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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(
श्रीवृन्दावनखण्ड )
दसवाँ
अध्याय ( पोस्ट 04 )
यशोदाजी की चिन्ता; नन्दद्वारा आश्वासन तथा ब्राह्मणों को
विविध प्रकार के दान देना; श्रीबलराम तथा श्रीकृष्ण का गोचारण
कलकंठैः कोकिलैश्च पुंस्कोकिलमयूरभृत्
।
गाश्चारयन् तत्र कृष्णो विचचार वने वने ॥ ३१ ॥
वृन्दावने मधुवने पार्श्वे तालवनस्य च ।
कुमुद्वने बाहुले च दिव्यकामवने परे ॥ ३२॥
बृहत्सानुगिरेः पार्श्वे गिरेर्नन्दीश्वरस्य च ।
सुंदरे कोकिलवने कोकिलध्वनिसंकुले ॥ ३३ ॥
रम्ये कुशवने सौम्ये लताजालसमन्विते ।
महापुण्ये भद्रवने भांडीरोपवने नृप ॥ ३४ ॥
लोहार्गले च यमुनातीरे तीरे वने वने ।
पीतवासःपरिकरो नटवेषो मनोहरः ॥ ३५ ॥
वेत्रभृद्वादयन्वंशीं गोपीनां प्रीतिमावहन् ।
मयूरपिच्छभृन्मौली स्रग्वी कृष्णो बभौ नृप ॥ ३६ ॥
अग्रे कृत्वा गवां वृन्दं सायंकाले हरिः स्वयम् ।
रागैः समीरयन्वंशीं श्रीनन्दव्रजमाविशत् ॥ ३७ ॥
वेणुवंशीध्वनिं श्रुत्वा श्रीवंशीवटमार्गतः ।
गोरजोभिर्नभो व्याप्तं वीक्ष्य गेहाद्विनिर्गताः ॥ ३८ ॥
दूरीकर्तुं ह्याधिबाधामाहर्तुं सुखमुत्तमम् ।
विस्मर्तुं न समर्थास्तं द्रष्टुं गोप्यः समाययुः ॥ ३९ ॥
संकोचवीथीषु न संगृहीतः
शनैश्चलन् गोगणसंकुलासु ।
सिंहावलोको गजबाललीलै-
र्वधूजनैः पंकजपत्रनेत्रः ॥ ४० ॥
सुमंडितं मैथिलगोरजोभि-
र्नीलं परं कुन्तलमादधानः
हेमाङ्गदी मौलिविराजमान
आकर्णवक्रीकृतदृष्टिबाणः ॥ ४१ ॥
गोधूलिभिर्मंडितकुन्दहारः
कर्णोपरि स्फूर्जितकर्णिकारः ।
पीतांबरो वेणुनिनादकारः
पातु प्रभुर्वो हृतभूरिभारः ॥ ४२ ॥
वहाँ
मधुर कण्ठवाले नर- कोकिल और मयूर कलरव कर रहे थे। उस वन में गौएँ
चराते हुए श्रीकृष्ण एक वन से दूसरे वनमें विचरा करते थे। नरेश्वर
! वृन्दावन और मधुवन में, तालवन के आस-पास
कुमुदवन, बहुला वन, कामवन, बृहत्सानु और नन्दीश्वर नामक पर्वतोंके पार्श्ववर्ती प्रदेशमें,
कोकिलोंकी काकलीसे कूजित सुन्दर कोकिलावनमें, लताजाल-मण्डित सौम्य तथा रमणीय कुश-वनमें,
परम पावन भद्रवन, भाण्डीर उपवन, लोहार्गल तीर्थ तथा यमुनाके प्रत्येक तट और तटवर्ती
विपिनोंमें पीताम्बर धारण किये, बद्धपरिकर, नटवेषधारी मनोहर श्रीकृष्ण बेंत लिये, वंशी
बजाते और गोपाङ्गनाओंकी प्रीति बढ़ाते हुए बड़ी शोभा पाते थे । उनके सिरपर शिखिपिच्छका
सुन्दर मुकुट तथा गलेमें वैजयन्तीमाला सुशोभित थीं ॥ ३१–३६ ॥
संध्या के समय गोवृन्द को आगे किये अनेकानेक रागों में
बाँसुरी बजाते साक्षात् श्रीहरि कृष्ण नन्दत्रज में आये। आकाशको
गोरजसे व्याप्त देख श्रीवंशीवट के मार्ग से
आती हुई वंशी-ध्वनि से आकुल हुई गोपियाँ श्यामसुन्दर के दर्शन के लिये घरों से
बाहर निकल आयीं । अपनी मानसिक पीड़ा दूर करने और उत्तम सुख को पानेके लिये वे गोपसुन्दरियाँ श्रीकृष्णदर्शन के
हेतु घरसे बाहर आ गयी थीं। उनमें श्रीकृष्णको भुला देने की शक्ति
नहीं थी ॥ ३७-३९ ॥
श्रीनन्दनन्दन
सिंह की भाँति पीछे घूमकर देखते थे। वे गजकिशोर की भाँति लीलापूर्वक मन्दगति से चलते थे। उनके
नेत्र प्रफुल्ल कमलके समान शोभा पाते थे । गो-समुदाय से व्याप्त
संकीर्ण गलियों गें मन्द- गन्द गतिसे आते हुए श्यामसुन्दर को उस समय गोपवधूटियाँ अच्छी तरह से देख नहीं
पाती थीं। मिथिलेश्वर ! गोधूलि से धूसरित उत्तम नील केशकलाप धारण
किये, सुवर्णनिर्मित बाजूबंद से विभूषित, मुकुटमण्डित तथा कानतक
खींचकर वक्र भाव से दृष्टिबाण का प्रहार
करनेवाले, गोरज - समलंकृत, कुन्दमाला से अलंकृत, कानों में खोंसे हुए पुष्पों की आभासे उद्दीप्त, पीताम्बरधारी,
वेणुवादनशील तथा भूतलका भूरि- भार हरण करनेवाले प्रभु श्रीकृष्ण आप सबकी रक्षा करें
॥ ४०–४२ ॥
इस
प्रकार श्रीगर्गसंहितामें श्रीवृन्दावनखण्डके अन्तर्गत 'यशोदाजीकी चिन्ता, नन्दद्वारा
आश्वासन तथा दान, श्रीकृष्णकी गोचारण-लीलाका वर्णन' नामक दसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १०
॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से