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शुक्रवार, 20 सितंबर 2024
श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-नवां अध्याय..(पोस्ट०९)
गुरुवार, 19 सितंबर 2024
श्रीगर्ग-संहिता (गिरिराज खण्ड) दसवाँ अध्याय (पोस्ट 01)
श्रीगर्ग-संहिता
(गिरिराज
खण्ड)
दसवाँ
अध्याय (पोस्ट 01)
गोवर्धन शिला के
स्पर्श से एक राक्षस का उद्धार तथा दिव्यरूपधारी उस सिद्ध के मुख से गोवर्द्धन की महिमा
का वर्णन
श्रीनारद उवाच -
अत्रैवोदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
यस्य श्रवणमात्रेण महापापं प्रणश्यति ॥१॥
विजयो ब्राह्मणः कश्चिद्गौतमीतीरवासकृत् ।
आययौ स्वमृणं नेतुं मथुरां पापनाशिनीम् ॥२॥
कृत्वा कार्यं गृहं गच्छन् गोवर्धनतटीं गतः ।
वर्तुलं तत्र पाषाणं चैकं जग्राह मैथिल ॥३॥
शनैः शनैर्वनोद्देशे निर्गतो व्रजमंडलात् ।
अग्रे ददर्श चायान्तं राक्षसं घोररूपिणम् ॥४॥
हृदये च मुखं यस्य त्रयः पादा भुजाश्च षट् ।
हस्तत्रयं च स्थूलोष्ठो नासा हस्तसमुन्नता ॥५॥
सप्तहस्ता ललज्जिह्वा कंटकाभास्तनूरुहाः ।
अरुणे अक्षिणी दीर्घे दंता वक्रा भयंकराः ॥६॥
राक्षसो घुर्घुरं शब्दं कृत्वा चापि बुभुक्षितः ।
आययौ संमुखे राजन् ब्राह्मणस्य स्थितस्य च ॥७॥
गिरिराजोद्भवेनासौ पाषाणेन जघान तम् ।
गिरिराजशिलास्पर्शात्त्यक्त्वाऽसौ राक्षसीं तनुम् ॥८॥
पद्मपत्रविशालाक्षः श्यामसुन्दरविग्रहः ।
वनमाली पीतवासा मुकुटी कुंडलान्वितः ॥९॥
वंशीधरो वेत्रहस्तः कामदेव इवापरः ।
भूत्वा कृतांजलिर्विप्रं प्रणनाम मुहुर्मुहुः ॥१०॥
सिद्ध उवाच -
धन्यस्त्वं ब्राह्मणश्रेष्ठ परत्राणपरायणः ।
त्वया विमोचितोऽहं वै राक्षसत्वान्महामते ॥११॥
पाषाणस्पर्शमात्रेण कल्याणं मे बभूव ह ।
न कोऽपि मां मोचयितुं समर्थो हि त्वया विना ॥१२॥
श्रीब्राह्मण उवाच -
विस्मितस्तव वाक्येऽहं न त्वां मोचयितुं क्षमः ।
पाषाणस्पर्शनफलं न जाने वद सुव्रत ॥१३॥
श्रीनारदजी कहते हैं— राजन् ! इस विषय में एक पुराने इतिहास का वर्णन किया जाता है,
जिसके श्रवण मात्र से बड़े-बड़े पापों का
विनाश हो जाता है ॥ १ ॥
गौतमी गङ्गा (गोदावरी) के तटपर विजय नामसे प्रसिद्ध
एक ब्राह्मण रहता था। वह अपना ऋण वसूल करनेके लिये पापनाशिनी मथुरापुरीमें आया । अपना
कार्य पूरा करके जब वह घरको लौटने लगा, तब गोवर्द्धनके तटपर गया। मिथिलेश्वर ! वहाँ
उसने एक गोल पत्थर ले लिया । धीरे-धीरे वनप्रान्तमें होता हुआ जब वह व्रजमण्डलसे बाहर
