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शुक्रवार, 26 जुलाई 2024
श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-चौथा अध्याय..(पोस्ट ०१)
गुरुवार, 25 जुलाई 2024
श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) पंद्रहवाँ अध्याय ( पोस्ट 04 )
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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(
श्रीवृन्दावनखण्ड )
पंद्रहवाँ
अध्याय ( पोस्ट 04 )
श्रीराधाका गवाक्षमार्गसे
श्रीकृष्णके रूपका दर्शन करके प्रेम-विह्वल होना; ललिताका श्रीकृष्णसे राधाकी दशाका
वर्णन करना और उनकी आज्ञाके अनुसार लौटकर श्रीराधा को श्रीकृष्ण-प्रीत्यर्थ
सत्कर्म करनेकी प्रेरणा देना
श्रीभगवानुवाच -
सर्वं हि भावं मनसः परस्परं
नह्येकतो भामिनि जायते तअतः ।
प्रेमैव कर्तव्यमतो मयि स्वतः
प्रेम्णा समानं भुवि नास्ति किंचित्
॥ ३० ॥
यथा हि भाण्डीरवने मनोरथो
बभूव तस्या हि तथा भविष्यति ।
अहैतुकं प्रेम च सद्भिराश्रितं
तच्चापि सन्तः किल निर्गुणं विदुः ॥
३१ ॥
ये राधिकायां मयि केशवे मनाक्
भेदं न पश्यन्ति हि दुग्धशौक्लवत् ।
त एव मे ब्रह्मपदं प्रयान्ति
तदहैतुकस्फूर्जितभक्तिलक्षणाः ॥ ३२ ॥
ये राधिकायां मयि केशवे हरौ
कुर्वन्ति भेदं कुधियो जना भुवि ।
ते कालसूत्रं प्रपतन्ति दुःखिता
रम्भोरु यावत्किल चंद्रभास्करौ ॥ ३३ ॥
श्रीनारद उवाच -
इत्थं श्रुत्वा वचः कृत्स्नं नत्वा तं ललिता सखी ।
राधां समेत्य रहसि प्राह प्रहसितानना ॥ ३४ ॥
ललितोवाच -
त्वमिच्छसि यथा कृष्णं तथा त्वां मधुसूदनः ।
युवयोर्भेदरहितं तेजस्त्वैकं द्विधा जनैः ॥ ३५ ॥
तथापि देवि कृष्णाय कर्म निष्कारणं कुरु ।
येन ते वांछितं भूयाद्भक्त्या परमया सति ॥ ३६ ॥
श्रीनारद उवाच -
इति श्रुत्वा सखीवाक्यं राधा रासेश्वरी नृप ।
चंद्राननां प्राह सखीं सर्वधर्मविदां वराम् ॥ ३७ ॥
श्रीकृष्णस्य प्रसन्नार्थं परं सौभाग्यवर्धनम् ।
महापुण्यं वांछितदं पूजनं वद कस्यचित् ॥ ३८ ॥
त्वया भद्रे धर्मशास्त्रं गर्गाचार्यमुखाच्छ्रुतम् ।
तस्माद्व्रतं पूजनं वा ब्रूहि मह्यं महामते ॥ ३९ ॥
श्रीभगवान् ने कहा- भामिनि ! मन का सारा भाव स्वतः एकमात्र
मुझ परात्पर पुरुषोत्तम की ओर नहीं प्रवाहित होता; अतः सबको अपनी
ओरसे मेरे प्रति प्रेम ही करना चाहिये। इस भूतलपर प्रेमके समान दूसरा कोई साधन नहीं
है (मैं प्रेमसे ही सुलभ होता हूँ) । भाण्डीरवनमें श्रीराधाके हृदयमें जैसे मनोरथका
उदय हुआ था, वह उसी रूपमें पूर्ण होगा। सत्पुरुष अहैतुक प्रेमका आश्रय लेते हैं। संत,
महात्मा उस निर्हेतुक प्रेमको निश्चय ही निर्गुण (तीनों गुणोंसे अतीत) मानते हैं ॥
