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मंगलवार, 11 जून 2024
श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध अठारहवां अध्याय..(पोस्ट..०२)
सोमवार, 10 जून 2024
श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) दूसरा अध्याय (पोस्ट 01)
श्रीगर्ग-संहिता
( श्रीवृन्दावनखण्ड
)
दूसरा अध्याय (पोस्ट
01)
गिरिराज गोवर्धन की
उत्पत्ति तथा उसका व्रजमण्डल में आगमन
नन्द उवाच -
हे सन्नन्द महाप्राज्ञ सर्वज्ञोऽसि बहुश्रुतः ।
व्रजमंदलमाहात्म्यं वदतस्ते मुखाच्छ्रुतम् ॥ १ ॥
गिरिर्गोवर्धनो नाम तस्योत्पत्तिंच मे वद ।
कस्मादेनं गिरिवरं गिरिराजं वदन्ति हि ॥ २ ॥
यमुनेयं नदी साक्षात्कस्मात्लोकात्समागताः ।
तन्माहात्म्यं च वद मे त्वमसि ज्ञानिनां वरः ॥ ३ ॥
सन्नन्द उवाच -
एकदा हस्तिनपुरे भीष्मं धर्मभृतां वरम् ।
पप्रच्छ पाण्डुरित्थं तं जनानां चानुशृण्वताम् ॥ ४ ॥
परिपूर्णतमः साक्षाच्छ्रीकृष्णो भगवान् स्वयम् ।
असंख्यब्रह्मांडपतिः गोलोकाधिपतिः प्रभुः ॥ ५ ॥
भुवो भारावताराय गच्छन् देवो जनार्दनः ।
राधां प्राह प्रिये भीरु गच्छ त्वमपि भूतले ॥ ६ ॥
राधोवाच -
यत्र वृंदावनं नास्ति न यत्र यमुना नदी ।
यत्र गोवर्धनो नास्ति तत्र मे न मनःसुखम् ॥ ७ ॥
सन्नन्द उवाच -
वेदनागक्रोशभूमिं स्वधाम्नः श्रीहरिः स्वयम् ।
गोवर्धनं च यमुनां प्रेषयामास भूपरि ॥ ८ ॥
वेदनागक्रोशभूमिः सापि चात्र समागता ।
चतुर्विंशद्वनैर्युक्ता सर्वलोकैश्च वन्दिता ॥ ९ ॥
भारतात्पश्चिमदिशि शाल्मलीद्वीपमध्यतः ।
गोवर्धनो जन्म लेभे पत्न्यां द्रोणाचलस्य च ॥ १० ॥
गोवर्धनोपरि सुराः पुष्पवर्षं प्रचक्रिरे ।
हिमालयसुमेर्वाद्याः शैलाः सर्वे समागताः ॥ ११ ॥
नत्वा प्रदक्षिणीकृत्य पूजां कृत्वा विधानतः ।
गोवर्धनस्य परमां स्तुतिं चक्रुर्महाद्रयः ॥ १२ ॥
नन्दजी
ने पूछा- महाप्राज्ञ सन्नन्दजी ! आप सर्वज्ञ और बहुश्रुत हैं,
मैंने आपके मुख से व्रजमण्डल- के माहात्म्य का वर्णन सुना। अब 'गोवर्धन' नाम से प्रसिद्ध जो पर्वत है, उसकी उत्पत्ति कैसे हुई— यह मुझे बताइये। इस गिरिश्रेष्ठ गोवर्धनको लोग 'गिरिराज' क्यों कहते हैं ? यह
साक्षात् यमुना नदी किस लोकसे यहाँ आयी है ? उसका माहात्म्य
भी मुझसे कहिये; क्योंकि आप ज्ञानियों के शिरोमणि हैं ।। १-३
॥
सन्नन्दजी
बोले – एक समयकी बात है, हस्तिनापुरमें महाराज
पाण्डुने धर्मधारियोंमें श्रेष्ठ श्री भीष्मजीसे ऐसा ही प्रश्न किया था। उनके उस
प्रश्नको और भीष्मजीद्वारा दिये गये उत्तर को अन्य बहुत से लोग भी सुन रहे थे। (उस
समय भीष्मजीने जो उत्तर दिया, वही मैं यहाँ सुना रहा हूँ-)
साक्षात् परिपूर्णतम भगवान् श्रीकृष्ण, जो असंख्य
ब्रह्माण्डोंके अधिपति, गोलोकके नाथ और सब कुछ करनेमें समर्थ
