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मंगलवार, 10 सितंबर 2024
श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-आठवां अध्याय..(पोस्ट०४)
सोमवार, 9 सितंबर 2024
श्रीगर्ग-संहिता (गिरिराज खण्ड) छठा अध्याय (पोस्ट 01)
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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(गिरिराज खण्ड)
छठा अध्याय (पोस्ट 01)
गोपों का वृषभानुवर के वैभव की प्रशंसा करके
नन्दनन्दन की भगवत्ता का परीक्षण करनेके लिये उन्हें प्रेरित करना
और वृषभानुवर का कन्या के विवाहके लिये
वरको देने के निमित्त बहुमूल्य एवं बहुसंख्यक मौक्तिक-हार भेजना
तथा श्रीकृष्णकी कृपासे नन्दराजका वधू के लिये उनसे भी अधिक मौक्तिकराशि
भेजना
श्रीनारद उवाच -
वृषभानुवरस्येदं वचःश्रुत्वा व्रजौकसः।
ऊचुः पुनः शान्तिगता विस्मिता मुक्तसंशयाः ॥१॥
गोपा ऊचुः -
समीचीनं वरो राजन् राधेयं तु हरिप्रिया ।
तत्प्रभावेण ते दीर्घं वैभवं दृश्यते भुवि ॥२॥
सहस्रशो गजा मत्ताः कोटिशोऽश्वाश्च चंचलाः ।
रथाश्च देवधिष्ण्याभाः शिबिकाः कोटिशः शुभाः ॥३॥
कोटिशः कोटिशो गावो हेमरत्नमनोहराः ।
मन्दिराणी विचित्राणि रत्नानि विविधानि च ॥४॥
सर्वं सौख्यं भोजनादि दृश्यते साम्प्रतं तव ।
कंसोऽपि धर्षितो जातो दृष्ट्वा ते बलमद्भुतम् ॥५॥
कान्यकुब्जपतेः साक्षाद्भलन्दननृपस्य च ।
जामाता त्वं महावीर कुबेर इव कोशवान् ॥६॥
त्वत्समं वैभवं नास्ति नन्दराजगृहे क्वचित् ।
कृषीवलो नन्दराजो गोपतिर्दीनमानसः ॥७॥
यदि नन्दसुतः साक्षात्परिपूर्णतमो हरिः ।
सर्वेषां पश्यतां नस्तत्परिक्षां कारय प्रभो ॥८॥
श्रीनारद उवाच -
तेषां वाक्यं ततः श्रुत्वा वृषभानुवरो महान् ।
चकार नन्दराजस्य वैभवस्य परीक्षणम् ॥९॥
कोटिदामानि मुक्तानां स्थूलानां मैथिलेश्वर ।
एकैका येषु मुक्ताश्च कोटिमौल्याः स्फुरत्प्रभाः ॥१०॥
निधाय तानि पात्रेषु वृणानैः कुशलैर्जनैः ।
प्रेषयामास नन्दाय सर्वेषां पश्यतां नृप ॥११॥
नन्दराजसभां गत्वा वृणानाः कुशला भृशम् ।
निधाय दामपात्राणि नन्दमाहुः प्रणम्य तम् ॥१२॥
श्रीनारदजी कहते हैं— राजन् ! वृषभानुवरकी यह बात सुनकर
समस्त व्रजवासी शान्त हो गये। उनका सारा संशय दूर हो गया तथा उनके मनमें बड़ा विस्मय
हुआ ।। १ ।।
गोप बोले- राजन् ! तुम्हारा कथन सत्य है । निश्चय ही
यह राधा श्रीहरिकी प्रिया है। इसीके प्रभाव- से भूतलपर तुम्हारा वैभव अधिक दिखायी देता
है। वैभव अधिक दिखायी देता है। हजारों मतवाले हाथी, चञ्चल घोड़े तथा देवताओंके विमान-
सदृश करोड़ों सुन्दर रथ और शिबिकाएँ तुम्हारे यहाँ सुशोभित होती हैं। इतना ही नहीं,
सुवर्ण तथा रत्नोंके आभूषणोंसे विभूषित कोटि-कोटि मनोहर गौएँ, विचित्र भवन, नाना प्रकारके
मणिरत्न, भोजन-पान आदिका सर्वविध सौख्य- यह सब इस समय तुम्हारे घरमें प्रत्यक्ष देखा
जाता है। तुम्हारा अद्भुत बल देखकर कंस भी पराभूत हो गया है ।। २-५ ।।
महावीर ! तुम कान्यकुब्ज देशके स्वामी साक्षात् राजा
भलन्दनके जामाता हो तथा कुबेरके समान कोषाधिपति । तुम्हारे समान वैभव नन्दराजके घर
में कहीं नहीं है। नन्दराज तो किसान, गोयूथके अधिपति और दीन हृदयवाले हैं। प्रभो !
