इस ब्लॉग का ध्येय, सनातन धर्म एवं भारतीय संस्कृति का प्रसार करना तथा सन्तों के दुर्लभ प्रवचनों को जन-जन तक पहुंचाने का है | हम केवल धार्मिक और आध्यात्मिक विषयों पर प्रामाणिक जानकारियों को ही प्रकाशित करते हैं। आत्मकल्याण तथा दुर्लभ-सत्संग हेतु हमसे जुड़ें और अपने सभी परिवारजनों और मित्रों को इसके लाभ की बात बताकर सबको जोड़ने का प्रयास करें | भगवान् में लगना और दूसरों को लगाना ‘परम-सेवा’ है | अतः इसका लाभ उठाना चाहिए |
लेबल
- आसुरि
- गीता
- परलोक और पुनर्जन्म
- पुरुषसूक्त
- प्रश्नोत्तरी ‘मणिरत्नमाला’
- मानस में नाम-वन्दना
- विविध
- विवेक चूडामणि
- वैदिक सूक्त
- श्रीगर्ग-संहिता
- श्रीदुर्गासप्तशती
- श्रीमद्भगवद्गीता
- श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध 7 से 12
- श्रीमद्भागवतमहापुराण स्कंध 1 से 6
- श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
- श्रीमद्भागवतमाहात्म्यम् (स्कन्दपुराणान्तर्गत)
- स्तोत्र
शनिवार, 29 जून 2024
श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध उन्नीसवां अध्याय..(पोस्ट ०९)
शुक्रवार, 28 जून 2024
श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) आठवाँ अध्याय ( पोस्ट 02 )
#
श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(
श्रीवृन्दावनखण्ड )
आठवाँ
अध्याय ( पोस्ट 02 )
ब्रह्माजीके
द्वारा श्रीकृष्णके सर्वव्यापी विश्वात्मा स्वरूपका दर्शन
एवं प्रेमपरान् सर्वान् दृष्ट्वा
सङ्कर्षणो बल. ।
बहुप्रकारं सन्देहं कृत्वा मनसि
सोऽब्रवीत् ॥ १९
हो कि वत्सरात् प्राप्तो न ज्ञातोऽपि
व्रजे मया ।
तिस्नेहस्तु सर्वेषा वर्द्धते च दिने
दिने ॥ २०
केयं माया समायाता देवगन्धर्वरक्षसाम्
।
नान्या मे मोहिनी माया विना कृष्णस्य
साम्प्रतम् ॥ २१
एव'
विचार्य रामस्तु लोचने स्वे न्यमीलयन् ।
भूतं भव्यं भविष्यञ्च दिव्यात्ताभ्यां
ददर्श ह || २२
सर्वान् वत्साँस्तथा गोपान् व'
शीवेत्रविभूषितान् ।
बहिंपक्षधरान् श्यामान्
भृग्वङ्घ्रिकृत कौतुकान् ॥ २३
जालकाना मणीनाञ्च गुञ्जानां
स्रग्भिरेव च ।
पद्मानां कुमुदानाच ह्येषां
स्रग्भिर्विभूषितान् ॥ २४
उष्णीषैर्मुकुटैर्दिव्यैः
कुण्डलैरलकैव तान् ।
आनन्दवर्षान् कुर्वाणान्
शरत्पद्मदृशैरपि ॥ २५
कोटिकन्दर्प लावण्यान्
नासामौक्तिकशोभितान् ।
शिखाभूषणसंयुक्तान् पाणिभूषणभूषितान्
।। २६
द्विभुजान् पीतवस्त्रश्च का
चीकटकनूपुरै ।
प्रभातरविकोटीना शोभाभि शोभितान्
शुभान् ॥ २७
उत्तरे गिरिराजस्य यमुनायाश्च दक्षिणे
।
आष्ट वृन्दारण्ये सर्वान् कृष्णं
हलायुध. ॥ २८
ज्ञात्वा कृष्णकृतं कर्म तथा विधिकृतं
बलः ।
पुनवेत्सान् वत्सपाश्च पश्यन्
कृष्णमुवाच ह ॥ २९
ब्रह्मानन्तो धर्म इन्द्र. शिवश्च
सेवन्ते तं भक्तियुक्ताः सदैते ।
स्वात्माराम पूर्णकाम: परेश
स्रष्टुं शक्तः कोटिशोऽण्डानि यः खे ॥
३०
नारद उवाच
एवं ब्रुवति श्रीरामे तावत्तत्रागतो
विधिः ।
ददर्श कृष्णं रामञ्च वत्सकैर्वत्सपैः
समम् ॥ ३१
हो कृष्णेन चानीता यत्र सर्वे धृता
मया ।
इति ब्रुवन् ययौ स्थाने तत्र सर्वान्
ददर्श सः ॥ ३२
दृष्ट्वा प्रसुप्तान् सर्वास्तु स
श्रागत्य व्रजे पुनः ।
वत्सपालैर्हरि वीक्ष्य मनसि प्राह
विस्मितः ॥ ३३
विचित्र ये सर्वे कुत्र स्थानात्
समागताः ।
क्रीडन्तो पूर्ववञ्चात्र सार्क