निकल गया, तब उसे अपने सामनेसे आता हुआ एक घोर राक्षस दिखायी दिया। उसका मुँह उसकी
छातीमें था। उसके तीन पैर और छः भुजाएँ थीं, परंतु हाथ तीन ही थे। ओठ बहुत ही मोटे
और नाक एक हाथ ऊँची थी। उसकी सात हाथ लंबी जीभ लपलपा रही थी, रोएँ काँटोंके समान थे,
आँखें बड़ी-बड़ी और लाल थीं, दाँत टेढ़े-मेढ़े और भयंकर थे । राजन् ! वह राक्षस बहुत
भूखा था, अतः 'घुर घुर' शब्द करता हुआ वहाँ खड़े हुए ब्राह्मणके सामने आया। ब्राह्मणने
गिरिराजके पत्थरसे उस राक्षसको मारा। गिरिराजकी शिलाका स्पर्श होते ही वह राक्षस-शरीर
छोड़कर श्यामसुन्दर रूपधारी हो गया। उसके विशाल नेत्र प्रफुल्ल कमलपत्रके समान शोभा
पाने लगे। वनमाला, पीताम्बर, मुकुट और कुण्डलोंसे उसकी बड़ी शोभा होने लगी। हाथमें
वंशी और बेंत लिये वह दूसरे कामदेवके समान प्रतीत होने लगा । इस प्रकार दिव्यरूपधारी
होकर उसने दोनों हाथ जोड़कर ब्राह्मण-देवताको बारंबार प्रणाम किया । २ – १० ॥
सिद्ध बोला- ब्राह्मणश्रेष्ठ ! तुम धन्य हो; क्योंकि
दूसरोंको संकटसे बचानेके पुण्यकार्यमें लगे हुए हो। महामते ! आज तुमने मुझे राक्षसकी
योनिसे छुटकारा दिला दिया । इस पाषाणके स्पर्शमात्रसे मेरा कल्याण हो गया। तुम्हारे
सिवा दूसरा कोई मेरा उद्धार करनेमें समर्थ नहीं था ।। ११-१२ ॥
ब्राह्मण बोले- सुव्रत ! मैं तो तुम्हारी बात सुनकर
आश्चर्यमें पड़ गया हूँ। मुझमें तुम्हारा उद्धार करनेकी शक्ति नहीं है । पाषाण के स्पर्शका क्या फल है, यह भी मैं नहीं जानता; अतः तुम्हीं बताओ ॥
१३ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-नवां अध्याय..(पोस्ट०८)
बुधवार, 18 सितंबर 2024
श्रीगर्ग-संहिता (गिरिराज खण्ड) नवाँ अध्याय (पोस्ट 03)
#
श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(गिरिराज खण्ड)
नवाँ अध्याय (पोस्ट 03)
गिरिराज गोवर्धन की उत्पत्ति का वर्णन
श्रीनारद उवाच -
तथाऽस्तु चोक्त्वा भगवान् रहोयोग्यं विचिन्तयन् ।
स्वनेत्रपंकजाभ्यां तु हृदयं संददर्श ह ॥३२॥
तदैव कृष्णहृदयाद्गोपीव्यूहस्य पश्यतः ।
निर्गतं सजलं तेजोऽनुरागस्येव चांकुरम् ॥३३॥
पतितं रासभूमौ तद्ववृधे पर्वताकृति ।
रत्नधातुमयं दिव्यं सुनिर्झरदरीवृतम् ॥३४॥
कदंबबकुलाशोकलताजालमनोहरम् ।
मन्दारकुन्दवृन्दाढ्यं सुपक्षिगणसंकुलम् ॥३५॥
क्षणमात्रेण वैदेह लक्षयोजनविस्तृतम् ।
शतकोटिर्योजनानां लंबितं शेषवत्पुनः ॥३६॥
ऊर्ध्वं समुन्नतं जातं पञ्चाशत्कोटियोजनम् ।
