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बुधवार, 21 अगस्त 2024
श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-सातवां अध्याय..(पोस्ट०१)
मंगलवार, 20 अगस्त 2024
श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) चौबीसवाँ अध्याय (पोस्ट 02)
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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(
श्रीवृन्दावनखण्ड )
चौबीसवाँ अध्याय (पोस्ट 02)
रास-विहार तथा आसुरि
मुनि का उपाख्यान
मनोज्ञो
यदुराजा च गोपीनां भगवान् हरिः ।
काश्मीरमुद्रितो रेमे वने वृंदावनेश्वरः ॥ १४ ॥
काश्चिद्वीणां वादयन्त्यः समं वंशीधरेण वै ।
काश्चित् मृदंगं वादयन्त्यो गायन्त्यो भगवद्गुणम् ॥ १५ ॥
काश्चिद्वै मधुरं तालं ताडयन्त्यो हरेः पुरः ।
मुरयष्टिं संगृहीत्वा हरिणा माधवीतले ॥ १६ ॥
गायन्त्यः सुस्थिरा भूमौ विस्मृत्य जगतः सुखम् ।
काश्चिल्लतासु श्रीकृष्णं भुजे बाहुं निधाय च ॥ १७ ॥
वृन्दावनस्य पश्यन्त्यो शोभां राजन्नितस्ततः ।
लताजालैः संवलितं गोपीनां हारसंचयम् ॥ १८ ॥
पृथक्चकार गोविंदः स्पृष्ट्वा तासामुरःस्थलम् ।
गोपीनां नासिकामुक्तावलिं तत्कुंतलं स्वयम् ॥ १९ ॥
शनैः शनैः शोभनं तच्चक्रे श्रीनंदनंदनः ।
तांबूलं चर्वितं ह्यर्धं नीत्वा सद्योऽथ गोपिकाः ॥ २० ॥
चर्वयन्त्यः सुगंधाढ्य महो तासां तपो महत् ।
काश्चिच्छामकपोलेषु द्व्यंगुलेन शनैः शनैः ॥ २१ ॥
हसन्त्यस्ताडयन्त्यस्ताः कदंबेषु बलात्पृथक् ।
पुंवेषनायकाः काश्चिन्मौलिकुंडलमंडिताः ॥ २२ ॥
नृत्यन्तः कृष्णपुरतः श्रीकृष्ण इव मैथिल ।
राधावेषधरा गोप्यः शतचंद्राननप्रभाः ॥ २३ ॥
तोषयन्त्यश्च राधां तां तथा राधापतिं जगुः ।
काश्चित्ताः सात्त्विकैर्भावैः संयुक्ता प्रेमविह्वलाः ॥ २४ ॥
योगीव चास्थिता भूमौ परमानंदसंप्लुताः ।
काश्चिल्लतासु वृक्षेषु भूम्यां वै विदिशासु च ॥ २५ ॥
पश्यन्त्यः श्रीपतिं देवं स्वस्मिन् वा मौनमास्थिताः ।
एवं रासे गोपवध्वः सर्वाः पूर्णमनोरथाः ॥ २६ ॥
बभूवुरेत्य गोविंदं सर्वेशं भक्तवत्सलम् ।
यत्प्रसादस्तु गोपीनां प्राप्तो राजन् महामते ॥ २७ ॥
इस प्रकार परम मनोहर
वृन्दावनाधीश्वर यदुराज भगवान् श्रीहरि केसरका तिलक धारण किये, गोपियों- के साथ वृन्दावनमें
विहार करने लगे। कुछ गोपाङ्गनाएँ वंशीधरको बाँसुरीके साथ वीणा बजाती थीं और कितनी ही
मृदङ्ग बजाती हुई भगवान् के गुण गाती थीं ॥ १४-१५ ॥
कुछ श्रीहरिके सामने
खड़ी हो मधुर स्वरसे खड़ताल बजातीं और बहुत-सी सुन्दरियाँ माधवी
लताके नीचे चंग बजाती
हुई श्रीकृष्णके साथ सुस्थिर- भावसे गीत गाती थीं । वे भूतलपर सांसारिक सुखको सर्वथा
भुलाकर वहाँ रम रही थीं। कुछ गोपियाँ लतामण्डपोंमें श्रीकृष्णके हाथ