कृष्णोन क्रीडनै ॥ ३४
मत्त्रुटिवत्सरश्चैको
व्यतीतोऽभून्महीतले ।
सर्वे प्रसन्नतां प्राप्ता न ज्ञातः
केनचित् कचित् ॥ ३५
एवं संमोहयन् ब्रह्मा मोहनं
विश्वमोहनम् ।
स्वमाययान्धकारेण स्वगात्र नैव
दृष्टवान् ॥ ३६
संकर्षण
बलराम ने इस प्रकार जब गोपों को प्रेम-
परायण देखा, तब उनके मन में अनेक प्रकार के
संदेह उठने लगे। उन्होंने मन-ही-मन कहा – 'अहा ! प्रायः एक वर्ष से
व्रज में क्या हो गया है, वह मेरी समझ में
नहीं आ रहा है। दिन-प्रतिदिन सब के हृदयों का
स्नेह अधिकाधिक बढ़ता जा रहा है । क्या यह देवताओं, गन्धर्वों
या राक्षसोंकी माया है ? अब मैं समझता हूँ कि यह मुझे मोहित करने वाली
कृष्णकी माया से भिन्न और कुछ नहीं है ।।१९-२१
॥
इस
प्रकार विचार करके बलरामजी- ने अपने नेत्र बंद कर लिये और दिव्यचक्षुसे भूत, भविष्य
तथा वर्तमानको देखा। बलरामजीने समस्त गोवत्स एवं पहाड़की तलहटीमें खेलनेवाले गोप- बालकोंको
वंशी - वेत्रविभूषित, मयूरपिच्छधारी, श्यामवर्ण, मणिसमूहों एवं गुञ्जाफलोंकी मालासे
शोभित, कमल एवं कुमुदिनीकी मालाएँ, दिव्य पगड़ी एवं मुकुट धारण किये हुए, कुण्डलों
एवं अलकावली- से सुशोभित, शरत्कालीन कमलसदृश नेत्रोंसे निहारकर आनन्द देनेवाले, करोड़ों
कामदेवोंकी शोभासे सम्पन्न, नासिकास्थित मुक्ताभरणसे अलंकृत, शिखा- भूषणसे युक्त, दोनों
हाथोंमें आभूषण धारण किये हुए, पीला वस्त्र धारण किये हुए, मेखला, कड़े और नूपुरसे
शोभित, करोड़ों बाल-रवियोंकी प्रभासे युक्त और मनोहर देखा ।।२२-२७॥
बलरामजीने
गोवर्धनसे उत्तर की ओर एवं यमुनाजीसे दक्षिणकी ओर स्थित वृन्दावनमें सब कुछ कृष्णमय
देखा । वे इस कार्यको ब्रह्माजी और श्रीकृष्णका किया हुआ जानकर पुनः गोवत्सों एवं वत्सपालोंका
दर्शन करते हुए श्रीकृष्णसे बोले— 'ब्रह्मा, अनन्त, धर्म, इन्द्र और शंकर भक्ति युक्त
होकर सदा तुम्हारी सेवा किया करते हैं। तुम आत्माराम, पूर्णकाम, परमेश्वर हो। तुम शून्यमें
करोड़ों ब्रह्माण्डोंकी सृष्टि करनेमें समर्थ हो' ॥ २८ - ३० ॥
श्रीनारदजीने
कहा- जिस समय बलरामजी यों कह रहे थे, उसी समय ब्रह्माजी वहाँ आये और उन्होंने गोवत्सों
एवं गोप-बालकोंके साथ बलरामजी एवं श्रीकृष्णके दर्शन किये। 'ओहो ! मैं जिस स्थानपर
गोवत्स तथा गोप-बालकोंको रख आया था, वहाँसे श्रीकृष्ण उनको ले आये हैं।' –यो कहते हुए
ब्रह्माजी उस स्थानपर गये और वहाँपर उन सबको पहलेकी तरह ही पाया ।। ३१-३२
॥
ब्रह्माजी
उनको निद्रित देखकर पुनः व्रजमें आये और गोप-बालकोंके साथ श्रीहरिके दर्शन करके विस्मित
हो गये। वे मन-ही-मन कहने लगे- 'ओहो, कैसी विचित्रता है ! ये लोग कहाँसे यहाँ आये और
पहलेकी ही भाँति श्रीकृष्णके साथ खेल रहे हैं ? ।। ३३-३४ ॥
यह
सब खेल करनेमें मुझे एक त्रुटि (क्षण) जितना काल लगा, परंतु इतनेमें इस भूलोकमें एक
वर्ष पूरा हो गया । तथापि सभी प्रसन्न हैं, कहीं किसीको इस घटनाका पता भी नहीं चला।'
इस प्रकार से ब्रह्माजी मोहातीत विश्वमोहनको मोहित करने गये।
परंतु अपनी मायाके अन्धकारमें वे स्वयं अपने शरीरको भी नहीं देख सके
।। ३५-३६ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
गुरुवार, 27 जून 2024
श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) आठवाँ अध्याय ( पोस्ट 01 )
श्रीगर्ग-संहिता
(
श्रीवृन्दावनखण्ड )
