बुधवार, 10 जुलाई 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) दसवाँ अध्याय ( पोस्ट 04 )


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

दसवाँ अध्याय ( पोस्ट 04 )

 

यशोदाजी की चिन्ता; नन्दद्वारा आश्वासन तथा ब्राह्मणों को विविध प्रकार के दान देना; श्रीबलराम तथा श्रीकृष्ण का गोचारण

 

कलकंठैः कोकिलैश्च पुंस्कोकिलमयूरभृत् ।
गाश्चारयन् तत्र कृष्णो विचचार वने वने ॥ ३१ ॥
वृन्दावने मधुवने पार्श्वे तालवनस्य च ।
कुमुद्वने बाहुले च दिव्यकामवने परे ॥ ३२॥
बृहत्सानुगिरेः पार्श्वे गिरेर्नन्दीश्वरस्य च ।
सुंदरे कोकिलवने कोकिलध्वनिसंकुले ॥ ३३ ॥
रम्ये कुशवने सौम्ये लताजालसमन्विते ।
महापुण्ये भद्रवने भांडीरोपवने नृप ॥ ३४ ॥
लोहार्गले च यमुनातीरे तीरे वने वने ।
पीतवासःपरिकरो नटवेषो मनोहरः ॥ ३५ ॥
वेत्रभृद्वादयन्वंशीं गोपीनां प्रीतिमावहन् ।
मयूरपिच्छभृन्मौली स्रग्वी कृष्णो बभौ नृप ॥ ३६ ॥
अग्रे कृत्वा गवां वृन्दं सायंकाले हरिः स्वयम् ।
रागैः समीरयन्वंशीं श्रीनन्दव्रजमाविशत् ॥ ३७ ॥
वेणुवंशीध्वनिं श्रुत्वा श्रीवंशीवटमार्गतः ।
गोरजोभिर्नभो व्याप्तं वीक्ष्य गेहाद्‌विनिर्गताः ॥ ३८ ॥
दूरीकर्तुं ह्याधिबाधामाहर्तुं सुखमुत्तमम् ।
विस्मर्तुं न समर्थास्तं द्रष्टुं गोप्यः समाययुः ॥ ३९ ॥
संकोचवीथीषु न संगृहीतः
     शनैश्चलन् गोगणसंकुलासु ।
सिंहावलोको गजबाललीलै-
     र्वधूजनैः पंकजपत्रनेत्रः ॥ ४० ॥
सुमंडितं मैथिलगोरजोभि-
     र्नीलं परं कुन्तलमादधानः
हेमाङ्गदी मौलिविराजमान
     आकर्णवक्रीकृतदृष्टिबाणः ॥ ४१ ॥
गोधूलिभिर्मंडितकुन्दहारः
     कर्णोपरि स्फूर्जितकर्णिकारः ।
पीतांबरो वेणुनिनादकारः
     पातु प्रभुर्वो हृतभूरिभारः ॥ ४२ ॥

 

वहाँ मधुर कण्ठवाले नर- कोकिल और मयूर कलरव कर रहे थे। उस वन में गौएँ चराते हुए श्रीकृष्ण एक वन से दूसरे वनमें विचरा करते थे। नरेश्वर ! वृन्दावन और मधुवन में, तालवन के आस-पास कुमुदवन, बहुला वन, कामवन, बृहत्सानु और नन्दीश्वर नामक पर्वतोंके पार्श्ववर्ती प्रदेशमें, कोकिलोंकी काकलीसे कूजित सुन्दर कोकिलावनमें, लताजाल-मण्डित सौम्य तथा रमणीय कुश-वनमें, परम पावन भद्रवन, भाण्डीर उपवन, लोहार्गल तीर्थ तथा यमुनाके प्रत्येक तट और तटवर्ती विपिनोंमें पीताम्बर धारण किये, बद्धपरिकर, नटवेषधारी मनोहर श्रीकृष्ण बेंत लिये, वंशी बजाते और गोपाङ्गनाओंकी प्रीति बढ़ाते हुए बड़ी शोभा पाते थे । उनके सिरपर शिखिपिच्छका सुन्दर मुकुट तथा गलेमें वैजयन्तीमाला सुशोभित थीं ॥ ३१३६

 

संध्या के समय गोवृन्द को आगे किये अनेकानेक रागों में बाँसुरी बजाते साक्षात् श्रीहरि कृष्ण नन्दत्रज में आये। आकाशको गोरजसे व्याप्त देख श्रीवंशीवट के मार्ग से आती हुई वंशी-ध्वनि से आकुल हुई गोपियाँ श्यामसुन्दर के दर्शन के लिये घरों से बाहर निकल आयीं । अपनी मानसिक पीड़ा दूर करने और उत्तम सुख को पानेके लिये वे गोपसुन्दरियाँ श्रीकृष्णदर्शन के हेतु घरसे बाहर आ गयी थीं। उनमें श्रीकृष्णको भुला देने की शक्ति नहीं थी ॥ ३७-३९

 