को अपने हाथ में लेकर इधर-उधर घूमती हुई वृन्दावन की शोभा निहारती थीं ॥१६-१७॥
किन्हीं गोपियोंके हार
लता - जालसे उलझ जाते, तब गोविन्द उनके वक्षःस्थलका स्पर्श करते हुए उन हारोंको लता
- जालोंसे पृथक् कर देते थे। गोप सुन्दरियोंकी नासिकामें जो नकबेसरें थीं, उनमें मोतीकी
लड़ियाँ पिरोयी गयी थीं । उनको तथा उनकी अलकावलियों को श्यामसुन्दर
स्वयं सँभालते और धीरे-धीरे सुलझाकर सुशोभन बनाते रहते थे। माधव के
चबाये हुए सुगन्धयुक्त ताम्बूलमेंसे आधा लेकर तत्काल गोपसुन्दरियाँ भी चबाने लगती थीं
अहो ! उनका कैसा महान् तप था! कितनी ही गोपियाँ हँसती हुई श्यामसुन्दरके कपोलोंपर अपनी
दो अँगुलियोंसे धीरे-धीरे छूतों और कोई हँसती हुई बलपूर्वक हलका-सा आघात कर बैठती थीं
। कदम्ब वृक्षोंके नीचे पृथक्-पृथक् सभी गोपाङ्गनाओंके साथ उनका क्रीडा-विनोद चल रहा
था । १८ - २१ ॥
मिथिलेश्वर ! कुछ गोपाङ्गनाएँ
पुरुष-वेष धारण- कर, मुकुट और कुण्डलों से मण्डित हो, स्वयं नायक
बन जातीं और श्रीकृष्णके सामने उन्हींकी तरह नृत्य करने लगती थीं। जिनकी मुख- कान्ति
शत-शत चन्द्रमाओं- को तिरस्कृत करती थी, ऐसी गोपसुन्दरियाँ श्रीराधाका वेष धारण करके
श्रीराधा तथा उनके प्राणवल्लभ को आनन्दित करती हुई उनके यश गाती
थीं ।। २२ - २३ ॥
कुछ व्रजाङ्गनाएँ स्तम्भ,
स्वेद आदि सात्त्विक भावोंसे युक्त, प्रेम - विह्वल एवं परमानन्दमें निमग्न हो, योगिजनोंकी
भाँति समाधिस्थ होकर भूमिपर बैठ जाती थीं। कोई लताओंमें, वृक्षोंमें, भूतलमें, विभिन्न
दिशाओंमें तथा अपने-आपमें भी भगवान् श्रीपतिका दर्शन करती हुई मौनभाव धारण कर लेती
थीं। इस प्रकार रासमण्डलमें सर्वेश्वर, भक्तवत्सल गोविन्दकी शरण ले, वे सब गोप- सुन्दरियाँ
पूर्णमनोरथ हो गयीं। महामते राजन् ! वहाँ गोपियोंको भगवान् का
जो कृपाप्रसाद प्राप्त हुआ, वह ज्ञानियोंको भी नहीं मिलता, फिर कर्मियोंको तो मिल ही
कैसे सकता है ? ॥ २४-२७ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-छठा अध्याय..(पोस्ट१०)
सोमवार, 19 अगस्त 2024
श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) चौबीसवाँ अध्याय (पोस्ट 01)
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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(
श्रीवृन्दावनखण्ड )
चौबीसवाँ अध्याय (पोस्ट 01)
रास-विहार तथा आसुरि
मुनि का उपाख्यान
श्रीनारद
उवाच -
अथ गोपीगणैः सार्धं पश्यन् श्रीयमुनातटम् ।
विहर्तुमामयौ कृष्णो वृंदारण्यं मनोहरम् ॥ १ ॥
वृंदावने चौषधयो लीना जाता हरेर्वरात् ।
ताः सर्वाश्चांगना भूतवा यूथीभूत्वा समाययुः ॥ २ ॥
लतागोपीसमूहेन चित्रवर्णेन मैथिल ।
रेमे वृंदावने राजन् हरिर्वृंदावनेश्वरः ॥ ३ ॥
कालिन्दनन्दिनीतीरे कदंबाच्छादिते शुभे ।
