गुरुवार, 13 जून 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) दूसरा अध्याय (पोस्ट 04)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

दूसरा अध्याय (पोस्ट 04)

 

गिरिराज गोवर्धन की उत्पत्ति तथा उसका व्रजमण्डल में आगमन

 

जातिस्मरो गिरिस्तत्र प्राहेदं पथि चिंतयन् ।
परिपूर्णतमः साक्षाच्छ्रीकृष्णो भगवान् स्वयम् ॥ ३६ ॥
अखंडब्रह्माण्डपतिर्व्रजेऽत्रावतरिष्यति ।
बाललीलां च कैशोरीं चेष्टां गोपालबालकैः ॥ ३७ ॥
दानलीलां मानलीलां हरिरत्र करिष्यति ।
तस्मान्मया न गन्तव्यं भूमिश्चेयं कलिन्दजा ॥ ३८ ॥
गोलोकाद्‌राधया सार्धं श्रीकृष्णोऽत्रागमिष्यति ।
कृतकृत्यो भविष्यामि कृत्वा तद्दर्शनं परम् ॥ ३९ ॥
एवं विचार्य मनसा भूरि भारं ददौ करे ।
तदा मुनिश्च श्रांतोऽभूद्‌भूतपूर्वं गतस्मृतिः ॥ ४० ॥
करादुत्तार्य तं शैलं निधाय व्रजमंडले ।
लघुशंकाजयार्थं हि गतोऽभूद्‌भारपीडितः ॥ ४१ ॥
कृत्वा शौचं जले स्नात्वा पुलस्त्यो मुनिसत्तमः ।
उत्तिष्ठेति मुनिः प्राह गिरिं गोवर्धनं परम् ॥ ४२ ॥
नोत्थितं भूरिभाराढ्यं कराभ्यां तं महामुनिः ।
स्वतेजसा बलेनापि गृहीतुमुपचक्रमे ॥ ४३ ॥
मुनिना संगृहीतोऽपि गिरिराजो गिराऽऽर्द्रया ।
न चलालांगुलिं किंचित् तदपि द्रोणनन्दनः ॥ ४४ ॥
सन्नन्द उवाच -
गच्छ गच्छ गिरिश्रेष्ठ भारं मा कुरु मा कुरु ।
मया ज्ञातोऽसि रुष्टस्त्वमभिप्रायं वदाशु मे ॥ ४५ ॥


गोवर्धन उवाच -
मुनेऽत्र मे न दोषोऽस्ति त्वया मे स्थापना कृता ।
करिष्यामि न चोत्थानं पूर्वं मे शपथः कृतः ॥ ४६ ॥


सन्नन्द उवाच -
पुलस्त्यो मुनिशार्दूलः क्रोधात् प्रचलितेन्द्रियः ।
स्फुरदोष्ठो द्रोणपुत्रं शशाप विगतोद्यमः ॥ ४७ ॥

सन्नन्द उवाच -
गिरे त्वयातिधृष्टेन न कृतो मे मनोरथः ।
तस्मात्तु तिलमात्रं हि नित्यं त्वं क्षीणतां व्रज ॥ ४८ ॥


सन्नन्द उवाच -
काशीं गते पुलस्त्यर्षावयं गोवर्धनो गिरिः ।
नित्यं संक्षीयते नन्द तिलमात्रं दिने दिने ॥ ४९ ॥
यावद्‌भागीरथी गंगा यावद्‌गोवर्धनो गिरिः ।
तावत्कलेः प्रभावस्तु भविष्यति न कर्हिचित् ॥ ५० ॥

गोवर्धनस्य प्रकटं चरित्रं
     नृणां महापापहरं पवित्रम् ।
मया तवाग्रे कथितं विचित्रं
     सुमुक्तिदं कौ रुचिरं न चित्रम् ॥ ५१ ॥

 

गोवर्धनपर्वत को अपने पूर्व- जन्म की बातों का स्मरण था । व्रज में आनेपर उसने मार्ग में मन ही मन सोचा -- 'यहाँ व्रज में असंख्य ब्रह्माण्डनायक साक्षात् परिपूर्णतम भगवान् श्रीकृष्ण अवतार लेंगे और ग्वालबालों के साथ बाललीला तथा कैशोर लीला करेंगे। इतना ही नहीं, वे श्रीहरि यहाँ दानलीला और मानलीला भी करेंगे। अतः मुझे यहाँसे अन्यत्र नहीं जाना चाहिये। यह व्रजभूमि और यह यमुना नदी गोलोकसे यहाँ आयी है। श्रीराधाके साथ भगवान् श्रीकृष्णका भी यहाँ शुभागमन होगा। उनका उत्तम दर्शन पाकर मैं कृतकृत्य हो जाऊँगा ।' मन-ही- मन ऐसा विचार करके गोवर्धनने मुनिकी हथेलीपर अपने शरीरका भार बहुत अधिक बढ़ा लिया। उस समय मुनि अत्यन्त थक गये। उन्हें पहलेकी कही हुई बातकी याद नहीं रही। उन्होंने पर्वतको हाथसे उतारकर व्रजमण्डलमें रख दिया। भारसे पीड़ित तो वे थे ही, लघुशङ्का से निवृत्त होनेके लिये चले गये ॥ ३६-४१ ॥

 

शौच क्रिया करके जल में स्नान करने के पश्चात् मुनिवर पुलस्त्य ने उत्तम पर्वत गोवर्धन से कहा – 'अब उठो ।' अधिक भारसे सम्पन्न होनेके कारण जब वह दोनों हाथोंसे नहीं उठा, तब महामुनि पुलस्त्य ने उसे अपने तेज और बल से उठा लेनेका उपक्रम किया। मुनिने स्नेहसे भीगी वाणीद्वारा द्रोणनन्दन गिरिराजको ग्रहण करनेका सम्पूर्ण शक्तिसे प्रयास किया, किंतु वह एक अंगुल भी टस से मस न हुआ ।। ४२-४४ ॥

 

तब पुलस्त्यजी बोले- गिरिश्रेष्ठ! चलो, चलो ! भार अधिक न बढ़ाओ, न बढ़ाओ। मैं जान गया, तुम रूठे हुए हो। शीघ्र बताओ, तुम्हारा क्या अभिप्राय है ? || ४५ ॥