३० - ३१ ॥
जो
मुझ
केशवमें और श्रीराधिकामें थोड़ा-सा भी भेद नहीं देखते, बल्कि दूध और उसकी शुक्लताके
समान हम दोनोंको सर्वथा अभिन्न मानते हैं, उन्होंके अन्तःकरणमें अहैतुकी भक्तिके लक्षण
प्रकट होते हैं तथा वे ही मेरे ब्रह्मपद (गोलोकधाम) में प्रवेश पाते हैं। रम्भोरु
! इस भूतलपर जो कुबुद्धि मानव मुझ केशव हरिमें तथा श्रीराधिकामें भेदभाव रखते हैं,
वे जबतक चन्द्रमा और सूर्यकी सत्ता है, तबतक निश्चय ही कालसूत्र नामक नरकमें पड़कर
दुःख भोगते हैं ॥ ३२ - ३३ ॥
नारदजी कहते हैं- राजन्
! श्रीकृष्णकी यह सारी बात सुनकर ललिता सखी उन्हें प्रणाम करके श्रीराधाके पास गयी
और एकान्तमें बोली । बोलते समय उसके मुखपर मधुर हासकी छटा छा रही थी ॥ ३४ ॥
ललिताने कहा- सखी! जैसे
तुम श्रीकृष्णको चाहती हो, उसी तरह वे मधुसूदन श्रीकृष्ण भी तुम्हारी अभिलाषा रखते
हैं । तुम दोनों का तेज भेद-भावसे रहित, एक है । लोग अज्ञानवश
ही उसे दो मानते हैं। तथापि सती-साध्वी देवि! तुम श्रीकृष्णके लिये निष्काम कर्म करो,
जिससे पराभक्तिके द्वारा तुम्हारा मनोरथ पूर्ण हो । ।। ३५-३६ ।।
नारदजी कहते हैं-नरेश्वर
! ललिता सखीकी यह बात सुनकर रासेश्वरी श्रीराधाने सम्पूर्ण धर्म- वेत्ताओंमें श्रेष्ठ
चन्द्रानना सखीसे कहा ॥ ३७ ॥
श्रीराधा बोलीं- सखी!
तुम श्रीकृष्णकी प्रसन्नताके लिये किसी देवताकी ऐसी पूजा बताओ, जो परम सौभाग्यवर्द्धक,
महान् पुण्यजनक तथा मनोवाञ्छित वस्तु देनेवाली हो । भद्रे ! महामते ! तुमने गर्गाचार्यजीके
मुखसे शास्त्रचर्चा सुनी है। इसलिये तुम मुझे कोई व्रत या पूजन बताओ ॥ ३८-३९ ॥
इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें
वृन्दावनखण्डके अन्तर्गत 'श्रीराधाकृष्णके प्रेमोद्योगका वर्णन' नामक पंद्रहवाँ अध्याय
पूरा हुआ ।। १५ ।।
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-तीसरा अध्याय..(पोस्ट ०६)
बुधवार, 24 जुलाई 2024
श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) पंद्रहवाँ अध्याय ( पोस्ट 03 )
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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(
श्रीवृन्दावनखण्ड )
पंद्रहवाँ
अध्याय ( पोस्ट 03 )
श्रीराधाका गवाक्षमार्गसे
श्रीकृष्णके रूपका दर्शन करके प्रेम-विह्वल होना; ललिताका श्रीकृष्णसे राधाकी दशाका
वर्णन करना और उनकी आज्ञाके अनुसार लौटकर श्रीराधाको श्रीकृष्ण-प्रीत्यर्थ सत्कर्म
करनेकी प्रेरणा देना
श्रीनारद
उवाच -
इति श्रुत्वा वचस्तस्या ललिता भयविह्वला ।
श्रीकृष्णपार्श्वं प्रययौ कृष्णातीरे मनोहरे ॥ २३ ॥
