श्रीगर्ग-संहिता
(
श्रीवृन्दावनखण्ड )
आठवाँ
अध्याय ( पोस्ट 01 )
ब्रह्माजीके
द्वारा श्रीकृष्णके सर्वव्यापी विश्वात्मा स्वरूपका दर्शन
नारद
उवाच
अदृष्ट्वा
वत्सकानेत्य वस्सपान् पुलिने हरिः ।
उभौ
विचिन्वन् विपिने मेने कर्म्म विधेः कृतम् ॥ १
ततो
गवा गोपिकानां मुदं कर्तुं स लीलया ।
सर्वन्तु
विश्वकुच्चक्रे ह्यात्मानमुभयायितम् ॥ २
यावद्वत्सपवत्सानां
वपुः पाणिपदादिकान् ।
यावद्यष्टिविषाणादीन्
यावच्छ्रीलगुणादिकान् ॥ ३
यावद्
भूषणवस्त्रादीन् तावच्छ्रीहरिणा स्वतः ।
'सर्व विष्णुमयं विश्वमिति वाक्यं प्रदर्शितम् ॥ ४
आत्मवत्सानात्मगोपैश्चारयन्
क्रीडया हरि. |
प्राविशन्
नन्दनगरमस्तं गिरि गते रखौ ॥ ५
तत्तद्गोष्ठे
पृथङ नीत्वा तत्तद्वत्सान् प्रवेश्य च ।
कृष्णोऽभवत्तत्तदात्मा
तत्तद्गेहं प्रविष्टवान् ॥ ६
श्रुत्वा
वंशीरवं गोप्यः सम्भ्रमाच्छीघ्रमुत्थिता ।
पयांसि
पाययामासुर्लालयित्वा सुतान् पृथक् ॥ ७
स्वान्
स्वान् क्त्साँस्तथा गावो रम्भमाणा निरीक्ष्य च ।
लिहन्त्यो
जिह्वयाङ्गानि पयांसि च ह्यपाययन् ॥ ८
अभवन्
मातरः सर्वा गोप्यो गावो हरेरहो ।
प्रतिस्नेह
ववृधे पूर्वतो हि चतुगुणम् ॥ ९
स्वपुत्राँल्लालयित्वा
तु मज्जनोन्मर्द्दनादिभिः ।
पश्चाद्
गोप्यश्च कृष्णस्य दर्शनं कर्तुमाययुः ।। १०
अनेकानान्तु
बालानामुद्वाहा: कृष्णरूपिणाम् ।
बभूवुस्ता
व्रजे बो रताः कृष्णे तु कोटिशः ॥ ११
वत्सपालमिषेणापि
स्वात्मानं ह्यात्मना हरेः ।
पालितो
वत्सरश्चैको बभूव व्रजमण्डले ||
१२
सरामश्चैकदा
वत्साश्चारण्यं चारयन् ययौ ।
हायना
पूरणीष्वत्र पञ्चषासु च रात्रिषु ।। १३
तत्रापि
दूराच्चरतश्च गावो
वत्सानुपव्रज्य
गिरेश्च शृङ्गात् ।
लिहन्ति
चाङ्गानि विलोकयन्त्यां
हापाययंस्ता
अमृतानि सद्यः ॥ १४
गोवर्द्धनादधो
वत्सान् पीतदुग्धान् विलोक्य च ।
स्नेहावृता
स्थिता गाश्च गोपाला ददृशुर्नृप । १५
ततः
क्रोधेन महता पर्वतादवतीर्य च ।
ताडनार्थेसु
पुत्राणामाजग्मुः कच्छतो द्रुतम् ।। १६
यदागता
समीपे तु पुत्राणां गोपनायकाः ।
स्वान्
स्वान् सुतांस्तदोन्नीय के कृत्वा मिलन्ति वै ॥ १७
यथा
युवानो वृद्धाश्च स्नेहादश्रु परिप्लुताः ।
स्वान्
स्वान् पौत्रान् गृहीत्वा तु ह्य् पविष्टा मिलन्ति हि ॥ १८
श्रीनारदजी
कहते हैं— श्रीकृष्ण गोवत्सों को न पाकर यमुना किनारे आये, परंतु
वहाँ गोप-बालक भी नहीं दिखायी दिये । बछड़ों और वत्सपालों—दोनों को
ढूँढ़ते समय उनके मनमें आया कि 'यह तो ब्रह्माजी का कार्य है
। तदनन्तर अखिल विश्वविधायक श्रीकृष्णने गायों और गोपियोंको आनन्द देनेके लिये लीलासे