त्रिविधेन समीरेण सर्वतः सुरभीकृते ॥ ४ ॥
विलसत्पुलिने रम्ये वंशीवटविराजिते ।
स्थितोऽभूद्राधया सार्धं रासश्रमसमन्वितः ॥ ५ ॥
वीणातालमृदंगादि मुरुयष्टियुतानि च ।
वादितत्राण्यंबरे नेदुः सुरैर्गोपीगणौः सह ॥ ६ ॥
देवेषु पुष्पं वर्षत्सु जयध्वनियुतेषु च ।
तोषयन्त्यो हरिं गोप्यो जगुस्तद्यश उत्तमम् ॥ ७ ॥
काश्चिद्वै मेघमल्लारं दीपकं च तथापराः ।
मालकोशं भैरवं च श्रीरागं च तथैव च ॥ ८ ॥
हिंदोलं च जगुः काश्चित् राजन् सप्तस्वरैः सह ।
काश्चित्तासां प्रमुग्धाश्च काश्चिन्मुग्धाः स्त्रियो नृप ॥ ९ ॥
काश्चित् प्रौढा प्रेमपराः श्रीकृष्णे लग्नमानसाः ।
जारधर्मेण गोविंदं काश्चिद्गोप्यो भजन्ति हि ॥ १० ॥
काश्चिच्छ्रीकृष्णसहिताः कन्दुकक्रीडने रताः ।
काश्चित् पुष्पैश्च हरिणा क्रीडां चक्रुः परस्परम् ॥ ११ ॥
काश्चिल्लतासु धावन्त्यः क्वणन् नूपुरमेखलाः ।
काश्चित् पिबंति सततं बलात्कृष्णाधरामृतम् ॥ १२ ॥
काचिद्भुजाभ्यां श्रीकृष्णं योगिनामपि दुर्लभम् ।
संगृहीत्वा प्रहस्याराच्चक्रुरालिंगनं महत् ॥ १३ ॥
नारदजी कहते हैं—तदनन्तर
गोपीगणोंके साथ यमुनातटका दृश्य देखते हुए श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण ते रास-विहारके लिये
मनोहर वृन्दावनमें आये । श्रीहरिके वरदानसे वृन्दावनकी ओषधियाँ विलीन हो गयीं और वे
सब की सब व्रजाङ्गना होकर, एक यूथके रूपमें संघटित हो, रासगोष्ठी में
सम्मिलित हो गयीं। मिथिलेश्वर ! लतारूपिणी गोपियोंका समूह विचित्र
कान्ति से सुशोभित था । उन सबके साथ वृन्दावनेश्वर श्रीहरि वृन्दावनमें विहार
करने लगे। कदम्ब वृक्षोंसे आच्छादित कालिन्दी के सुरम्य तटपर
सब ओर शीतल, मन्द, सुगन्ध वायु चलकर उस स्थानको सुगन्धपूर्ण कर रही थी । वंशीवट उस
सुन्दर पुलिन की रमणीयता को बढ़ा रहा था।
रासके श्रमसे थके हुए श्रीकृष्ण वहीं श्रीराधाके साथ आकर बैठे ॥ १-५
॥
उस समय गोपाङ्गनाओंके
साथ-साथ आकाशस्थित देवता भी वीणा, ताल, मृदङ्ग, मुरचंग आदि भाँति-भाँतिके वाद्य बजा
रहे थे तथा जय-जयकार करते हुए दिव्य फूल बरसा रहे थे । गोप-सुन्दरियाँ श्रीहरिको आनन्द
प्रदान करती हुई उनके उत्तम यश गाने लगीं ॥ ६-७ ॥
कुछ गोपियाँ मेघमल्लार
नामक राग गातीं तो अन्य गोपियाँ दीपक राग सुनाती थीं । राजन् ! कुछ गोपियोंने क्रमशः
मालकोश, भैरव, श्रीराग तथा हिन्दोल राग का सात स्वरोंके साथ गान
किया। नरेश्वर ! उनमें से कुछ गोपियाँ तो अत्यन्त भोली-भाली थीं और कुछ मुग्धाएँ थीं
। कितनी ही प्रेमपरायणा गोपसुन्दरियाँ प्रौढा नायिकाकी श्रेणीमें आती थीं । उन सबके
मन श्रीकृष्ण में लगे
थे। कितनी ही गोपाङ्गनाएँ जारभाव से गोविन्द- की सेवा करती थीं
॥ ८-१० ॥
कोई श्रीकृष्णके साथ