माधवीजालसंयुक्ते मधुरध्वनिसंकुले ।
कदम्बमूले रहसि प्राह चैकाकिनं हरिम् ॥ २४ ॥
ललितोवाच -
यस्मिन् दिने च ते रूपं राधया दृष्टमद्भुतम् ।
तद्दीनात्स्तंभतां प्राप्ता पुत्रिकेव न वक्ति किम् ॥ २५ ॥
अलंकारस्त्वर्चिरिव वस्त्रं भर्जरजो यथा ।
सुगंधि कटुवद्यस्या मन्दिरं निर्जनं वनम् ॥ २६ ॥
पुष्पं बाणं चंद्रबिंबं विषकंदमवेहि भोः ।
तस्यै संदर्शनं देहि राधायै दुःखनाशनम् ॥ २७ ॥
ते साक्षिणं किं विदितं न भूतले
सृजस्यलं पासि हरस्यथो जगत् ।
यदा समानोऽसि जनेषु सर्वतः
तथापि भक्तान् भजसे परेश्वर ॥ २८ ॥
श्रीनारद उवाच -
इति श्रुत्वा हरिः साक्षाल्ललितं ललितावचः ।
उवाच भगवान् देवो मेघगंभीरया गिरा ॥ २९ ॥
नारदजी कहते हैं - मिथिलेश्वर
! श्रीराधाकी यह बात सुनकर ललिता भयसे विह्वल हो, यमुनाके मनोहर तटपर श्रीकृष्णके पास
गयी। वे माधवीलताके जालसे आच्छन्न और भ्रमरोंकी गुंजारोंसे व्याप्त एकान्त प्रदेशमें
कदम्बकी जड़के पास अकेले बैठे थे। वहाँ ललिताने श्रीहरि से कहा
॥ २३-२४ ॥
ललिता बोली - श्यामसुन्दर
! जिस दिनसे श्रीराधाने तुम्हारे अद्भुत मोहनरूपको देखा है, उसी दिनसे वह स्तम्भनरूप
सात्त्विकभावके अधीन हो गयी है। काठ की पुतली की
भाँति किसीसे कुछ बोलती नहीं। अलंकार उसे अग्नि की ज्वालाकी भाँति
दाहक प्रतीत होते हैं। सुन्दर वस्त्र भाड़की तपी हुई बालूके समान जान पड़ते हैं। उसके
लिये हर प्रकारकी सुगन्ध कड़वी तथा परिचारिकाओंसे भरा हुआ भवन भी निर्जन वन हो गया
है। हे प्यारे ! तुम यह जान लो कि तुम्हारे विरह में मेरी सखी को फूल बाण-सा तथा चन्द्र-बिम्ब विषकंद-सा प्रतीत होता है। अतः श्रीराधा को तुम शीघ्र दर्शन दो। तुम्हारा दर्शन ही उसके दुःखों को दूर कर सकता है ॥२५ - २७॥
तुम सबके साक्षी हो | भूतलपर कौन-सी ऐसी बात है, जो तुम्हें विदित न हो। तुम्हीं इस
जगत् की सृष्टि, पालन और संहार करते हो। यद्यपि परमेश्वर होनेके कारण तुम सब लोगोंके
प्रति समानभाव रखते हो, तथापि अपने भक्तोंका भजन करते हो (उनके प्रति अधिक प्रेम- भाव
रखते हो ) ॥२८॥
नारदजी कहते हैं— राजन् ! ललिताकी यह ललित, बात सुनकर व्रजके साक्षात् देवता भगवान्
श्रीकृष्ण मेघगर्जनके समान गम्भीर वाणीमें बोले ॥ २९ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-तीसरा अध्याय..(पोस्ट ०५)
मंगलवार, 23 जुलाई 2024
श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) पंद्रहवाँ अध्याय ( पोस्ट 02 )
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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(
श्रीवृन्दावनखण्ड )
पंद्रहवाँ