हैं, जब पृथ्वीका भार उतारनेके लिये स्वयं इस भूतलपर पधारने
लगे, तब उन जनार्दन देवने अपनी प्राणवल्लभा राधासे
कहा—प्रिये ! तुम मेरे वियोगसे भयभीत रहती थी अतः भीरु ! तुम भी भूतल पर चलो' ॥ ४–६ ॥
श्रीराधाजी
बोलीं- प्राणनाथ ! जहाँ वृन्दावन नहीं है, जहाँ
यह यमुना नदी नहीं है तथा जहाँ गोवर्धन पर्वत नहीं है, वहाँ
मेरे मनको सुख नहीं मिल सकता ॥ ७ ॥
सन्नन्दजी
कहते हैं-नन्दराज ! श्रीराधाकी यह बात सुनकर स्वयं श्रीहरिने अपने धामसे चौरासी
कोस विस्तृत भूमि, गोवर्धन पर्वत और
यमुना नदीको भूतलपर भेजा। उस समय चौरासी कोस विस्तारवाली गोलोककी सर्वलोकवन्दिता
भूमि चौबीस वनोंके साथ यहाँ आयी ॥ ८-९ ॥
गोवर्धन
पर्वतने भारतवर्षसे पश्चिम दिशामें शाल्मलीद्वीपके भीतर द्रोणाचलकी पत्नीके गर्भसे
जन्म ग्रहण किया। उस अवसरपर देवताओंने गोवर्धनके ऊपर फूल बरसाये । हिमालय और
सुमेरु आदि समस्त पर्वतों ने वहाँ आकर प्रणाम और परिक्रमा करके गोवर्धन का विधिवत्
पूजन किया। पूजन के पश्चात् उन महान् पर्वतों ने उसकी स्तुति प्रारम्भ की ।। १०-
१२ ॥
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा
प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260
से
श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध अठारहवां अध्याय..(पोस्ट..०१)
रविवार, 9 जून 2024
श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) पहला अध्याय (पोस्ट 05)
#
श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(
श्रीवृन्दावनखण्ड )
पहला
अध्याय (पोस्ट 05)
सन्नन्दका
गोपों को महावन से वृन्दावन में चलने की सम्मति देना और व्रजमण्डल के सर्वाधिक माहात्म्य
का वर्णन करना
सन्नन्द उवाच -
आदौ वाराहकल्पेऽस्मिन् हरिर्वाराहरूपधृक् ।
रसातलात्समुद्धृत्य गां बभौ दंष्ट्रया प्रभुः ॥ ४६ ॥
गच्छन्तं वारिवृन्देषु भगवन्तं रमेश्वरम् ।
दंष्ट्राग्रे शोभिता पृथ्वी प्राह देवं जनार्दनम् ॥ ४७ ॥
धरोवाच -
देव कुत्र स्थले त्वं वै स्थापनां मे करिष्यसि ।
जलपूर्णं जगत्सर्वं दृश्यते वद हे प्रभो ॥ ४८ ॥
वाराह उवाच -
यदा वृक्षाः प्रदृष्टा हि भवन्त्युद्वेगता जले ।
तदा ते स्थापना भूयात्पश्यन्ती गच्छ भूरुहान् ॥ ४९ ॥
धरोवाच -
स्थावराणां तु रचना ममोपरि समास्थिता ।
अन्यास्ति किं वा धरणी त्वहं हि धारणामयी ॥ ५० ॥
सन्नन्द उवाच -
वदन्तीत्थं ददर्शाग्रे जले वृक्षान् मनोहरान् ।
वीक्ष्य पृथ्वी हरिं प्राह सर्वतो विगतविस्मया ॥ ५१ ॥
धरोवाच -
देव कस्मिंस्थले वृक्षाः सन्ति ह्येते सपल्लवाः ।
इदं मनसि मे चित्रं वद यज्ञपते प्रभो ॥ ५२ ॥
वाराह उवाच -
माथुरं मंडलं दिव्यं दृश्यतेऽग्रे नितम्बिनि ।
गोलोकभूमिसंयुक्तं प्रलयेऽपि न संहृतम् ॥ ५३ ॥
सन्नन्द उवाच -