गेंद खेलने लगीं, कुछ श्रीहरिके साथ रहकर परस्पर फूलोंसे क्रीड़ा करने लगीं। कितनी
ही गोपाङ्गनाएँ पैरोंमें नूपुर धारण करके परस्पर नृत्य-क्रीड़ा करती हुई नूपुरोंकी
झंकारके साथ-साथ श्रीकृष्णके अधरामृत का पान कर लेती थीं। कितनी
ही गोपियाँ योगियों के लिये भी दुर्लभ श्रीकृष्णको दोनों भुजाओं से पकड़कर हँसती हुई अत्यन्त निकट आ जातीं और उनका गाढ़ आलिङ्गन करती
थीं ॥ ११-१३ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-छठा अध्याय..(पोस्ट०९)
रविवार, 18 अगस्त 2024
श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) तेईसवाँ अध्याय (पोस्ट 03)
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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(
श्रीवृन्दावनखण्ड )
तेईसवाँ अध्याय (पोस्ट 03)
कंस और शङ्खचूड में युद्ध तथा मैत्री का वृत्तान्त; श्रीकृष्णद्वारा
शङ्खचूड का वध
बहुलाश्व उवाच -
किं बभूव ततो रासे शंखचूडे समागते ।
एतन्मे भ्रूहि विप्रेंद्र त्वं परावरवित्तमः ॥ ३२ ॥
श्रीनारद उवाच -
व्याघ्राननं कृष्णवर्णं तालवृक्षदशोच्छ्रितम् ।
भयंकरं ललज्जिह्वं दृष्ट्वा गोप्योऽतितत्रसुः ॥ ३३ ॥
दुद्रुवुः सर्वतो गोप्यो महान् कोलाहलोऽभवत् ।
हाहाकारस्तदैवासीह् शंखचूडे समागते ॥ ३४ ॥
शतचंद्राननां गोपीं गृहीत्वा यक्षराट् खलः ।
दुद्रावाशूत्तरामाशां निःशंकः कामपीडितः ॥ ३५ ॥
रुदन्तीं कृष्ण कृष्णेति क्रोशन्तीं भयविह्वलाम् ।
तमन्वधावच्छ्रीकृष्णः शालहस्तो रुषा भृशम् ॥ ३६ ॥
यक्षो वीक्ष्य तमायान्तं कृतान्तमिव दुर्जयम् ।
गोपीं त्यक्त्वा जीवितेच्छुः प्राद्रवद्भयविह्वहः ॥ ३७ ॥
यत्र यत्र गतो धावन् शंखचूडो महाखलः ।
तत्र तत्र गतः कृष्णः शालहस्तो भृशं रुषा ॥ ३८ ॥
हिमाचलतटं प्राप्तः शालमुद्यम्य यक्षराट् ।
तस्थौ तत्संमुखे राजन् युद्धकामो विशेषतः ॥ ३९ ॥
तस्मै चिक्षेप भगवान् शालवृक्षं भुजौजसा ।
तेन घातेन पतितो वृक्षो वातहतो यथा ॥ ४० ॥
पुनरुत्थाय वैकुंठं मुष्टिना तं जघान ह ।
जगर्ज सहसा दुष्टो नादयम् मंडलं दिशाम् ॥ ४१ ॥
गृहीत्वा तं हरिर्दोर्भ्यां भ्रामयित्वा भुजौजसा ।
पातयामास भूपृष्ठे वातः पद्ममिवोद्धृतम् ॥ ४२ ॥
शंखचूडस्तं गृहीत्वा पोथयामास भूतले ।
एवं युद्धे संप्रवृत्ते चकंपे भूमिमण्डलम् ॥ ४३ ॥
मुष्टिना तच्छिरश्छित्वा तस्माच्चूडामणिं हरिः ।
जग्राह माधवः साक्षात्सुकृती शेवधिं यथा ॥ ४४ ॥
तज्ज्योतिर्निर्गतं दीर्घं द्योतयन्मण्डलं दिशाम् ।
श्रीदाम्नि श्रीकृष्णसखे लीनं जातं व्रजे नृप ॥ ४५ ॥
एवं हत्वा शंखचूडं भगवान् मधुसूदनः ।
मणिपाणिः पुनः शीघ्रमाययौ रासमंडलम् ॥ ४६ ॥
चंद्राननायै च मणिं दत्त्वा तं दीनवत्सलः ।
पुनर्गोपीनणैः सार्धं रासं चक्रे हरिः स्वयम् ॥ ४७ ॥
बहुलाश्वने पूछा- विप्रवर!