श्रीनन्दनन्दन सिंह की भाँति पीछे घूमकर देखते थे। वे गजकिशोर की भाँति लीलापूर्वक मन्दगति से चलते थे। उनके नेत्र प्रफुल्ल कमलके समान शोभा पाते थे । गो-समुदाय से व्याप्त संकीर्ण गलियों गें मन्द- गन्द गतिसे आते हुए श्यामसुन्दर को उस समय गोपवधूटियाँ अच्छी तरह से देख नहीं पाती थीं। मिथिलेश्वर ! गोधूलि से धूसरित उत्तम नील केशकलाप धारण किये, सुवर्णनिर्मित बाजूबंद से विभूषित, मुकुटमण्डित तथा कानतक खींचकर वक्र भाव से दृष्टिबाण का प्रहार करनेवाले, गोरज - समलंकृत, कुन्दमाला से अलंकृत, कानों में खोंसे हुए पुष्पों की आभासे उद्दीप्त, पीताम्बरधारी, वेणुवादनशील तथा भूतलका भूरि- भार हरण करनेवाले प्रभु श्रीकृष्ण आप सबकी रक्षा करें ॥ ४०–४२ ॥

 

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें श्रीवृन्दावनखण्डके अन्तर्गत 'यशोदाजीकी चिन्ता, नन्दद्वारा आश्वासन तथा दान, श्रीकृष्णकी गोचारण-लीलाका वर्णन' नामक दसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १० ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-दूसरा अध्याय..(पोस्ट ०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
द्वितीय स्कन्ध-दूसरा अध्याय..(पोस्ट०३)

भगवान्‌ के स्थूल और सूक्ष्म रूपों की धारणा तथा क्रममुक्ति और सद्योमुक्तिका वर्णन

केचित् स्वदेहान्तर्हृदयावकाशे
    प्रादेशमात्रं पुरुषं वसन्तम् ।
चतुर्भुजं कञ्जरथाङ्गशङ्ख
    गदाधरं धारणया स्मरन्ति ॥ ८ ॥
प्रसन्नवक्त्रं नलिनायतेक्षणं
    कदंबकिञ्जल्कपिशङ्गवाससम् ।
लसन्महारत्‍नहिरण्मयाङ्गदं
    स्फुरन् महारत्‍नकिरीटकुण्डलम् ॥ ९ ॥
उन्निद्रहृत्पङ्कजकर्णिकालये
    योगेश्वरास्थापितपादपल्लवम् ।
श्रीलक्षणं कौस्तुभरत्‍नकन्धरं
    अम्लानलक्ष्म्या वनमालयाचितम् ॥ १० ॥
विभूषितं मेखलयाऽङ्गुलीयकैः
    महाधनैर्नूपुरकङ्कणादिभिः ।
स्निग्धामलाकुञ्चितनीलकुन्तलैः
    विरोचमानाननहासपेशलम् ॥ ११ ॥

कोई-कोई साधक अपने शरीरके भीतर हृदयाकाश में विराजमान भगवान्‌ के प्रादेशमात्र स्वरूपकी धारणा करते हैं। वे ऐसा ध्यान करते हैं कि भगवान्‌ की चार भुजाओंमें शङ्ख, चक्र, गदा और पद्म हैं ॥ ८ ॥ उनके मुखपर प्रसन्नता झलक रही है। कमलके समान विशाल और कोमल नेत्र हैं। कदम्बके पुष्पकी केसरके समान पीला वस्त्र धारण किये हुए हैं। भुजाओंमें श्रेष्ठ रत्नोंसे जड़े हुए सोनेके बाजूबंद शोभायमान हैं। सिरपर बड़ा ही सुन्दर मुकुट और कानों में कुण्डल हैं, जिनमें जड़े हुए बहुमूल्य रत्न जगमगा रहे हैं ॥ ९ ॥ उनके चरण-कमल योगेश्वरोंके खिले हुए हृदयकमल की कर्णिका पर विराजित हैं। उनके हृदयपर श्रीवत्स का चिह्न—एक सुनहरी रेखा है। गले में कौस्तुभ- मणि लटक रही है। वक्ष:स्थल कभी न कुम्हलानेवाली वनमाला से घिरा हुआ है ॥ १० ॥ वे कमरमें करधनी, अँगुलियों में बहुमूल्य अँगूठी, चरणोंमें नूपुर और हाथोंमें कंगन आदि आभूषण धारण किये हुए हैं। उनके बालोंकी लटें बहुत चिकनी, निर्मल, घुँघराली और नीली हैं। उनका मुख-कमल मन्द-मन्द मुसकान से खिल रहा है ॥ ११ ॥ 

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


मंगलवार, 9 जुलाई 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) दसवाँ अध्याय ( पोस्ट 03 )

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

दसवाँ अध्याय ( पोस्ट 03 )

 

यशोदाजी की चिन्ता; नन्दद्वारा आश्वासन तथा ब्राह्मणों को विविध प्रकार के दान देना; श्रीबलराम तथा श्रीकृष्ण का गोचारण

 