आठवाँ
अध्याय ( पोस्ट 01 )
ब्रह्माजीके
द्वारा श्रीकृष्णके सर्वव्यापी विश्वात्मा स्वरूपका दर्शन
नारद
उवाच
अदृष्ट्वा
वत्सकानेत्य वस्सपान् पुलिने हरिः ।
उभौ
विचिन्वन् विपिने मेने कर्म्म विधेः कृतम् ॥ १
ततो
गवा गोपिकानां मुदं कर्तुं स लीलया ।
सर्वन्तु
विश्वकुच्चक्रे ह्यात्मानमुभयायितम् ॥ २
यावद्वत्सपवत्सानां
वपुः पाणिपदादिकान् ।
यावद्यष्टिविषाणादीन्
यावच्छ्रीलगुणादिकान् ॥ ३
यावद्
भूषणवस्त्रादीन् तावच्छ्रीहरिणा स्वतः ।
'सर्व विष्णुमयं विश्वमिति वाक्यं प्रदर्शितम् ॥ ४
आत्मवत्सानात्मगोपैश्चारयन्
क्रीडया हरि. |
प्राविशन्
नन्दनगरमस्तं गिरि गते रखौ ॥ ५
तत्तद्गोष्ठे
पृथङ नीत्वा तत्तद्वत्सान् प्रवेश्य च ।
कृष्णोऽभवत्तत्तदात्मा
तत्तद्गेहं प्रविष्टवान् ॥ ६
श्रुत्वा
वंशीरवं गोप्यः सम्भ्रमाच्छीघ्रमुत्थिता ।
पयांसि
पाययामासुर्लालयित्वा सुतान् पृथक् ॥ ७
स्वान्
स्वान् क्त्साँस्तथा गावो रम्भमाणा निरीक्ष्य च ।
लिहन्त्यो
जिह्वयाङ्गानि पयांसि च ह्यपाययन् ॥ ८
अभवन्
मातरः सर्वा गोप्यो गावो हरेरहो ।
प्रतिस्नेह
ववृधे पूर्वतो हि चतुगुणम् ॥ ९
स्वपुत्राँल्लालयित्वा
तु मज्जनोन्मर्द्दनादिभिः ।
पश्चाद्
गोप्यश्च कृष्णस्य दर्शनं कर्तुमाययुः ।। १०
अनेकानान्तु
बालानामुद्वाहा: कृष्णरूपिणाम् ।
बभूवुस्ता
व्रजे बो रताः कृष्णे तु कोटिशः ॥ ११
वत्सपालमिषेणापि
स्वात्मानं ह्यात्मना हरेः ।
पालितो
वत्सरश्चैको बभूव व्रजमण्डले ||
१२
सरामश्चैकदा
वत्साश्चारण्यं चारयन् ययौ ।
हायना
पूरणीष्वत्र पञ्चषासु च रात्रिषु ।। १३
तत्रापि
दूराच्चरतश्च गावो
वत्सानुपव्रज्य
गिरेश्च शृङ्गात् ।
लिहन्ति
चाङ्गानि विलोकयन्त्यां
हापाययंस्ता
अमृतानि सद्यः ॥ १४
गोवर्द्धनादधो
वत्सान् पीतदुग्धान् विलोक्य च ।
स्नेहावृता
स्थिता गाश्च गोपाला ददृशुर्नृप । १५
ततः
क्रोधेन महता पर्वतादवतीर्य च ।
ताडनार्थेसु
पुत्राणामाजग्मुः कच्छतो द्रुतम् ।। १६
यदागता
समीपे तु पुत्राणां गोपनायकाः ।
स्वान्
स्वान् सुतांस्तदोन्नीय के कृत्वा मिलन्ति वै ॥ १७
यथा
युवानो वृद्धाश्च स्नेहादश्रु परिप्लुताः ।
स्वान्
स्वान् पौत्रान् गृहीत्वा तु ह्य् पविष्टा मिलन्ति हि ॥ १८
श्रीनारदजी
कहते हैं— श्रीकृष्ण गोवत्सों को न पाकर यमुना किनारे आये, परंतु
वहाँ गोप-बालक भी नहीं दिखायी दिये । बछड़ों और वत्सपालों—दोनों को
ढूँढ़ते समय उनके मनमें आया कि 'यह तो ब्रह्माजी का कार्य है
। तदनन्तर अखिल विश्वविधायक श्रीकृष्णने गायों और गोपियोंको आनन्द देनेके लिये लीलासे
ही अपने-आपको दो भागों में विभक्त कर लिया ।। १-२ ॥
वे
स्वयं एक भागमें रहे तथा दूसरे भागसे समस्त बछड़े और गोप-बालकोंकी सृष्टि की। उन लोगोंके
जैसे शरीर, हाथ, पैर आदि थे; जैसी लाठी, सींगा आदि थे; जैसे स्वभाव और
गुण
थे, जैसे आभूषण और वस्त्रादि थे; भगवान् श्रीहरिने अपने श्रीविग्रहसे ठीक वैसी ही सृष्टि
उत्पन्न करके यह प्रत्यक्ष दिखला दिया कि यह अखिल विश्व विष्णुमय है। ।। ३-४ ॥
श्रीकृष्णने
खेल में ही आत्मस्वरूप गोप-बालकों के द्वारा
आत्मस्वरूप गो-वत्सों को चराया और सूर्यास्त होनेपर उनके साथ
नन्दालयमें पधारे। वे बछड़ों को उनके अपने-अपने गोष्ठों में अलग-अलग ले गये
और स्वयं उन-उन गोप-बालकों के वेष में अन्यान्य
दिनों की भाँति उनके घरोंमें प्रवेश किया ।। ५-६
