रविवार, 18 अगस्त 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) तेईसवाँ अध्याय (पोस्ट 03)

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

तेईसवाँ अध्याय (पोस्ट 03)

 

कंस और शङ्खचूड में युद्ध तथा मैत्री का वृत्तान्त; श्रीकृष्णद्वारा शङ्खचूड का वध

 

बहुलाश्व उवाच -
किं बभूव ततो रासे शंखचूडे समागते ।
एतन्मे भ्रूहि विप्रेंद्र त्वं परावरवित्तमः ॥ ३२ ॥


श्रीनारद उवाच -
व्याघ्राननं कृष्णवर्णं तालवृक्षदशोच्छ्रितम् ।
भयंकरं ललज्जिह्वं दृष्ट्वा गोप्योऽतितत्रसुः ॥ ३३ ॥
दुद्रुवुः सर्वतो गोप्यो महान् कोलाहलोऽभवत् ।
हाहाकारस्तदैवासीह् शंखचूडे समागते ॥ ३४ ॥
शतचंद्राननां गोपीं गृहीत्वा यक्षराट् खलः ।
दुद्रावाशूत्तरामाशां निःशंकः कामपीडितः ॥ ३५ ॥
रुदन्तीं कृष्ण कृष्णेति क्रोशन्तीं भयविह्वलाम् ।
तमन्वधावच्छ्रीकृष्णः शालहस्तो रुषा भृशम् ॥ ३६ ॥
यक्षो वीक्ष्य तमायान्तं कृतान्तमिव दुर्जयम् ।
गोपीं त्यक्त्वा जीवितेच्छुः प्राद्रवद्‌भयविह्वहः ॥ ३७ ॥
यत्र यत्र गतो धावन् शंखचूडो महाखलः ।
तत्र तत्र गतः कृष्णः शालहस्तो भृशं रुषा ॥ ३८ ॥
हिमाचलतटं प्राप्तः शालमुद्यम्य यक्षराट् ।
तस्थौ तत्संमुखे राजन् युद्धकामो विशेषतः ॥ ३९ ॥
तस्मै चिक्षेप भगवान् शालवृक्षं भुजौजसा ।
तेन घातेन पतितो वृक्षो वातहतो यथा ॥ ४० ॥
पुनरुत्थाय वैकुंठं मुष्टिना तं जघान ह ।
जगर्ज सहसा दुष्टो नादयम् मंडलं दिशाम् ॥ ४१ ॥
गृहीत्वा तं हरिर्दोर्भ्यां भ्रामयित्वा भुजौजसा ।
पातयामास भूपृष्ठे वातः पद्ममिवोद्‌धृतम् ॥ ४२ ॥
शंखचूडस्तं गृहीत्वा पोथयामास भूतले ।
एवं युद्धे संप्रवृत्ते चकंपे भूमिमण्डलम् ॥ ४३ ॥
मुष्टिना तच्छिरश्छित्वा तस्माच्चूडामणिं हरिः ।
जग्राह माधवः साक्षात्सुकृती शेवधिं यथा ॥ ४४ ॥
तज्ज्योतिर्निर्गतं दीर्घं द्योतयन्मण्डलं दिशाम् ।
श्रीदाम्नि श्रीकृष्णसखे लीनं जातं व्रजे नृप ॥ ४५ ॥
एवं हत्वा शंखचूडं भगवान् मधुसूदनः ।
मणिपाणिः पुनः शीघ्रमाययौ रासमंडलम् ॥ ४६ ॥
चंद्राननायै च मणिं दत्त्वा तं दीनवत्सलः ।
पुनर्गोपीनणैः सार्धं रासं चक्रे हरिः स्वयम् ॥ ४७ ॥

 

बहुलाश्वने पूछा- विप्रवर! आप भूत और भविष्य - सब जानते हैं; अतः बताइये, रासमण्डलमें शङ्खचूडके आनेपर क्या हुआ ? ॥ ३२ ॥

श्रीनारदजीने कहा- राजन् ! शङ्खचूडका मुँह था बाघके समान और शरीरका रंग था एकदम काला- कलूटा। वह दस ताड़के बराबर ऊँचा था और जीभ लपलपाकर जबड़े चाटता हुआ बड़ा भयंकर जान पड़ता था । उसे देखकर गोपाङ्गनाएँ भयसे थर्रा उठीं और चारों ओर भागने लगीं। इससे महान् कोलाहल होने लगा। इस प्रकार शङ्खचूडके आते ही रासमण्डल- में हाहाकार मच गया। वह कामपीड़ित दुष्ट यक्षराज शतचन्द्रानना नामवाली गोपसुन्दरीको पकड़कर बिना किसी भय और आशङ्का उत्तर दिशाकी ओर दौड़ चला। शतचन्द्रानना भय से व्याकुल हो 'कृष्ण ! कृष्ण !!' पुकारती हुई रोने लगी। यह देख श्रीकृष्ण अत्यन्त कुपित हो, शालका वृक्ष हाथमें लिये, उसके पीछे दौड़े। कालके समान दुर्जय श्रीकृष्णको पोछा करते देख यक्ष उस गोपीको छोड़कर भयसे विह्वल हो प्राण बचानेकी इच्छासे भागा। महादुष्ट शङ्खचूड भागकर जहाँ-जहाँ गया, वहाँ-वहाँ श्रीकृष्ण भी शालवृक्ष हाथमें लिये अत्यन्त रोषपूर्वक गये ॥ ३३ - ३८ ॥