काश्चित्पीता विचित्राश्च श्यामाश्च हरितास्तथा ।
ताम्रा धूम्रा घनश्यामा घनश्यामे गतेक्षणाः ॥ २२ ॥
लघुशृङ्ग्यो दीर्घशृङ्ग्य उच्चशृङ्ग्यो वृषैः सह ।
मृगशृङ्ग्यो वक्रशृङ्ग्यः कपिला मंगलायनाः ॥ २३ ॥
शाद्वलं कोमलं कान्तं वीक्षन्त्योऽपि वने वने ।
कोटिशः कोटिशो गावश्चरन्त्यः कृष्णपार्श्वयोः ॥ २४ ॥
पुण्यं श्रीयमुनातीरं तमालैः श्यामलैर्वनम् ।
नीपैर्निम्बैः कदम्बैश्च प्रवालैः पनसैर्द्रुमैः ॥ २५ ॥
कदलीकोविदाराम्रैः जम्बुबिल्वैर्मनोहरैः ।
अश्वत्थैश्च कपित्थैश्च माधवीभिश्च मंडितम् ॥२६ ॥
बभौ वृन्दावनं दिव्यं वसन्तर्तुमनोहरम् ।
नन्दनं सर्वतोभद्रं क्षिपच्चैत्ररथं वनम् ॥ २७॥
यत्र गोवर्धनो नाम सुनिर्झरदरीयुतः ।
रत्‍नधातुमयः श्रीमान् मन्दारवनसंकुलः ॥ २८ ॥
श्रीखंडबदरीरंभा देवदारुवटैर्वृतः ।
पलाशप्लक्षाशोकैश्चारिष्टार्जुनकदम्बकैः ॥ २९ ॥
पारिजातैः पाटलैश्च चंपकैः परिशोभितः ।
करंजजालकुञ्जाढ्यः श्यामैरिन्द्रयवैर्वृतः ॥ ३० ॥

कोई पीली, कोई चितकबरी, कोई श्यामा, कोई हरी, कोई ताँबेके समान रंगवाली, कोई धूमिलवर्णकी और कोई मेघोंकी घटा-जैसी नीली थीं । उन सबके नेत्र घनश्याम श्रीकृष्णकी ओर लगे रहते थे। किन्हीं गौओं और बैलों के सींग छोटे, किन्हीं के बड़े तथा किन्हीं के ऊँचे थे। कितनों के सींग हिरनों के से थे और कितनोंके टेढ़े-मेढ़े। वे सब गौएँ कपिला तथा मङ्गलकी धाम थीं। वन-वनमें कोमल कमनीय घास खोज खोजकर चरती हुई कोटि-कोटि गौएँ श्रीकृष्णके उभय पार्श्वों में विचरती थीं ॥ २२-२४

 

यमुना का पुण्य- पुलिन तथा उसके निकट श्याम तमालों से सुशोभित वृन्दावन नीप कदम्ब, नीम, अशोक, प्रवाल, कटहल, कदली, कचनार, आम, मनोहर जामुन, बेल, पीपल और कैथ आदि वृक्षों तथा माधवी लताओंसे मण्डित था ॥ २५-२६

 

वसन्त ऋतु के शुभागमन से मनोहर वृन्दावन की दिव्य शोभा हो रही थी। वह देवताओं के नन्दनवन - सा आनन्दप्रद और सर्वतोभद्र वन-सा सब ओरसे मङ्गलकारी जान पड़ता था। उसने (कुबेर के) चैत्ररथ वन की शोभा को तिरस्कृत कर दिया था। वहाँ झरनों और कंदराओं से संयुक्त रत्नधातुमय श्रीमान् गोवर्धन पर्वत शोभा पाता था । वहाँ का वन पारिजात या मन्दार के वृक्षों से व्याप्त था । वह चन्दन, बेर, कदली, देवदार, बरगद, पलास, पाकर, अशोक, अरिष्ट (रीठा), अर्जुन, कदम्ब, पारिजात, पाटल तथा चम्पाके वृक्षोंसे सुशोभित था । श्याम वर्णवाले इन्द्रयव नामक वृक्षोंसे घिरा हुआ वह वन करञ्ज-जालसे विलसित कुञ्जोंसे सम्पन्न था ॥ २७-३०

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से 

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-दूसरा अध्याय..(पोस्ट ०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
द्वितीय स्कन्ध-दूसरा अध्याय..(पोस्ट०२)

भगवान्‌ के स्थूल और सूक्ष्म रूपों की धारणा तथा क्रममुक्ति और सद्योमुक्ति का वर्णन

सत्यां क्षितौ किं कशिपोः प्रयासैः
    बाहौ स्वसिद्धे ह्युपबर्हणैः किम् ।
सत्यञ्जलौ किं पुरुधान्नपात्र्या
    दिग्वल्कलादौ सति किं दुकूलैः ॥ ४ ॥
चीराणि किं पथि न सन्ति दिशन्ति भिक्षां ।
    नैवाङ्‌घ्रिपाः परभृतः सरितोऽप्यशुष्यन् ।
रुद्धा गुहाः किमजितोऽवति नोपसन्नान् ।
    कस्माद् भजंति कवयो धनदुर्मदान्धान् ॥ ५ ॥
एवं स्वचित्ते स्वत एव सिद्ध
    आत्मा प्रियोऽर्थो भगवाननंतः ।
तं निर्वृतो नियतार्थो भजेत
    संसारहेतूपरमश्च यत्र ॥ ६ ॥
कस्तां त्वनादृत्य परानुचिन्ता-
    मृते पशूनसतीं नाम युञ्ज्यात् ।
पश्यञ्जनं पतितं वैतरण्यां
    स्वकर्मजान् परितापाञ्जुषाणम् ॥ ७ ॥

