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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(
श्रीवृन्दावनखण्ड )
दूसरा
अध्याय (पोस्ट 04)
गिरिराज
गोवर्धन की उत्पत्ति तथा उसका व्रजमण्डल में आगमन
जातिस्मरो
गिरिस्तत्र प्राहेदं पथि चिंतयन् ।
परिपूर्णतमः साक्षाच्छ्रीकृष्णो भगवान् स्वयम् ॥ ३६ ॥
अखंडब्रह्माण्डपतिर्व्रजेऽत्रावतरिष्यति ।
बाललीलां च कैशोरीं चेष्टां गोपालबालकैः ॥ ३७ ॥
दानलीलां मानलीलां हरिरत्र करिष्यति ।
तस्मान्मया न गन्तव्यं भूमिश्चेयं कलिन्दजा ॥ ३८ ॥
गोलोकाद्राधया सार्धं श्रीकृष्णोऽत्रागमिष्यति ।
कृतकृत्यो भविष्यामि कृत्वा तद्दर्शनं परम् ॥ ३९ ॥
एवं विचार्य मनसा भूरि भारं ददौ करे ।
तदा मुनिश्च श्रांतोऽभूद्भूतपूर्वं गतस्मृतिः ॥ ४० ॥
करादुत्तार्य तं शैलं निधाय व्रजमंडले ।
लघुशंकाजयार्थं हि गतोऽभूद्भारपीडितः ॥ ४१ ॥
कृत्वा शौचं जले स्नात्वा पुलस्त्यो मुनिसत्तमः ।
उत्तिष्ठेति मुनिः प्राह गिरिं गोवर्धनं परम् ॥ ४२ ॥
नोत्थितं भूरिभाराढ्यं कराभ्यां तं महामुनिः ।
स्वतेजसा बलेनापि गृहीतुमुपचक्रमे ॥ ४३ ॥
मुनिना संगृहीतोऽपि गिरिराजो गिराऽऽर्द्रया ।
न चलालांगुलिं किंचित् तदपि द्रोणनन्दनः ॥ ४४ ॥
सन्नन्द उवाच -
गच्छ गच्छ गिरिश्रेष्ठ भारं मा कुरु मा कुरु ।
मया ज्ञातोऽसि रुष्टस्त्वमभिप्रायं वदाशु मे ॥ ४५ ॥
गोवर्धन उवाच -
मुनेऽत्र मे न दोषोऽस्ति त्वया मे स्थापना कृता ।
करिष्यामि न चोत्थानं पूर्वं मे शपथः कृतः ॥ ४६ ॥
सन्नन्द उवाच -
पुलस्त्यो मुनिशार्दूलः क्रोधात् प्रचलितेन्द्रियः ।
स्फुरदोष्ठो द्रोणपुत्रं शशाप विगतोद्यमः ॥ ४७ ॥
सन्नन्द उवाच -
गिरे त्वयातिधृष्टेन न कृतो मे मनोरथः ।
तस्मात्तु तिलमात्रं हि नित्यं त्वं क्षीणतां व्रज ॥ ४८ ॥
सन्नन्द उवाच -
काशीं गते पुलस्त्यर्षावयं गोवर्धनो गिरिः ।
नित्यं संक्षीयते नन्द तिलमात्रं दिने दिने ॥ ४९ ॥
यावद्भागीरथी गंगा यावद्गोवर्धनो गिरिः ।
तावत्कलेः प्रभावस्तु भविष्यति न कर्हिचित् ॥ ५० ॥
गोवर्धनस्य
प्रकटं चरित्रं
नृणां महापापहरं पवित्रम् ।
मया तवाग्रे कथितं विचित्रं
सुमुक्तिदं कौ रुचिरं न चित्रम् ॥ ५१ ॥
गोवर्धनपर्वत
को अपने पूर्व- जन्म की बातों का स्मरण था । व्रज में आनेपर उसने मार्ग में मन ही
मन सोचा -- 'यहाँ व्रज में असंख्य
ब्रह्माण्डनायक साक्षात् परिपूर्णतम भगवान् श्रीकृष्ण अवतार लेंगे और ग्वालबालों के
साथ बाललीला तथा कैशोर लीला करेंगे। इतना ही नहीं, वे
श्रीहरि यहाँ दानलीला और मानलीला भी करेंगे। अतः मुझे यहाँसे अन्यत्र नहीं जाना