राजन् ! हिमालयकी घाटी में पहुँचकर उस यक्षराजने भी एक शाल उखाड़ लिया और उनके सामने विशेषतः युद्धकी इच्छा से वह खड़ा हो गया। भगवान् ने अपने बाहुबल से शङ्खचूडपर उस शालवृक्ष को दे मारा। उसके आघातसे शङ्खचूड आँधी के उखाड़े हुए पेड़की भाँति पृथ्वीपर गिर पड़ा। शङ्खचूडने फिर उठकर भगवान् श्रीकृष्णको मुक्केसे मारा। मारकर वह दुष्ट यक्ष सम्पूर्ण दिशाओंको निनादित करता हुआ सहसा गरजने लगा । तब श्रीहरिने उसे दोनों हाथोंसे पकड़ लिया और भुजाओंके बलसे घुमाकर उसी तरह पृथ्वीपर पटक दिया जैसे वायु उखाड़े हुए कमलको फेंक देती है ॥ ३ - ४२

शङ्खचूड ने भी श्रीकृष्ण को पकड़कर धरती पर दे मारा। जब इस प्रकार युद्ध चलने लगा, तब सारा भूमण्डल काँप उठा। तब माधव श्रीकृष्णने मुक्केकी मारसे उसके सिरको धड़से अलग कर दिया और उसकी चूडामणि ले ली- ठीक उसी तरह जैसे कोई पुण्यात्मा पुरुष कहींसे निधि प्राप्त कर लेता है। नरेश्वर ! शङ्खचूडके शरीरसे एक विशाल ज्योति निकली और दिङ्मण्डलको विद्योतित करती हुई व्रजमें श्रीकृष्णसखा श्रीदामाके भीतर विलीन हो गयी। इस प्रकार शङ्खचूडका वध करके भगवान् मधुसूदन, हाथमें मणि लिये, फिर शीघ्र ही रास - मण्डलमें आ गये। दीनवत्सल श्रीहरिने वह मणि शतचन्द्रानना को दे दी और पुनः समस्त गोपाङ्गनाओं के साथ रास आरम्भ किया ।। ४३-४७ ॥

 

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें वृन्दावनखण्डके अन्तर्गत रासक्रीड़ाके प्रसङ्गमें 'शङ्खचूडका वध' नामक तेईसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २३ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से 

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-छठा अध्याय..(पोस्ट०८)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
द्वितीय स्कन्ध- छठा अध्याय..(पोस्ट०८)

विराट् स्वरूप की विभूतियों का वर्णन

न भारती मेऽङ्ग मृषोपलक्ष्यते
न वै क्वचिन्मे मनसो मृषा गतिः ।
न मे हृषीकाणि पतन्त्यसत्पथे
यन्मे हृदौत्कण्ठ्ययवता धृतो हरिः ॥ ३३ ॥
सोऽहं समाम्नायमयः तपोमयः
प्रजापतीनां अभिवन्दितः पतिः ।
आस्थाय योगं निपुणं समाहितः
तं नाध्यगच्छं यत आत्मसंभवः ॥ ३४ ॥
नतोऽस्म्यहं तच्चरणं समीयुषां
भवच्छिदं स्वस्त्ययनं सुमङ्गलम् ।
यो ह्यात्ममायाविभवं स्म पर्यगाद्
यथा नभः स्वान्तमथापरे कुतः ॥ ३५ ॥
नाहं न यूयं यदृतां गतिं विदुः
न वामदेवः किमुतापरे सुराः ।
तन्मायया मोहितबुद्धयस्त्विदं
विनिर्मितं चात्मसमं विचक्ष्महे ॥ ३६ ॥

(ब्रह्माजी कहरहे हैं) प्यारे नारद ! मैं प्रेमपूर्ण एवं उत्कण्ठित हृदयसे भगवान्‌के स्मरणमें मग्न रहता हूँ, इसीसे मेरी वाणी कभी असत्य होती नहीं दीखती, मेरा मन कभी असत्य सङ्कल्प नहीं करता और मेरी इन्द्रियाँ भी कभी मर्यादाका उल्लङ्घन करके कुमार्गमें नहीं जातीं ॥ ३३ ॥ मैं वेदमूर्ति हूँ, मेरा जीवन तपस्यामय है, बड़े-बड़े प्रजापति मेरी वन्दना करते हैं और मैं उनका स्वामी हूँ। पहले मैंने बड़ी निष्ठासे योगका सर्वाङ्ग अनुष्ठान किया था, परन्तु मैं अपने मूलकारण परमात्माके स्वरूपको नहीं जान सका ॥ ३४ ॥ (क्योंकि वे तो एकमात्र भक्तिसे ही प्राप्त होते हैं।) मैं तो परम मङ्गलमय एवं शरण आये हुए भक्तों को जन्म-मृत्यु से छुड़ाने वाले परम कल्याणस्वरूप भगवान्‌ के चरणों को ही नमस्कार करता हूँ। उनकी मायाकी शक्ति अपार है; जैसे आकाश अपने अन्त को नहीं जानता, वैसे ही वे भी अपनी महिमा का विस्तार नहीं जानते। ऐसी स्थिति में दूसरे तो उसका पार पा ही कैसे सकते हैं ? ॥ ३५ ॥ मैं, मेरे पुत्र तुम लोग और शङ्करजी भी उनके सत्य स्वरूप को नहीं जानते; तब दूसरे देवता तो उन्हें जान ही कैसे सकते हैं। हम सब इस प्रकार मोहित हो रहे हैं कि उनकी मायाके द्वारा रचे हुए जगत्को भी ठीक-ठीक नहीं समझ सकते, अपनी-अपनी बुद्धिके अनुसार ही अटकल लगाते हैं ॥ ३६ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से


शनिवार, 17 अगस्त 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) तेईसवाँ अध्याय (पोस्ट 02)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

तेईसवाँ अध्याय (पोस्ट 02)

 

कंस और शङ्खचूड में युद्ध तथा मैत्री का वृत्तान्त; श्रीकृष्णद्वारा शङ्खचूड का वध

 