यदि नन्दके पुत्र साक्षात् परिपूर्णतम श्रीहरि हैं तो हम सबके सामने नन्द के वैभव की परीक्षा कराइये ॥ ६-८
॥
श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! उन गोपोंकी बात सुनकर
महान् वृषभानुवरने नन्दराजके वैभवकी परीक्षा की। मैथिलेश्वर ! उन्होंने स्थूल मोतियोंके
एक करोड़ हार लिये, जिनमें पिरोया हुआ एक-एक मोती एक-एक करोड़ स्वर्णमुद्राके मोलपर
मिलनेवाला था और उन सबकी प्रभा दूरतक फैल रही थी। नरेश्वर ! उन सबको पात्रोंमें रखकर
बड़े कुशल वर-वरणकारी लोगोंद्वारा सब गोपोंके देखते-देखते वृषभानुवरने नन्दराजजीके
यहाँ भेजा । नन्दराजकी सभामें जाकर अत्यन्त कुशल वर-वरणकर्ता लोगोंने मौक्तिक-हारोंके
पात्र उनके सामने रख दिये और प्रणाम करके उनसे कहा-- ।। ९ – १२
॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-आठवां अध्याय..(पोस्ट०३)
रविवार, 8 सितंबर 2024
श्रीगर्ग-संहिता (गिरिराज खण्ड) पाँचवाँ अध्याय (पोस्ट 03)
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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(गिरिराज खण्ड)
पाँचवाँ अध्याय (पोस्ट
03)
गोपों का श्रीकृष्ण के विषय में संदेहमूलक विवाद तथा श्रीनन्दराज
एवं वृषभानुवर के द्वारा समाधान
श्रीवृषभानुवर उवाच -
को दोषो नन्दराजस्य ज्ञातेस्तं सन्त्यजाम्यहम् ।
गोपेष्टो ज्ञातिमुकुटो नन्दराजो मम प्रियः ॥२६॥
गोपा ऊचुः -
न चेत्त्यजसि तं राजंस्त्यजामस्त्वां व्रजौकसः ।
त्वद्गृहे वर्धिता कन्योद्वाहयोग्या महामुने ॥२७॥
भवता ज्ञातिमुख्येन संपदुन्मदशालिना ।
न दत्ता वरमुख्याय कलुषं तव विद्यते ॥२८॥
अद्य त्वां ज्ञातिसंभ्रष्टं पृथङ्मन्यामहे नृप ।
न चेच्छीघ्रं नन्दराजं त्यज त्यज महामते ॥२९॥
श्रीवृषभानुवर उवाच -
गर्गस्य वाक्यं हे गोप वदिष्यामि समाहितः ।
येन गोपगणा यूयं भवताशु गतव्यथाः ॥३०॥
असंख्यब्रह्माण्डपतिर्गोलोकेशः परात्परः ।
तस्मात्परो वरो नास्ति जातो नन्दगृहे शिशुः ॥३१॥
भुवो भारावताराय कंसादिनां वधाय च ।
ब्रह्मणा प्रार्थितः कृष्णो बभूव जगतीतले ॥३२॥
श्रीकृष्णपट्टराज्ञी या गोलोके राधिकाऽभिधा ।
त्वद्गेहे साऽपि संजाता त्वं न जानासी तां पराम् ॥३३॥
अहं न कारयिष्यामि विवाहमनयोनृप ।
तयोर्विवाहो भविता भाण्डीरे यमुनातटे ॥३४॥
वृन्दावनसमीपे च निर्जने सुन्दरे स्थले ।
परमेष्ठी समागत्य विवाहं कारयिष्यति ॥३५॥