करीन्द्रवत्स्थितं शश्वत्पञ्चाशत्कोटिविस्तृतम् ॥३७॥
कोटियोजनदीर्घांगैः शृङ्गानां शतकैः स्फुरत् ।
उच्चकैः स्वर्णकलशैः प्रासादमिव मैथिल ॥३८॥
गोवर्धनाख्यं तच्चाहुः शतशृङ्गं तथापरे ।
एवंभूतं तु तदपि वर्द्धितं मनसोत्सुकम् ॥३९॥
कोलाहले तदा जाते गोलोके भयविह्वले ।
वीक्ष्योत्थाय हरिः साक्षाद्धस्तेनाशु तताड तम् ॥४०॥
किं वर्द्धसे भो प्रच्छिन्नं लोकमाच्छाद्य तिष्ठसि ।
किं वा न चैते वसितुं तच्छान्तिमकरोद्धरिः ॥४१॥
संवीक्ष्य तं गिरिवरं प्रसन्ना भगवत्प्रिया ।
तस्मिन् रहःस्थले राजन् रराज हरिणा सह ॥४२॥
सोऽयं गिरिवरः साक्षाच्छ्रीकृष्णेन प्रणोदितः ।
सर्वतीर्थमयः श्यामो घनश्यामः सुरप्रियः ॥४३॥
भारतात्पश्चिमदिशि शाल्मलीद्वीपमध्यतः ।
गोवर्धनो जन्म लेभे पत्न्यां द्रोणाचलस्य च ॥४४॥
पुलस्त्येन समानीतो भारते व्रजमण्डले ।
वैदेह तस्यागमनं मया तुभ्यं पुरोदितम् ॥४५॥
यथा पुरा वर्द्धितुमुत्सुकोऽयं
तथा पिधानं भविता भुवो वा ।
विचिन्त्य शापं मुनिना परेशो
द्रोणात्मजायेति ददौ क्षयार्थम् ॥४६॥
नारदजी कहते हैं- राजन् ! तब 'तथास्तु' कहकर भगवान् ने एकान्त – लीला के योग्य स्थान का चिन्तन करते हुए नेत्र – कमलों द्वारा अपने
हृदयकी ओर देखा। उसी समय गोपी समुदाय के देखते-देखते श्रीकृष्णके
हृदयसे अनुरागके मूर्तिमान् अङ्कुरकी भाँति एक सघन तेज प्रकट हुआ । रासभूमिमें गिरकर
वह पर्वतके आकारमें बढ़ गया। वह सारा का सारा दिव्य पर्वत रत्नधातुमय था । सुन्दर झरनों
और कन्दराओंसे उसकी बड़ी शोभा थी ।। ३२-३४ ।।
कदम्ब, बकुल, अशोक आदि वृक्ष तथा लता-जाल उसे और भी
मनोहर बना रहे थे । मन्दार और कुन्दवृन्दसे सम्पन्न उस पर्वतपर भाँति-भाँतिके पक्षी
कलरव कर रहे थे ।। ३५ ।।
विदेहराज ! एक ही क्षणमें वह पर्वत एक लाख योजन विस्तृत
और शेषकी तरह सौ कोटि योजन लंबा हो गया ।। ३६ ।।
उसकी ऊँचाई पचास करोड़ योजनकी हो गयी। पचास कोटि योजनमें
फैला हुआ वह पर्वत सदाके लिये गजराजके समान स्थित दिखायी देने लगा। मैथिल ! उसके कोटि
योजन विशाल सैकड़ों शिखर दीप्तिमान् होने लगे। उन शिखरोंसे गोवर्धन पर्वत उसी प्रकार
सुशोभित हुआ, मानो सुवर्णमय उन्नत कलशोंसे कोई ऊँचा महल शोभा पा रहा हो ।। ३७ – ३८ ॥
कोई-कोई विद्वान् उस गिरि को
गोवर्धन और दूसरे लोग 'शतशृङ्ग' कहते हैं । इतना विशाल होने पर भी वह पर्वत मनसे उत्सुक-सा होकर बढ़ने लगा। इससे गोलोक भयसे विह्वल
हो गया और वहाँ सब ओर कोलाहल मच गया। यह देख श्रीहरि उठे और अपने साक्षात् हाथसे शीघ्र