आप भूत और भविष्य - सब जानते हैं; अतः बताइये, रासमण्डलमें शङ्खचूडके आनेपर क्या हुआ
? ॥ ३२ ॥
श्रीनारदजीने कहा- राजन्
! शङ्खचूडका मुँह था बाघके समान और शरीरका रंग था एकदम काला- कलूटा। वह दस ताड़के बराबर
ऊँचा था और जीभ लपलपाकर जबड़े चाटता हुआ बड़ा भयंकर जान पड़ता था । उसे देखकर गोपाङ्गनाएँ
भयसे थर्रा उठीं और चारों ओर भागने लगीं। इससे महान् कोलाहल होने लगा। इस प्रकार शङ्खचूडके
आते ही रासमण्डल- में हाहाकार मच गया। वह कामपीड़ित दुष्ट यक्षराज शतचन्द्रानना नामवाली
गोपसुन्दरीको पकड़कर बिना किसी भय और आशङ्का उत्तर दिशाकी ओर दौड़ चला। शतचन्द्रानना
भय से व्याकुल हो 'कृष्ण ! कृष्ण !!' पुकारती हुई रोने लगी। यह
देख श्रीकृष्ण अत्यन्त कुपित हो, शालका वृक्ष हाथमें लिये, उसके पीछे दौड़े। कालके
समान दुर्जय श्रीकृष्णको पोछा करते देख यक्ष उस गोपीको छोड़कर भयसे विह्वल हो प्राण
बचानेकी इच्छासे भागा। महादुष्ट शङ्खचूड भागकर जहाँ-जहाँ गया, वहाँ-वहाँ श्रीकृष्ण
भी शालवृक्ष हाथमें लिये अत्यन्त रोषपूर्वक गये ॥ ३३ - ३८ ॥
राजन् ! हिमालयकी घाटी में पहुँचकर उस यक्षराजने भी एक शाल उखाड़ लिया और उनके सामने विशेषतः
युद्धकी इच्छा से वह खड़ा हो गया। भगवान् ने अपने बाहुबल से शङ्खचूडपर उस शालवृक्ष को दे मारा। उसके आघातसे
शङ्खचूड आँधी के उखाड़े हुए पेड़की भाँति पृथ्वीपर गिर पड़ा।
शङ्खचूडने फिर उठकर भगवान् श्रीकृष्णको मुक्केसे मारा। मारकर वह दुष्ट यक्ष सम्पूर्ण
दिशाओंको निनादित करता हुआ सहसा गरजने लगा । तब श्रीहरिने उसे दोनों हाथोंसे पकड़ लिया
और भुजाओंके बलसे घुमाकर उसी तरह पृथ्वीपर पटक दिया जैसे वायु उखाड़े हुए कमलको फेंक
देती है ॥ ३९ - ४२ ॥
शङ्खचूड ने भी श्रीकृष्ण को पकड़कर धरती पर दे मारा। जब इस प्रकार युद्ध चलने लगा, तब सारा भूमण्डल काँप उठा।
तब माधव श्रीकृष्णने मुक्केकी मारसे उसके सिरको धड़से अलग कर दिया और उसकी चूडामणि
ले ली- ठीक उसी तरह जैसे कोई पुण्यात्मा पुरुष कहींसे निधि प्राप्त कर लेता है। नरेश्वर
! शङ्खचूडके शरीरसे एक विशाल ज्योति निकली और दिङ्मण्डलको विद्योतित करती हुई व्रजमें
श्रीकृष्णसखा श्रीदामाके भीतर विलीन हो गयी। इस प्रकार शङ्खचूडका वध करके भगवान् मधुसूदन,
हाथमें मणि लिये, फिर शीघ्र ही रास - मण्डलमें आ गये। दीनवत्सल श्रीहरिने वह मणि शतचन्द्रानना को दे दी और पुनः समस्त गोपाङ्गनाओं के साथ रास
आरम्भ किया ।। ४३-४७ ॥
इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें
वृन्दावनखण्डके अन्तर्गत रासक्रीड़ाके प्रसङ्गमें 'शङ्खचूडका वध' नामक तेईसवाँ अध्याय
पूरा हुआ ॥ २३ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-छठा अध्याय..(पोस्ट०८)
शनिवार, 17 अगस्त 2024
श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) तेईसवाँ अध्याय (पोस्ट 02)
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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(
श्रीवृन्दावनखण्ड )