चाहिये। यह व्रजभूमि और यह यमुना नदी गोलोकसे यहाँ आयी है। श्रीराधाके साथ भगवान्
श्रीकृष्णका भी यहाँ शुभागमन होगा। उनका उत्तम दर्शन पाकर मैं कृतकृत्य हो जाऊँगा
।' मन-ही- मन ऐसा विचार करके गोवर्धनने मुनिकी हथेलीपर अपने
शरीरका भार बहुत अधिक बढ़ा लिया। उस समय मुनि अत्यन्त थक गये। उन्हें पहलेकी कही
हुई बातकी याद नहीं रही। उन्होंने पर्वतको हाथसे उतारकर व्रजमण्डलमें रख दिया।
भारसे पीड़ित तो वे थे ही, लघुशङ्का से निवृत्त होनेके लिये
चले गये ॥ ३६-४१ ॥
शौच
क्रिया करके जल में स्नान करने के पश्चात् मुनिवर पुलस्त्य ने उत्तम पर्वत गोवर्धन
से कहा – 'अब उठो ।' अधिक
भारसे सम्पन्न होनेके कारण जब वह दोनों हाथोंसे नहीं उठा, तब
महामुनि पुलस्त्य ने उसे अपने तेज और बल से उठा लेनेका उपक्रम किया। मुनिने
स्नेहसे भीगी वाणीद्वारा द्रोणनन्दन गिरिराजको ग्रहण करनेका सम्पूर्ण शक्तिसे
प्रयास किया, किंतु वह एक अंगुल भी टस से मस न हुआ ।। ४२-४४
॥
तब
पुलस्त्यजी बोले- गिरिश्रेष्ठ! चलो, चलो
! भार अधिक न बढ़ाओ, न बढ़ाओ। मैं जान गया, तुम रूठे हुए हो। शीघ्र बताओ, तुम्हारा क्या
अभिप्राय है ? || ४५ ॥
गोवर्धन
बोला- मुने ! इसमें मेरा दोष नहीं है । आपने ही मुझे यहाँ स्थापित किया है। अब मैं
यहाँसे नहीं उठूँगा । अपनी यह प्रतिज्ञा मैंने पहले ही प्रकट कर दी थी ॥ ४६ ॥
सन्नन्दजी
कहते हैं - यह उत्तर सुनकर मुनिश्रेष्ठ पुलस्त्य की सारी इन्द्रियाँ क्रोध से
चञ्चल हो उठीं। उनके ओष्ठ फड़कने लगे। अपना सारा उद्यम व्यर्थ हो जाने- के कारण
उन्होंने द्रोणपुत्र को शाप दे दिया ॥ ४७ ॥
पुलस्त्यजी
बोले- पर्वत ! तू बड़ा ढीठ है। तूने मेरा मनोरथ पूर्ण नहीं किया । इसलिये तू
प्रतिदिन तिल-तिलभर क्षीण होता चला जा ॥ ४८ ॥
सन्नन्दजी
कहते हैं--नन्द ! यों कहकर पुलस्त्य मुनि काशी चले गये। उसी दिन से यह गोवर्धन
पर्वत प्रतिदिन तिल-तिल करके क्षीण होता चला जा रहा है । जबतक भागीरथी गङ्गा और
गोवर्धन पर्वत इस भूतल पर विद्यमान हैं, तबतक
कलि का प्रभाव कदापि नहीं बढ़ेगा। गोवर्धनका यह प्रकट चरित्र परम पवित्र और
मनुष्योंके बड़े-बड़े पापोंका नाश करनेवाला है । यह प्रसङ्ग मैंने तुम्हारे सामने
कहा है, जो भूमण्डल में रुचिर और अद्भुत है। यह उत्तम मोक्ष
प्रदान करनेवाला है, इसमें कोई आश्चर्यकी बात नहीं है ।।
४९–५१ ॥
इस
प्रकार श्रीगर्गसंहितामें श्रीवृन्दावनखण्डके अन्तर्गत 'गिरिराजकी उत्पत्तिका वर्णन'
नामक
दूसरा अध्याय पूरा हुआ ॥ २ ॥
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा
प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260
से