ही उसे ताड़ना दी और बोले- 'अरे ! प्रच्छन्नरूप से बढ़ता क्यों
जा रहा है ? सम्पूर्ण लोक को आच्छादित करके स्थित हो गया ? क्या
ये लोक यहाँ निवास करना नहीं चाहते ?" यों कहकर श्रीहरि ने
उसे शान्त किया—उसका बढ़ना रोक दिया । उस उत्तम पर्वत को प्रकट
हुआ देख भगवत्प्रिया श्रीराधा बहुत प्रसन्न हुईं। राजन् ! वे उसके एकान्तस्थलमें श्रीहरि के साथ सुशोभित होने लगीं ।। ३९-४२ ।।
इस प्रकार यह गिरिराज साक्षात् श्रीकृष्णसे प्रेरित
होकर इस व्रजमण्डलमें आया है। यह सर्वतीर्थमय है। लता कुञ्जोंसे श्याम आभा धारण करनेवाला
यह श्रेष्ठ गिरि मेघकी भाँति श्याम तथा देवताओंका प्रिय है । भारतसे पश्चिम दिशामें
शाल्मलिद्वीपके मध्य- भागमें द्रोणाचल की पत्नी के गर्भसे गोवर्धन ने जन्म लिया । महर्षि पुलस्त्य
उसको भारतके व्रजमण्डलमें ले आये । विदेहराज ! गोवर्धनके आगमन की
बात मैं तुमसे पहले निवेदन कर चुका हूँ ।। ४३-४५
।।
जैसे यह पहले गोलोकमें उत्सुकतापूर्वक बढ़ने लगा था,
उसी तरह यहाँ भी बढ़े तो वह पृथ्वी तक के
लिये एक ढक्कन बन जायगा -यह सोचकर मुनि ने द्रोणपुत्र गोवर्धनको
प्रतिदिन क्षीण होने का शाप दे दिया ।। ४६ ॥
इस प्रकार श्री गर्गसंहिता में श्रीगिरिराजखण्ड के अन्तर्गत श्रीनारद- बहुलाश्व-संवाद में 'श्रीगिरिराज की उत्पत्ति' नामक नवाँ अध्याय
पूरा हुआ ॥ ९ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-नवां अध्याय..(पोस्ट०७)
मंगलवार, 17 सितंबर 2024
श्रीगर्ग-संहिता (गिरिराज खण्ड) नवाँ अध्याय (पोस्ट 02)
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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(गिरिराज खण्ड)
नवाँ अध्याय (पोस्ट 02)
गिरिराज गोवर्धन की उत्पत्ति का वर्णन
कटिदेशात्स्वर्णभूमिर्दिव्यरत्नखचित्प्रभा
।
उदरे रोमराजिश्च माधव्यो विस्तृता लताः ॥१५॥
नानापक्षिगणैर्व्याप्ता ध्वनद्भ्रमरभूषिताः ।
सुपुष्पफलभारैश्च नताः सत्कुलजा इव ॥१६॥
श्रीनाभिपंकजात्तस्य पंकजानि सहस्रशः ।
सरःसु हरिलोकस्य तानि रेजुरितस्ततः ॥१७॥
त्रिबलिप्रांततो वायुर्मन्दगाम्यतिशीतलः ।
जत्रुदेशाच्छुभा जाता मथुरा द्वारकापुरी ॥१८॥
भुजाभ्यां श्रीहरेर्जाताः श्रीदामाद्यष्ट पार्षदाः ।
नन्दाश्च मणिबंधाभ्यामुपनन्दाः कराग्रतः ॥१९॥
श्रीकृष्णबाहुमूलाभ्यां सर्वे वै वृषभानवः ।
कृष्णरोमसमुद्भूताः सर्वे गोपगणा नृप ॥२०॥