तेईसवाँ अध्याय (पोस्ट 02)
कंस और शङ्खचूड में युद्ध तथा मैत्री का वृत्तान्त; श्रीकृष्णद्वारा
शङ्खचूड का वध
शंखचूडं
संगृहीत्वा कंसो दैत्याधिपो बली ।
बलाच्चिक्षेप सहसा व्योम्नि तं शतयोजनम् ॥ १७ ॥
शंखचूडः प्रपतितः किंचिद्व्याकुलमानसः ।
कंसं गृहीत्वा नभसि चिक्षेपायुतयोजनम् ॥ १८ ॥
आकाशात्पतितः कंसः किंचिद्व्याकुलमानसः ।
यक्षं गृहीत्वा सहसा पातयामास भूतले ॥ १९ ॥
शंखचूडस्तं गृहीत्वा पोथयामास भूतले ।
एवं युद्धे संप्रवृत्ते चकंपे भूमिमंडलम् ॥ २० ॥
मुनीन्द्रः सर्ववित्साक्षाद्गर्गाचार्यः समागतः ।
रंगेषु वन्दितस्ताभ्यां कंसं प्राहोर्जया गिरा ॥ २१ ॥
श्रीगर्ग उवाच -
युद्धं मा कुरु राजेंद्र विफलोऽयं रणोऽत्र वै ।
त्वत्समानो ह्ययं वीरः शङ्खचूडो महाबलः ॥ २२ ॥
तव मुष्टिप्रहारेण भृशमैरावतो गजः ।
जानुभ्यां धरणीं स्पृष्ट्वा कश्मलं परमं ययौ ॥ २३ ॥
अन्येऽपि बलिनो दैत्या मुष्टिना ते मृतिं गताः ।
शंखचूडो न पतितः संदेहो नास्ति तच्छृणु ॥ २४ ॥
परिपूर्णतमो यो वै सोऽपि त्वां घातयिष्यति ।
तथैनं शंखचूडाख्यं शिवस्यापि वरोर्जितम् ॥ २५ ॥
तस्मात्प्रेम प्रकर्तव्यं शंखचूडे यदूद्वह ।
यक्षराट् च त्वया कंसे कर्तव्यं प्रेम निश्चितम् ॥ २६ ॥
श्रीनारद उवाच -
गर्गेणोक्तौ तदा तौ द्वौ मिलित्वाऽथ परस्परम् ।
परमां चक्रतुः प्रीतिं शंखचूडयदूद्वहौ ॥ २७ ॥
अथ कंसं सनुज्ञाप्य गृहं गन्तुं समुद्यतः ।
गच्छन् मार्गेऽशृणोद्रात्रौ रासगानं मनोहरम् ॥ २८ ॥
तालशब्दानुसारेण संप्राप्तो रासमंडले ।
रासेश्वर्या समं रासेऽपश्यद्रासेश्वरं हरिम् ॥ २९ ॥
श्रीराधयाऽलंकृतवामबाहुं
स्वच्छंदवक्रीकृतदक्षिणांघ्रिम् ।
वंशीधरं सुंदरमंदहासं
भ्रूमंडलैर्मोहितकामराशिम् ॥ ३० ॥
व्रजांगनायूथपतिं व्रजेश्वरं
सुसेवितं चामरछत्रकोटिभिः ।
विज्ञाय कृष्णं ह्यतिकोमलं शिशुं
गोपीं समाहर्तुमलं मनोऽकरोत् ॥ ३१ ॥
तदनन्तर दैत्यराज महाबली
कंसने शङ्खचूडको सहसा पकड़कर बलपूर्वक आकाशमें फेंक दिया। वह सौ योजन ऊपर चला गया।
शङ्खचूड आकाशसे जब वेगपूर्वक नीचे गिरा तो उसके मनमें किंचित् व्याकुलता आ गयी, तथापि
उसने भी कंसको पकड़कर आकाश में दस हजार योजन ऊँचे फेंक दिया। कंस भी आकाशसे गिरनेपर
मन-ही-मन कुछ व्याकुल हो उठा। फिर उसने यक्षको पकड़कर सहसा पृथ्वीपर दे मारा। फिर शङ्खचूडने
भी कंसको पकड़कर भूमिपर पटक दिया। इस प्रकार घोर युद्ध चलते रहनेके कारण भूमण्डल काँपने
लगा। इसी बीचमें सर्वज्ञ मुनिवर साक्षात् गर्गाचार्य वहाँ आ गये। दोनोंने रङ्गभूमिमें
उन्हें देखकर प्रणाम किया। तब गर्गने ओजस्विनी वाणीमें कंससे कहा ।। १७–२१ ॥
श्रीगर्गजी बोले - राजेन्द्र
! युद्ध न करो। इस युद्धसे कोई फल मिलनेवाला नहीं है। यह महाबली शङ्खचूड तुम्हारे समान
ही वीर है। तुम्हारे मुक्केकी मार खाकर गजराज ऐरावतने धरतीपर घुटने टेक दिये थे और
उसे अत्यन्त मूर्च्छा आ गयी थी। और भी बहुत-से दैत्य तुम्हारे मुक्केकी मार खाकर मृत्युके
ग्रास बन गये हैं, परंतु शङ्खचूड धराशायी नहीं हो सका । इसमें संदेह नहीं कि यह तुम्हारे