 

गोवर्धन बोला- मुने ! इसमें मेरा दोष नहीं है । आपने ही मुझे यहाँ स्थापित किया है। अब मैं यहाँसे नहीं उठूँगा । अपनी यह प्रतिज्ञा मैंने पहले ही प्रकट कर दी थी ॥ ४६ ॥

 

सन्नन्दजी कहते हैं - यह उत्तर सुनकर मुनिश्रेष्ठ पुलस्त्य की सारी इन्द्रियाँ क्रोध से चञ्चल हो उठीं। उनके ओष्ठ फड़कने लगे। अपना सारा उद्यम व्यर्थ हो जाने- के कारण उन्होंने द्रोणपुत्र को शाप दे दिया ॥ ४७ ॥

 

पुलस्त्यजी बोले- पर्वत ! तू बड़ा ढीठ है। तूने मेरा मनोरथ पूर्ण नहीं किया । इसलिये तू प्रतिदिन तिल-तिलभर क्षीण होता चला जा ॥ ४८ ॥

 

सन्नन्दजी कहते हैं--नन्द ! यों कहकर पुलस्त्य मुनि काशी चले गये। उसी दिन से यह गोवर्धन पर्वत प्रतिदिन तिल-तिल करके क्षीण होता चला जा रहा है । जबतक भागीरथी गङ्गा और गोवर्धन पर्वत इस भूतल पर विद्यमान हैं, तबतक कलि का प्रभाव कदापि नहीं बढ़ेगा। गोवर्धनका यह प्रकट चरित्र परम पवित्र और मनुष्योंके बड़े-बड़े पापोंका नाश करनेवाला है । यह प्रसङ्ग मैंने तुम्हारे सामने कहा है, जो भूमण्डल में रुचिर और अद्भुत है। यह उत्तम मोक्ष प्रदान करनेवाला है, इसमें कोई आश्चर्यकी बात नहीं है ।। ४९–५१ ॥

 

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें श्रीवृन्दावनखण्डके अन्तर्गत 'गिरिराजकी उत्पत्तिका वर्णन'

नामक दूसरा अध्याय पूरा हुआ ॥ २ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध अठारहवां अध्याय..(पोस्ट..०४)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध- अठारहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०४)

राजा परीक्षत् को शृङ्गी ऋषिका शाप

सूत उवाच ।

अहो वयं जन्मभृतोऽद्य हास्म
    वृद्धानुवृत्त्यापि विलोमजाताः ।
दौष्कुल्यमाधिं विधुनोति शीघ्रं
    महत्तमानामभिधानयोगः ॥ १८ ॥
कुतः पुनर्गृणतो नाम तस्य
    महत्तमैकान्त परायणस्य ।
योऽनन्तशक्तिः भगवाननन्तो
    महद्‍गुणत्वाद् यमनन्तमाहुः ॥ १९ ॥
एतावतालं ननु सूचितेन
    गुणैरसाम्यानतिशायनस्य ।
हित्वेतरान् प्रार्थयतो विभूतिः
    यस्याङ्‌घ्रिरेणुं जुषतेऽनभीप्सोः ॥ २० ॥

सूतजी कहते हैं—अहो ! विलोम [*] जाति में उत्पन्न होनेपर भी महात्माओंकी सेवा करनेके कारण आज हमारा जन्म सफल हो गया। क्योंकि महापुरुषोंके साथ बातचीत करनेमात्रसे ही नीच कुलमें उत्पन्न होनेकी मनोव्यथा शीघ्र ही मिट जाती है ॥ १८ ॥ फिर उन लोगोंकी तो बात ही क्या है, जो सत्पुरुषोंके एकमात्र आश्रय भगवान्‌का नाम लेते हैं ! भगवान्‌ की शक्ति अनन्त है, वे स्वयं अनन्त हैं। वास्तवमें उनके गुणोंकी अनन्तता के कारण ही उन्हें अनन्त कहा गया है ॥ १९ ॥ भगवान्‌ के गुणोंकी समता भी जब कोई नहीं कर सकता, तब उनसे बढक़र तो कोई हो ही कैसे सकता है। उनके गुणोंकी यह विशेषता समझानेके लिये इतना कह देना ही पर्याप्त है कि लक्ष्मीजी अपनेको प्राप्त करनेकी इच्छासे प्रार्थना करनेवाले ब्रह्मादि देवताओंको छोडक़र भगवान्‌ के न चाहनेपर भी उनके चरणकमलोंकी रजका ही सेवन करती हैं ॥ २० ॥ 

..............................................................
[*] उच्च वर्णकी माता और निम्न वर्णके पितासे उत्पन्न संतानको ‘विलोमज’ कहते हैं। सूत जातिकी उत्पत्ति इसी प्रकार ब्राह्मणी माता और क्षत्रिय पिताके द्वारा होनेसे उसे शास्त्रोंमें विलोम जाति माना गया है।

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्ट संस्करण)  पुस्तक कोड 1535 से


बुधवार, 12 जून 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) दूसरा अध्याय (पोस्ट 03)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

दूसरा अध्याय (पोस्ट 03)

 

गिरिराज गोवर्धन की उत्पत्ति तथा उसका व्रजमण्डल में आगमन

 

विश्वेश्वरस्य देवस्य काशीनाम्ना महापुरी ।
यत्र पापी मृतः सद्यः परं मोक्षं प्रयाति हि ॥ २४ ॥
यत्र गंगाऽऽगता साक्षाद्‌विश्वनाथोऽपि यत्र वै ।
तत्रैव स्थापयिष्यामि जातोऽयं मे मनोरथः ॥ २६ ॥


सन्नन्द उवाच -
पुलस्त्यवचनं श्रुत्वा स्वसुतस्नेहविह्वलः ।
अश्रुपूर्णो द्रोणगिरिस्तं मुनिं वाक्यमब्रवीत् ॥ २७ ॥