अध्याय ( पोस्ट 02 )
श्रीराधाका गवाक्षमार्गसे
श्रीकृष्णके रूपका दर्शन करके प्रेम-विह्वल होना; ललिताका श्रीकृष्णसे राधाकी दशाका
वर्णन करना और उनकी आज्ञाके अनुसार लौटकर श्रीराधाको श्रीकृष्ण-प्रीत्यर्थ सत्कर्म
करनेकी प्रेरणा देना
श्रीनारद
उवाच -
अथ सख्यौ व्यलिखतां चित्रं नंदशिशोः शुभम् ।
नवयौवनमाधुर्यं राधायै ददतुस्त्वरम् ॥ १२ ॥
तद्दृष्ट्वा हर्षिता राधा कृष्णदर्शनलालसा ।
चित्रं करे प्रपश्यन्ती सुष्वापानंदसंकुला ॥ १३ ॥
ददर्श कृष्णं भवने शयाना
नृत्यन्तमाराद्वृषभानुपुत्री ॥ १४ ॥
तदैव राधा शयनात्समुत्थिता
परस्य कृष्णस्य वियोगविह्वला ।
संचिन्तयन्ती कमनीयरूपिणं
मेने त्रिलोकीं तृणवद्विदेहराट् ॥
१५ ॥
तर्ह्याव्रजन्तं स्ववनाद्व्रजेश्वरं
संकोचवीथ्यां वृषाभानुपत्तने ।
गवाक्षमेत्याशु सखीप्रदर्शितं
दृष्ट्वा तु मूर्च्छां समवाप सुंदरी
॥ १६ ॥
कृष्णोऽपि दृष्ट्वा वृषभानुनन्दिनीं
सुरूपकौशल्ययुतां गुणाश्रयाम् ।
कुर्वन्मनो रन्तुमतीव माधवो
लीलातनुः स प्रययौ स्वमन्दिरम् ॥ १७
॥
एवं ततः कृष्णवियोगविह्वलां
प्रभूतकामज्वरखिन्नमानसाम् ।
संवीक्ष्य राधां वृषभानुनन्दिनीं
उवाच वाचं ललिता सखी वरा ॥ १८ ॥
ललितोवाच -
कथं त्वं विह्वला राधे मूर्च्छिताऽतिव्यथां गता ।
यदीच्छसि हरिं सुभ्रु तस्मिन् स्नेहं दृढं कुरु ॥ १९ ॥
लोकस्यापि सुखं सर्वमधिकृत्यास्ति सांप्रतम् ।
दुःखाग्निहृत्प्रदहति कुंभकाराग्निवत् शुभे ॥ २० ॥
श्रीनारद उवाच -
ललितायाश्च ललितं वचं श्रुत्वा व्रजेश्वरी ।
नेत्रे उन्मील्य ललितां प्राह गद्गदया गिरा ॥ २१ ॥
राधोवाच -
व्रजालंकारचरणौ न प्राप्तौ यदि मे किल ।
कदचिद्विग्रहं तर्हि न हि स्वं धारयाम्यहम् ॥ २२ ॥
नारदजी कहते हैं- तब
दोनों सखियों ने नन्द- नन्दन का सुन्दर
चित्र बनाया, जिसमें नूतन यौवन का माधुर्य भरा था। वह चित्र उन्होंने
तुरंत श्रीराधाके हाथमें दिया । वह चित्र देखकर श्रीराधा हर्षसे खिल उठीं और उनके हृदयमें
श्रीकृष्णदर्शनकी लालसा जाग उठी । हाथमें रखे हुए चित्रको निहारती हुई वे आनन्दमग्न
होकर सो गयीं । भवनमें सोती हुई श्रीराधाने स्वप्न में देखा – 'यमुनाके 'यमुनाके किनारे भाण्डीरवनके एक देशमें नीलमेघकी-सी
कान्तिवाले पीतपटधारी श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण मेरे निकट ही नृत्य कर रहे हैं ॥ १२-१४ ॥
' विदेहराज ! उसी समय
श्रीराधाकी नींद टूट गयी और वे शय्यासे उठकर, परमात्मा श्रीकृष्णके वियोगसे विह्वल
हो, उन्हींके कमनीय रूपका चिन्तन करती हुई त्रिलोकीको तृणवत् मानने लगीं। इतने में
ही व्रजेश श्रीनन्दनन्दन अपने भवनसे चलकर वृषभानुनगरकी साँकरी गलीमें आ गये। सखीने