॥
गोपियाँ
वंशीध्वनि सुनकर आदरके साथ शीघ्रतासे उठीं और अपने बालकोंको प्यारसे दूध पिलाने लगीं
। गायें भी अपने-अपने बछड़ोंको निकट आया देखकर रँभाती हुई उनको चाटने और दूध पिलाने
लगीं । अहा ! गोपियाँ और गायें श्रीहरिकी माता बन गयीं। गोप-बालक एवं गोवत्स स्नेहाधिक्य के कारण पहले की अपेक्षा चौगुने अधिक बढ़ने लगे।
गोपियाँ अपने बालकों की उबटन-स्नानादि के
द्वारा स्नेहमयी सेवा करके तब श्रीकृष्ण के दर्शन के लिये आयीं ॥ ७-१० ॥
इसके
बाद अनेक बालकोंका विवाह हो गया। अब श्रीकृष्णस्वरूप अपने पति उन बालकोंके साथ करोड़ों
गोपवधुएँ प्रीति करने लगीं ।। ११ ॥
इस
प्रकार वत्स-पालन के बहाने अपनी आत्माकी अपनी ही आत्माद्वारा रक्षा करते हुए श्रीहरिको
एक वर्ष बीत गया। एक दिन बलरामजी गोचारण करते हुए वनमें पहुँचे। उस समयतक ब्रह्माजीद्वारा
वत्सों एवं वत्सपालोंका हरण हुए एक वर्ष पूर्ण होनेमें केवल पाँच-छः रात्रियाँ शेष
रही थीं ।। १२-१३ ॥
उस
वनमें स्थित पहाड़की चोटीपर गायें चर रही थीं। दूरसे बछड़ोंको घास चरते देखकर वे उनके
निकट आ गयीं और उनको चाटने तथा अपना अमृत तुल्य दूध पिलाने लगीं। राजन् ! गोपोंने देखा
कि गायें बछड़ोंको दूध पिलाकर स्नेहके कारण गोवर्धनकी तलहटीमें ही रुक गयी हैं, तब
वे अत्यन्त क्रोधमें भरकर पहाड़से नीचे उतरे और अपने बालकोंको दण्ड देनेके लिये शीघ्रतासे
वहाँ पहुँचे । परंतु निकट पहुँचते ही (स्नेहके वशीभूत होकर ) गोपोंने अपने बालकोंको
गोदमें उठा लिया। युवक अथवा वृद्ध – सभीके नेत्रोंमें स्नेहके आँसू आ गये और वे अपने
पुत्र-पौत्रोंके साथ मिलकर वहाँ बैठ गये ॥ १४ – १८ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध उन्नीसवां अध्याय..(पोस्ट ०८)
बुधवार, 26 जून 2024
श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) सातवाँ अध्याय ( पोस्ट 02 )
#
श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(
श्रीवृन्दावनखण्ड )
सातवाँ
अध्याय ( पोस्ट 02 )
ब्रह्माजी
के द्वारा गौओं, गोवत्सों एवं
गोप-बालकों का हरण
बाला ऊचुः -
यस्य मातामहा मूढा शृणु नन्दकुमारक ।
न ज्ञानं भोजने तस्य तस्मात्स्वादु न विद्यते ॥ १९ ॥
ततो ददौ च कवलं श्रीदामा माधवाय च ।
अन्यान् सर्वान् बहुश्रेष्ठं जगुः सर्वे व्रजार्भकाः ॥ २० ॥
पुनः कृष्णाय प्रददौ कवलं च वरूथपः ।
अन्यान् बालान् तथा सर्वान् किंचित्किंचित्प्रयत्नतः ।
भुक्त्वा तु जहसुः सर्वे श्रीकृष्णाद्या व्रजार्भकाः ॥ २१ ॥
बालाः ऊचुः -
तादृशं भोजनञ्चास्य यादृशं सुबलस्य वै ॥ २२ ॥
भुक्त्वात्युद्विग्नमनसः सर्वे वयमतः किल ।
एतं पृथक्पृथक् सर्वे दर्शयन्तः स्वभोजनम् ॥ २३ ॥
हासयन्तो हसन्तश्च चक्रुः क्रीडां परस्परम् ।
जठरस्य पटे वेणुं वेत्रं शृङ्गश्च कक्षके ॥ २४ ॥
वामे पाणौ च कवलं ह्यंगुलीषु फलानि च ।
शिरसा मुकुटं बिभ्रत्स्कन्धे पीतपटं तथा ॥ २५ ॥
हृदये वनमालाश्च कटौ काञ्चीं तथैव च ।
पादयोर्नूपुरौ बिभ्रच्छ्रीवत्सं कौस्तुभं हृदि ॥ २६ ॥
तिष्ठन् मध्ये गोपगोष्ठ्यां हासयन्नर्मभिः स्वकैः ।
स्वर्गे लोके च मिषति बुभुजे यज्ञभुग्हरिः ॥ २७ ॥
एवं कृष्णात्मनाथेषु भुंजानेष्वर्भकेषु च ।
विविशुर्गह्वरे दूरं तृणलोभेन वत्सकाः ॥ २८ ॥
विलोक्य तान् भयत्रस्तान् गोपान् कृष्ण उवाच ह ।
यूयं गच्छन्तु माहं तु ह्यानेष्ये वत्सकानिह ॥ २९ ॥