द्रोण उवाच -
पुत्रस्नेहाकुलोऽहं वै पुत्रो मेऽयमतिप्रियः ।
ते शापभयभीतोऽहं वदाम्येनं महामुने ॥ २८ ॥
हे पुत्र गच्छ मुनिना भारते कर्मके शुभे ।
त्रैवर्ग्यं लभ्यते यत्र नृभिर्मोक्षमपि क्षणात् ॥ २९ ॥


गोवर्धन उवाच -
मुने कथं मां नयसि लंबितं योजनाष्टकम् ।
योजनद्वयमुच्चांगं पंचयोजनविस्तृतम् ॥ ३० ॥


पुलस्त्य उवाच -
उपविश्य करे मे त्वं गच्छ पुत्र यथासुखम् ।
वाहयामि करे त्वां वै यावत्काशीं समागतः ॥ ३१ ॥


गोवर्धन उवाच -
मुने यत्र स्थले भूम्यां स्थापनां मे करिष्यसि ।
करिष्यामि न चोत्थानं तद्‌भूम्याः शपथो मम ॥ ३२ ॥


पुलस्त्य उवाच -
अहमाशाल्मलिद्वीपान् मर्यादीकृत्य कौसलम् ।
न स्थापनां करिष्यामि शपथस्तेऽपि मे पथि ॥ ३३ ॥


सन्नन्द उवाच -
मुनेः करतले तस्मिन्नारुरोह महाचलः ।
प्रणम्य पितरं द्रोणमश्रुपूर्णाकुलेक्षणः ॥ ३४ ॥
मुनिस्तं दक्षिणकरे धृत्वा गच्छन् शनैः शनैः ।
स्वतेजो दर्शयन् नॄणां प्राप्तोऽभूद्‌व्रजमंडले ॥ ३५ ॥

 

भगवान् विश्वेश्वर की महानगरी 'काशी' नामसे प्रसिद्ध है, जहाँ मरणको प्राप्त हुआ पापी पुरुष भी तत्काल परम मोक्ष प्राप्त कर लेता है, जहाँ गङ्गा नदी प्राप्त होती हैं और जहाँ साक्षात् विश्वनाथ भी विराजमान हैं। मैं वहीं तुम्हारे पुत्र को स्थापित करूँगा, जहाँ दूसरा कोई पर्वत नहीं है । लता-बेलों और वृक्षों से व्याप्त जो तुम्हारा पुत्र गोवर्धन है, उसके ऊपर रहकर मैं तपस्या करूँगा – ऐसी अभिलाषा मेरे मन में जाग्रत् हुई है । २४ - २६॥

 

सन्नन्दजी कहते हैं- पुलस्त्यजीकी यह बात सुनकर पुत्र - स्नेहसे विह्वल हुए द्रोणाचलके नेत्रोंमें आँसू भर आये। उसने पुलस्त्य मुनिसे कहा ॥ २७ ॥

 

द्रोणाचल बोला- महामुने ! मैं पुत्र स्नेहसे आकुल हूँ। यह पुत्र मुझे अत्यन्त प्रिय है, तथापि आपके शापके भयसे भीत होकर मैं इसे आपके हाथोंमें देता हूँ। (फिर वह पुत्रसे बोला - ) बेटा! तुम मुनिके साथ कल्याणमय कर्मक्षेत्र भारतवर्षमें जाओ । वहाँ मनुष्य सत्कर्मोंद्वारा धर्म, अर्थ और काम — त्रिवर्ग सुख प्राप्त करते हैं तथा (निष्काम कर्म एवं ज्ञानयोगद्वारा) क्षणभरमें मोक्ष भी पा लेते हैं ।। २८-२९ ॥

 

गोवर्धनने कहा- मुने! मेरा शरीर आठ योजन लंबा, दो योजन ऊँचा और पाँच योजन चौड़ा है। ऐसी दशामें आप किस प्रकार मुझे ले चलेंगे ॥ ३० ॥

 

पुलस्त्यजी बोले- बेटा ! तुम मेरे हाथपर बैठकर सुखपूर्वक चलेचलो। जबतक काशी नहीं आ जाती, तबतक मैं तुम्हें हाथपर ही ढोये चलूँगा ॥ ३१ ॥

 

गोवर्धनने कहा- मुने ! मेरी एक प्रतिज्ञा है। आप जहाँ-कहीं भी भूमिपर मुझे एक बार रख देंगे, वहाँकी भूमिसे मैं पुनः उत्थान नहीं करूँगा ॥ ३२ ॥

 

पुलस्त्यजी बोले- मैं इस शाल्मलीद्वीपसे लेकर भारतवर्षके कोसलदेशतक तुम्हें कहीं भी रास्तेमें नहीं रखूँगा, यह मेरी प्रतिज्ञा है ॥ ३३ ॥

 

सन्नन्दजी कहते हैं-नन्दराज ! तदनन्तर वह महान् पर्वत पिताको प्रणाम करके मुनिकी हथेलीपर आरूढ़ हुआ। उस समय उसके नेत्रोंमें आँसू भर आये । उसे दाहिने हाथपर रखकर पुलस्त्य मुनि लोगोंको अपना तेज दिखाते हुए धीरे-धीरे चले और व्रज-मण्डलमें आ पहुँचे ॥ ३४-३५ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध अठारहवां अध्याय..(पोस्ट..०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध- अठारहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०३)

राजा परीक्षत् को शृङ्गी ऋषिका शाप

को नाम तृप्येद् रसवित्कथायां
    महत्तमैकान्त परायणस्य ।
नान्तं गुणानां अगुणस्य जग्मुः
    योगेश्वरा ये भवपाद्ममुख्याः ॥ १४ ॥
तन्नो भवान् वै भगवत्प्रधानो
    महत्तमैकान्त परायणस्य ।
हरेरुदारं चरितं विशुद्धं
    शुश्रूषतां नो वितनोतु विद्वन् ॥ १५ ॥
स वै महाभागवतः परीक्षिद्
    येनापवर्गाख्यमदभ्रबुद्धिः ।
ज्ञानेन वैयासकिशब्दितेन
    भेजे खगेन्द्रध्वजपादमूलम् ॥ १६ ॥
तन्नः परं पुण्यमसंवृतार्थं
    आख्यानमत्यद्‍भुत योगनिष्ठम् ।
आख्याह्यनन्ता चरितोपपन्नं
    पारीक्षितं भागवताभिरामम् ॥ १७ ॥