जब जमीन पर सोने से काम चल सकता है, तब पलँगके लिये प्रयत्न करनेसे क्या प्रयोजन। जब भुजाएँ अपनेको भगवान्‌ की कृपासे स्वयं ही मिली हुई हैं, तब तकियोंकी क्या आवश्यकता। जब अञ्जलि से काम चल सकता है, तब बहुत-से बर्तन क्यों बटोरें। वृक्षकी छाल पहनकर या वस्त्रहीन रहकर भी यदि जीवन धारण किया जा सकता है तो वस्त्रोंकी क्या आवश्यकता ॥ ४ ॥ पहननेको क्या रास्तोंमें चिथड़े नहीं हैं ? भूख लगनेपर दूसरोंके लिये ही शरीर धारण करनेवाले वृक्ष क्या फल-फूलकी भिक्षा नहीं देते ? जल चाहनेवालोंके लिये नदियाँ क्या बिलकुल सूख गयी हैं ? रहनेके लिये क्या पहाड़ोंकी गुफाएँ बंद कर दी गयी हैं ? अरे भाई ! सब न सही, क्या भगवान्‌ भी अपने शरणगतोंकी रक्षा नहीं करते ? ऐसी स्थितिमें बुद्धिमान् लोग भी धनके नशेमें चूर घमंडी धनियोंकी चापलूसी क्यों करते हैं ? ॥ ५ ॥ इस प्रकार विरक्त हो जानेपर अपने हृदयमें नित्य विराजमान, स्वत:सिद्ध, आत्मस्वरूप, परम प्रियतम, परम सत्य जो अनन्त भगवान्‌ हैं, बड़े प्रेम और आनन्दसे दृढ़ निश्चय करके उन्हींका भजन करे; क्योंकि उनके भजनसे जन्म-मृत्युके चक्करमें डालनेवाले अज्ञानका नाश हो जाता है ॥ ६ ॥ पशुओंकी बात तो अलग है; परन्तु मनुष्योंमें भला ऐसा कौन है, जो लोगोंको इस संसाररूप वैतरणी नदीमें गिरकर अपने कर्मजन्य दु:खोंको भोगते हुए देखकर भी भगवान्‌का मङ्गलमय चिन्तन नहीं करेगा, इन असत् विषय-भोगोंमें ही अपने चित्तको भटकने देगा ? ॥ ७ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


सोमवार, 8 जुलाई 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) दसवाँ अध्याय ( पोस्ट 02 )

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

दसवाँ अध्याय ( पोस्ट 02 )

 

यशोदाजी की चिन्ता; नन्दद्वारा आश्वासन तथा ब्राह्मणों को विविध प्रकार के दान देना; श्रीबलराम तथा श्रीकृष्ण का गोचारण

 

नन्दराज उवाच -
गर्गवाक्यं त्वया सर्वं विस्मृतं हे यशोमति ।
ब्राह्मणानां वचः सत्यं नासत्यं भवति क्वचित् ॥ ११ ॥
तस्माद्दानं प्रकर्तव्यं सर्वारिष्टनिवारणम् ।
दानात्परं तु कल्याणं न भूतं न भविष्यति ॥ १२ ॥


श्रीनारद उवाच -
तदा यशोदा विप्रेभ्यो नवरत्‍नं महाधनम् ।
स्वालंकारांश्च बालस्य सबलस्य ददौ नृप ॥ १३ ॥
अयुतं वृषभानां च गवां लक्षं मनोहरम् ।
द्विलक्षमन्नभाराणां नन्दो दानं ददौ ततः ॥ १४ ॥

गोपेच्छया रामकृष्णौ गोपालौ तौ बभूवतुः ।
गाश्चारयन्तौ गोपालैः वयस्यैश्चेरतुर्वने ॥ १५ ॥
अग्रे पृष्ठे तदा गावः चरन्त्यः पार्श्वयोर्द्वयोः ।
श्रीकृष्णस्य बलस्यापि पश्यन्त्यः सुंदरं मुखम् ॥ १६ ॥
घंटामंजीरझंकारं कुर्वन्त्यस्ता इतस्ततः ।
किंकिणीजालसंयुक्ता हेममालालसद्‌गलाः ॥ १७ ॥
मुक्तागुच्छैर्बर्हिपिच्छैः लसत्पुच्छाच्छकेसराः ।
स्फुरतां नवरत्‍नानां मालाजालैर्विराजिताः ॥ १८ ॥
शृङ्गयोरन्तरे राजन् शिरोमणिमनोहराः ।
हेमरश्मिप्रभास्फूर्ज्जत् शृङ्गपार्श्वप्रवेष्टनाः ॥ १९ ॥
आरक्ततिलकाः काश्चित्पीतपुच्छारुणांघ्रयः ।
कैलासगिरिसंकाशाः शीलरूपमहागुणाः ॥ २० ॥
सवत्सा मन्दगामिन्य ऊधोभारेण मैथिल ।
कुंडोध्न्यः पाटलाः काश्चित् लक्षन्त्यो भव्यमूर्तयः ॥ २१ ॥