इत्युक्त्वा कृष्ण उत्थाय गृहीत्वा कवलं करे ।
विचिकाय दरीकुञ्जगह्वरे वत्सकान् स्वकान् ॥ ३० ॥
तदैव चाम्भोजभवः समागतो
विलोक्य मुक्तिं ह्यघराक्षसस्य च ।
ददर्श कृष्णं मनसा यथारुचि
भुंजानमन्नं व्रजबालकैः सह ॥ ३१ ॥
दृष्ट्वा च कृष्णं मनसा स ऊचे
त्वयं हि गोपो न हि देवदेवः ।
हरिर्यदि स्याद्बहुकुत्सितान्ने
कथं रतो वा व्रजगोपबालैः ॥ ३२ ॥
इत्युक्त्वा मोहितो ब्रह्मा मायया परमात्मनः ।
द्रष्टुं मञ्जु महत्त्वं तु मनश्चक्रे ह्यहो नृप ॥ ३३ ॥
सर्वान् वत्सानितो गोपान्नीत्वा खेऽवस्थितः पुरा ।
अन्तर्दधे विस्मितोऽजो दृष्ट्वाघासुरमोक्षणम् ॥ ३४ ॥
बालक
बोले- 'नन्दनन्दन ! सुनो! जिसके नाना मूढ़ (मूर्ख) हैं, उसको भोजनका ज्ञान नहीं रहता।
इसलिये तुमको स्वाद प्राप्त नहीं हुआ' ॥ १९ ॥
इसके
उपरान्त श्रीदामाने माधव को और अन्य बालकोंको भोजन के ग्रास दिये । व्रज-बालकों ने उसको उत्तम बताकर
उसकी बहुत प्रशंसा की। इसके बाद वरूथप नाम के एक बालक ने पुनः श्रीकृष्णको एवं अन्य बालकोंको आग्रहपूर्वक कौर दिये। श्रीकृष्ण
आदि वे सभी लोग थोड़ा-थोड़ा खाकर हँसने लगे ।। २०-२१ ॥
बालकोंने
कहा – 'यह भी सुबलके ग्रास-जैसा ही है। हम सभी उसे खाकर उद्विग्न हुए हैं।' इस प्रकार
सभी ने अपने-अपने ग्रास चखाये और सभी परस्पर हँसने-हँसाने और
खेलने लगे। कटिवस्त्र में वेणु, बगलमें लकुटी एवं सींगा, बायें
हाथमें भोजन का कौर, अंगुलियोंके बीचमें फल, माथेपर मुकुट, कंधेपर
पीला दुपट्टा, गलेमें वनमाला, कमर में करधनी, पैरोंमें नूपुर और हृदयपर श्रीवत्स तथा
कौस्तुभमणि धारण किये हुए श्रीकृष्ण गोप-बालकोंके बीचमें बैठकर अपनी विनोदभरी बातोंसे
बालकों को हँसाने लगे ।। २२-२६ ॥
इस
प्रकार यज्ञभोक्ता श्रीहरि भोजन करने लगे, जिसको देवता एवं मनुष्य आश्चर्यचकित होकर
देखते रहे । इस प्रकार श्रीकृष्णके द्वारा रक्षित बालकोंका जिस
समय भोजन हो रहा था, उसी समय बछड़े घासकी लालचमें पड़कर दूरके एक गहन वनमें घुस गये
। गोप-बालक भयसे व्याकुल हो गये। यह देखकर श्रीकृष्ण बोले- 'तुमलोग मत जाओ। मैं बछड़ोंको
यहाँ ले आऊँगा ।' यों कहकर श्रीकृष्ण उठे और भोजनका कौर हाथमें लिये ही गुफाओं एवं
कुञ्जोंमें तथा गहन वनमें बछड़ोंको ढूंढ़ने लगे ॥ २७ - ३० ॥
जिस
समय व्रजवासी बालकों के साथ श्रीकृष्ण यमुनातटपर रुचिपूर्वक भोजन
कर रहे थे, उसी समय पद्मयोनि ब्रह्माजी अघासुरकी मुक्ति देखकर उसी स्थानपर पहुँच गये।
इस दृश्यको देखकर ब्रह्माजी मन-ही-मन कहने लगे- 'ये तो देवाधिदेव श्रीहरि नहीं हैं,
अपितु कोई गोपकुमार हैं। यदि ये श्रीहरि होते तो गोप-बालकोंके साथ इतने अपवित्र अन्नका
के
साथ भोजन कैसे करते ?' राजन् ! ब्रह्माजी परमात्माकी मायासे मोहित होकर इस प्रकार बोल
गये । उन्होंने उनकी (भगवान्की) मनोज्ञ महिमाको जाननेका निश्चय किया । ब्रह्माजी स्वयं
आकाशमें अवस्थित थे। इसके उपरान्त अघासुर- उद्धारकी लीलाके दर्शनसे चकित होकर समस्त
गायों-बछड़ों तथा गोप-बालकोंका हरण करके वे अन्तर्धान हो गये ॥ ३१ - ३४ ॥
इस
प्रकार श्रीगर्गसंहितामें श्रीवृन्दावनखण्डके अन्तर्गत 'ब्रह्माजीके द्वारा गौओं, गोवत्सों
और गोप-बालकों का हरण' नामक सातवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ७ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध उन्नीसवां अध्याय..(पोस्ट ०७)