श्रीकृष्णमनसो गावो वृषा धर्मधुरन्धराः ।
बुद्धेर्यवसगुल्मानि बभूवुमैंथिलेश्वर ॥२१॥
तद्वामांसात्समुद्भूतं गौरं तेजः स्फुरत्प्रभम् ।
लीला श्रीर्भूश्च विरजा तस्माज्जाता हरेः प्रियाः ॥२२॥
लीलावती प्रिया तस्य तां राधां तु विदुः परे ।
श्रीराधाया भुजाभ्यां तु विशाखा ललिता सखी ॥२३॥
सहचर्यस्तथा गोप्यो राधारोमोद्भवा नृप ।
एवं गोलोकरचनां चकार मधुसूदनः ॥२४॥
विधाय सर्व निजलोकमित्थं
श्रीराधया तत्र रराज राजन् ।
असंख्यलोकाण्डपतिः परात्मा
परः परेशः परिपूर्णदेवः ॥२५॥
तत्रैकदा सुन्दररासमण्डले
स्फुरत्क्वणन्नूपुरशब्दसंकुले ।
सुच्छत्रमुक्ताफलदामजावृत-
स्रवद्बृहद्बिन्दुविराजितांगणे ॥२६॥
श्रीमालतीनां सुवितानजालतः
स्वतः स्रवत्सन्मकरन्दगन्धिते ।
मृदङ्गतालध्वनिवेणुनादिते
सुकण्ठगीतादिमनोहरे परे ॥२७॥
श्रीसुन्दरीरासरसे मनोरमे
मध्यस्थितं कोटिमनोजमोहनम् ।
जगाद राधापतिमूर्जया गिरा
कृत्वा कटाक्षं रसदानकौशलम् ॥२८॥
राधोवाच -
यदि रासे प्रसन्नोऽसि मम प्रेम्णा जगत्पते ।
तदाहं प्रार्थनां त्वां तु करोमि मनसि स्थिताम् ॥२९॥
श्रीभगवानुवाच -
इच्छां वरय वामोरु या ते मनसि वर्त्तते ।
न देयं यदि यद्वस्तु प्रेम्णा दास्यामि तत्प्रिये ॥३०॥
राधोवाच -
वृन्दावने दिव्यनिकुंजपार्श्वे
कृष्णातटे रासरसाय योग्यम् ।
रहःस्थलं त्वं कुरुतान्मनोज्ञं
मनोरथोऽयं मम देवदेव ॥३१॥
उनके कटिप्रदेशसे दिव्य रत्नोंद्वारा जटित प्रभामयी
स्वर्णभूमि का प्राकट्य हुआ और उनके उदरमें जो रोमावलियाँ हैं,
वे ही विस्तृत माधवी लताएँ बन गयीं। उन लताओंमें नाना प्रकारके पक्षियोंके झुंड सब
ओर फैलकर कलरव कर रहे थे। गुंजार करते हुए भ्रमर उन लता - कुञ्जोंकी शोभा बढ़ा रहे
थे ।। १५ ।।
वे लताएँ सुन्दर फूलों और फलोंके भारसे इस प्रकार झुकी
हुई थीं, जैसे उत्तम कुलकी कन्याएँ लज्जा और विनयके भारसे नतमस्तक रहा करती हैं भगवान्के
नाभिकमलसे सहस्रों कमल प्रकट हुए, जो हरिलोकके सरोवरोंमें इधर-उधर सुशोभित हो रहे थे।
भगवान् के त्रिवली - प्रान्तसे मन्दगामी और अत्यन्त शीतल समीर
प्रकट हुआ और उनके गलेकी हँसुलीसे 'मथुरा' तथा 'द्वारका' इन दो पुरियोंका प्रादुर्भाव
हुआ ।। १६–१८ ॥
श्रीहरिकी दोनों भुजाओंसे 'श्रीदामा' आदि आठ पार्षद
उत्पन्न हुए। कलाइयों से 'नन्द' और कराग्रभाग से
'उपनन्द' प्रकट हुए। श्रीकृष्णकी भुजाओं के मूल- भागों से समस्त वृषभानुओं का प्रादुर्भाव हुआ। नरेश्वर
! समस्त गोपगण श्रीकृष्ण के रोमसे उत्पन्न हुए हैं। श्रीकृष्णके