तच्छ्रुत्वा विस्मिता पृथ्वी गतमाना बभूव ह ।
तस्मान्नन्द महाबाहो व्रजोऽयं सर्वतोऽधिकः ॥ ५४ ॥
श्रुत्वेदं व्रजमाहात्म्यं जीवन्मुक्तो भवेन्नरः ।
तीर्थराजात्परं विद्धि माथुरं व्रजमंडलम् ॥ ५५ ॥
सन्नन्द
ने कहा - इसी वाराहकल्प में पहले श्रीहरि ने वराहरूप धारण करके अपनी दाढ़पर उठाकर
रसातल से पृथ्वी का उद्धार किया था । उस समय उन प्रभु की बड़ी शोभा हुई थी। जल में
जाते हुए उन वराहरूपधारी भगवान् रमानाथ जनार्दन से उनकी दंष्ट्रा के अग्रभाग पर
शोभित हुई पृथ्वी बोली ।। ४६-४७ ॥
पृथ्वी
ने पूछा- प्रभो ! सारा विश्व पानी से भरा दिखायी देता है। अतः बताइये,
आप किस स्थल पर मेरी स्थापना करेंगे ? ॥ ४८ ॥
भगवान्
वराह बोले- जब वृक्ष दिखायी देने लगे और जलमें उद्वेगका भाव प्रकट हो,
तब उसी स्थानपर तुम्हारी स्थापना होगी। तुम वृक्षोंको देखती चलो ॥
४९ ॥
पृथ्वीने
कहा- भगवन् ! स्थावर वस्तुओंकी रचना तो मेरे ही ऊपर हुई है। क्या कोई दूसरी भी
धरणी है ?
धारणामयी धरणी तो केवल मैं ही हूँ ॥ ५० ॥
सन्नन्दजी
कहते हैं— यों कहती हुई पृथ्वीने अपने सामने जलमें मनोहर वृक्ष देखे। उन्हें देखकर
पृथ्वीका अभिमान दूर हो गया और वह भगवान्से बोली- 'देव ! किस स्थलपर ये पल्लवसहित वृक्ष विद्यमान हैं ? यह दृश्य मेरे मनमें बड़ा आश्चर्य पैदा कर रहा है । यज्ञपते ! प्रभो !
इसका रहस्य बताइये ॥ ५१-५२ ॥
भगवान्
वराह बोले- नितम्बिनि ! यह सामने दिव्य 'माथुर-मण्डल'
दिखायी देता है, जो गोलोककी धरतीसे जुड़ा हुआ
है। प्रलयकालमें भी इसका संहार नहीं होता ॥ ५३ ॥
सन्नन्द
बोले- यह सुनकर पृथ्वीको बड़ा विस्मय हुआ । वह अभिमानशून्य हो गयी । अतः महाबाहु
नन्द ! यह व्रजमण्डल समस्त लोकोंसे अधिक महत्त्वशाली है। व्रजका यह माहात्म्य
सुनकर मनुष्य जीवन्मुक्त हो जाता है। तुम 'माथुर
व्रजमण्डल' को तीर्थराज प्रयागसे भी उत्कृष्ट समझो ॥ ५४-५५ ॥
इस
प्रकार श्रीगर्गसंहितामें श्रीवृन्दावनखण्डके अन्तर्गत नन्द-सन्नन्द-संवाद में 'वृन्दावन में आगमन के उद्योग का वर्णन' नामक पहला
अध्याय पूरा हुआ ॥ १ ॥
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा
प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260
से
श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध सत्रहवां अध्याय..(पोस्ट..०७)
शनिवार, 8 जून 2024
श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) पहला अध्याय (पोस्ट 04)
#
श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(
श्रीवृन्दावनखण्ड )
पहला
अध्याय (पोस्ट 04)
सन्नन्दका
गोपों को महावन से वृन्दावन में चलने की सम्मति देना और व्रजमण्डल के सर्वाधिक माहात्म्य
का वर्णन करना
श्रीनारद उवाच -