मंगलवार, 25 जून 2024
श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) सातवाँ अध्याय ( पोस्ट 01 )
#
श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(
श्रीवृन्दावनखण्ड )
सातवाँ
अध्याय ( पोस्ट 01 )
ब्रह्माजी
के द्वारा गौओं, गोवत्सों एवं
गोप-बालकों का हरण
अथान्यच्छ्रुणु
राजेन्द्र श्रीकृष्णस्य महात्मनः ।
कौमारे क्रीडनश्चेदं पौगण्डे कीर्तनं यथा ॥ १ ॥
श्रीकृष्णोऽघमुखान्मृत्यो रक्षित्वा वत्सवत्सपान् ।
यमुनापुलिनं गत्वा प्राहेदं हर्षवर्धनम् ॥ २ ॥
अहोऽतिरम्यं पुलिनं प्रियं कोमलवालुकम् ।
शरत्प्रफुल्लपद्मानां परागैः परिपूरितम् ॥ ३ ॥
वायुना त्रिविधाख्येन सुगन्धेन सुगन्धितम् ।
मधुपध्वनिसंयुक्तं कुंजद्रुमलताकुलम् ॥ ४ ॥
अत्रोपविश्य गोपाला दिनैकप्रहरे गते ।
भोजनस्यापि समयं तस्मात्कुरुत भोजनम् ॥ ५ ॥
अत्र भोजनयोग्या भूर्दृश्यते मृदुवालुका ।
वत्सकाः सलिलं पीत्वा ते चरिष्यन्ति शाद्वलम् ॥ ६ ॥
इति कृष्णवचः श्रुत्वा तथेत्याहुश्च बालकाः ।
प्रकर्तुं भोजनं सर्वे ह्युपविष्टाः सरित्तटे ॥ ७ ॥
अथ केचित्बालकाश्च येषां पार्श्वे न भोजनम् ।
ते तु कृष्णस्य कर्णान्तेजगदुर्दीनया गिरा ॥ ८ ॥
वयं तु किं करिष्यामोऽस्मत्पार्श्वे न तु भोजनम् ।
नन्दग्रामन्तु दूरं हि गच्छामो वत्सकैर्वयम् ॥ ९ ॥
इति श्रुत्वा हरिः प्राह मा शोकं कुरुत प्रियाः ।
अहं दास्यामि सर्वेषां प्रयत्नेनापि भोजनम् ॥ १० ॥
तस्मान्मद्वाक्यनिरताः सर्वे भवत बालकाः ।
इति कृष्णस्य वचनात्कृष्णपार्श्वे च ते स्थिताः ।
मुक्त्वा शिक्यानि सर्वेऽन्ये बुभुजुः कृष्णसंयुताः ॥ ११ ॥
चकार कृष्णः किल राजमंडलीं
गोपालबालैः पुरतः प्रपूरितैः ।
अनेकवर्णैर्वसनैः प्रकल्पितै-
र्मध्ये स्थितो पीतपटेन भूषितं ॥ १२
॥
रेजे ततः सो वरगोपदारकै-
र्यथामरेशो ह्यमरैश्च सर्वतः ।
पुनर्यथाम्भोरुहकोमलै-
र्मध्ये तु वैदेह सुवर्णकर्णिका ॥ १३
॥
कुसुमैरङ्कुरैः केचित्पल्लवैश्च दलैः फलैः ।
कृष्णस्तु कवलं भुक्त्वा सर्वान् पश्यन्निदं जगौ ॥ १५ ॥
अन्यान्निदर्शयन् स्वादु नाहं जानामि वै सखे ।
तथेत्युक्त्वा स बालश्च नीत्वाऽन्यान् कवलान् ददौ ॥ १६ ॥
भुक्त्वा ते कथयामासुः प्रहसन्तः परस्परम् ।
पुनस्तत्रापि सुबलो हरये कवलं ददौ ॥ १७ ॥
कृष्णस्तु कवलं किंचिद्भुक्त्वा तत्र जहास ह ।
ये भुक्तकवला बालास्ते सर्वे जहसुः स्फुटम् ॥ १८ ॥
श्रीनारदजी
कहते हैं- राजेन्द्र ! अब भगवान् श्रीकृष्ण की अन्य लीला सुनिये। यह लीला उनके
बाल्यकाल की है, तथापि उनके पौगण्डावस्था की
प्राप्तिके बाद प्रकाशित हुई। श्रीकृष्ण गोवत्स एवं गोप-बालकों की मृत्युके समान
(भयंकर) अघासुरके मुखसे रक्षा करनेके उपरान्त उनका आनन्द बढ़ाने की इच्छा से
यमुनातटपर जाकर बोले— 'प्रिय सखाओ! अहा, यह कोमल वालुकामय तट बहुत ही सुन्दर है ! शरद् ऋतुमें खिले हुए कमलोंके
परागसे पूर्ण है ।। १-३ ॥
शीतल,
मन्द एवं सुगन्धित - त्रिविध वायुसे सौरभित है। यह तटभूमि भौंरों की
गुञ्जार से युक्त एवं कुञ्ज और वृक्षलताओं से सुशोभित है । गोप-बालको ! दिनका एक
पहर बीत गया है। भोजन का समय भी हो गया है । अतएव इस स्थान पर बैठकर भोजन कर लो ।।
४-५ ॥
कोमल
वालुकावाली यह भूमि भोजन करने के उपयुक्त दीख रही है। बछड़े भी यहाँ जल पीकर