ऐसा कौन रस-मर्मज्ञ होगा, जो महापुरुषोंके एकमात्र जीवन-सर्वस्व श्रीकृष्णकी लीला-कथाओंसे तृप्त हो जाय ? समस्त प्राकृत गुणोंसे अतीत भगवान्‌ के अचिन्त्य अनन्त कल्याणमय गुणगणोंका पार तो ब्रह्मा, शङ्कर आदि बड़े-बड़े योगेश्वर भी नहीं पा सके ॥ १४ ॥ विद्वन् ! आप भगवान्‌ को ही अपने जीवनका ध्रुवतारा मानते हैं। इसलिये आप सत्पुरुषोंके एकमात्र आश्रय भगवान्‌ के उदार और विशुद्ध चरित्रोंका हम श्रद्धालु श्रोताओंके लिये विस्तारसे वर्णन कीजिये ॥ १५ ॥ भगवान्‌ के परम प्रेमी महाबुद्धि परीक्षित्‌ ने श्रीशुकदेवजीके उपदेश किये हुए जिस ज्ञानसे मोक्षस्वरूप भगवान्‌ के चरणकमलोंको प्राप्त किया, आप कृपा करके उसी ज्ञान और परीक्षित्‌ के परम पवित्र उपाख्यानका वर्णन कीजिये; क्योंकि उसमें कोई बात छिपाकर नहीं कही गयी होगी और भगवत्प्रेम की अद्भुत योगनिष्ठाका निरूपण किया गया होगा। उसमें पद-पदपर भगवान्‌ श्रीकृष्णकी लीलाओंका वर्णन हुआ होगा। भगवान्‌ के प्यारे भक्तोंको वैसा प्रसङ्ग सुननेमें बड़ा रस मिलता है ॥१६-१७॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्ट संस्करण)  पुस्तक कोड 1535 से


मंगलवार, 11 जून 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) दूसरा अध्याय (पोस्ट 02)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

दूसरा अध्याय (पोस्ट 02)

 

गिरिराज गोवर्धन की उत्पत्ति तथा उसका व्रजमण्डल में आगमन

 

शैला ऊचुः -
त्वं साक्षात्कृष्णचंद्रस्य परिपूर्णतमस्य च ।
गोलोके गोगणैर्युक्ते गोपीगोपालसंयुते ॥ १३ ॥
त्वं हि गोवर्धनो नाम वृंदारण्ये विराजसे ।
त्वन्नो गिरीणां सर्वेषां गिरिराजोऽसि सांप्रतम् ॥ १४ ॥
नमो वृंदावनाङ्काय तुभ्यं गोलोकमौलिने ।
पूर्णब्रह्मातपत्राय नमो गोवर्धनाय च ॥ १५ ॥


सन्नन्द उवाच -
इति स्तुत्वाथ गिरयो जग्मुः स्वं स्वं गृहं ततः ।
शैलो गिरिवरः साक्षाद्‌गिरिराज इति स्मृतः ॥ १६ ॥
एकदा तीर्थयायी च पुलस्त्यो मुनिसत्तमः ।
द्रोणाचलसुतं श्यामं गिरिं गोवर्धनं वरम् ॥ १७ ॥
माधवीलतिकापुष्पं पलभारसमन्वितम् ।
निर्झरैर्नादितं शान्तं कंदरामंगलायनम् ॥ १८ ॥
तपोयोग्यं रत्‍नमयं शतशृङ्गं मनोहरम् ।
चित्रधातुविचित्रांगं सटंकं पक्षिसंकुलम् ॥ १९ ॥
मृगैः शाखामृगैर्व्याप्तं मयूरध्वनिमंडितम् ।
मुक्तिप्रदं मुमुक्षूणां तं ददर्श महामुनिः ॥ २० ॥
तल्लिप्सुर्मुनिशार्दूलो द्रोणपार्श्वं समागतः ।
पूजितो द्रोणगिरिणा पुलस्त्यः प्राह तं गिरिम् ॥ २१ ॥


पुलस्त्य उवाच -
हे द्रोण त्वं गिरिन्द्रोऽसि सर्वदेवैश्च पूजितः ।
दिव्यौषधिसमायुक्तः सदा जीवनदो नृणाम् ॥ २२ ॥
अर्थी तवांतिके प्राप्तः काशीस्थोऽहं महामुनिः ।
गोवर्धनं सुतं देहि नान्यैर्मेऽत्र प्रयोजनम् ॥ २३ ॥

पर्वत बोले- तुम साक्षात् परिपूर्णतम भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके गोलोकधाममें, जहाँ दिव्य गौओंका समुदाय निवास करता है तथा गोपाल एवं गोप- सुन्दरियाँ शोभा पाती हैं, सुशोभित होते हो। तुम्हीं 'गोवर्धन' नामसे वृन्दावनमें विराजते हो, इस समय तुम्हीं हम समस्त पर्वतोंमें 'गिरिराज' हो। तुम वृन्दावनकी गोद में समोद निवास करनेवाले, गोलोकके मुकुटमणि हो तथा पूर्णब्रह्म परमात्मा श्रीकृष्णके हाथोंमें किसी विशिष्ट अवसरपर छत्रके समान शोभा पाते हो। तुम गोवर्धनको हमारा सादर नमस्कार है ॥ १३- .१५ ॥

 