शंखचूडं संगृहीत्वा कंसो दैत्याधिपो बली ।
बलाच्चिक्षेप सहसा व्योम्नि तं शतयोजनम् ॥ १७ ॥
शंखचूडः प्रपतितः किंचिद्‌व्याकुलमानसः ।
कंसं गृहीत्वा नभसि चिक्षेपायुतयोजनम् ॥ १८ ॥
आकाशात्पतितः कंसः किंचिद्व्याकुलमानसः ।
यक्षं गृहीत्वा सहसा पातयामास भूतले ॥ १९ ॥
शंखचूडस्तं गृहीत्वा पोथयामास भूतले ।
एवं युद्धे संप्रवृत्ते चकंपे भूमिमंडलम् ॥ २० ॥
मुनीन्द्रः सर्ववित्साक्षाद्‌गर्गाचार्यः समागतः ।
रंगेषु वन्दितस्ताभ्यां कंसं प्राहोर्जया गिरा ॥ २१ ॥


श्रीगर्ग उवाच -
युद्धं मा कुरु राजेंद्र विफलोऽयं रणोऽत्र वै ।
त्वत्समानो ह्ययं वीरः शङ्खचूडो महाबलः ॥ २२ ॥
तव मुष्टिप्रहारेण भृशमैरावतो गजः ।
जानुभ्यां धरणीं स्पृष्ट्वा कश्मलं परमं ययौ ॥ २३ ॥
अन्येऽपि बलिनो दैत्या मुष्टिना ते मृतिं गताः ।
शंखचूडो न पतितः संदेहो नास्ति तच्छृणु ॥ २४ ॥
परिपूर्णतमो यो वै सोऽपि त्वां घातयिष्यति ।
तथैनं शंखचूडाख्यं शिवस्यापि वरोर्जितम् ॥ २५ ॥
तस्मात्प्रेम प्रकर्तव्यं शंखचूडे यदूद्वह ।
यक्षराट् च त्वया कंसे कर्तव्यं प्रेम निश्चितम् ॥ २६ ॥


श्रीनारद उवाच -
गर्गेणोक्तौ तदा तौ द्वौ मिलित्वाऽथ परस्परम् ।
परमां चक्रतुः प्रीतिं शंखचूडयदूद्वहौ ॥ २७ ॥
अथ कंसं सनुज्ञाप्य गृहं गन्तुं समुद्यतः ।
गच्छन् मार्गेऽशृणोद्‌रात्रौ रासगानं मनोहरम् ॥ २८ ॥
तालशब्दानुसारेण संप्राप्तो रासमंडले ।
रासेश्वर्या समं रासेऽपश्यद्‌रासेश्वरं हरिम् ॥ २९ ॥
श्रीराधयाऽलंकृतवामबाहुं
     स्वच्छंदवक्रीकृतदक्षिणांघ्रिम् ।
वंशीधरं सुंदरमंदहासं
     भ्रूमंडलैर्मोहितकामराशिम् ॥ ३० ॥
व्रजांगनायूथपतिं व्रजेश्वरं
     सुसेवितं चामरछत्रकोटिभिः ।
विज्ञाय कृष्णं ह्यतिकोमलं शिशुं
     गोपीं समाहर्तुमलं मनोऽकरोत् ॥ ३१ ॥

तदनन्तर दैत्यराज महाबली कंसने शङ्खचूडको सहसा पकड़कर बलपूर्वक आकाशमें फेंक दिया। वह सौ योजन ऊपर चला गया। शङ्खचूड आकाशसे जब वेगपूर्वक नीचे गिरा तो उसके मनमें किंचित् व्याकुलता आ गयी, तथापि उसने भी कंसको पकड़कर आकाश में दस हजार योजन ऊँचे फेंक दिया। कंस भी आकाशसे गिरनेपर मन-ही-मन कुछ व्याकुल हो उठा। फिर उसने यक्षको पकड़कर सहसा पृथ्वीपर दे मारा। फिर शङ्खचूडने भी कंसको पकड़कर भूमिपर पटक दिया। इस प्रकार घोर युद्ध चलते रहनेके कारण भूमण्डल काँपने लगा। इसी बीचमें सर्वज्ञ मुनिवर साक्षात् गर्गाचार्य वहाँ आ गये। दोनोंने रङ्गभूमिमें उन्हें देखकर प्रणाम किया। तब गर्गने ओजस्विनी वाणीमें कंससे कहा ।। १७–२१ ॥

श्रीगर्गजी बोले - राजेन्द्र ! युद्ध न करो। इस युद्धसे कोई फल मिलनेवाला नहीं है। यह महाबली शङ्खचूड तुम्हारे समान ही वीर है। तुम्हारे मुक्केकी मार खाकर गजराज ऐरावतने धरतीपर घुटने टेक दिये थे और उसे अत्यन्त मूर्च्छा आ गयी थी। और भी बहुत-से दैत्य तुम्हारे मुक्केकी मार खाकर मृत्युके ग्रास बन गये हैं, परंतु शङ्खचूड धराशायी नहीं हो सका । इसमें संदेह नहीं कि यह तुम्हारे लिये अजेय है। इसका कारण सुनो। वे परिपूर्णतम परमात्मा जैसे तुम्हारा वध करनेवाले हैं, उसी तरह भगवान् शिव के वरसे बलशाली हुए इस शङ्खचूड को भी मारेंगे। अतः यदुनन्दन ! तुम्हें शङ्खचूड पर प्रेम करना चाहिये । यक्षराज ! तुम्हें भी अवश्य ही कंसपर प्रेमभाव रखना चाहिये ॥ २२ – २६ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं-राजन् ! गर्गाचार्यजी के यों कहने पर शङ्खचूड तथा कंस - दोनों परस्पर मिले और एक-दूसरेसे अत्यन्त प्रेम करने लगे। तदनन्तर कंससे बिदा ले शङ्खचूड अपने घरको जाने लगा। रात्रिके समय मार्गमें उसे रासमण्डल मिला। वहाँ ताल-स्वरसे युक्त मनोहर गान उसके कानमें पड़ा । फिर उसने रासमें श्रीरासेश्वरीके साथ रासेश्वर श्रीकृष्णका दर्शन किया। उनकी बायीं भुजा श्रीराधाके कंधेपर सुशोभित थी। वे स्वेच्छानुसार अपने दाहिने पैरको टेढ़ा किये खड़े थे। हाथमें वंशी लिये मुखसे सुन्दर मन्द हासकी छटा छिटका रहे थे। उनके भूमण्डलपर राशि राशि कामदेव मोहित थे । व्रज- सुन्दरियोंके यूथपति व्रजेश्वर श्रीकृष्ण कोटि-कोटि छत्र-चँवरोंसे सुसेवित थे। उन्हें अत्यन्त कोमल शिशु जानकर शङ्खचूड ने गोपियों को हर ले जाने का विचार किया ।। २७ – ३१ ।।