तत्काल खिड़कीके पास आकर श्रीराधाको उनका दर्शन कराया। उन्हें देखते ही सुन्दरी श्रीराधा
मूच्छित हो गयीं ॥ १५-१६ ॥ लीलासे मानव शरीर धारण करनेवाले माधव
श्रीकृष्ण भी सुन्दर रूप और वैदग्ध्यसे युक्त गुणनिधि श्रीवृषभानुनन्दिनी का दर्शन करके मन-ही- मन उनके साथ विहार की अत्यधिक
कामना करते हुए अपने भवनको लौटे। वृषभानुनन्दिनी श्रीराधाको इस प्रकार श्रीकृष्ण-वियोगसे
विह्वल तथा अतिशय कामज्वरसे संतप्तचित्त देखकर सखियों में श्रेष्ठ ललिताने उनसे इस
प्रकार कहा । १७ – १८ ॥
ललिताने पूछा- राधे
! तुम क्यों इतनी विह्वल मूच्छित (बेसुध) और अत्यन्त व्यथित हो ? सुन्दरी ! यदि श्रीहरिको
प्राप्त करना चाहती हो तो उनके प्रति अपना स्नेह दृढ़ करो। वे इस समय त्रिलोकीके भी
सम्पूर्ण सुखपर अधिकार किये बैठे हैं। शुभे । वे ही दुःखानिकी ज्वालाको बुझा सकते हैं।
उनकी उपेक्षा पैरोंसे ठुकरायी हुई कुम्हारके आँवेंकी अग्निके समान दाहक होगी । १९-२०
॥
नारदजी कहते हैं- राजन्
! ललिताकी यह ललित बात सुनकर व्रजेश्वरी श्रीराधाने आँखें खोलीं और अपनी उस प्रिय सखीसे
वे गद्गद वाणीमें यों बोलीं ॥ २१ ॥
राधाने कहा- सखी! यदि
मुझे व्रजभूषण श्यामसुन्दरके चरणारविन्द नहीं प्राप्त हुए तो मैं कदापि अपने शरीरको
नहीं धारण करूंगी - यह मेरा निश्चय है ।। २२ ।
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-तीसरा अध्याय..(पोस्ट ०४)
सोमवार, 22 जुलाई 2024
श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) पंद्रहवाँ अध्याय ( पोस्ट 01 )
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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(
श्रीवृन्दावनखण्ड )
पंद्रहवाँ
अध्याय ( पोस्ट 01 )
श्रीराधाका गवाक्षमार्गसे
श्रीकृष्णके रूपका दर्शन करके प्रेम-विह्वल होना; ललिताका श्रीकृष्णसे राधाकी दशाका
वर्णन करना और उनकी आज्ञाके अनुसार लौटकर श्रीराधाको श्रीकृष्ण-प्रीत्यर्थ सत्कर्म
करनेकी प्रेरणा देना
नारद उवाच
इदं मया ते कथितं कालियस्यापि मर्दनम्
।
श्रीकृष्णचरितं पुण्यं कि भूयः
श्रोतुमिच्छसि ॥ १
बहुलाश्व उवाच
श्रीकृष्णस्य कथां श्रुत्वा
भक्तस्तुतिं न याति हि ।
यथामरः सुधां पीत्वा यथालिः
पद्मकर्णिकाम् ॥ २
रासं कृत्वा हरौ जाते शिशुरूपे
महात्मनि ।
भाण्डीरे देववागाह श्रीराधां
खिन्नमानसाम् ॥ ३
शोचं मा कुरु कल्याणि वृन्दारण्ये
मनोहरे ।
मनोरथस्ते भविता श्रीकृष्णेन महात्मना
॥ ४
इत्थं देवगिरा प्रोक्तो मनोरथमहार्णवः
।
कथं बभूव भगवान् वृन्दारण्ये मनोहरे ॥
५
कथं श्रीराधया सार्द्ध रासक्रीड़ां
मनोहराम्.