सन्नन्दजी कहते हैं- नन्दराज ! जब इस प्रकार स्तुति करके सब पर्वत अपने-अपने स्थानपर चले गये, तभीसे यह गिरिश्रेष्ठ गोवर्धन साक्षात् 'गिरिराज' कहलाने लगा है। एक समय मुनिश्रेष्ठ पुलस्त्यजी तीर्थयात्राके लिये भूतलपर भ्रमण करने लगे। उन महामुनिने द्रोणाचलके पुत्र श्यामवर्णवाले श्रेष्ठ पर्वत गोवर्धनको देखा, जिसके ऊपर माधवी लताके सुमन सुशोभित हो रहे थे । वहाँके वृक्ष फलोंके भारसे लदे हुए थे । निर्झरोंके झर-झर शब्द वहाँ गूँज रहे थे। उस पर्वतपर बड़ी शान्ति विराज रही थी। अपनी कन्दराओंके कारण वह मङ्गलका धाम जान पड़ता था। सैकड़ों शिखरोंसे सुशोभित वह रत्नमय मनोहर शैल तपस्या करनेके लिये उपयुक्त स्थान था । विविध रंगकी चित्र-विचित्र धातुएँ उस पर्वतके अवयवोंमें विचित्र शोभाका आधान करती थीं। उसकी भूमि ढालू (चढ़ाव उतारसे युक्त) थी और वहाँ नाना प्रकारके पक्षी सब ओर व्याप्त थे। मृग और बंदर आदि पशु चारों ओर फैले हुए थे। मयूरों की केकाध्वनि से मण्डित गोवर्धन पर्वत मुमुक्षुओं के लिये मोक्षप्रद प्रतीत होता था ॥ १६-२० ॥

 

मुनिवर पुलस्त्य के मन में उस पर्वत को प्राप्त करने की इच्छा हुई। इसके लिये वे द्रोणाचल के समीप गये । द्रोणगिरि ने उनका पूजन - स्वागत-सत्कार किया । इसके बाद पुलस्त्य जी उस पर्वत से बोले-- ॥ २१ ॥

 

पुलस्त्यने कहा- द्रोण ! तुम पर्वतोंके स्वामी हो । समस्त देवता तुम्हारा समादर करते हैं। तुम दिव्य ओषधियोंसे सम्पन्न और मनुष्योंको सदा जीवन देनेवाले हो। मैं काशीका निवासी मुनि हूँ और तुम्हारे निकट याचक होकर आया हूँ। तुम अपने पुत्र गोवर्धनको मुझे दे दो। यहाँ अन्य वस्तुओंसे मेरा कोई प्रयोजन नहीं है ॥ २२-२३ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध अठारहवां अध्याय..(पोस्ट..०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध- अठारहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०२)

राजा परीक्षत् को शृङ्गी ऋषिका शाप

नानुद्वेष्टि कलिं सम्राट् सारङ्ग इव सारभुक् ।
कुशलान्याशु सिद्ध्यन्ति नेतराणि कृतानि यत् ॥ ७ ॥
किं नु बालेषु शूरेण कलिना धीरभीरुणा ।
अप्रमत्तः प्रमत्तेषु यो वृको नृषु वर्तते ॥ ८ ॥
उपवर्णितमेतद् वः पुण्यं पारीक्षितं मया ।
वासुदेव कथोपेतं आख्यानं यदपृच्छत ॥ ९ ॥
या याः कथा भगवतः कथनीयोरुकर्मणः ।
गुणकर्माश्रयाः पुम्भिः संसेव्यास्ता बुभूषुभिः ॥ १० ॥

ऋषय ऊचुः

सूत जीव समाः सौम्य शाश्वतीर्विशदं यशः ।
यस्त्वं शंससि कृष्णस्य मर्त्यानां अमृतं हि नः ॥ ११ ॥
कर्मण्यस्मिन् अनाश्वासे धूमधूम्रात्मनां भवान् ।
आपाययति गोविन्द पादपद्मासवं मधु ॥ १२ ॥
तुलयाम लवेनापि न स्वर्गं नापुनर्भवम् ।
भगवत् सङ्‌गिसंगस्य मर्त्यानां किमुताशिषः ॥ १३ ॥

भ्रमरके समान सारग्राही सम्राट् परीक्षित्‌ कलियुगसे कोई द्वेष नहीं रखते थे; क्योंकि इसमें यह एक बहुत बड़ा गुण है कि पुण्यकर्म तो सङ्कल्पमात्रसे ही फलीभूत हो जाते हैं, परन्तु पापकर्मका फल शरीरसे करनेपर ही मिलता है; सङ्कल्पमात्रसे नहीं ॥ ७ ॥ यह भेडिय़ेके समान बालकोंके प्रति शूरवीर और धीरवीर पुरुषोंके लिये बड़ा भीरु है। यह प्रमादी मनुष्योंको अपने वशमें करनेके लिये ही सदा सावधान रहता है ॥ ८ ॥ शौनकादि ऋषियो ! आपलोगोंको मैंने भगवान्‌की कथासे युक्त राजा परीक्षित्‌का पवित्र चरित्र सुनाया। आपलोगोंने यही पूछा था ॥ ९ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्ण कीर्तन करनेयोग्य बहुत-सी लीलाएँ करते हैं। इसलिये उनके गुण और लीलाओंसे सम्बन्ध रखनेवाली जितनी भी कथाएँ हैं, कल्याणकामी पुरुषोंको उन सबका सेवन करना चाहिये ॥ १० ॥
ऋषियोंने कहा—सौम्यस्वभाव सूतजी ! आप युग युग जीयें; क्योंकि मृत्युके प्रवाहमें पड़े हुए हमलोगोंको आप भगवान्‌ श्रीकृष्णकी अमृतमयी उज्ज्वल कीर्तिका श्रवण कराते हैं ॥ ११ ॥ यज्ञ करते-करते उसके धूएँसे हमलोगोंका शरीर धूमिल हो गया है। फिर भी इस कर्मका कोई विश्वास नहीं है। इधर आप तो वर्तमानमें ही भगवान्‌ श्रीकृष्णचन्द्रके चरण-कमलोंका मादक और मधुर मधु पिलाकर हमें तृप्त कर रहे हैं ॥ १२ ॥ भगवत्-प्रेमी भक्तोंके लवमात्रके सत्सङ्गसे स्वर्ग एवं मोक्षकी भी तुलना नहीं की जा सकती; फिर मनुष्योंके तुच्छ भोगोंकी तो बात ही क्या है ॥१३॥ 

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्ट संस्करण)  पुस्तक कोड 1535 से


सोमवार, 10 जून 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) दूसरा अध्याय (पोस्ट 01)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

दूसरा अध्याय (पोस्ट 01)

 

गिरिराज गोवर्धन की उत्पत्ति तथा उसका व्रजमण्डल में आगमन

 