लिये अजेय है। इसका कारण सुनो। वे परिपूर्णतम परमात्मा जैसे तुम्हारा वध करनेवाले हैं,
उसी तरह भगवान् शिव के वरसे बलशाली हुए इस शङ्खचूड को भी मारेंगे।
अतः यदुनन्दन ! तुम्हें शङ्खचूड पर प्रेम करना चाहिये । यक्षराज
! तुम्हें भी अवश्य ही कंसपर प्रेमभाव रखना चाहिये ॥ २२ – २६ ॥
श्रीनारदजी कहते हैं-राजन्
! गर्गाचार्यजी के यों कहने पर शङ्खचूड
तथा कंस - दोनों परस्पर मिले और एक-दूसरेसे अत्यन्त प्रेम करने लगे। तदनन्तर कंससे
बिदा ले शङ्खचूड अपने घरको जाने लगा। रात्रिके समय मार्गमें उसे रासमण्डल मिला। वहाँ
ताल-स्वरसे युक्त मनोहर गान उसके कानमें पड़ा । फिर उसने रासमें श्रीरासेश्वरीके साथ
रासेश्वर श्रीकृष्णका दर्शन किया। उनकी बायीं भुजा श्रीराधाके कंधेपर सुशोभित थी। वे
स्वेच्छानुसार अपने दाहिने पैरको टेढ़ा किये खड़े थे। हाथमें वंशी लिये मुखसे सुन्दर
मन्द हासकी छटा छिटका रहे थे। उनके भूमण्डलपर राशि राशि कामदेव मोहित थे । व्रज- सुन्दरियोंके
यूथपति व्रजेश्वर श्रीकृष्ण कोटि-कोटि छत्र-चँवरोंसे सुसेवित थे। उन्हें अत्यन्त कोमल
शिशु जानकर शङ्खचूड ने गोपियों को हर ले
जाने का विचार किया ।। २७ – ३१ ।।
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-छठा अध्याय..(पोस्ट०७)
शुक्रवार, 16 अगस्त 2024
श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) तेईसवाँ अध्याय (पोस्ट 01)
श्रीगर्ग-संहिता
( श्रीवृन्दावनखण्ड
)
तेईसवाँ
अध्याय (पोस्ट 01)
कंस
और शङ्खचूड में युद्ध तथा मैत्री का वृत्तान्त;
श्रीकृष्णद्वारा शङ्खचूड का वध
श्रीनारद
उवाच -
अथ कृष्णो गोपिकाभिः लोकजंघवनं ययौ ।
वसन्तमाधवीभिश्च लताभिः संकुलं नृप ॥ १ ॥
तत्पुष्पदामनिचयैः स्फुरत्सौगंधिशालिभिः ।
सर्वासां हरिणा तत्र कबर्यो गुंफितास्ततः ॥ २ ॥
भ्रमरध्वनिसंयुक्ते सुगंधानिलवासिते ।
कालिन्दीनिकटे कृष्णो विचचार प्रियान्वितः ॥ ३ ॥
करिल्लैः पीलुभिः श्यामैः तमालैः संकुलद्रुमैः ।
महापुण्यवनं कृष्णो ययौ रासेश्वरो हरिः ॥ ४ ॥
तत्र रासं समारेभे रासेश्वर्या समन्वितः ।
गीयमानश्च गोपीभिरप्सरोभिः स्वराडिव ॥ ५ ॥
तत्र चित्रमभूद्राजन् शृणु त्वं तन्मुखान्मम ।
शंखचूडो मान यक्षो धनदानुचरो बली ॥ ६ ॥
भूतले तत्समो नास्ति गदायुद्धविशारदः ।
मन्मुकादौग्रसेनेश्च बलं श्रुत्वा महोत्कटम् ॥ ७ ॥
लक्षभारमयीं गुर्वीं गदामादाय यक्षराट् ।
स्वसकाशान्मधुपुरीमाययौ चण्डविक्रमः ॥ ८ ॥
सभायामास्थितं प्राह कंसं नत्वा मदोद्धतः ।
गदायुद्धं देहि मह्यं त्रैलोक्यविजयी भवान् ॥ ९ ॥
अहं दासो भवेयं वै भवांश्च विजयी यदि ।
अहं जयी चेद्भवन्तं दासं शीघ्रं करोम्यहम् ॥ १० ॥
तथास्तु चोक्त्वा कंसस्तु गृहीत्वा महतीं गदाम् ।
शंखचूडेन युयुधे रंगभूमौ विदेहराट् ॥ ११ ॥
तयोश्च गदया युद्धं घोररूपं बभूव ह ।
ताडनाच्चट्चटाशब्दं कालमेघतडिद्ध्वनि ॥ १२ ॥
शुशुभाते रंगमध्ये मल्लौ नाट्ये नटाविव ।
इभेन्द्राविव दीर्घांगौ मृगेन्द्राविव चोद्भटौ ॥ १३ ॥
द्वयोश्च युध्यतो राजन् परस्परजिगीषया ।