नन्दराज बोले- यशोदे ! क्या तुम गर्गकी कही हुई सारी बातें भूल गयीं ? ब्राह्मणोंकी कही हुई बात सदा सत्य होती है, वह कभी असत्य नहीं होतीं । इसलिये समस्त अरिष्टोंका निवारण करनेके लिये तुम्हें दान करते रहना चाहिये। दानसे बढ़कर कल्याणकारी कृत्य न पहले तो हुआ है और न आगे होगा ही ।। ११-१२ ॥

 

नारदजी कहते हैं— नरेश्वर ! तब यशोदा ने बलराम और श्रीकृष्णके मङ्गल के लिये ब्राह्मणों को बहुमूल्य नवरत्न और अपने अलंकार दिये । नन्दजी ने उस समय दस हजार बैल, एक लाख मनोहर गायें तथा दो लाख भार अन्न दान दिये ।। १३-१४ ॥

 

श्रीनारदजी पुनः कहते हैं- राजन् ! अब गोपोंकी इच्छासे बलराम और श्रीकृष्ण गोपालक हो गये। अपने गोपाल मित्रों के साथ गाय चराते हुए वे दोनों भाई वनमें विचरण करने लगे। उस समय श्रीकृष्ण और बलराम का सुन्दर मुँह निहारती हुई गौएँ उनके आगे-पीछे और अगल-बगल में विचरती रहती थीं ॥ १५-१६

 

उनके गले में क्षुद्रघण्टिकाओं की माला पहिनायी गयी थी। सोनेकी मालाएँ भी उनके कण्ठकी शोभा बढ़ाती थीं। उनके पैरों में घुँघुरू बँधे थे। उनकी पूँछोंके स्वच्छ बालों में लगे हुए मोरपंख और मोतियों के गुच्छे शोभा दे रहे थे । वे घंटों और नूपुरों के मधुर झंकार को फैलाती हुई इधर-उधर चरती थीं । चमकते हुए नूतन रत्नों की मालाओं के समूह से उन समस्त गौओं की बड़ी शोभा होती ॥ १७-१८

 

राजन् ! उन गौओंके दोनों सींगोंके बीचमें सिरपर मणिमय अलंकार धारण कराये गये थे, जिनसे उनकी मनोहरता बढ़ गयी थी। सुवर्ण-रश्मियोंकी प्रभासे उनके सींग तथा पार्श्व-प्रवेष्टन (पीठपरकी झूल) चमकते रहते थे। कुछ गौओं के भाल में किञ्चित् रक्तवर्ण के तिलक लगे थे। उनकी पूँछें पीले रंग से रँगी गयी थीं और पैरोंके खुर अरुणरागसे रञ्जित थे। बहुत-सी गौएँ कैलास पर्वत के समान श्वेतवर्णवाली, सुशीला, सुरूपा तथा अत्यन्त उत्तम गुणों से सम्पन्न थीं। मिथिलेश्वर ! बछड़ेवाली गौएँ अपने स्तनों के भारसे धीरे-धीरे चलती थीं। कितनों के थन घड़ोंके बराबर थे। बहुत-सी गौएँ लाल रंगकी थीं। वे सब की सब भव्य - मूर्ति दिखायी देती थीं ॥ १९-२१

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से 

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-दूसरा अध्याय..(पोस्ट ०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
द्वितीय स्कन्ध-दूसरा अध्याय..(पोस्ट०१)

भगवान्‌ के स्थूल और सूक्ष्म रूपोंकी धारणा 
तथा क्रममुक्ति और सद्योमुक्ति का वर्णन

श्रीशुक उवाच ।

एवं पुरा धारणयाऽऽत्मयोनिः
    नष्टां स्मृतिं प्रत्यवरुध्य तुष्टात् ।
तथा ससर्जेदममोघदृष्टिः
    यथाप्ययात् प्राक् व्यवसायबुद्धिः ॥ १ ॥
शाब्दस्य हि ब्रह्मण एष पन्था
    यन्नामभिर्ध्यायति धीरपार्थैः ।
परिभ्रमन् तत्र न विन्दतेऽर्थान्
    मायामये वासनया शयानः ॥ २ ॥
अतः कविर्नामसु यावदर्थः
    स्याद् अप्रमत्तो व्यवसायबुद्धिः ।
सिद्धेऽन्यथार्थे न यतेत तत्र
    परिश्रमं तत्र समीक्षमाणः ॥ ३ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—सृष्टिके प्रारम्भमें ब्रह्माजीने इसी धारणाके द्वारा प्रसन्न हुए भगवान्‌से वह सृष्टिविषयक स्मृति प्राप्त की थी, जो पहले प्रलयकालमें विलुप्त हो गयी थी। इससे उनकी दृष्टि अमोघ और बुद्धि निश्चयात्मिका हो गयी। तब उन्होंने इस जगत्को वैसे ही रचा जैसा कि यह प्रलयके पहले था ॥ १ ॥
वेदोंकी वर्णन-शैली ही इस प्रकारकी है कि लोगोंकी बुद्धि स्वर्ग आदि निरर्थक नामोंके फेरमें फँस जाती है, जीव वहाँ सुखकी वासनासे स्वप्न-सा देखता हुआ भटकने लगता है; किन्तु उन मायामय लोकोंमें कहीं भी उसे सच्चे सुखकी प्राप्ति नहीं होती ॥ २ ॥ इसलिये विद्वान् पुरुषको चाहिये कि वह विविध नामवाले पदार्थोंसे उतना ही व्यवहार करे, जितना प्रयोजनीय हो। अपनी बुद्धिको उनकी निस्सारताके निश्चयसे परिपूर्ण रखे और एक क्षणके लिये भी असावधान न हो। यदि संसारके पदार्थ प्रारब्धवश बिना परिश्रमके यों ही मिल जायँ, तब उनके उपार्जनका परिश्रम व्यर्थ समझकर उनके लिये कोई प्रयत्न न करे ॥ ३ ॥ 