तीर्थैः प्रपूजितस्त्वं वै तीर्थराज महातपः ।
तुभ्यं च सर्वतीर्थानि मुख्यानीह बलिं ददुः ॥ ३४ ॥
व्रजाद्वृंदावनादीनि नागतानीह ते पुरः ।
तीर्थानां राजराजस्त्वं प्रमत्तैस्तैस्तिरस्कृतः ॥ ३५ ॥
इति प्रभाष्य तं साक्षाद्गते देवर्षिसत्तमे ।
तीर्थराजस्तदा क्रुद्धो हरिलोकं जगाम ह ॥ ३६ ॥
नत्वा हरिं परिक्रम्य पुरः स्थित्वा कृतांजलिः ।
सर्वतीर्थैः परिवृतः श्रीनाथं प्राह तीर्थराट् ॥ ३७ ॥
तीर्थराज उवाच -
हे देवदेव प्राप्तोऽहं तीर्थराजस्त्वया कृतः ।
बलिं ददुर्मे तीर्थानि मथुरामंडलं विना ॥ ३८ ॥
प्रमत्तैर्व्रजतीर्थैश्च तैरहं तु तिरस्कृतः ।
तस्मात्तुभ्यं च कथितं प्राप्तोऽहं तव मंदिरे ॥ ३९ ॥
श्रीभगवानुवाच -
धरायां सर्वतीर्थानां त्वं कृतस्तीर्थराण्मया ।
किंतु स्वस्य गृहस्यापि न कृतो राट् त्वमेव हि ॥ ४० ॥
किं त्वं मे मंदिरं लिप्सुः मत्तवद्भाषसे वचः ।
तीर्थराज गृहं गच्छ शृणु वाक्यं शुभं च मे ॥ ४१ ॥
मथुरामंडलं साक्षान्मंदिरं मे परात्परम् ।
लोकत्रयात्परं दिव्यं प्रलयेऽपि न संहृतम् ॥ ४२ ॥
सन्नन्द उवाच -
इति श्रुत्वा तीर्थराजो विस्मितोऽभूद्गतस्मयः ।
आगत्य नत्वा संपूज्य माथुरं व्रजमंडलम् ॥ ४३ ॥
ततः प्रदक्षिणीकृत्य स्वधाम गतवान् पुनः ।
धराया मानभंगार्थं पूर्वमेतत्प्रदर्शितम् ।
मया तवाग्रे कथितं किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ॥ ४४ ॥
नंद उवाच -
धराया मानभङ्गार्थं केन पूर्वं प्रदर्शितम् ।
एतन्मे वद गोपेश माथुरं व्रजमंडलम् ॥ ४५ ॥
श्रीनारदजीने
कहा— महातपस्वी तीर्थराज ! निश्चय ही तुम समस्त तीर्थोंद्वारा विशेषरूपसे पूजित
हुए हो,
तुम्हें सभी मुख्य-मुख्य तीर्थोंने यहाँ आकर भेंट समर्पित की है;
परंतु व्रजके वृन्दावनादि तीर्थ यहाँ तुम्हारे सामने नहीं आये। तुम
तीर्थोके राजाधिराज हो, व्रज के प्रमादी तीर्थ ने यहाँ न आकर
तुम्हारा तिरस्कार किया है ।। ३४-३५ ॥
सन्नन्द
कहते हैं—यों कहकर साक्षात् देवर्षि- शिरोमणि नारदजी वहाँ से चले गये। तब तीर्थराज
के मन में बड़ा क्रोध हुआ और वे उसी क्षण श्रीहरि के लोक में गये । श्रीहरिको
प्रणाम और उनकी परिक्रमा करके सम्पूर्ण तीर्थोंसे घिरे हुए तीर्थराज हाथ जोड़कर
भगवान्के सामने खड़े हुए और उन श्रीनाथसे बोले ।। ३६-३७ ।।
तीर्थराज
ने कहा— देवदेव ! मैं आपकी सेवामें इसलिये आया हूँ कि आपने तो मुझे 'तीर्थराज' बनाया और समस्त तीर्थों ने मुझे भेंट दी,
किंतु मथुरामण्डल के तीर्थ मेरे पास नहीं आये उन प्रमादी
व्रजतीर्थों ने मेरा तिरस्कार किया है। अतः यह बात आपसे कहने के लिये मैं आपके
मन्दिर में आया हूँ ।। ३८-३९ ।।
श्रीभगवान्
बोले—मैंने तुम्हें धरती के सब तीर्थोंका राजा - 'तीर्थराज' अवश्य बनाया है; किंतु
अपने घरका भी राजा तुम्हें ही बना दिया हो, ऐसी बात तो नहीं