नन्द उवाच -
हे सन्नन्द महाप्राज्ञ सर्वज्ञोऽसि बहुश्रुतः ।
व्रजमंदलमाहात्म्यं वदतस्ते मुखाच्छ्रुतम् ॥ १ ॥
गिरिर्गोवर्धनो नाम तस्योत्पत्तिंच मे वद ।
कस्मादेनं गिरिवरं गिरिराजं वदन्ति हि ॥ २ ॥
यमुनेयं नदी साक्षात्कस्मात्लोकात्समागताः ।
तन्माहात्म्यं च वद मे त्वमसि ज्ञानिनां वरः ॥ ३ ॥


सन्नन्द उवाच -
एकदा हस्तिनपुरे भीष्मं धर्मभृतां वरम् ।
पप्रच्छ पाण्डुरित्थं तं जनानां चानुशृण्वताम् ॥ ४ ॥
परिपूर्णतमः साक्षाच्छ्रीकृष्णो भगवान् स्वयम् ।
असंख्यब्रह्मांडपतिः गोलोकाधिपतिः प्रभुः ॥ ५ ॥
भुवो भारावताराय गच्छन् देवो जनार्दनः ।
राधां प्राह प्रिये भीरु गच्छ त्वमपि भूतले ॥ ६ ॥


राधोवाच -
यत्र वृंदावनं नास्ति न यत्र यमुना नदी ।
यत्र गोवर्धनो नास्ति तत्र मे न मनःसुखम् ॥ ७ ॥


सन्नन्द उवाच -
वेदनागक्रोशभूमिं स्वधाम्नः श्रीहरिः स्वयम् ।
गोवर्धनं च यमुनां प्रेषयामास भूपरि ॥ ८ ॥
वेदनागक्रोशभूमिः सापि चात्र समागता ।
चतुर्विंशद्‌वनैर्युक्ता सर्वलोकैश्च वन्दिता ॥ ९ ॥
भारतात्पश्चिमदिशि शाल्मलीद्वीपमध्यतः ।
गोवर्धनो जन्म लेभे पत्‍न्यां द्रोणाचलस्य च ॥ १० ॥
गोवर्धनोपरि सुराः पुष्पवर्षं प्रचक्रिरे ।
हिमालयसुमेर्वाद्याः शैलाः सर्वे समागताः ॥ ११ ॥
नत्वा प्रदक्षिणीकृत्य पूजां कृत्वा विधानतः ।
गोवर्धनस्य परमां स्तुतिं चक्रुर्महाद्रयः ॥ १२ ॥

नन्दजी ने पूछा- महाप्राज्ञ सन्नन्दजी ! आप सर्वज्ञ और बहुश्रुत हैं, मैंने आपके मुख से व्रजमण्डल- के माहात्म्य का वर्णन सुना। अब 'गोवर्धन' नाम से प्रसिद्ध जो पर्वत है, उसकी उत्पत्ति कैसे हुई— यह मुझे बताइये। इस गिरिश्रेष्ठ गोवर्धनको लोग 'गिरिराज' क्यों कहते हैं ? यह साक्षात् यमुना नदी किस लोकसे यहाँ आयी है ? उसका माहात्म्य भी मुझसे कहिये; क्योंकि आप ज्ञानियों के शिरोमणि हैं ।। १-३ ॥

 

सन्नन्दजी बोले – एक समयकी बात है, हस्तिनापुरमें महाराज पाण्डुने धर्मधारियोंमें श्रेष्ठ श्री भीष्मजीसे ऐसा ही प्रश्न किया था। उनके उस प्रश्नको और भीष्मजीद्वारा दिये गये उत्तर को अन्य बहुत से लोग भी सुन रहे थे। (उस समय भीष्मजीने जो उत्तर दिया, वही मैं यहाँ सुना रहा हूँ-) साक्षात् परिपूर्णतम भगवान् श्रीकृष्ण, जो असंख्य ब्रह्माण्डोंके अधिपति, गोलोकके नाथ और सब कुछ करनेमें समर्थ हैं, जब पृथ्वीका भार उतारनेके लिये स्वयं इस भूतलपर पधारने लगे, तब उन जनार्दन देवने अपनी प्राणवल्लभा राधासे कहा—प्रिये ! तुम मेरे वियोगसे भयभीत रहती  थी अतः भीरु ! तुम भी भूतल पर चलो' ॥ ४–६ ॥

 

श्रीराधाजी बोलीं- प्राणनाथ ! जहाँ वृन्दावन नहीं है, जहाँ यह यमुना नदी नहीं है तथा जहाँ गोवर्धन पर्वत नहीं है, वहाँ मेरे मनको सुख नहीं मिल सकता ॥ ७ ॥

 

सन्नन्दजी कहते हैं-नन्दराज ! श्रीराधाकी यह बात सुनकर स्वयं श्रीहरिने अपने धामसे चौरासी कोस विस्तृत भूमि, गोवर्धन पर्वत और यमुना नदीको भूतलपर भेजा। उस समय चौरासी कोस विस्तारवाली गोलोककी सर्वलोकवन्दिता भूमि चौबीस वनोंके साथ यहाँ आयी ॥ ८-९ ॥

 

गोवर्धन पर्वतने भारतवर्षसे पश्चिम दिशामें शाल्मलीद्वीपके भीतर द्रोणाचलकी पत्नीके गर्भसे जन्म ग्रहण किया। उस अवसरपर देवताओंने गोवर्धनके ऊपर फूल बरसाये । हिमालय और सुमेरु आदि समस्त पर्वतों ने वहाँ आकर प्रणाम और परिक्रमा करके गोवर्धन का विधिवत् पूजन किया। पूजन के पश्चात् उन महान् पर्वतों ने उसकी स्तुति प्रारम्भ की ।। १०- १२ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध अठारहवां अध्याय..(पोस्ट..०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध- अठारहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०१)