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


रविवार, 7 जुलाई 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) दसवाँ अध्याय ( पोस्ट 01 )


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

दसवाँ अध्याय ( पोस्ट 01 )

 

यशोदाजी की चिन्ता; नन्दद्वारा आश्वासन तथा ब्राह्मणों को विविध प्रकार के दान देना; श्रीबलराम तथा श्रीकृष्ण का गोचारण

 

श्रीनारद उवाच -
अष्टावक्रस्य शापेन सर्पो भूत्वा ह्यघासुरः ।
तद्‌वरात्परमं मोक्षं गतो देवैश्च दुर्लभम् ॥ १ ॥
वत्साद्‌बकमुखान्मुक्तं ततो मुक्तं ह्यघासुरात् ।
श्रुत्वा कतिदिनैः कृष्णं यशोदाऽभूद्‌भयातुरा ॥ २ ॥
कलावतीं रोहिणीं च गोपीगोपान् वयोऽधिकान् ।
वृषभानुवरं गोपं नन्दराजं व्रजेश्वरम् ॥ ३ ॥
नवोपनन्दान्नन्दाश्च वृषभानून् प्रजेश्वरान् ।
समाहूय तदग्रे च वचः प्राह यशोमती ॥ ४ ॥


यशोदोवाच -
किं करोमि क्व गच्छामि कल्याणं मे कथं भवेत् ।
मत्सुते बहवोऽरिष्टा आगच्छन्ति क्षणे क्षणे ॥ ५ ॥
पूर्वं महावनं त्यक्त्वा वृन्दारण्ये गता वयम् ।
एतत्त्यक्त्वा क्व यास्यामो देशे वदत निर्भये ॥ ६ ॥
चंचलोऽयं बालको मे क्रीडन्दूरे प्रयाति हि ।
बालकाश्चंचलाः सर्वे न मन्यन्ते वचो मम ॥ ७ ॥
बकासुरश्च मे बालं तीक्ष्णतुंडोऽग्रसद्‌बली ।
तस्मान्मुक्तन्तु जग्राहार्भकैर्दीनमघासुरः ॥ ८॥
वत्सासुरस्तज्जिघांसुः सोऽपि दैवेन मारितः ।
वत्सार्थं स्वगृहाद्‌बालं न बहिः कारयाम्यहम् ॥ ९ ॥


श्रीनारद उवाच -
इत्थं वदन्तीं सततं रुदन्तीं
     यशोमतीं वीक्ष्य जगाद नन्दः ।
आश्वासयामासस्गर्गवाक्यैः
     धर्मार्थविद्धर्मभृतां वरिष्ठः ॥ १० ॥

 

नारदजी कहते हैं--अष्टावक्र के श्राप से सर्प होकर अघासुर उन्हीं के वरदान – बल से उस परम मोक्ष को प्राप्त हुआ, जो देवताओं के लिये भी दुर्लभ है । वत्सासुर, वकासुर और फिर अघासुर के मुख से श्रीकृष्ण किसी तरह बच गये हैं और कुछ ही दिनों में उनके ऊपर ये सारे संकट आये हैं- यह सुनकर यशोदा जी भयसे व्याकुल हो उठीं। उन्होंने कलावती, रोहिणी, बड़े-बूढ़े गोप, वृषभानुवर, व्रजेश्वर नन्दराज, नौ नन्द, नौ उपनन्द तथा प्रजाजनों के स्वामी छः वृषभानुओं को बुलाकर उन सब के सामने यह बात कही ॥ १-४ ॥

 

यशोदा बोलीं-- [आप सब लोग बतायें--] मैं क्या करूँ, कहाँ जाऊँ और कैसे मेरा कल्याण हो ? मेरे पुत्रपर तो यहाँ क्षण-क्षणमें बहुत-से अरिष्ट आ रहे हैं। पहले महावन छोड़कर हमलोग वृन्दावनमें आये और अब इसे भी छोड़कर दूसरे किस निर्भय देशमें मैं चली जाऊँ, यह बतानेकी कृपा करें। मेरा यह बालक स्वभावसे ही चपल है। खेलते-खेलते दूरतक चला जाता है । व्रजके दूसरे बालक भी बड़े चञ्चल हैं । वे सब मेरी बात मानते ही नहीं ॥ ५-७