तस्माद्राधां गोपवर विद्ध्यर्द्धाङ्गीं परस्य च ।
लोकचूडामणेः साक्षाद्राज्ञीं गोलोकमन्दिरे ॥३६॥
यूयं सर्वेऽपि गोपाला गोलोकादागता भुवि ।
तथा गोपीगणा गावो गोकुले राधिकेच्छया ॥३७॥
एवमुक्त्वा गते साक्षाद्गर्गाचार्ये महामुनौ ।
तद्दिनादथ राधायां सन्देहं न करोम्यहम् ॥३८॥
वेदवाक्यं ब्रह्मवचः प्रमाणं हि महीतले ।
इति वः कथितं गोपाः किं भूयः श्रोतुमिच्छथ ॥३९॥
वृषभानुवर बोले –नन्दराजका क्या दोष है जिससे मैं उनको
त्याग दूँ ? नन्दराज तो समस्त गोपोंके प्रिय, अपनी जातिके मुकुट तथा मेरे भी परम् प्रिय
हैं ॥ २६ ॥
गोप बोले- राजन् ! महामते ! यदि तुम नन्दराजको नहीं
छोड़ोगे तो हम सब व्रजवासी तुम्हे छोड़ देंगे। तुम्हारे घरमें कन्या बड़ी आयुकी होकर
विवाहके योग्य हो गयी है और तुमने हमारी जातिके प्रधान होकर भी धन-सम्पत्तिके मदसे
मतवाले हो अबतक उसे किसी श्रेष्ठ वरके हाथमें नहीं सौंपा है।
इसलिये तुम्हारे ऊपर पाप चढ़ा हुआ है। महामते नरेश ! आज से हम
तुम्हें जातिभ्रष्ट तथा अपने से अलग मान लेंगे; नहीं तो शीघ्र
नन्दराज को छोड़ दो ॥ २७-२९ ॥
वृषभानुवर ने कहा— गोपगण ! मैं
एकाग्र- चित्त होकर गर्गजीकी कही हुई बात बता रहा हूँ. जिससे शीघ्र ही तुम्हारी चिन्ता-व्यथा
दूर हो जायगी उन्होंने बताया 'असंख्य ब्रह्माण्डोंके अधिपति लोकेश्वर, परात्पर भगवान्
श्रीकृष्ण नन्दगृह में बालक होकर अवतीर्ण हुए हैं। उनसे बढ़कर
श्रीराधाके लिये कोई वर नहीं है । ब्रह्माजीकी प्रार्थनासे भूगिका भार उतारने और कंसादिके वध करनेके लिये भूतल पर श्रीकृष्णका अवतार हुआ है ॥ ३०-३२ ॥
गोलोक में, 'श्रीराधा नाम की जो श्रीकृष्ण की पटरानी हैं, वे ही तुम्हारे
घर में कन्यारूपसे अवतीर्ण हुई हैं। उन 'परा देवी को तुम नहीं जानते। मैं इन दोनोंका
विवाह नहीं कराऊँगा इनका विवाह यमुनातटपर भाण्डीर-वन में होगा
। वृन्दावन के समीप निर्जन सुन्दर स्थल में साक्षात ब्रह्माजी पधार कर श्रीराधा तथा
श्रीकृष्ण का विवाह- कार्य सम्पन्न करायेंगे ॥३३-३५॥
अतः गोपप्रवर ! तुम श्रीराधा को लोकचूडामणि साक्षात् परमात्मा श्रीकृष्ण की
अर्धाङ्गस्वरूपा एवं गोलोकधाम की महारानी समझो। तुम समस्त गोपगण
भी गोलोक में इस भूतलपर आये हो। इसी तरह गोपियाँ और गौएँ भी श्रीराधाकी
इच्छासे ही गोलोकसे गोकुलमें आयी हैं।" यों कहकर साक्षात् महामुनि गर्गाचार्य
जब चले गये, उसी दिन से श्रीराधाके विषयमें मैं कभी कोई संदेह या शङ्का नहीं करता ।