हरी-हरी घास चरते रहेंगे।' गोप-बालकों ने श्रीकृष्ण
की यह बात सुनकर कहा— 'ऐसा ही हो' और
वे सब-के-सब भोजन करनेके लिये यमुनातटपर बैठ गये ।। ६-७ ॥
इसके
उपरान्त जिनके पास भोजन-सामग्री नहीं थी, उन
बालकों ने श्रीकृष्ण के कान में दीन-वाणी से कहा- 'हमलोगों के
पास भोजन के लिये कुछ नहीं है, हम लोग क्या करें ? नन्दगाँव यहाँसे बहुत दूर है, अतः हमलोग बछड़ों को
लेकर चले जाते हैं।' यह सुनकर श्रीकृष्ण बोले- 'प्रिय सखाओ ! शोक मत करो। मैं सबको यत्नपूर्वक (आग्रहके साथ) भोजन कराऊँगा
। इसलिये तुम सब मेरी बातपर भरोसा करके निश्चिन्त हो जाओ।' श्रीकृष्ण
की यह उक्ति सुनकर वे लोग उनके निकट ही बैठ गये। अन्य बालक (अपने-अपने) छीकों को
खोलकर श्रीकृष्ण के साथ भोजन करने लगे ॥ ८- ११ ॥
श्रीकृष्ण
ने गोप-बालकों के साथ, जिनकी उनके सामने
भीड़ लगी हुई थी, एक राजसभा का आयोजन किया। समस्त गोप-बालक
उनको घेरकर बैठ गये । ये लोग अनेक रंगोंके वस्त्र पहने हुए थे और श्रीकृष्ण पीला
वस्त्र धारण करके उनके बीचमें बैठ गये । विदेह ! उस समय गोप-बालकोंसे घिरे हुए
श्रीकृष्णकी शोभा देवताओंसे घिरे हुए देवराज इन्द्रके समान अथवा पँखुड़ियोंसे
घिरी हुई स्वर्णिम कमलकी कर्णिका (केसरयुक्त भीतरी भाग) के समान हो रही थी ।। १२-१३ ॥
कोई
बालक कुसुमों, कोई अङ्कुरों, कोई पल्लवों, कोई पत्तों, कोई फलों, कोई अपने हाथों, कोई
पत्थरों और कोई छीकों को ही पात्र बनाकर भोजन करने लगे। उनमेंसे
एक बालकने शीघ्रतासे कौर उठाकर श्रीकृष्ण- के मुखमें दे दिया। श्रीकृष्णने भी उस ग्रासका
भोग लगाकर सबकी ओर देखते हुए कहा- 'भैया ! अन्य बालकोंको अपनी-अपनी स्वादिष्ट सामग्री
चखाओ। मैं स्वादके बारेमें नहीं जानता।' बालकोंने 'ऐसा ही हो' कहकर अन्यान्य बालकों को भोजन के ग्रास ले जाकर दिये। वे भी उन ग्रासोंको
खाकर एक दूसरेकी हँसी करते हुए उसी प्रकार बोल उठे। सुबलने पुनः हरिके मुखमें ग्रास
दिया, परंतु श्रीकृष्ण उस कौर में से थोड़ा-सा
खाकर हँसने लगे। इस प्रकार जिस-जिसने कौर खाया, वे सभी जोरसे हँसने लगे ।। १४-१८ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध उन्नीसवां अध्याय..(पोस्ट ०६)
सोमवार, 24 जून 2024
श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) छठा अध्याय ( पोस्ट 02 )
# श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
( श्रीवृन्दावनखण्ड
)
छठा अध्याय ( पोस्ट 02 )
अघासुर का उद्धार और
उसके पूर्वजन्म का परिचय
कोऽयं
दैत्यः पूर्वकाले श्रीकृष्णे लीनतां गतः ।
अहो वैरानुबन्धेन शीघ्रं दैत्यो हरिं गतः ॥ ९ ॥
श्रीनारद उवाच -
शंखासुरसुतो राजन् अघो नाम महाबलः ।
युवातिसुन्दरः साक्षात् कामदेव इवापरः ॥ १० ॥
अष्टावक्रं मुनिं यान्तं विरूपं मलयाचले ।
दृष्ट्वा जहास तमघः कुरूपोऽयमिति ब्रुवन् ॥ ११ ॥
तं शशाप महादुष्टं त्वं सर्पो भव दुर्मते ।
कुरूपो वक्रगा जातिः सर्पाणां भूमिमंडले ॥ १२ ॥
तत्पादयोर्निपतितं दैत्यं दीनं गतस्मयम् ।
दृष्ट्वा प्रसन्नः स मुनिर्वरं तस्मै ददौ पुनः ॥ १३ ॥
अष्टावक्र उवाच -
कोटिकन्दर्पलावण्यः श्रीकृष्णस्तु तवोदरे ।
यदाऽऽगच्छेत्सर्परूपात्तदा मुक्तिर्भविष्यति ॥ १४ ॥
राजा
बोले- देवर्षे ! यह दैत्य पूर्वकालमें कौन जो इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्णमें विलीन
हुआ ?