 

तीखी चोंचवाला बलवान् वकासुर पहले मेरे बालकको निगल गया था । उससे छूटा तो इस बेचारेको अघासुरने समस्त ग्वाल-बालोंके साथ अपना ग्रास बना लिया । भगवान्‌की कृपासे किसी तरह उससे भी इसकी रक्षा हुई। इन सबसे पहले वत्सासुर इसकी घातमें लगा था, किंतु वह भी दैवके हाथों मारा गया। अब मैं बछड़े चरानेके लिये अपने बच्चे को घरसे बाहर नहीं जाने दूँगी ।। -९ ॥

 

श्रीनारदजी कहते हैं- इस तरह कहती तथा निरन्तर रोती हुई यशोदाकी ओर देखकर नन्दजी कुछ कहनेको उद्यत हुए। पहले तो धर्म और अर्थके ज्ञाता तथा धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ नन्दने गर्गजीके वचनोंकी याद दिलाकर उन्हें धीरज बँधाया, फिर इस प्रकार कहा-- ॥ १० ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

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श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-पहला अध्याय..(पोस्ट ०८)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
द्वितीय स्कन्ध-पहला अध्याय..(पोस्ट०८)

ध्यान-विधि और भगवान्‌ के विराट् स्वरूप का वर्णन

ब्रह्माननं क्षत्रभुजो महात्मा
    विडूरुरङ्‌घ्रिश्रितकृष्णवर्णः ।
नानाभिधाभीज्यगणोपपन्नो
    द्रव्यात्मकः कर्म वितानयोगः ॥ ३७ ॥
इयान् असौ ईश्वरविग्रहस्य
    यः सन्निवेशः कथितो मया ते ।
सन्धार्यतेऽस्मिन् वपुषि स्थविष्ठे
    मनः स्वबुद्ध्या न यतोऽस्ति किञ्चित् ॥ ३८ ॥
स सर्वधीवृत्त्यनुभूतसर्व
    आत्मा यथा स्वप्नजनेक्षितैकः ।
तं सत्यमानंदनिधिं भजेत
    नान्यत्र सज्जेद्यत आत्मपातः ॥ ३९ ॥

ब्राह्मण मुख, क्षत्रिय भुजाएँ, वैश्य जङ्घाएँ और शूद्र उन विराट् पुरुष के चरण हैं। विविध देवताओंके नामसे जो बड़े-बड़े द्रव्यमय यज्ञ किये जाते हैं, वे उनके कर्म हैं ॥ ३७ ॥ परीक्षित्‌ ! विराट् भगवान्‌ के स्थूलशरीर का यही स्वरूप है, सो मैंने तुम्हें सुना दिया। इसीमें मुमुक्षु पुरुष बुद्धि के द्वारा मन को स्थिर करते हैं; क्योंकि इससे भिन्न और कोई वस्तु नहीं है ॥ ३८ ॥ जैसे स्वप्न देखनेवाला स्वप्नावस्था में अपने-आप को ही विविध पदार्थों के रूप में देखता है, वैसे ही सबकी बुद्धि-वृत्तियों के द्वारा सब कुछ अनुभव करनेवाला सर्वान्तर्यामी परमात्मा भी एक ही है। उन सत्यस्वरूप आनन्दनिधि भगवान्‌ का ही भजन करना चाहिये, अन्य किसी भी वस्तु में आसक्ति नहीं करनी चाहिये। क्योंकि यह आसक्ति जीव के अध:पतनका हेतु है ॥ ३९ ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
द्वितीयस्कंधे प्रथमोऽध्यायः ॥ १ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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शनिवार, 6 जुलाई 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) नवाँ अध्याय ( पोस्ट 07 )


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श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

नवाँ अध्याय ( पोस्ट 07 )

 

ब्रह्माजीके द्वारा भगवान् श्रीकृष्णकी स्तुति

 

अथ कृष्णो वनाच्छीघ्रमानयामास वत्सकान् ।
यत्रापि पुलिने राजन् गोपानां राजमंडली ॥ ५२ ॥
गोपार्भकाश्च श्रीकृष्णं वत्सैः सार्धं समागतम् ।
क्षणार्धं मेनिरे वीक्ष्य कृष्णमायाविमोहिताः ॥ ५३ ॥
त ऊचुर्वत्सकैः कृष्ण त्वरं त्वं तु समागतः ।
कुरुष्व भोजनं चात्र केनापि न कृतं प्रभो ॥ ५४ ॥
ततश्च विहसन् कृष्णोऽभ्यवहृत्यार्भकैः सह ।
दर्शयामास सर्वेभ्यश्चर्माजगरमेव च ॥ ५५ ॥
सायंकाले सरामस्तु कृष्णो गोपैः परावृतः ।
अग्रे कृत्वा वत्सवृन्दं ह्याजगाम शनैर्व्रजम् ॥ ५६ ॥
गोवत्सकैः सितसितासितपीतवर्णै
     रक्तादिधूम्रहरितैर्बहुशीलरूपैः ।
गोपालमण्डलगतं व्रजपालपुत्रं
     वन्दे वनात् सुखदगोष्ठकमाव्रजन्तम् ॥ ५७ ॥
आनन्दो गोपिकानां तु ह्यासीत्कृष्णस्य दर्शने ।
यासां येन विना राजन् क्षणो युगसमोऽभवत् ॥ ५८ ॥
कृत्वा गोष्ठे पृथग्वत्सान् बालाः स्वं स्वं गृहं गताः ।
जगुश्चाघासुरवधमात्मनो रक्षणं हरे ॥ ५९ ॥