 

 शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-छठा अध्याय..(पोस्ट०७)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
द्वितीय स्कन्ध- छठा अध्याय..(पोस्ट०७)

विराट् स्वरूप की विभूतियों का वर्णन

इति संभृतसंभारः पुरुषा अवयवैः अहम् ।
तमेव पुरुषं यज्ञं तेनैवायजमीश्वरम् ॥ २७ ॥
ततस्ते भ्रातर इमे प्रजानां पतयो नव ।
अयजन् व्यक्तमव्यक्तं पुरुषं सुसमाहिताः ॥ २८ ॥
ततश्च मनवः काले ईजिरे ऋषयोऽपरे ।
पितरो विबुधा दैत्या मनुष्याः क्रतुभिर्विभुम् ॥ २९ ॥
नारायणे भगवति तदिदं विश्वमाहितम् ।
गृहीत माया उरुगुणः सर्गादौ अगुणः स्वतः ॥ ३० ॥
सृजामि तन्नियुक्तोऽहं हरो हरति तद्वशः ।
विश्वं पुरुषरूपेण परिपाति त्रिशक्तिधृक् ॥ ३१ ॥
इति तेऽभिहितं तात यथेदं अनुपृच्छसि ।
न अन्यत् भगवतः किञ्चिद् भाव्यं सद्-असदात्मकम् ॥ ३२ ॥

(ब्रह्माजी कहते हैं) इस प्रकार विराट् पुरुषके अङ्गों से ही सारी सामग्री का संग्रह करके मैंने उन्हीं सामग्रियों से उन यज्ञस्वरूप परमात्माका यज्ञके द्वारा यजन किया ॥ २७ ॥ तदनन्तर तुम्हारे बड़े भाई इन नौ प्रजापतियोंने अपने चित्तको पूर्ण समाहित करके विराट् एवं अन्तर्यामीरूपसे स्थित उस पुरुषकी आराधना की ॥ २८ ॥ इसके पश्चात् समय-समयपर मनु, ऋषि, पितर, देवता, दैत्य और मनुष्योंने यज्ञोंके द्वारा भगवान्‌की आराधना की ॥ २९ ॥ नारद ! यह सम्पूर्ण विश्व उन्हीं भगवान्‌ नारायणमें स्थित है, जो स्वयं तो प्राकृत गुणोंसे रहित हैं, परन्तु सृष्टिके प्रारम्भमें मायाके द्वारा बहुत-से गुण ग्रहण कर लेते हैं ॥ ३० ॥ उन्हींकी प्रेरणासे मैं इस संसारकी रचना करता हूँ। उन्हींके अधीन होकर रुद्र इसका संहार करते हैं और वे स्वयं ही विष्णुके रूपसे इसका पालन करते हैं। क्योंकि उन्होंने सत्त्व, रज और तमकी तीन शक्तियाँ स्वीकार कर रखी हैं ॥ ३१ ॥ बेटा ! जो कुछ तुमने पूछा था, उसका उत्तर मैंने तुम्हें दे दिया; भाव या अभाव, कार्य या कारणके रूपमें ऐसी कोई भी वस्तु नहीं है, जो भगवान्‌से भिन्न हो ॥ ३२ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


शुक्रवार, 16 अगस्त 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) तेईसवाँ अध्याय (पोस्ट 01)

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

तेईसवाँ अध्याय (पोस्ट 01)

 

कंस और शङ्खचूड में युद्ध तथा मैत्री का वृत्तान्त; श्रीकृष्णद्वारा शङ्खचूड का वध

 