इस भूतलपर ब्राह्मणवचन वेदवाक्यवत् प्रमाण हैं । गोपो ! यह सब रहस्य मैंने तुम्हें
सुना दिया; अब और क्या सुनना चाहते हो ? ॥ ३६ - ३९ ॥
इस प्रकार श्रीगर्गसंहिता में श्रीगिरिराजखण्ड
अन्तर्गत श्रीनारद - बहुलाश्व-संवादमें 'गोपविवाद' नामक पाँचवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥
५ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-आठवां अध्याय..(पोस्ट०२)
शनिवार, 7 सितंबर 2024
श्रीगर्ग-संहिता (गिरिराज खण्ड) पाँचवाँ अध्याय (पोस्ट 02)
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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(गिरिराज खण्ड)
पाँचवाँ अध्याय (पोस्ट
02)
गोपों का श्रीकृष्ण के विषय में संदेहमूलक विवाद तथा श्रीनन्दराज
एवं वृषभानुवर के द्वारा समाधान
शुक्लो रक्तस्तथा पीतो
वर्णोऽस्यानुयुगं धृतः ।
द्वापरांते कलेरादौ बालोऽयं कृष्णतां गतः ॥१३॥
तस्मात्कृष्ण इति ख्यातो नाम्नायं नन्दनन्दनः ।
वसवश्चेन्द्रियाणीति तद्देवश्चित्त एव हि ॥१४॥
तस्मिन्यश्चेष्टते सोऽपि वासुदेव इति स्मृतः ॥१५॥
वृषभानुसुता राधा या जाता कीर्तिमन्दिरे ।
तस्याः पतिरयं साक्षात्तेन राधापतिः स्मृतः ॥१६॥
परिपूर्णतमः साक्षाच्छ्रीकृष्णो भगवान्स्वयम् ।
असंख्यब्रह्माण्डपतिर्गोलोके धाम्नि राजते ॥१७॥
सोऽयं तव शिशुर्जातो भारावतरणाय च ।
कंसादीनां वधार्थाय भक्तानां पालनाय च ॥१८॥
अनन्तान्यस्य नामानि वेदगुह्यानि भारत ।
लीलाभिश्च भविष्यन्ति तत्कर्मसु न विस्मयः ॥१९॥
इति श्रुत्वाऽऽत्मजे गोपाः सन्देहं न करोम्यहम् ।
वेदवाक्यं ब्रह्मवचः प्रमाणं हि महीतले ॥२०॥
गोपा ऊचुः -
यद्यागतस्तव गृहे गर्गाचार्यो महामुनिः ।
तत्क्षणे नामकरणे नाहूता ज्ञातयस्त्वया ॥२१॥
स्वगृहे नामकरणं भवता च कृतं शिशोः ।
तव चैतादृशी रीतिर्गुप्तं सर्वं गृहेऽपि यत् ॥२२॥
श्रीनारद उवाच -
एवं वदंतस्ते गोपा निर्गता नन्दमन्दिरात् ।
वृषभानुवरं जग्मुः क्रोधपूरितविग्रहाः ॥२३॥
वृषभानुवरं साक्षान्नन्दराजसहायकम् ।
प्राहुर्गोपगणाः सर्वे ज्ञातेर्मदसमन्विताः ॥२४॥
गोपा ऊचुः -
वृषभानुवर त्वं वै ज्ञातिमुख्यो महामनाः ।
नन्दराजं त्यज ज्ञातेर्हे गोपेश्वर भूपते ॥२५॥
युग के अनुसार इसका वर्ण सत्ययुग में 'शुक्ल', त्रेतामें 'रक्त' तथा द्वापरमें 'पीत' होता आया है। इस