अहो ! कितने आश्चर्यकी बात है कि वह दैत्य वैर बाँधनेके कारण शीघ्र
ही श्रीहरिको प्राप्त हुआ ॥ ९ ॥
श्रीनारदजी
कहते हैं- राजन् ! शङ्खासुर के एक पुत्र था, जो 'अघ' नामसे विख्यात था। महाबली अघ युवावस्थामें
अत्यन्त सुन्दर होनेके कारण साक्षात् दूसरे कामदेव सा जान पड़ता था। एक दिन
मलयाचलपर जाते हुए अष्टावक्र मुनिको देखकर अघासुर जोर- जोर से हँसने लगा और बोला- 'यह कैसा कुरूप है !' ।। १०-११॥
उस
महादुष्टको शाप देते हुए मुनिने कहा— 'दुर्मते
! तू सर्प हो जा; क्योंकि भूमण्डलपर सर्पों की ही जाति कुरूप
एवं कुटिल गतिसे चलनेवाली होती है।' ज्यों- ही उसने यह सुना,
उस दैत्यका सारा अभिमान गल गया और वह दीनभावसे मुनिके चरणोंमें गिर
पड़ा। उसे इस अवस्थामें देखकर मुनि प्रसन्न हो गये और पुनः उसे वर देते हुए बोले-
॥ १२ - १३॥
अष्टावक्र
ने कहा -करोड़ों कंदर्पोंसे भी अधिक लावण्यशाली भगवान् श्रीकृष्ण जब तुम्हारे
उदरमें प्रवेश करेंगे, तब इस सर्परूपसे
तुम्हें छुटकारा मिल जायगा ॥ १४ ॥
इस
प्रकार श्रीगर्गसंहितामें श्रीवृन्दावनखण्डके अन्तर्गत 'अघासुरका मोक्ष' नामक छठा अध्याय पूरा हुआ ॥ ६ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध उन्नीसवां अध्याय..(पोस्ट ०५)
श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - आठवां अध्याय..(पोस्ट०३)
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०३) ध्रुवका वन-गमन मैत्रेय उवाच - मातुः सपत्न्याःा स दुर...
-
सच्चिदानन्द रूपाय विश्वोत्पत्यादि हेतवे | तापत्रय विनाशाय श्री कृष्णाय वयं नुमः श्रीमद्भागवत अत्यन्त गोपनीय — रहस्यात्मक पुरा...
-
हम लोगों को भगवान की चर्चा व संकीर्तन अधिक से अधिक करना चाहिए क्योंकि भगवान् वहीं निवास करते हैं जहाँ उनका संकीर्तन होता है | स्वयं भगवान...
-
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण एकादश स्कन्ध— पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०२) भक्तिहीन पुरुषों की गति और भगवान् की पूजाविधि ...
-
||ॐश्रीपरमात्मने नम:|| प्रश्नोत्तरी (स्वामी श्रीशंकराचार्यरचित ‘मणिरत्नमाला’) वक्तव्य श्रीस्वामी शंकराचार्य जी ...
-
|| ॐ नमो भगवते वासुदेवाय || “ सदा सेव्या सदा सेव्या श्रीमद्भागवती कथा | यस्या: श्रवणमात्रेण हरिश्चित्तं समाश्रयेत् ||” श्रीमद्भाग...
-
निगमकल्पतरोर्गलितं फलं , शुकमुखादमृतद्रवसंयुतम् | पिबत भागवतं रसमालयं , मुहुरहो रसिका भुवि भावुकाः || महामुनि व्यासदेव के द्वारा न...
-
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५) श्रीकृष्ण के विरह में गोपियो...
-
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०२) समुद्रसे अमृतका प्रकट होना और भगवान्...
-
☼ श्रीदुर्गादेव्यै नम: ☼ क्षमा-प्रार्थना अपराध सहस्राणि क्रियन्तेऽहर्निशं मया । दासोऽयमिति मां मत्वा क्षमस्व परमेश्वरी ।। 1...
-
शिवसंकल्पसूक्त ( कल्याणसूक्त ) [ मनुष्यशरीर में प्रत्येक इन्द्रियका अपना विशिष्ट महत्त्व है , परंतु मनका महत्त्व सर्वोपरि है ; क्यो...