हुई है ! फिर तुम तो मेरे गृहपर भी अधिकार जमाने की इच्छा लेकर प्रमत्त पुरुषके
समान बात कैसे कर रहे हो ? तीर्थराज ! तुम अपने घर जाओ और
मेरा यह शुभ वचन सुन लो । मथुरामण्डल मेरा साक्षात् परात्पर धाम है, त्रिलोकी से परे है। उस दिव्यधाम का प्रलयकाल में भी संहार नहीं होता ।।
४०-४२ ॥
सन्नन्द
कहते हैं - यह सुनकर तीर्थराज बड़े विस्मित हुए। उनका सारा अभिमान गल गया। फिर
वहाँ से आकर उन्होंने मथुराके व्रजमण्डलका पूजन और उसकी परिक्रमा करके अपने
स्थानको पदार्पण किया। पृथ्वीका मानभङ्ग करनेके लिये यह व्रजमण्डल पहले दिखाया गया
था। मैंने ये सारी बातें तुम्हारे सामने कहीं, अब
और क्या सुनना चाहते हो ॥ ४३-४४ ॥
नन्दजीने
पूछा—गोपेश्वर ! किसने पहले पृथ्वी का मानभङ्ग करनेके लिये इस व्रजमण्डल को
दिखलाया था, यह मुझे बताइये ॥ ४५ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध सत्रहवां अध्याय..(पोस्ट..०६)
शुक्रवार, 7 जून 2024
श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) पहला अध्याय (पोस्ट 03)
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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(
श्रीवृन्दावनखण्ड )
पहला
अध्याय (पोस्ट 03)
सन्नन्दका
गोपों को महावन से वृन्दावन में चलने की सम्मति देना और व्रजमण्डल के सर्वाधिक माहात्म्य
का वर्णन करना
शूलं चिक्षेप हरये शंखो दैत्यो महाबलः ।
स्वचक्रेण हरिः साक्षात्तच्छूलं शतधाकरोत् ॥ २३ ॥
हरिं तताड शिरसा शंखो विष्णुमुरःस्थले ।
तस्य मूर्द्धप्रहारेण न चचाल परात्परः ॥ २४ ॥
तदा गदां समादाय मत्स्यरूपधरो हरिः ।
पृष्ठे जघान तं दैत्यं शंखरूपं महाबलम् ॥ २५ ॥
गदाप्रहारव्यथितः किंचिद्व्याकुलमानसः ।
पुनरुत्थाय सर्वेशं मुष्टिना स तताड ह ॥ २६ ॥
तदा विष्णुः स्वचक्रेण सशृङ्गं तच्छिरो दृढम् ।
जहार कुपितः साक्षाद्भगवान् कमलेक्षणः ॥ २७ ॥
जित्वा शंखं देववरैः सार्धं विष्णुर्व्रजेश्वर ।
प्रयागमेत्य स हरिर्वेदान् तान् ब्रह्मणे ददौ ॥ २८ ॥
यज्ञं चकार विधिवत्सर्वदेवगणैः सह ।
प्रयागं च समाहूय तीर्थराजं चकार ह ॥ २९ ॥
तत्साक्षादक्षयवटः कृतो लीलातपत्रवत् ।
मुनिभानुसुतेऽथोर्मिचामरैस्तं विरेजतुः ॥ ३० ॥
तदैव सर्वतीर्थानि जंबूद्वीपस्थितानि च ।
नीत्वा बलिं समाजग्मुस्तीर्थराजाय धीमते ॥ ३१ ॥
तीर्थराजं च संपूज्य नत्वा तीर्थानि सर्वतः ।
स्वधामानि ययुर्नन्द हरौ देवैर्गते सति ॥ ३२ ॥
तदैव नारदः प्राप्तो मुनीन्द्रः कलहप्रियः ।
सिंहासने भ्राजमानं तीर्थराजमुवाच ह ॥ ३३ ॥
महाबली
दैत्य शङ्ख ने श्रीहरि के ऊपर शूल चलाया। किंतु साक्षात् श्रीहरि ने अपने चक्रसे
उस शूल के सैकड़ों टुकड़े कर दिये। तब शङ्ख ने अपने सिर से भगवान् विष्णु के