समय द्वापर के अन्त और कलियुग के आदि में यह बालक 'कृष्ण' रूप को प्राप्त हुआ है,
इस कारण से यह नन्दनन्दन 'कृष्ण' नामसे विख्यात है । पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ तथा मन,
बुद्धि, चित्त — ये तीन प्रकारके अन्तःकरण 'आठ वसु' कहे गये हैं। इनके अधिष्ठाता देवता
भी इसी नामसे प्रसिद्ध हैं। इन वसुओंमें अन्तर्यामीरूपसे स्थित होकर ये श्रीकृष्णदेव
ही चेष्टा करते हैं, इसलिये इन्हें 'वासुदेव' कहा गया है ।। १३-१५
॥
"वृषभानुनन्दिनी राधा" जो कीर्ति के भवन में प्रकट हुई है, उसके साक्षात् पति
ये ही हैं; इसलिये इन्हें 'राधापति' भी कहा गया है ॥ १६ ॥
ये साक्षात् परिपूर्णतम भगवान् श्रीकृष्ण असंख्य ब्रह्माण्डोंके
अधिपति हैं और सर्वत्र व्यापक होते हुए भी स्वरूपसे गोलोक - धाममें विराजते हैं। नन्द
! वे ही ये भगवान् भूतल का भार उतारने, कंसादि दैत्योंको मारने
तथा भक्तों का पालन करने के लिये तुम्हारे
पुत्ररूप में प्रकट हुए हैं ॥ १७-१८ ॥
भरतवंशी नन्द ! इस बालक के अनन्त
नाम हैं, जो वेदों के लिये भी गोपनीय हैं तथा इसकी लीलाओंके अनुसार
और भी बहुत-से नाम विख्यात होंगे। अतः इसके कितने ही महान् विलक्षण कर्म क्यों न हों,
उनके सम्बन्धमें कोई विस्मय नहीं करना चाहिये। गोपगण ! अपने पुत्रके विषयमें गर्गजीकी
कही हुई इस बातको सुनकर मैं कभी संदेह नहीं करता; क्योंकि पृथ्वीपर वेद वाक्य और ब्राह्मण-वचन
ही प्रमाण हैं" ।। १९-२० ॥
गोप बोले- यदि महामुनि गर्गाचार्य तुम्हारे घर आये
थे, तब उसी समय नामकरण संस्कारमें तुमने भाई-बन्धुओंको क्यों नहीं बुलाया ? चुपचाप
अपने घरमें ही बालकका नामकरण संस्कार कर लिया। यह तुम्हारी अच्छी रीति है कि सारा कार्य
घरमें ही गुप-चुप कर लिया जाय ॥ २१-२२ ॥
श्रीनारदजी कहते हैं— राजन् ! यों कहकर क्रोधसे भरे
हुए गोप नन्दमन्दिर से निकलकर वृषभानुवरके
पास गये। वृषभानुवर नन्दराजके साक्षात सहायक थे, तथापि इसकी परवाह न करके जातीय संघटनके
बलसे उन्मत्त हुए गोप उनके पास जाकर बोले ।। २३-२४ ॥
गोपोंने कहा- हे वृषभानुवर ! तुम हमारे जातिवर्गमें
प्रधान और महामनस्वी हो । अतः गोपेश्व भूपाल! तुम नन्दराजको जातिसे अलग कर दो ॥ २५ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-आठवां अध्याय..(पोस्ट०१)
शुक्रवार, 6 सितंबर 2024
श्रीगर्ग-संहिता (गिरिराज खण्ड) पाँचवाँ अध्याय (पोस्ट 01)