चकार वृन्दारण्ये परिपूर्णतमः स्वयम्
॥ ६
नारद उवाच
साधु पृष्ट त्वया राजन् भगवच्चरितं
शुभम् ।
गुप्तं वदामि देवैश्च लीलाख्यानं
मनोहरम् ॥ ७
एकदा मुख्यसख्यौ द्वे विशाखाललिते
शुभे ।
वृषभानोगृ हैं प्राप्य राधां जगद्तू
रहः ॥ ८
सख्यावूचतुः ।
यं चिन्तयसि राधे त्वं यद्गुणं वदसि
स्वतः ।
सोऽपि नित्यं समायाति
वृषभानुपुरेऽर्भकैः ॥ ६
प्रेक्षणीयस्त्वया राधे
दर्शनीयोऽतिसुन्दरः ।
पश्चिमायां निशीथिन्यां
गोचारणविनिर्गतः ॥ १०
राधोवाच
लिखित्वा तस्य चित्रं हि दर्शयाशु
मनाहरम् |
तहि तत्प्रेक्षणं पश्चात् करिष्यामि न
संशयः ॥ ११
नारदजी कहते हैं— राजन् ! यह मैंने तुमसे कालिय-मर्दनरूप
पवित्र श्रीकृष्ण चरित्र कहा । अब और क्या सुनना चाहते हो ? ॥ १ ॥
बहुलाश्व बोले- देवर्षे ! जैसे देवता अमृत पीकर तथा
भ्रमर कमल-कर्णिकाका रस लेकर तृप्त नहीं होते, उसी प्रकार श्रीकृष्णकी कथा सुनकर कोई
भी भक्त तृप्त नहीं होता (वह उसे अधिकाधिक सुनना चाहता है) । जब शिशुरूपधारी परमात्मा
श्रीकृष्ण रास करनेके लिये भाण्डीरवनमें गये और उनका यह लघुरूप देखकर श्रीराधा मन-ही-मन
खेद करने लगीं, तब देववाणीने कहा- 'कल्याणि ! सोच न करो। मनोहर वृन्दावनमें महात्मा
श्रीकृष्णके द्वारा तुम्हारा मनोरथ पूर्ण होगा।' देववाणीद्वारा इस प्रकार कहा गया वह
मनोरथका महासागर किस तरह पूर्ण हुआ और उस मनोहर वृन्दावनमें भगवान् श्रीकृष्ण किस रूपमें
प्रकट हुए? उस वृन्दा - विपिनमें साक्षात् परिपूर्णतम भगवान्ने श्रीराधाके साथ मनोहर
रास- क्रीड़ा किस प्रकार की ? ॥ २-६ ॥
नारदजीने कहा- राजन् ! तुमने बहुत अच्छा प्रश्न किया।
मैं उस मङ्गलमय भगवच्चरित्रका, उस मनोहर लीलाख्यानका, जो देवताओंको भी पूर्णतया ज्ञात
नहीं है, वर्णन करता हूँ । एक दिनकी बात है, श्रीराधाकी दो प्रधान सखियाँ, शुभस्वरूपा
ललिता और विशाखा, वृषभानुके घर पहुँचकर एकान्तमें श्रीराधासे मिलीं ॥ ७-८ ॥
सखियाँ बोलीं- राधे ! तुम जिनका चिन्तन करती हो और
स्वतः जिनके गुण गाती रहती हो, वे भी प्रतिदिन ग्वाल-बालोंके साथ वृषभानुपुरमें आते
हैं। राधे ! तुम्हें रातके पिछले पहरमें, जब वे गो-चारणके लिये निकलते हैं, उनका दर्शन
करना चाहिये । वे बड़े सुन्दर हैं ।।९-१०॥
राधा बोलीं- पहले उनका मनोहर चित्र बनाकर तुम शीघ्र
मुझे दिखाओ, उसके बाद मैं उनका दर्शन करूँगी — इसमें संशय नहीं है ॥ ११ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-तीसरा अध्याय..(पोस्ट ०३)
रविवार, 21 जुलाई 2024
श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) चौदहवाँ अध्याय ( पोस्ट 02 )
श्रीगर्ग-संहिता
( श्रीवृन्दावनखण्ड
)
चौदहवाँ अध्याय ( पोस्ट
02 )
कालिय का गरुड के भय से बचने के लिये
यमुना-जल में निवास का रहस्य
कालिय उवाच -
हेभूमिभर्तर्भुवनेश भूमन्
भूभारहृत्त्वं ह्यसि भूरिलीलः ।
मां पाहि पाहि प्रभविष्णुपूर्णः
परात्परस्त्वं पुरुषः पुराणः ॥ २२ ॥
श्रीनारद
उवाच -
