
)
पहला अध्याय (पोस्ट 01)
कृष्णातीरे
कोकिलाकेलिकीरे
गुंजापुंजे देवपुष्पादिकुंजे ।
कंबुग्रीवौ क्षिप्तबाहू चलन्तौ
राधाकृष्णौ मंगलं मे भवेताम् ॥ १ ॥
अज्ञानतिमिरान्धस्य ज्ञानांजनशलाकया ।
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरुवे नमः ॥ २ ॥
श्रीनारद उवाच -
एकदोपद्रवं वीक्ष्य नंदो नन्दान्सहायकान् ।
वृषभानूपनंदांश्च वृषभानुवरांस्तथा ॥ ३ ॥
समाहूय परान्वृद्धान् सभायां तानुवाच ह ।
नंद उवाच -
किं कर्तव्यं तु वदतोत्पाताः सन्ति महावने ॥ ४ ॥
श्रीनारद उवाच -
तेषां श्रुत्वाथ सन्नन्दो गोपो वृद्धोतिमंत्रवित् ।
अंके नीत्वा रामकृष्णौ नंदराजमुवाच ह ॥ ५ ॥
सन्नन्द उवाच -
उत्थातव्यमितोऽस्माभिः सर्वैः परिकरैः सह ।
गंतव्यं चान्यदेशेषु यत्रोत्पाता न संति हि ॥ ६ ॥
बालस्ते प्राणवत्कृष्णो जीवनं व्रजवासिनाम् ।
व्रजे धनं कुले दीपो मोहनो बाललीलया ॥ ७ ॥
हा बक्या शकटेनापि तृणावर्तेन बालकः ।
मुक्तोऽयं द्रुमपातेन ह्युत्पातं किमतः परम् ॥ ८ ॥
तस्माद्वृंदावनं सर्वैः गंतव्यं बालकैः सह ।
उत्पातेषु व्यतीतेषु पुनराग्मनं कुरु ॥ ९ ॥
नन्द उवाच -
कतिक्रोशैर्विस्तृतम् तद्वनं वृंदावनं व्रहात् ।
तल्लक्षणं तत्सुखं च वद बुद्धिमतां वर ॥ १० ॥
सन्नन्द उवाच -
प्रागुदीच्यां बर्हिषदो दक्षिणस्यां यदोः पुरात् ।
पश्चिमायां शोणितपुरान् माथुरं मंडलं विदुः ॥ ११ ॥
विंशद्योजनविस्तीर्णं सार्धं यद्योजनेन वै
माथुरं मंडलं दिव्यं व्रजमाहुर्मनीषिणः ॥ १२ ॥
मथुरायां शौरिगृहे गर्गाचार्यमुखाच्छ्रुतम् ।
माथुरं मंडलं दिव्यं तीर्थराजेन पूजितम् ॥ १३ ॥
वनेभ्यस्तत्र सर्वेभ्यो वनं वृंदावनं वरम् ।
परिपूर्णतमस्यापि लीलाक्रीडं मनोहरम् ॥ १४ ॥
श्रीयमुनाजी
के तटपर,
जहाँ कोकिलाएँ तथा क्रीडाशुक विचरते हैं, गुञ्जापुञ्जसे
विलसित देवपुष्प (पारिजात) आदिके कुञ्जमें, शङ्ख-सदृश सुन्दर
ग्रीवासे सुशोभित तथा एक-दूसरेके गलेमें बाँह डालकर चलनेवाले प्रिया-प्रियतम
श्रीराधा-कृष्ण मेरे लिये मङ्गलमय हों ॥ १ ॥
मैं
अज्ञानरूपी रतौंधीसे अंधा हो रहा था; जिन्होंने
ज्ञानरूपी अञ्जनकी शलाकासे मेरी आँखें खोल दी हैं, उन
श्रीगुरुदेवको नमस्कार है ॥ २ ॥
श्रीनारदजी
कहते हैं— राजन् ! एक समयकी बात है— व्रजमें विविध उपद्रव होते देख नन्दराजने अपने
सहायक नन्दों, उपनन्दों, वृषभानुओं,
वृषभानु- वरों तथा अन्य बड़े-बूढ़े गोपोंको बुलाकर सभामें उनसे कहा
॥३॥
नन्द
बोले- गोपगण ! महावनमें तो बहुत-से उत्पात हो रहे हैं। बताइये,
हमलोगोंको इस समय क्या करना चाहिये ॥ ४ ॥
श्रीनारदजी
कहते हैं- यह सुनकर उन सबमें विशेष मन्त्रकुशल वृद्ध गोप सन्नन्दने बलराम और
श्रीकृष्णको गोदमें लेकर नन्दराजसे कहा ॥ ५ ॥
सन्नन्द
बोले—मेरे विचार से तो हमें अपने समस्त परिकरों के साथ यहाँसे उठ चलना चाहिये और
किसी दूसरे ऐसे स्थान में जाकर डेरा डालना चाहिये, जहाँ उत्पात की सम्भावना न हो। तुम्हारा बालक श्रीकृष्ण हम सबको प्राणोंके
समान प्रिय है, व्रजवासियों का जीवन है, व्रजका धन और गोपकुल का दीपक है और अपनी बाललीला से सबके मन को मोह
लेनेवाला है। हाय ! कितने खेदकी बात है कि इस बालकपर पूतना, शकट
और तृणावर्तका आक्रमण हुआ, फिर इसके ऊपर वृक्ष गिर पड़े;
इन सब संकटोंसे यह किसी प्रकार बचा है, इससे
बढ़कर उत्पात और क्या हो सकता है। इसलिये हमलोग अपने बालकोंके साथ वृन्दावनमें
चलें और जब उत्पात शान्त हो जायँ, तब फिर यहाँ आयें ॥ ६- ९॥
नन्दने
पूछा- बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ सन्नन्दजी ! इस व्रजसे वृन्दावन कितनी दूर है ?
वह वन कितने कोसोंमें फैला हुआ है, उसका लक्षण
क्या है और वहाँ कौन-सा सुख सुलभ है ? यह सब बताइये ॥ १० ॥
सन्नन्द
बोले- बर्हिषत् से ईशानकोण, यदुपुरसे दक्षिण और
शोणपुरसे पश्चिमकी भूमिको 'माथुर-मण्डल' कहते हैं । मथुरामण्डलके भीतर साढ़े बीस योजन विस्तृत भूभागको मनीषी
पुरुषोंने 'दिव्य माथुर-मण्डल' या 'व्रज' बताया है ॥ ११-१२ ॥ एक बार मैं मथुरापुरी में वसुदेवजी के घर ठहरा
हुआ था; वहीं श्रीगर्गाचार्यजी के मुखसे मैंने सुना था कि
तीर्थराज प्रयाग ने भी इस दिव्य मथुरा-मण्डल की पूजा की है। यों तो मथुरा-मण्डलमें
बहुत से वन हैं किंतु उन सबसे श्रेष्ठ 'वृन्दावन' नामक वन है, जो परिपूर्णतम भगवान् के भी मनको हरण
करनेवाला लीला-क्रीडा- स्थल है ॥ १३-१४ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से