श्रीनारद उवाच -
अथ कृष्णो गोपिकाभिः लोकजंघवनं ययौ ।
वसन्तमाधवीभिश्च लताभिः संकुलं नृप ॥ १ ॥
तत्पुष्पदामनिचयैः स्फुरत्सौगंधिशालिभिः ।
सर्वासां हरिणा तत्र कबर्यो गुंफितास्ततः ॥ २ ॥
भ्रमरध्वनिसंयुक्ते सुगंधानिलवासिते ।
कालिन्दीनिकटे कृष्णो विचचार प्रियान्वितः ॥ ३ ॥
करिल्लैः पीलुभिः श्यामैः तमालैः संकुलद्रुमैः ।
महापुण्यवनं कृष्णो ययौ रासेश्वरो हरिः ॥ ४ ॥
तत्र रासं समारेभे रासेश्वर्या समन्वितः ।
गीयमानश्च गोपीभिरप्सरोभिः स्वराडिव ॥ ५ ॥
तत्र चित्रमभूद्‌राजन् शृणु त्वं तन्मुखान्मम ।
शंखचूडो मान यक्षो धनदानुचरो बली ॥ ६ ॥
भूतले तत्समो नास्ति गदायुद्धविशारदः ।
मन्मुकादौग्रसेनेश्च बलं श्रुत्वा महोत्कटम् ॥ ७ ॥
लक्षभारमयीं गुर्वीं गदामादाय यक्षराट् ।
स्वसकाशान्मधुपुरीमाययौ चण्डविक्रमः ॥ ८ ॥
सभायामास्थितं प्राह कंसं नत्वा मदोद्धतः ।
गदायुद्धं देहि मह्यं त्रैलोक्यविजयी भवान् ॥ ९ ॥
अहं दासो भवेयं वै भवांश्च विजयी यदि ।
अहं जयी चेद्भवन्तं दासं शीघ्रं करोम्यहम् ॥ १० ॥
तथास्तु चोक्त्वा कंसस्तु गृहीत्वा महतीं गदाम् ।
शंखचूडेन युयुधे रंगभूमौ विदेहराट् ॥ ११ ॥
तयोश्च गदया युद्धं घोररूपं बभूव ह ।
ताडनाच्चट्चटाशब्दं कालमेघतडिद्ध्वनि ॥ १२ ॥
शुशुभाते रंगमध्ये मल्लौ नाट्ये नटाविव ।
इभेन्द्राविव दीर्घांगौ मृगेन्द्राविव चोद्‌भटौ ॥ १३ ॥
द्वयोश्च युध्यतो राजन् परस्परजिगीषया ।
विस्फुलिंगान् क्षरन्त्यौ द्वे गदे चूर्णीबभूवतुः ॥ १४ ॥
कंसः प्रकुपितं यक्षं मुष्टिनाभिजघान ह ।
शंखचूडोऽपि तं कंसं मुष्टिना तं तताड च ॥ १५ ॥
मुष्टामुष्टि तयोरासीद्दिनानां सप्तविंशतिः ।
द्वयोरक्षीणबलयोर्विस्मयं गतयोस्ततः ॥ १६ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! तत्पश्चात् श्रीकृष्ण व्रजाङ्गनाओंके साथ लोहजङ्घ-वनमें गये, जो वसन्तकी माधवी तथा अन्यान्य लता - वल्लरियोंसे व्याप्त था । उस वनके सुगन्ध बिखेरने वाले सुन्दर फूलों के हारों से श्रीहरि ने वहाँ समस्त गोपियों की वेणियाँ अलंकृत कीं ।।१-२

भ्रमरों की गुंजार से निनादित और सुगन्धित वायु से वासित यमुनातटपर अपनी प्रेयसियों- के साथ श्यामसुन्दर विचरने लगे। विचरते विचरते रासेश्वर श्रीकृष्ण उस महापुण्यवनमें जा पहुँचे, जो करील, पीलू तथा श्याम तमाल और ताल आदि सघन वृक्षोंसै व्याप्त था। वहाँ रासेश्वरी श्रीराधा और गोपाङ्गनाओंके साथ उनके मुखसे अपना यशोगान सुनते हुए श्रीहरिने रास आरम्भ किया। उस समय वे यश गाती हुई अप्सराओंसे घिरे हुए देवराज इन्द्रके

समान सुशोभित हो रहे थे ।। ३-५

राजन् ! वहाँ एक विचित्र घटना घटित हुई, उसे तुम मेरे मुखसे सुनो। शङ्खचूड नामसे प्रसिद्ध एक बलवान् यक्ष था, जो कुबेरका सेवक था। इस भूतल- पर उसके समान गदायुद्ध-विशारद योद्धा दूसरा कोई नहीं था । एक दिन मेरे मुँहसे उग्रसेनकुमार कंसके उत्कट बलकी बात सुनकर वह प्रचण्ड - पराक्रमी यक्षराज लाख भार लोहेकी बनी हुई भारी गदा लेकर अपने निवासस्थानसे मथुरामें आया ।। ६-८

 उस मदोन्मत्त वीर ने राजसभामें पहुँचकर वहाँ सिंहासनपर बैठे हुए कंसको प्रणाम किया और कहा- राजन् ! सुना है कि तुम त्रिभुवनविजयी वीर हो, इसलिये मुझे अपने साथ गदायुद्ध का अवसर दो। यदि तुम विजयी हुए तो मैं तुम्हारा दास हो जाऊँगा और यदि मैं विजयी हुआ तो तत्काल तुम्हें अपना दास बना लूँगा ।' ।। ९-१०

विदेहराज ! तब 'तथास्तु' कहकर, एक विशाल गदा हाथ में ले, कंस रङ्गभूमि में शङ्खचूड के साथ युद्ध करने लगा। उन दोनों में घोर गदायुद्ध प्रारम्भ हो गया। दोनोंके परस्पर आघात - प्रत्याघातसे होनेवाला चट-चट शब्द प्रलय- कालके मेघोंकी गर्जना और बिजली का गड़गड़ाहट के समान जान पड़ता था । उस रङ्गभूमिमें दो मल्लों, नाट्यमण्डली के दो नटों, विशाल अङ्गवाले दो गजराजों तथा दो उद्भट सिंहोंके समान कंस और शङ्खचूड परस्पर जूझ रहे थे । राजन् ! एक-दूसरेको जीत लेनेकी इच्छासे जूझते हुए उन दोनों वीरोंकी गदाएँ आगकी चिनगारियाँ बरसाती हुई परस्पर टकराकर चूर-चूर हो गयीं ।। ११-१४  

कंस ने अत्यन्त कोप से भरे हुए यक्षको मुक्केसे मारा; तब शङ्खचूडने भी कंसपर मुक्केसे प्रहार किया। इस तरह मुक्का-मुक्की करते हुए उन दोनोंको सत्ताईस दिन बीत गये। दोनोंमें से किसीका बल क्षीण नहीं हुआ। दोनों ही एक-दूसरेके पराक्रमसे चकित थे ।। १५-१६

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से

 

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-छठा अध्याय..(पोस्ट०६)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
द्वितीय स्कन्ध- छठा अध्याय..(पोस्ट०६)