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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(गिरिराज खण्ड)
पाँचवाँ अध्याय (पोस्ट
01)
गोपों का श्रीकृष्ण के विषय में संदेहमूलक विवाद तथा श्रीनन्दराज
एवं वृषभानुवर के द्वारा समाधान
श्रीनारद उवाच -
एकदा सर्वगोपाला गोप्यो नन्दसुतस्य तत् ।
अद्भुतं चरितं दृष्ट्वा नन्दमाहुर्यशोमतीम् ॥१॥
गोपा ऊचुः -
हे गोपराज त्वद्वंशे कोऽपि जातो न चाद्रिधृक् ।
न क्षमस्त्वं शिलां धर्त्तुं सप्ताहं हे यशोमति ॥२॥
क्व सप्तहायनो बालः क्वाद्रिराजस्य धारणम् ।
तेन नो जायते शंका तव पुत्रे महाबले ॥३॥
अयं बिभ्रद्गिरिवरं कमलं गजराडिव ।
उच्छिलींध्रं यथा बालो हस्तेनैकेन लीलया ॥४॥
गौरवर्णा यशोदे त्वं नन्द त्वं गौरवर्णधृक् ।
अयं जातः कृष्णवर्ण एतत्कुलविलक्षणम् ॥५॥
यद्वाऽस्तु क्षत्रियाणां तु बाल एतादृशो यथा ।
बलभद्रे न दोषः स्याच्चन्द्रवंशसमुद्भवे ॥६॥
ज्ञातेस्त्यागं करिष्यामो यदि सत्यं न भाषसे ।
गोपेषु चास्य वोत्पत्तिं वद चेन्न कलिर्भवेत् ॥७॥
श्रीनारद उवाच -
श्रुत्वा गोपालवचनं यशोदा भयविह्वला ।
नन्दराजस्तदा प्राह गोपान् क्रोधप्रपूरितान् ॥८॥
श्रीनंद उवाच -
गर्गस्य वाक्यं हे गोपा वदिष्यामि समाहितः ।
येन गोपगणा यूयं भवताशु गतव्यथाः ॥९॥
ककारः कमलाकान्तो ऋकारो राम इत्यपि ।
षकारः षड्गुणपतिः श्वेतद्वीपनिवासकृत् ॥१०॥
णकारो नारसिंहोऽयमकारो ह्यक्षरोऽग्निभुक् ।
विसर्गौ च तथा ह्येतौ नरनारायणावृषी ॥११॥
संप्रलीनाश्च षट् पूर्णा यस्मिञ्छब्दे महात्मनि ।
परिपूर्णतमे साक्षात्तेन कृष्णः प्रकीर्तितः ॥१२॥
श्रीनारदजी कहते हैं - एक समय समस्त गोपों और गोपियोंने
नन्दनन्दनके उस अद्भुत चरित्रको देखकर यशोदासहित नन्द के पास
जाकर कहा ॥ १ ॥
गोप बोले – हे यशोमय गोपराज ! तुम्हारे वंशमें पहले
कभी कोई भी ऐसा बालक नहीं उत्पन्न हुआ था, जो पर्वत उठा लें। तुम स्वयं तो एक शिलाखण्ड
भी सात दिनतक नहीं उठाये रह सकते। कहाँ तो सात वर्षका बालक और कहाँ उसके द्वारा इतने
बड़े गिरिराजको हाथपर उठाये रखना । इससे तुम्हारे इस महाबली पुत्र के
विषय में हमें शङ्का होती है। जैसे गजराज एक कमल उठा ले और जैसे
बालक गोबर- छत्ता हाथ में ले ले, उसी तरह इसने खेल ही खेल में एक हाथ से गिरिराज को
उठा लिया था ।। २-४ ॥
यशोदे ! तुम गोरी हो, और नन्दजी ! तुम भी सुवर्णसदृश