विस्फुलिंगान् क्षरन्त्यौ द्वे गदे चूर्णीबभूवतुः ॥ १४ ॥
कंसः प्रकुपितं यक्षं मुष्टिनाभिजघान ह ।
शंखचूडोऽपि तं कंसं मुष्टिना तं तताड च ॥ १५ ॥
मुष्टामुष्टि तयोरासीद्दिनानां सप्तविंशतिः ।
द्वयोरक्षीणबलयोर्विस्मयं गतयोस्ततः ॥ १६ ॥
श्रीनारदजी कहते हैं-
राजन् ! तत्पश्चात् श्रीकृष्ण व्रजाङ्गनाओंके साथ लोहजङ्घ-वनमें गये, जो वसन्तकी माधवी
तथा अन्यान्य लता - वल्लरियोंसे व्याप्त था । उस वनके सुगन्ध बिखेरने वाले सुन्दर फूलों के हारों से
श्रीहरि ने वहाँ समस्त गोपियों की वेणियाँ
अलंकृत कीं ।।१-२॥
भ्रमरों की गुंजार से निनादित और सुगन्धित वायु से वासित यमुनातटपर अपनी प्रेयसियों- के साथ श्यामसुन्दर विचरने लगे।
विचरते विचरते रासेश्वर श्रीकृष्ण उस महापुण्यवनमें जा पहुँचे, जो करील, पीलू तथा श्याम
तमाल और ताल आदि सघन वृक्षोंसै व्याप्त था। वहाँ रासेश्वरी श्रीराधा और गोपाङ्गनाओंके
साथ उनके मुखसे अपना यशोगान सुनते हुए श्रीहरिने रास आरम्भ किया। उस समय वे यश गाती
हुई अप्सराओंसे घिरे हुए देवराज इन्द्रके
समान सुशोभित हो रहे
थे ।। ३-५ ॥
राजन् ! वहाँ एक विचित्र
घटना घटित हुई, उसे तुम मेरे मुखसे सुनो। शङ्खचूड नामसे प्रसिद्ध एक बलवान् यक्ष था,
जो कुबेरका सेवक था। इस भूतल- पर उसके समान गदायुद्ध-विशारद योद्धा दूसरा कोई नहीं
था । एक दिन मेरे मुँहसे उग्रसेनकुमार कंसके उत्कट बलकी बात सुनकर वह प्रचण्ड - पराक्रमी
यक्षराज लाख भार लोहेकी बनी हुई भारी गदा लेकर अपने निवासस्थानसे मथुरामें आया ।। ६-८ ॥
उस मदोन्मत्त वीर ने राजसभामें
पहुँचकर वहाँ सिंहासनपर बैठे हुए कंसको प्रणाम किया और कहा- राजन् ! सुना है कि तुम
त्रिभुवनविजयी वीर हो, इसलिये मुझे अपने साथ गदायुद्ध का अवसर
दो। यदि तुम विजयी हुए तो मैं तुम्हारा दास हो जाऊँगा और यदि मैं विजयी हुआ तो तत्काल
तुम्हें अपना दास बना लूँगा ।' ।। ९-१० ॥
विदेहराज ! तब 'तथास्तु'
कहकर, एक विशाल गदा हाथ में ले, कंस रङ्गभूमि में
शङ्खचूड के साथ युद्ध करने लगा। उन दोनों में
घोर गदायुद्ध प्रारम्भ हो गया। दोनोंके परस्पर आघात - प्रत्याघातसे होनेवाला चट-चट
शब्द प्रलय- कालके मेघोंकी गर्जना और बिजली का गड़गड़ाहट के समान जान पड़ता था । उस रङ्गभूमिमें दो मल्लों, नाट्यमण्डली के
दो नटों, विशाल अङ्गवाले दो गजराजों तथा दो उद्भट सिंहोंके समान कंस और शङ्खचूड परस्पर
जूझ रहे थे । राजन् ! एक-दूसरेको जीत लेनेकी इच्छासे जूझते हुए उन दोनों वीरोंकी गदाएँ
आगकी चिनगारियाँ बरसाती हुई परस्पर टकराकर चूर-चूर हो गयीं ।। ११-१४
॥
कंस ने
अत्यन्त कोप से भरे हुए यक्षको मुक्केसे मारा; तब शङ्खचूडने भी
कंसपर मुक्केसे प्रहार किया। इस तरह मुक्का-मुक्की करते हुए उन दोनोंको सत्ताईस दिन
बीत गये। दोनोंमें से किसीका बल क्षीण नहीं हुआ। दोनों ही एक-दूसरेके
पराक्रमसे चकित थे ।। १५-१६ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
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