विराट् स्वरूप की विभूतियों का वर्णन

यदास्य नाभ्यान्नलिनाद् अहं आसं महात्मनः ।
नाविंदं यज्ञसम्भारान् पुरुषा अवयवात् ऋते ॥ २२ ॥
तेषु यज्ञस्य पशवः सवनस्पतयः कुशाः ।
इदं च देवयजनं कालश्चोरु गुणान्वितः ॥ २३ ॥
वस्तूनि ओषधयः स्नेहा रस-लोह-मृदो जलम् ।
ऋचो यजूंषि सामानि चातुर्होत्रं च सत्तम ॥ २४
नामधेयानि मंत्राश्च दक्षिणाश्च व्रतानि च ।
देवतानुक्रमः कल्पः सङ्कल्पः तन्त्रमेव च ॥ २५ ॥
गतयो मतयश्चैव प्रायश्चित्तं समर्पणम् ।
पुरुषा अवयवैः एते संभाराः संभृता मया ॥ २६ ॥

(ब्रह्माजी कहरहे  हैं)  जिस समय इस विराट् पुरुषके नाभि-कमल से मेरा जन्म हुआ, उस समय इस पुरुषके अङ्गोंके अतिरिक्त मुझे और कोई भी यज्ञकी सामग्री नहीं मिली ॥ २२ ॥ तब मैंने उनके अङ्गोंमें ही यज्ञके पशु, यूप (स्तम्भ), कुश, यह यज्ञभूमि और यज्ञके योग्य उत्तम कालकी कल्पना की ॥ २३ ॥ ऋषिश्रेष्ठ ! यज्ञके लिये आवश्यक पात्र आदि वस्तुएँ, जौ, चावल, आदि ओषधियाँ, घृत आदि स्नेहपदार्थ, छ: रस, लोहा, मिट्टी, जल, ऋक्, यजु:, साम, चातुर्होत्र, यज्ञोंके नाम, मन्त्र, दक्षिणा, व्रत, देवताओंके नाम, पद्धतिग्रन्थ, सङ्कल्प, तन्त्र (अनुष्ठानकी रीति), गति, मति, श्रद्धा, प्रायश्चित्त और समर्पण—यह समस्त यज्ञ-सामग्री मैंने विराट् पुरुषके अङ्गोंसे ही इकट्ठी की ॥ २४—२६ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


गुरुवार, 15 अगस्त 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) बाईसवाँ अध्याय (पोस्ट 04)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

बाईसवाँ अध्याय (पोस्ट 04)

 

गोपाङ्गनाओंद्वारा श्रीकृष्णका स्तवन; भगवान् का उनके बीचमें प्रकट होना; उनके पूछनेपर हंसमुनिके उद्धारकी कथा सुनाना तथा गोपियोंको क्षीरसागर- श्वेतद्वीपके नारायण-स्वरूपोंका दर्शन कराना


अथ गोपीगणैः सार्धं यमुनामेत्य माधवः ।
कालिन्दीजलवेगेषु जलकेलिं चकार ह ॥ ३१ ॥
राधाकराल्लक्षदलं पद्मं पीताम्बरं तथा ।
धावन् जलेषु गतवान् प्रहसन् माधवः स्वयम् ॥ ३२ ॥
राधा हरेः पीतपटं वशीवेत्रस्फुरत्‌प्रभम् ।
गृहीत्वा प्रसहन्ती सा गच्छन्ती यमुनाजले ॥ ३३ ॥
वंशीं देहीति वदतः श्रीकृष्णस्य महात्मनः ।
राधा जगाद कमलं वासो देहीति माधव ॥ ३४ ॥
कृष्णो ददौ राधिकायै पद्ममंबरमेव च ।
राधा ददौ पीतपटं वेत्रं वंशीं महात्मने ॥ ३५ ॥
अथ कृष्णः कलं गायन् मालामाजानुलंबिताम् ।
वैजन्तीमादधानः श्रीभाण्डीरं गजाम ह ॥ ३६ ॥
प्रियायास्तत्र शृङ्गारं चकार कुशलेश्वरः ।
पत्रावलीयावकाग्रैः पुष्पैः कंजलकुंकुमैः ॥ ३७ ॥
चंदनागुरुकस्तूरी केसराद्यैर्हरेर्मुखे ।
पत्रं चकार शृङ्गारे मनोज्ञं कीर्तिनन्दिनी ॥ ३८ ॥

 

तदनन्तर माधव गोपाङ्गनाओंके साथ यमुना-तटपर आकर कालिन्दीके वेगपूर्ण प्रवाहमें संतरण-कला- केलि करने लगे। श्रीराधाके हाथसे उनका लक्षदल कमल और चादर लेकर माधव पानीमें दौड़ते तथा हँसते हुए दूर निकल गये। तब श्रीराधा भी उनके चमकीले पीताम्बर, वंशी और बेंत लेकर हँसती हुई यमुनाजलमें चली गयीं । अब महात्मा श्रीकृष्ण उन्हें माँगते हुए बोले- 'राधे ! मेरी बाँसुरी दे दो ।' श्रीराधा कहने लगी- 'माधव ! मेरा कमल और वस्त्र लौटा दो ।' ॥ ३१-३४

श्रीकृष्ण ने श्रीराधा को कमल और वस्त्र दे दिये । तब श्रीराधा ने भी महात्मा श्रीकृष्णको वंशी, पीताम्बर और बेंत लौटा दिये । तदनन्तर श्रीकृष्ण आजानु- लुम्बिनी (घुटनेतक लटकती हुई) वैजयन्ती माला धारण किये, मधुर गीत गाते हुए भाण्डीरवनमें गये । वहाँ चतुर चूडामणि श्यामसुन्दरने प्रियाका शृङ्गार किया । भाल तथा कपोलोंपर पत्ररचना की, पैरोंमें महावर लगाया, फूलोंकी माला धारण करायी, वेणीको भी फूलोंसे सजाया, ललाटमें कुङ्कुमकी दी तथा नेत्रोंमें काजल लगाया। इसी प्रकार कीर्तिनन्दिनी श्रीराधाने भी उस शृङ्गार-स्थलमें चन्दन, अगुरु, कस्तूरी और केसर आदिसे श्रीहरिके मुखपर मनोहर पत्र- रचना की ।। ३ - ३८ ॥