दीनं भयातुरं दृष्ट्वा कालियं श्रीफणीश्वरः ।
वाचा मधुरया प्रीणन् प्राह देवोजनार्दनः ॥ २३ ॥
शेष उवाच -
हे कालिय महाबुद्धे श्रृणु मे परमं वचः ।
कुत्रापि न हि ते रक्षा भविष्यति न संशयः ॥ २४ ॥
आसीत्पुरा मुनिः सिद्धः सौभरिर्नाम नामतः ।
वृन्दारण्ये तपस्तप्तो वर्षाणामयुतं जले ॥ २५ ॥
मीनराजविहारं यो वीक्ष्य गेहस्पृहोऽभवत् ।
स उवाह महाबुद्धिः मांधातुस्तनुजाशतम् ॥ २६ ॥
तस्मै ददौ हरिः साक्षात् परां भागवतीं श्रियम् ।
वीक्ष्य तां नृप मांधाता विस्मितोऽभूद्गतस्मयः ॥ २७ ॥
यमुनांतर्जले दीर्घं सौभरेस्तपतस्तपः ।
पश्यतस्तस्य गरुडो मीनराजं जघान ह ॥ २८ ॥
मीनान्सुदुःखितान् दृष्ट्वा दुःसहा दीनवत्सलः ।
तस्मिन् शापौ ददौ क्रुद्धः सौभरिर्मुनिसत्तमः ॥ २९ ॥
सौभरिरुवाच -
मीनानद्यतनाद् अत्र यद्यत्सि त्वं बलाद्विराट् ।
तदैव र्पाणनाशस्ते भूयान्मे शापतस्त्वरम् ॥ ३० ॥
शेष उवाच -
तद्दिनात्तत्र नायाति गरुडः शापविह्वलः ।
तस्मात् कालिय गच्छाशु वृंदारण्ये हरेर्वने ॥ ३१ ॥
कालिंद्यां च निजं वासं कुरु मद्वाक्यनोदितः ।
निर्भयस्ते भयं तार्क्ष्यान् न भविष्यति कर्हिचित् ॥ ३२ ॥
श्रीनारद उवाच -
इत्युक्तः कालियो भीतः सकलत्रः सपुत्रकः ।
कालिंद्यां वासकृद् राजन् श्रीकृष्णेन विवासितः ॥ ३३ ॥
कालिय ने कहा - भूमिभर्ता भुवनेश्वर
! भूमन् ! भूमि-भारहारी प्रभो ! आपकी लीलाएँ अपार हैं, आप सर्वसमर्थ पूर्ण परात्पर
पुराणपुरुष हैं; मेरी रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये ॥ २२ ॥
नारदजी
कहते हैं—कालियको दीन और भयातुर देख फणीश्वरदेव जनार्दनने मधुर वाणीसे उसको प्रसन्न
करते हुए कहा ।। २३ ।।
शेष
बोले- महामते कालिय ! मेरी उत्तम बात सुनो। इसमें संदेह नहीं कि संसारमें कहीं भी तुम्हारी
रक्षा नहीं होगी। (रक्षाका एक ही उपाय है; उसे बताता हूँ, सुनो — ) पूर्वकालमें सौभरि
नामसे प्रसिद्ध एक सिद्ध मुनि थे । उन्होंने वृन्दावन में यमुनाके
जलमें रहकर दस हजार वर्षोंतक तपस्या की ॥ २४-२५ ॥
उस
जलमें मीनराजका विहार देखकर उनके मनमें भी घर बसानेकी इच्छा हुई। तब उन महाबुद्धि महर्षिने
राजा मान्धाताकी सौ पुत्रियोंके साथ विवाह किया। श्रीहरिने उन्हें परम ऐश्वर्यशालिनी
वैष्णवी सम्पत्ति प्रदान की, जिसे देखकर राजा मान्धाता आश्चर्यचकित हो गये और उनका
धनविषयक सारा अभिमान जाता रहा ॥ २६-२७ ॥
यमुनाके
जल में जब सौभरि मुनिकी दीर्घकालिक तपस्या चल रही थी, उन्हीं
दिनों उनके देखते-देखते गरुड ने मीनराज को
मार डाला। मीन- परिवा रको अत्यन्त दुःखी देखकर दूसरों का दुःख दूर करनेवाले दीनवत्सल मुनिश्रेष्ठ सौभरि ने
कुपित हो गरुड को शाप दे दिया ॥ २८-२९ ॥
सौभरि बोले-पक्षिराज
! आजके दिन से लेकर भविष्य में यदि तुम
इस कुण्डके भीतर बलपूर्वक मछलियों को खाओगे तो मेरे शापसे उसी क्षण तुरंत तुम्हारे प्राणों का अन्त हो जायगा ॥ ३० ॥
शेषजी
कहते हैं—उस दिनसे मुनिके शापसे भयभीत हुए गरुड वहाँ कभी नहीं आते। इसलिये कालिय !