राजा परीक्षत् को शृङ्गी ऋषिका शाप

सूत उवाच ।

यो वै द्रौण्यस्त्रविप्लुष्टो न मातुरुदरे मृतः ।
अनुग्रहाद् भगवतः कृष्णस्याद्‍भुतकर्मणः ॥ १ ॥
ब्रह्मकोपोत्थिताद् यस्तु तक्षकात् प्राणविप्लवात् ।
न सम्मुमोहोरुभयाद् भगवत्यर्पिताशयः ॥ २ ॥
उत्सृज्य सर्वतः सङ्गं विज्ञाताजितसंस्थितिः ।
वैयासकेर्जहौ शिष्यो गङ्गायां स्वं कलेवरम् ॥ ३ ॥
नोत्तमश्लोकवार्तानां जुषतां तत्कथामृतम् ।
स्यात्सम्भ्रमोऽन्तकालेऽपि स्मरतां तत्पदाम्बुजम् ॥ ४ ॥
तावत्कलिर्न प्रभवेत् प्रविष्टोऽपीह सर्वतः ।
यावदीशो महानुर्व्यां आभिमन्यव एकराट् ॥ ५ ॥
यस्मिन्नहनि यर्ह्येव भगवान् उत्ससर्ज गाम् ।
तदैवेहानुवृत्तोऽसौ अधर्मप्रभवः कलिः ॥ ६ ॥

सूतजी कहते हैं—अद्भुत कर्मा भगवान्‌ श्रीकृष्णकी कृपासे राजा परीक्षित्‌ अपनी माताकी कोखमें अश्वत्थामाके ब्रह्मास्त्रसे जल जानेपर भी मरे नहीं ॥ १ ॥ जिस समय ब्राह्मणके शापसे उन्हें डसनेके लिये तक्षक आया, उस समय वे प्राणनाशकके महान् भयसे भी भयभीत नहीं हुए; क्योंकि उन्होंने अपना चित्त भगवान्‌ श्रीकृष्णके चरणोंमें समर्पित कर रखा था ॥ २ ॥ उन्होंने सबकी आसक्ति छोड़ दी, गङ्गातटपर जाकर श्रीशुकदेवजीसे उपदेश ग्रहण किया और इस प्रकार भगवान्‌के स्वरूपको जानकर अपने शरीरको त्याग दिया ॥ ३ ॥ जो लोग भगवान्‌ श्रीकृष्णकी लीलाकथा कहते रहते हैं, उस कथामृतका पान करते रहते हैं और इन दोनों ही साधनोंके द्वारा उनके चरणकमलोंका स्मरण करते रहते हैं, उन्हे अन्तकालमें भी मोह नहीं होता ॥ ४ ॥ जबतक पृथ्वीपर अभिमन्युनन्दन महाराज परीक्षित्‌ सम्राट् रहे, तबतक चारों ओर व्याप्त हो जानेपर भी कलियुगका कुछ भी प्रभाव नहीं था ॥ ५ ॥ वैसे तो जिस दिन, जिस क्षण श्रीकृष्णने पृथ्वीका परित्याग किया, उसी समय पृथ्वीमें अधर्मका मूलकारण कलियुग आ गया था ॥ ६ ॥ 

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्ट संस्करण)  पुस्तक कोड 1535 से


रविवार, 9 जून 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) पहला अध्याय (पोस्ट 05)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

पहला अध्याय (पोस्ट 05)

 

सन्नन्दका गोपों को महावन से वृन्दावन में चलने की सम्मति देना और व्रजमण्डल के सर्वाधिक माहात्म्य का वर्णन करना

 

सन्नन्द उवाच -
आदौ वाराहकल्पेऽस्मिन् हरिर्वाराहरूपधृक् ।
रसातलात्समुद्धृत्य गां बभौ दंष्ट्रया प्रभुः ॥ ४६ ॥
गच्छन्तं वारिवृन्देषु भगवन्तं रमेश्वरम् ।
दंष्ट्राग्रे शोभिता पृथ्वी प्राह देवं जनार्दनम् ॥ ४७ ॥


धरोवाच -
देव कुत्र स्थले त्वं वै स्थापनां मे करिष्यसि ।
जलपूर्णं जगत्सर्वं दृश्यते वद हे प्रभो ॥ ४८ ॥


वाराह उवाच -
यदा वृक्षाः प्रदृष्टा हि भवन्त्युद्वेगता जले ।
तदा ते स्थापना भूयात्पश्यन्ती गच्छ भूरुहान् ॥ ४९ ॥


धरोवाच -
स्थावराणां तु रचना ममोपरि समास्थिता ।
अन्यास्ति किं वा धरणी त्वहं हि धारणामयी ॥ ५० ॥


सन्नन्द उवाच -
वदन्तीत्थं ददर्शाग्रे जले वृक्षान् मनोहरान् ।
वीक्ष्य पृथ्वी हरिं प्राह सर्वतो विगतविस्मया ॥ ५१ ॥


धरोवाच -
देव कस्मिंस्थले वृक्षाः सन्ति ह्येते सपल्लवाः ।
इदं मनसि मे चित्रं वद यज्ञपते प्रभो ॥ ५२ ॥


वाराह उवाच -
माथुरं मंडलं दिव्यं दृश्यतेऽग्रे नितम्बिनि ।
गोलोकभूमिसंयुक्तं प्रलयेऽपि न संहृतम् ॥ ५३ ॥


सन्नन्द उवाच -
तच्छ्रुत्वा विस्मिता पृथ्वी गतमाना बभूव ह ।
तस्मान्नन्द महाबाहो व्रजोऽयं सर्वतोऽधिकः ॥ ५४ ॥
श्रुत्वेदं व्रजमाहात्म्यं जीवन्मुक्तो भवेन्नरः ।
तीर्थराजात्परं विद्धि माथुरं व्रजमंडलम् ॥ ५५ ॥

 

सन्नन्द ने कहा - इसी वाराहकल्प में पहले श्रीहरि ने वराहरूप धारण करके अपनी दाढ़पर उठाकर रसातल से पृथ्वी का उद्धार किया था । उस समय उन प्रभु की बड़ी शोभा हुई थी। जल में जाते हुए उन वराहरूपधारी भगवान् रमानाथ जनार्दन से उनकी दंष्ट्रा के अग्रभाग पर शोभित हुई पृथ्वी बोली ।। ४६-४७ ॥

 

पृथ्वी ने पूछा- प्रभो ! सारा विश्व पानी से भरा दिखायी देता है। अतः बताइये, आप किस स्थल पर मेरी स्थापना करेंगे ? ॥ ४८ ॥