 

इस प्रकार श्रीगर्ग-संहितामें वृन्दावनखण्डके अन्तर्गत 'रास-क्रीड़ा' नामक बाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ ।। २२ ।।

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-छठा अध्याय..(पोस्ट०५)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
द्वितीय स्कन्ध- छठा अध्याय..(पोस्ट०५)

विराट् स्वरूप की विभूतियों का वर्णन

पादास्त्रयो बहिश्चासन् अप्रजानां य आश्रमाः ।
अन्तः त्रिलोक्यास्त्वपरो गृहमेधोऽबृहद्व्रतः ॥ १९ ॥
सृती विचक्रमे विश्वङ् साशनानशने उभे ।
यद् अविद्या च विद्या च पुरुषस्तु उभयाश्रयः ॥ २० ॥
यस्माद् अण्डं विराड् जज्ञे भूतेन्द्रिय गुणात्मकः ।
तद् द्रव्यं अत्यगाद् विश्वं गोभिः सूर्य इवाऽतपन् ॥ २१ ॥

जन, तप और सत्य—इन तीनों लोकोंमें ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ एवं संन्यासी निवास करते हैं। दीर्घकालीन ब्रह्मचर्यसे रहित गृहस्थ भूलोक, भुवर्लोक और स्वर्लोकके भीतर ही निवास करते हैं ॥ १९ ॥ शास्त्रोंमें दो मार्ग बतलाये गये हैं—एक अविद्यारूप कर्म-मार्ग, जो सकाम पुरुषोंके लिये है और दूसरा उपासनारूप विद्याका मार्ग, जो निष्काम उपासकोंके लिये है। मनुष्य दोनोंमेंसे किसी एकका आश्रय लेकर भोग प्राप्त करानेवाले दक्षिणमार्गसे अथवा मोक्ष प्राप्त करानेवाले उत्तरमार्गसे यात्रा करता है; किन्तु पुरुषोत्तम भगवान्‌ दोनोंके आधारभूत हैं ॥ २० ॥ जैसे सूर्य अपनी किरणोंसे सबको प्रकाशित करते हुए भी सबसे अलग हैं, वैसे ही जिन परमात्मासे इस अण्डकी और पञ्चभूत, एकादश इन्द्रिय एवं गुणमय विराट्की उत्पत्ति हुई है—वे प्रभु भी इन समस्त वस्तुओंके अंदर और उनके रूपमें रहते हुए भी उनसे सर्वथा अतीत हैं ॥ २१ ॥

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बुधवार, 14 अगस्त 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-छठा अध्याय..(पोस्ट०४)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
द्वितीय स्कन्ध- छठा अध्याय..(पोस्ट०४)

विराट् स्वरूप की विभूतियों का वर्णन

स्वधिष्ण्यं प्रतपन् प्राणो बहिश्च प्रतपत्यसौ ।
एवं विराजं प्रतपन् तपत्यन्तः बहिः पुमान् ॥ १६ ॥
सोऽमृतस्याभयस्येशो मर्त्यं अन्नं यदत्यगात् ।
महिमा एष ततो ब्रह्मन् पुरुषस्य दुरत्ययः ॥ १७ ॥
पादेषु सर्वभूतानि पुंसः स्थितिपदो विदुः ।
अमृतं क्षेममभयं त्रिमूर्ध्नोऽधायि मूर्धसु ॥ १८ ॥

जैसे सूर्य अपने मण्डलको प्रकाशित करते हुए ही बाहर भी प्रकाश फैलाते हैं, वैसे ही पुराणपुरुष परमात्मा भी सम्पूर्ण विराट् विग्रह को प्रकाशित करते हुए ही उसके बाहर-भीतर—सर्वत्र एकरस प्रकाशित हो रहा है ॥ १६ ॥ मुनिवर ! जो कुछ मनुष्यकी क्रिया और सङ्कल्पसे बनता है, उससे वह परे है और अमृत एवं अभयपद (मोक्ष) का स्वामी है। यही कारण है कि कोई भी उसकी महिमाका पार नहीं पा सकता ॥ १७ ॥ सम्पूर्ण लोक भगवान्‌के एक पादमात्र (अशंमात्र) हैं तथा उनके अंशमात्र लोकोंमें समस्त प्राणी निवास करते हैं। भूलोक, भुवर्लोक और स्वर्लोक के ऊपर महर्लोक है। उसके भी ऊपर जन, तप और सत्यलोकों में क्रमश: अमृत, क्षेम एवं अभय का नित्य निवास है ॥ १८ ॥

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श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) बाईसवाँ अध्याय (पोस्ट 03)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

बाईसवाँ अध्याय (पोस्ट 03)

 

गोपाङ्गनाओंद्वारा श्रीकृष्णका स्तवन; भगवान् का उनके बीचमें प्रकट होना; उनके पूछनेपर हंसमुनिके उद्धारकी कथा सुनाना तथा गोपियोंको क्षीरसागर- श्वेतद्वीपके नारायण-स्वरूपोंका दर्शन कराना