तुम मेरे कहनेसे शीघ्र ही श्रीहरिके विपिन - वृन्दावनमें चले जाओ। वहाँ यमुनामें निर्भय
होकर अपना निवास नियत कर लो। वहाँ कभी तुम्हें गरुड से भय नहीं
होगा ।। ३१-३२ ॥
नारदजी कहते हैं— राजन्
! शेषनागके यों कहनेपर भयभीत कालिय अपने स्त्री- बालकोंके साथ कालिन्दी में निवास करने लगा। फिर श्रीकृष्ण ने ही उसे
यमुनाजल से निकालकर बाहर भेजा ॥ ३३ ॥
इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें
वृन्दावनखण्डके अन्तर्गत 'कालियके उपाख्यानका वर्णन' नामक चौदहवाँ अध्याय पूरा हुआ
॥ १४ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट०२)
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट०२) विदुरजी का प्रश्न और मैत्रेयजी का सृष्टिक्रम ...
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सच्चिदानन्द रूपाय विश्वोत्पत्यादि हेतवे | तापत्रय विनाशाय श्री कृष्णाय वयं नुमः श्रीमद्भागवत अत्यन्त गोपनीय — रहस्यात्मक पुरा...
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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण एकादश स्कन्ध— पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०२) भक्तिहीन पुरुषों की गति और भगवान् की पूजाविधि ...
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हम लोगों को भगवान की चर्चा व संकीर्तन अधिक से अधिक करना चाहिए क्योंकि भगवान् वहीं निवास करते हैं जहाँ उनका संकीर्तन होता है | स्वयं भगवान...
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||ॐश्रीपरमात्मने नम:|| प्रश्नोत्तरी (स्वामी श्रीशंकराचार्यरचित ‘मणिरत्नमाला’) वक्तव्य श्रीस्वामी शंकराचार्य जी ...
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|| ॐ नमो भगवते वासुदेवाय || “ सदा सेव्या सदा सेव्या श्रीमद्भागवती कथा | यस्या: श्रवणमात्रेण हरिश्चित्तं समाश्रयेत् ||” श्रीमद्भाग...
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निगमकल्पतरोर्गलितं फलं , शुकमुखादमृतद्रवसंयुतम् | पिबत भागवतं रसमालयं , मुहुरहो रसिका भुवि भावुकाः || महामुनि व्यासदेव के द्वारा न...
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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०२) समुद्रसे अमृतका प्रकट होना और भगवान्...
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☼ श्रीदुर्गादेव्यै नम: ☼ क्षमा-प्रार्थना अपराध सहस्राणि क्रियन्तेऽहर्निशं मया । दासोऽयमिति मां मत्वा क्षमस्व परमेश्वरी ।। 1...
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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण श्रीमद्भागवतमाहात्म्यम्- पहला अध्याय परीक्षित् और वज्रनाभ का समागम , शाण्डिल...
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शिवसंकल्पसूक्त ( कल्याणसूक्त ) [ मनुष्यशरीर में प्रत्येक इन्द्रियका अपना विशिष्ट महत्त्व है , परंतु मनका महत्त्व सर्वोपरि है ; क्यो...