 

भगवान् वराह बोले- जब वृक्ष दिखायी देने लगे और जलमें उद्वेगका भाव प्रकट हो, तब उसी स्थानपर तुम्हारी स्थापना होगी। तुम वृक्षोंको देखती चलो ॥ ४९ ॥

 

पृथ्वीने कहा- भगवन् ! स्थावर वस्तुओंकी रचना तो मेरे ही ऊपर हुई है। क्या कोई दूसरी भी धरणी है ? धारणामयी धरणी तो केवल मैं ही हूँ ॥ ५० ॥

 

सन्नन्दजी कहते हैं— यों कहती हुई पृथ्वीने अपने सामने जलमें मनोहर वृक्ष देखे। उन्हें देखकर पृथ्वीका अभिमान दूर हो गया और वह भगवान्से बोली- 'देव ! किस स्थलपर ये पल्लवसहित वृक्ष विद्यमान हैं ? यह दृश्य मेरे मनमें बड़ा आश्चर्य पैदा कर रहा है । यज्ञपते ! प्रभो ! इसका रहस्य बताइये ॥ ५१-५२ ॥

 

भगवान् वराह बोले- नितम्बिनि ! यह सामने दिव्य 'माथुर-मण्डल' दिखायी देता है, जो गोलोककी धरतीसे जुड़ा हुआ है। प्रलयकालमें भी इसका संहार नहीं होता ॥ ५३ ॥

 

सन्नन्द बोले- यह सुनकर पृथ्वीको बड़ा विस्मय हुआ । वह अभिमानशून्य हो गयी । अतः महाबाहु नन्द ! यह व्रजमण्डल समस्त लोकोंसे अधिक महत्त्वशाली है। व्रजका यह माहात्म्य सुनकर मनुष्य जीवन्मुक्त हो जाता है। तुम 'माथुर व्रजमण्डल' को तीर्थराज प्रयागसे भी उत्कृष्ट समझो ॥ ५४-५५ ॥

 

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें श्रीवृन्दावनखण्डके अन्तर्गत नन्द-सन्नन्द-संवाद में 'वृन्दावन में आगमन के उद्योग का वर्णन' नामक पहला अध्याय पूरा हुआ ॥ १ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध सत्रहवां अध्याय..(पोस्ट..०७)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध- सत्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०७)

महाराज परीक्षित्‌द्वारा कलियुगका दमन

वृषस्य नष्टांस्त्रीन् पादान् तपः शौचं दयामिति ।
प्रतिसंदध आश्वास्य महीं च समवर्धयत् ॥४२॥
स एष एतर्ह्यध्यास्त आसनं पार्थिवोचितम् ।
पितामहेनोपन्यस्तं राज्ञारण्यं विविक्षता ॥४३॥
आस्तेऽधुना स राजर्षिः कौरवेन्द्रश्रियोल्लसन् ।
गजाह्वयो महाभागश्चक्रवर्ती बृहच्छ्रवाः ॥४४॥
इत्थम्भूतानुभावोऽयमभिमन्युसुतो नृपः ।
यस्य पालयतः क्षोणीं यूयं सत्राय दीक्षिताः ॥४५॥

राजा परीक्षित्‌ ने इसके बाद वृषभरूप धर्म के तीनों चरण—तपस्या, शौच और दया जोड़ दिये और आश्वासन देकर पृथ्वीका संवर्धन किया ॥ ४२ ॥ वे ही महाराजा परीक्षित्‌ इस समय अपने राजसिंहासनपर, जिसे उनके पितामह महाराज युधिष्ठिरने वनमें जाते समय उन्हें दिया था, विराजमान हैं ॥ ४३ ॥ वे परम यशस्वी सौभाग्यभाजन चक्रवर्ती सम्राट् राजर्षि परीक्षित्‌ इस समय हस्तिनापुरमें कौरव-कुलकी राज्यलक्ष्मीसे शोभायमान हैं ॥ ४४ ॥ अभिमन्युनन्दन राजा परीक्षित्‌ वास्तवमें ऐसे ही प्रभावशाली हैं, जिनके शासनकालमें आप-लोग इस दीर्घ कालीन यज्ञके लिये दीक्षित हुए हैं [*] ॥ ४५ ॥
...............................................................
[*] ४३से ४५ तकके श्लोकोंमें महाराज परीक्षित्‌का वर्तमानके समान वर्णन किया गया है। ‘वर्तमानसामीप्ये वर्तमानवद्वा’ (पा सू३। ३। १३१) इस पाणिनि-सूत्रके अनुसार वर्तमानके निकटवर्ती भूत और भविष्यके लिये भी वर्तमानका प्रयोग किया जा सकता है। जगद्गुरु श्रीवल्लभाचार्यजी महाराजने अपनी टीकामें लिखा है कि यद्यपि परीक्षित्‌की मृत्यु हो गयी थी, फिर भी उनकी कीर्ति और प्रभाव वर्तमानके समान ही विद्यमान थे। उनके प्रति अत्यन्त श्रद्धा उत्पन्न करनेके लिये उनकी दूरी यहाँ मिटा दी गयी है। उन्हें भगवान्‌का सायुज्य प्राप्त हो गया था, इसलिये भी सूतजीको वे अपने सम्मुख ही दीख रहे हैं। न केवल उन्हींको, बल्कि सबको इस बातकी प्रतीति हो रही है। ‘आत्मा वै जायते पुत्र:’ इस श्रुतिके अनुसार जनमेजय के रूपमें भी वही राजसिंहासनपर बैठे हुए हैं। इन सब कारणोंसे वर्तमान के रूपमें उनका वर्णन भी कथा के रस को पुष्ट ही करता है।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमंहंस्या संहितायां प्रथमस्कन्धे कलिनिग्रहो नाम सप्तदशोऽध्यायः ॥१७॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्ट संस्करण)  पुस्तक कोड 1535 से


श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-छठा अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - छठा अध्याय..(पोस्ट०२) विराट् शरीर की उत्पत्ति हिरण्मयः स पुरुषः सहस्रपरिवत्सर...