ही अपने-आपको दो भागों में विभक्त कर लिया ।। १-२ ॥
वे
स्वयं एक भागमें रहे तथा दूसरे भागसे समस्त बछड़े और गोप-बालकोंकी सृष्टि की। उन लोगोंके
जैसे शरीर, हाथ, पैर आदि थे; जैसी लाठी, सींगा आदि थे; जैसे स्वभाव और
गुण
थे, जैसे आभूषण और वस्त्रादि थे; भगवान् श्रीहरिने अपने श्रीविग्रहसे ठीक वैसी ही सृष्टि
उत्पन्न करके यह प्रत्यक्ष दिखला दिया कि यह अखिल विश्व विष्णुमय है। ।। ३-४ ॥
श्रीकृष्णने
खेल में ही आत्मस्वरूप गोप-बालकों के द्वारा
आत्मस्वरूप गो-वत्सों को चराया और सूर्यास्त होनेपर उनके साथ
नन्दालयमें पधारे। वे बछड़ों को उनके अपने-अपने गोष्ठों में अलग-अलग ले गये
और स्वयं उन-उन गोप-बालकों के वेष में अन्यान्य
दिनों की भाँति उनके घरोंमें प्रवेश किया ।। ५-६
॥
गोपियाँ
वंशीध्वनि सुनकर आदरके साथ शीघ्रतासे उठीं और अपने बालकोंको प्यारसे दूध पिलाने लगीं
। गायें भी अपने-अपने बछड़ोंको निकट आया देखकर रँभाती हुई उनको चाटने और दूध पिलाने
लगीं । अहा ! गोपियाँ और गायें श्रीहरिकी माता बन गयीं। गोप-बालक एवं गोवत्स स्नेहाधिक्य के कारण पहले की अपेक्षा चौगुने अधिक बढ़ने लगे।
गोपियाँ अपने बालकों की उबटन-स्नानादि के
द्वारा स्नेहमयी सेवा करके तब श्रीकृष्ण के दर्शन के लिये आयीं ॥ ७-१० ॥
इसके
बाद अनेक बालकोंका विवाह हो गया। अब श्रीकृष्णस्वरूप अपने पति उन बालकोंके साथ करोड़ों
गोपवधुएँ प्रीति करने लगीं ।। ११ ॥
इस
प्रकार वत्स-पालन के बहाने अपनी आत्माकी अपनी ही आत्माद्वारा रक्षा करते हुए श्रीहरिको
एक वर्ष बीत गया। एक दिन बलरामजी गोचारण करते हुए वनमें पहुँचे। उस समयतक ब्रह्माजीद्वारा
वत्सों एवं वत्सपालोंका हरण हुए एक वर्ष पूर्ण होनेमें केवल पाँच-छः रात्रियाँ शेष
रही थीं ।। १२-१३ ॥
उस
वनमें स्थित पहाड़की चोटीपर गायें चर रही थीं। दूरसे बछड़ोंको घास चरते देखकर वे उनके
निकट आ गयीं और उनको चाटने तथा अपना अमृत तुल्य दूध पिलाने लगीं। राजन् ! गोपोंने देखा
कि गायें बछड़ोंको दूध पिलाकर स्नेहके कारण गोवर्धनकी तलहटीमें ही रुक गयी हैं, तब
वे अत्यन्त क्रोधमें भरकर पहाड़से नीचे उतरे और अपने बालकोंको दण्ड देनेके लिये शीघ्रतासे
वहाँ पहुँचे । परंतु निकट पहुँचते ही (स्नेहके वशीभूत होकर ) गोपोंने अपने बालकोंको
गोदमें उठा लिया। युवक अथवा वृद्ध – सभीके नेत्रोंमें स्नेहके आँसू आ गये और वे अपने
पुत्र-पौत्रोंके साथ मिलकर वहाँ बैठ गये ॥ १४ – १८ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से