 

राजन् ! इसके उपरान्त भगवान् श्रीकृष्ण वनसे शीघ्रतापूर्वक गोवत्स एवं गोप- बालकोंको ले आये और यमुनातटपर जिस स्थान पर गोपमण्डली विराजित थी, उन लोगोंको लेकर उसी

स्थानपर पहुँचे। गोवत्सोंके साथ लौटे हुए श्रीकृष्णको देखकर उनकी माया से विमोहित गोपोंने उतने समयको आधे क्षण जैसा समझा। वे लोग गोवत्सोंके साथ आये हुए श्रीकृष्णसे कहने लगे- 'आप शीघ्रतासे आकर भोजन करें। प्रभो ! आपके चले जानेके कारण किसीने भी भोजन नहीं किया।' इसके उपरान्त श्रीकृष्णने हँसकर बालकोंके साथ भोजन किया और बालकोंको अजगरका चमड़ा दिखाया । तदनन्तर बलरामजीके साथ गोपोंसे घिरे हुए श्रीकृष्ण वत्सवृन्दको आगे करके धीरे-धीरे व्रजको लौट आये ॥ ५२-५६

 

सफेद, चितकबरे, लाल, पीले, धूम्र एवं हरे आदि अनेक रंग और स्वभाववाले गोवत्सोंको आगे करके धीरे-धीरे सुखद वनसे गोष्ठमें लौटते हुए गोपमण्डली- के बीच स्थित नन्दनन्दनकी मैं वन्दना करता हूँ । राजन् ! श्रीकृष्णके विरहमें जिनको क्षणभरका समय युगके समान लगता था, उन्हींके दर्शनसे उन गोपियोंको आनन्द प्राप्त हुआ । बालकोंने अपने-अपने घर जाकर गोष्ठोंमें अलग-अलग बछड़ोंको बाँधकर अघासुर-वध एवं श्रीहरिद्वारा हुई आत्मरक्षाके वृत्तान्तका वर्णन किया ॥ ५७-५९

 

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें श्रीवृन्दावनखण्डके अन्तर्गत 'ब्रह्माजीद्वारा भगवान् श्रीकृष्णकी स्तुति' नामक नवम अध्याय पूरा हुआ ॥ ९ ॥

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-पहला अध्याय..(पोस्ट ०७)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
द्वितीय स्कन्ध-पहला अध्याय..(पोस्ट०७)

ध्यान-विधि और भगवान्‌ के विराट् स्वरूप का वर्णन

ईशस्य केशान्न् विदुरम्बुवाहान्
    वासस्तु सन्ध्यां कुरुवर्य भूम्नः ।
अव्यक्तमाहुः हृदयं मनश्च
    स चन्द्रमाः सर्वविकारकोशः ॥ ३४ ॥
विज्ञानशक्तिं महिमामनन्ति
    सर्वात्मनोऽन्तःकरणं गिरित्रम् ।
अश्वाश्वतर्युष्ट्रगजा नखानि
    सर्वे मृगाः पशवः श्रोणिदेशे ॥ ३५ ॥
वयांसि तद् व्याकरणं विचित्रं
    मनुर्मनीषा मनुनो निवासः ।
गंधर्वविद्याधरचारणाप्सरः
    स्वरस्मृतीः असुरानीकवीर्यः ॥ ३६ ॥

परीक्षित्‌ ! बादलोंको उनके केश मानते हैं। सन्ध्या उन अनन्त का वस्त्र है। महात्माओंने अव्यक्त (मूलप्रकृति) को ही उनका हृदय बतलाया है और सब विकारोंका खजाना उनका मन चन्द्रमा कहा गया है ॥ ३४ ॥ महत्तत्त्वको सर्वात्मा भगवान्‌ का चित्त कहते हैं और रुद्र उनके अहंकार कहे गये हैं। घोड़े, खच्चर, ऊँट और हाथी उनके नख हैं। वनमें रहनेवाले सारे मृग और पशु उनके कटिप्रदेशमें स्थित हैं ॥ ३५ ॥ तरह-तरहके पक्षी उनके अद्भुत रचना-कौशल हैं। स्वायम्भुव मनु उनकी बुद्धि हैं और मनुकी सन्तान मनुष्य उनके निवासस्थान हैं। गन्धर्व, विद्याधर, चारण और अप्सराएँ उनके षड्ज आदि स्वरोंकी स्मृति हैं। दैत्य उनके वीर्य हैं ॥ ३६ ॥ 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट०१) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन श्र...