वक्षःस्थल में प्रहार किया। किंतु उसके उस प्रहार से परात्पर श्रीहरि विचलित नहीं
हुए। उस समय मत्स्यरूपधारी श्रीहरिने हाथमें गदा लेकर महाबली शङ्खरूपधारी उस दैत्य की पीठ पर
आघात किया ।। २३-२५ ॥
गदा
के प्रहार से वह इतना पीड़ित हुआ कि उसका चित्त कुछ व्याकुल हो गया;
किंतु पुनः उठकर उसने सर्वेश्वर श्रीहरिको मुक्केसे मारा। तब कमलनयन
साक्षात् भगवान् विष्णुने कुपित हो अपने चक्रसे उसके सुदृढ़ मस्तक को सींगसहित काट
डाला ।। २६-२७ ॥
व्रजेश्वर
! इस प्रकार शङ्ख को जीतकर देवताओंके साथ सर्वव्यापी श्रीहरि ने प्रयागमें आकर वे
चारों वेद ब्रह्माजीको दे दिये। फिर सम्पूर्ण देवताओंके साथ उन्होंने विधिवत्
यज्ञका अनुष्ठान किया और प्रयागतीर्थके अधिष्ठाता देवताको बुलाकर उसे 'तीर्थराज' पदपर अभिषिक्त कर दिया । साक्षात्
अक्षयवटको तीर्थराजके लिये लीला - छत्र-सा बना दिया । मुनिकन्या गङ्गा तथा
सूर्यसुता यमुना अपनी तरङ्गरूपी चामरों से उनकी सेवा करने लगीं ।। २८-३० ॥
उसी
समय जम्बूद्वीपके सारे तीर्थ भेंट लेकर बुद्धिमान् तीर्थराजके पास आये और उनकी
पूजा और वन्दना करके वे तीर्थ अपने-अपने स्थान- को चले गये। नन्द ! जब देवताओंके
साथ श्रीहरि भी चले गये, तब वहीं कलहप्रिय
मुनीन्द्र नारदजी आ पहुँचे और सिंहासनपर देदीप्यमान तीर्थराजसे बोले ॥ ३१ - ३३ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
गुरुवार, 6 जून 2024
श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध सत्रहवां अध्याय..(पोस्ट..०५)
श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) पहला अध्याय (पोस्ट 02)
#
श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(
श्रीवृन्दावनखण्ड )
पहला
अध्याय (पोस्ट 02)
सन्नन्दका
गोपों को महावन से वृन्दावन में चलने की सम्मति देना और व्रजमण्डल के सर्वाधिक माहात्म्य
का वर्णन करना
वैकुंठान्नापरो लोको न भूतो न भविष्यति ।
एकं वृंदावनं नाम वैकुंठाच्च परात्परम् ॥ १५ ॥
यत्र गोवर्धनो नाम गिरिराजो विराजते ।
कालिन्दीनिकटे यत्र पुलिनं मंगलायनम् ॥ १६ ॥
बृहत्सानुर्गिरिर्यत्र यत्र नन्दीश्वरो गिरिः ।
क्रोशानां च चतुर्विंशद्विस्तृतैः काननैर्वृतम् ॥ १७ ॥
पशव्यं गोपगोपीनां गवां सेव्यं मनोहरम् ।
लताकुंजावृतं तद्वै वनं वृंदावनं स्मृतम् ॥ १८ ॥
नंद उवाच -
कदा व्रजोऽयं सन्नंद तीर्थराजेन पूजितः ।
एतद्वेदितुमिच्छामि परं कौतुहलं हि मे ॥ १९ ॥
सन्नंद उवाच -
शंखासुरो महादैत्यः पुरा नैमित्तिके लये ।
स्वपतो ब्रह्मणः सोऽपि वेदध्रुग्दैत्यपुंगवः ॥ २० ॥
जित्वा देवान् ब्रह्मलोकाद्धृत्वा वेदान् गतोऽर्णवे ।
गतेषु तेषु वेदेषु देवानां च गतं बलम् ॥ २१ ॥
तदा साक्षाद्धरिः पूर्णो धृत्वा मात्स्यं वपुः पुरम् ।