श्रीभगवानुवाच –

हे गोप्यः पुष्करद्वीपे हंसो नाम महामुनिः ।
समुद्रे दधिमंडोदे ततापान्तर्गतस्तपः ॥ १७ ॥
चकाराहैतुकीं भक्तिं मम ध्यानपरायणः ।
व्यतीतं तस्य तपतो गोप्यो मन्वन्तरद्वयम् ॥ १८ ॥
तमद्यैवाग्रसन्मत्स्यो योजनार्धवपुर्धरः ।
तन्निर्जगार पौंड्रस्तु मत्स्यरूपधरोऽसुरः ॥ १९ ॥
एवं संप्राप्तकष्टस्य हंसस्यापि मुनेरहम् ।
गत्वाऽथ शीघ्रेण तयोः शिरश्छित्वाऽरिणा मुनिम् ॥ २० ॥
मोचयित्वाऽथ गतवान् श्वेतद्वीपे व्रजांगनाः ।
क्षीराब्धौ शेषपर्यंके शयनं तु मया कृतम् ॥ २१ ॥
दुःखिता भवतीर्ज्ञात्वा निद्रां त्यक्त्वा ततः प्रियाः ।
सहसा भक्तवश्योऽहं पुनरागतवानिह ॥ २२ ॥
जानन्ति सन्तः समदर्शोनि ये
     दान्ता महान्तः किल नैरपेक्ष्याः ।
ते नैरपेक्ष्यं परमं सुखं मे
     ज्ञानेन्द्रियादीनि यथा रसादीन् ॥ २३ ॥


गोप्य ऊचुः -
क्षीराब्दौ शेषपर्यंके यद्‌रूपं च त्वया धृतम् ।
तद्‌रूपदर्शनं देहि यदि प्रीतोऽसि माधव ॥ २४ ॥


श्रीनारद उवाच -
तथाऽस्तु चोक्त्वा भगवान् गोपीव्यूहस्य पश्यतः ।
दधाराष्टभुजं रूपं श्रीराधारूपमेव च ॥ २५ ॥
तत्र क्षीरसमुद्रोऽभूल्लोलकल्लोलमण्डितः ।
दिव्यानि रत्‍नसौधानि बभूवुर्मंगलानि च ॥ २६ ॥
तत्र शेषो बिसश्वेतः कुण्डलीभूतसंस्थितः ।
बालार्कमौलिसाहस्रफणाच्छत्रविराजितः ॥ २७ ॥
तस्मिन् वै शेषपर्यङ्के सुखं सुष्वाप माधवः ।
तस्य श्रीरूपिणी राधा पादसेवां चकार ह ॥ २८ ॥
तद्‌रूपं सुंदरं दृष्ट्वा कोटिमार्तण्डसन्निभम् ।
नत्वा गोपीगणाः सर्वे विस्मयं परमं गताः ॥ २९ ॥
गोपीभ्यो दर्शनं दत्तं यत्र कृष्णेन मैथिल ।
तत्र क्षेत्रं महापुण्यं जातं पापप्रणाशनम् ॥ ३० ॥

 

श्रीभगवान् बोले- गोपाङ्गनाओ ! पुष्करद्वीप के दधिमण्डोद समुद्र के भीतर रहकर 'हंस' नामक महामुनि तपस्या कर रहे थे। वे मेरे ध्यानमें रत रहकर बिना किसी हेतु या कामना के भजन करते थे । उन तपस्वी महामुनिको तपस्या करते हुए दो मन्वन्तरका समय इसी तरह बीत गया। उन्हें आज ही आधे योजन लंबा शरीर धारण करनेवाला एक मत्स्य निगल गया था । फिर उसे भी मत्स्यरूपधारी महान् असुर पौण्ड्र निगल गया ॥ १७-१९

इस प्रकार कष्टमें पड़े हुए मुनिवर हंसके उद्धारके लिये मैं शीघ्र वहाँ गया और चक्रसे उन दोनों मत्स्योंका वध करके मुनिको संकटसे छुड़ाकर श्वेत- द्वीपमें चला गया। व्रजाङ्गनाओ ! वहाँ क्षीरसागरके भीतर शेषशय्यापर मैं सो गया था। फिर अपनी प्रियतमा तुम सब गोपियोंको दुःखी जान नींद त्यागकर सहसा यहाँ आ पहुँचा; क्योंकि मैं सदा भक्तोंके वशमें रहता हूँ। जो जितेन्द्रिय, समदर्शी तथा किसी भी वस्तुकी इच्छा न रखनेवाले महान् संत हैं, वे निरपेक्षताको ही मेरा परम सुख जानते हैं; जैसे ज्ञानेन्द्रियाँ आदि रस आदि सूक्ष्म भूतोंको ही सुख समझते हैं । ॥ २० – २३ ॥

गोपियोंने कहा- माधव ! यदि हमपर प्रसन्न हों तो क्षीरसागरमें शेषशय्यापर तुमने जो रूप धारण किया था, उसका हमें भी दर्शन कराओ ॥ २४ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं-तब 'तथास्तु' कहकर भगवान् गोपी-समुदायके देखते-देखते आठ भुजाधारी नारायण हो गये और श्रीराधा लक्ष्मीरूपा हो गयीं । वहीं चञ्चल तरङ्गमालाओं से मण्डित क्षीरसागर प्रकट हो गया। दिव्य रत्नमय मङ्गलरूप प्रासाद दृष्टिगोचर होने लगे। वहीं कमलनालके सदृश श्वेत शेषनाग कुण्डली बाँधे स्थित दिखायी दिये, जो बालसूर्यके समान तेजस्वी सहस्र फनोंके छत्रसे सुशोभित थे । उस शेषशय्यापर माधव सुखसे सो गये तथा लक्ष्मीरूप- धारिणी श्रीराधा उनके चरण दबानेकी सेवा करने लगीं । करोड़ों सूर्योके समान तेजस्वी उस सुन्दर रूपको देखकर गोपियोंने प्रणाम किया और वे सभी परम आश्चर्यमें निमग्न हो गयीं। मैथिल ! जहाँ श्रीकृष्णने गोपियोंको इस रूपमें दर्शन दिया था, वह परम पुण्यमय पापनाशक क्षेत्र बन गया ।। २५–३० ॥

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-छठा अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - छठा अध्याय..(पोस्ट०१) विराट् शरीर की उत्पत्ति ऋषिरुवाच - इति तासां स्वशक्तीना...