गौरवर्णके हो; किंतु यह श्यामवर्णका उत्पन्न हुआ है। इसका रूप-रंग इस कुलके लोगोंसे
सर्वथा विलक्षण है। यह बालक तो ऐसा है, जैसे श्रत्रियोंके कुलमें उत्पन्न हुआ हो ।
बलभद्रजी भी विलक्षण हैं, किन्तु इनकी विलक्षणता कोई दोषकी बात नहीं है; क्योंकि इनका
जन्म चन्द्रवंशमें हुआ है । यदि तुम सच सच नहीं बताओगे तो हम तुम्हें जातिसे बहिष्कृत
कर देंगे। अथवा यह बताओ कि गोपकुलमें इसकी उत्पत्ति कैसे हुई
? यदि नहीं बताओगे तो हमसे तुम्हारा झगड़ा होगा ।। ५ ७ ॥
श्रीनारदजी कहते हैं—गोपोंकी बात सुनकर यशोदाजी तो
भयसे काँप उठीं, किंतु उस समय क्रोधसे भरे हुए गोपगणोंसे नन्दराज इस प्रकार बोले ॥
८ ॥
श्रीनन्दजीने कहा- गोपगण ! मैं एकाग्रचित्त होकर गर्गजीकी
कही हुई बात तुम्हें बता रहा हूँ, जिससे तुम्हारे मनकी चिन्ता और व्यथा शीघ्र दूर हो
जायगी। पहले 'कृष्ण' शब्दके अक्षरोंका अभिप्राय सुनो – 'ककार' कमलाकान्तका वाचक है;
'ऋकार' रामका बोधक है; 'षकार' श्वेतद्वीपनिवासी षड्विध ऐश्वर्य-गुणोंके स्वामी भगवान्
विष्णुका वाचक है; ' ॥ ९-१० ॥
णकार' साक्षात् नरसिंहस्वरूप है; 'अकार' उस अक्षर पुरुषका
बोधक है, जो अग्नि को भी पी जाता है अन्तमें जो 'विसर्ग' नामक
दो बिन्दु हैं, ये 'नर' और नारायण' ऋषियोंके प्रतीक हैं। ये छहों पूर्ण तत्त्व जिस
परिपूर्णतम परमात्मामें लीन हैं, वही साक्षात् 'कृष्ण' है। इसी अर्थमें इस बालकका नाम
'कृष्ण' कहा गया है ॥ ९-१२ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-सातवां अध्याय..(पोस्ट१७)
गुरुवार, 5 सितंबर 2024
श्रीगर्ग-संहिता (गिरिराज खण्ड) चौथा अध्याय (पोस्ट 02)
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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(गिरिराज खण्ड)
चौथा अध्याय (पोस्ट 02)
इन्द्र द्वारा भगवान्
श्रीकृष्णकी स्तुति तथा सुरभि और ऐरावत द्वारा उनका अभिषेक
कृष्णाभिषेके संजाते गिरिर्गोवर्धनो
महान् ।
द्रवीभूतोऽवहद्राजन् हर्षानन्दादितस्ततः ॥११॥
प्रसन्नो भगवांस्तस्मिन्कृतवान्हस्तपंकजम् ।
तद्धस्तचिह्नमद्यापि दृश्यते तद्गिरौ नृप ॥१२॥
तत्तीर्थं च परं भूतं नराणां पापनाशनम् ।
तदेव पादचिह्नं स्यात्तत्तीर्थं विद्धि मैथिल ॥१३॥
एतावत्तस्य तत्रैव पादचिह्नं बभूव ह ।
सुरभेः पादचिह्नानि बभूवुस्तत्र मैथिल ॥१४॥
द्युगङ्गाजलपातेन कृष्णस्नानेन मैथिल ।
तत्र वै मानसी गङ्गा गिरौ जाताऽघनाशिनी ॥१५॥