नैमित्तिकलयांभोधौ युयुधे तेन यज्ञराट् ॥ २२ ॥
वैकुण्ठ
से बढ़कर दूसरा कोई लोक न तो हुआ है और न आगे होगा। केवल एक 'वृन्दावन' ही ऐसा है, जो
वैकुण्ठ की अपेक्षा भी परात्पर (परम उत्कृष्ट) है । जहाँ 'गोवर्धन'
नाम से प्रसिद्ध गिरिराज विराजमान है, जहाँ
कालिन्दी के तटपर मङ्गलधाम पुलिन है, जहाँ बृहत्सानु
(बरसाना) पर्वत है तथा जहाँ नन्दीश्वर गिरि शोभा पाता है, जो
चौबीस कोस के विस्तार में स्थित तथा विशाल काननोंसे आवृत है; जो पशुओंके लिये हितकर, गोप-गोपी और गौओंके लिये
सेवन करनेयोग्य तथा लताकुज्जोंसे आवृत है, उस मनोहर बनको 'वृन्दावन' के नामसे स्मरण किया जाता है ।। १५ - १८ ॥
नन्दजीने
पूछा – सन्नन्दजी ! तीर्थराज प्रयागने कब इस व्रज की पूजा की है,
मैं यह जानना चाहता हूँ । इसे सुनने के लिये मेरे मनमें बड़ा
कौतूहल- बड़ी उत्कण्ठा है ॥ १९ ॥
सन्नन्द
बोले- नन्दराज ! पूर्वकालमें नैमित्तिक प्रलय के अवसर पर एक महान् दैत्य प्रकट हुआ,
जो शङ्खासुर के नामसे प्रसिद्ध था। वह वेदद्रोही दैत्यराज समस्त
देवताओं को जीतकर ब्रह्मलोक में गया और वहाँ सोते हुए ब्रह्मा के पास से वेदों की
पोथी चुराकर समुद्र में जा घुसा। वेदों के जाते ही देवताओं का सारा बल चला गया। तब
पूर्ण भगवान् यज्ञेश्वर श्रीहरिने मत्स्यरूप धारण करके नैमित्तिक प्रलयके सागरमें
उस शङ्खासुरके साथ युद्ध किया ॥ २०-२२ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट१०)
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट१०) विदुरजीका प्रश्न और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन विश...
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निगमकल्पतरोर्गलितं फलं , शुकमुखादमृतद्रवसंयुतम् | पिबत भागवतं रसमालयं , मुहुरहो रसिका भुवि भावुकाः || महामुनि व्यासदेव के द्वारा न...
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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०२) समुद्रसे अमृतका प्रकट होना और भगवान्...
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☼ श्रीदुर्गादेव्यै नम: ☼ क्षमा-प्रार्थना अपराध सहस्राणि क्रियन्तेऽहर्निशं मया । दासोऽयमिति मां मत्वा क्षमस्व परमेश्वरी ।। 1...
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शिवसंकल्पसूक्त ( कल्याणसूक्त ) [ मनुष्यशरीर में प्रत्येक इन्द्रियका अपना विशिष्ट महत्त्व है , परंतु मनका महत्त्व सर्वोपरि है ; क्यो...
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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण श्रीमद्भागवतमाहात्म्यम्- पहला अध्याय परीक्षित् और वज्रनाभ का समागम , शाण्डिल...