सुरभेर्दुग्धधाराभिर्गोविन्दस्नानतो नृप ।
जातो गोविन्दकुण्डोऽद्रौ महापापहरः परः ॥१६॥
कदाचित्तस्मिन्दुग्धस्य स्वादुत्वं प्रतिपद्यते ।
तत्र स्नात्वा नरः साक्षाद्गोविन्दपदमाप्नुयात् ॥१७॥
प्रदक्षिणीकृत्य हरिं प्रणम्य वै
दत्त्वा बलींस्तत्र पुरन्दरादयः ।
जयध्वनिं कृत्य सुपुष्पवर्षिणो
ययुः सुराः सौख्ययुतास्त्रिविष्टपम् ॥१८॥
कृष्णाभिषेकस्य कथां शृणोति यो
दशाश्वमेधावभृथाधिकं फलम् ।
प्राप्नोति राजेन्द्र स एव भूयसः
परं पदं याति परस्य वेधसः ॥१९॥
राजन् ! श्रीकृष्णका अभिषेक सम्पन्न हो जानेपर वह महान्
पर्वत गोवर्धन हर्ष एवं आनन्दसे द्रवीभूत होकर सब ओर बहने लगा। तब भगवान्ने प्रसन्न
होकर उसके ऊपर अपना हस्तकमल रखा । नरेश्वर ! उस पर्वतपर भगवान्के हाथका वह चिह्न आज
भी दृष्टिगोचर होता है। वह परम पवित्र तीर्थ हो गया, जो मनुष्योंके पापोंका नाश करनेवाला
है। वहीं चरणचिह्न भी है। मैथिल ! उसे भी परम तीर्थ समझो। जहाँ हस्तचिह्न है, वहीं
उतना ही बड़ा चरणचिह्न भी हुआ। मैथिल ! उसी स्थानपर सुरभि देवीके चरणचिह्न भी बन गये।
मिथिलेश्वर ! श्रीकृष्णके स्नानके निमित्त जो आकाशगङ्गाका जल गिरा, उससे वहीं 'मानसी
गङ्गा' प्रकट हो गयीं, जो सम्पूर्ण पापोंका नाश करनेवाली हैं। नरेश्वर । सुरभिकी दुग्ध-धाराओंसे
गोविन्दने जो स्नान किया, उससे उस पर्वतपर 'गोविन्दकुण्ड प्रकट हो गया, जो बड़े-बड़े
पापोंको हर लेनेवाला परमपावन तीर्थ है ॥ ११-१६ ॥
कभी-कभी उस तीर्थके जलमें दूधका-सा स्वाद प्रकट होता
है । उसमें स्नान करके मनुष्य साक्षात् गोविन्दके धामको प्राप्त होता है ॥ १७ ॥
इस प्रकार वहाँ श्रीहरि की परिक्रमा
करके, उन्हें प्रणामपूर्वक बलि (पूजोपहार) समर्पित करने के पश्चात्
इन्द्र आदि देवता जय-जयकारपूर्वक पुष्प बरसाते हुए बड़े सुखसे स्वर्गलोकको लौट गये।
राजेन्द्र ! जो श्रीकृष्णाभिषेक की इस कथा को
सुनता है, वह दस अश्वमेध यज्ञों के अवभृथ स्नानसे अधिक पुण्य-
फलको पाता है । फिर वह परम-विधाता परमेश्वर श्रीकृष्णके परमपदको प्राप्त होता है ।।
१८ - १९॥
इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें श्रीगिरिराजखण्डके
अन्तर्गत श्रीनारद - बहुलाश्व-संवादमें 'श्रीकृष्णका अभिषेक' नामक चौथा अध्याय पूरा
हुआ ॥ ४ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
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