मनसे गौओं तथा धर्मधुरंधर वृषभो का प्राकट्य हुआ । मैथिलेश्वर
! उनकी बुद्धिसे घास और झाड़ियाँ प्रकट हुईं ।। १९-२१ ।।
भगवान् के बायें कंधे से एक परम कान्तिमान् गौर तेज प्रकट हुआ, जिससे लीला, श्री, भूदेवी,
विरजा तथा अन्यान्य हरिप्रियाएँ आविर्भूत हुईं। भगवान्को प्रियतमा जो 'श्रीराधा' हैं,
उन्हींको दूसरे लोग 'लीलावती' या 'लीला' के नामसे जानते हैं। श्रीराधाकी दोनों भुजाओंसे
'विशाखा' और 'ललिता' – इन दो सखियोंका आविर्भाव हुआ । नरेश्वर ! दूसरी दूसरी जो सहचरी
गोपियाँ हैं, वे सब राधा के रोम से प्रकट
हुई हैं। इस प्रकार मधुसूदन ने गोलोक की
रचना की ।। २२ - २४ ।।
राजन् ! इस तरह अपने सम्पूर्ण लोककी रचना करके असंख्य
ब्रह्माण्डोंके अधिपति, परात्पर, परमात्मा, परमेश्वर, परिपूर्ण देव श्रीहरि वहाँ श्रीराधाके
साथ सुशोभित हुए ।। २५ ।।
उस गोलोक में एक दिन सुन्दर रासमण्डल में, जहाँ बजते हुए नूपुरों का मधुर शब्द गूँज
रहा था, जहाँ का आँगन सुन्दर छत्रमें लगी हुई मुक्ताफल की लड़ियों से अमृत की
वर्षा होती रहने के कारण रसकी बड़ी-बड़ी बूँदोंसे सुशोभित था; मालती
के चंदोवों से स्वतः झरते हुए मकरन्द और गन्धसे सरस एवं
सुवासित था; जहाँ मृदङ्ग, तालध्वनि और वंशीनाद सब ओर व्याप्त था, जो मधुरकण्ठ से गाये गये गीत आदिके कारण परम मनोहर प्रतीत होता था तथा सुन्दरियोंके
रासरससे परिपूर्ण एवं परम मनोरम था; उसके मध्यभागमें स्थित कोटिमनोजमोहन हृदय- वल्लभसे
श्रीराधाने रसदान-कुशल कटाक्षपात करके गम्भीर वाणीमें कहा ।। २६–२८
।।
श्रीराधा बोलीं- जगदीश्वर ! यदि आप रासमें मेरे प्रेमसे
प्रसन्न हैं तो मैं आपके सामने अपने मनकी प्रार्थना व्यक्त करना चाहती हूँ ॥ २९ ॥
श्रीभगवान् बोले – प्रिये ! वामोरु !! तुम्हारे मनमें
जो इच्छा हो, मुझसे माँग लो। तुम्हारे प्रेमके कारण मैं तुम्हें अदेय वस्तु भी दे दूँगा
॥ ३० ॥
श्रीराधाने कहा- वृन्दावनमें यमुनाके तटपर दिव्य निकुञ्जके
पार्श्वभागमें आप रासरसके योग्य कोई एकान्त एवं मनोरम स्थान प्रकट कीजिये । देवदेव
! यही मेरा मनोरथ है ॥ ३१ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-नवां अध्याय..(पोस्ट०६)
सोमवार, 16 सितंबर 2024
श्रीगर्ग-संहिता (गिरिराज खण्ड) नवाँ अध्याय (पोस्ट 01)
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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(गिरिराज खण्ड)
नवाँ अध्याय (पोस्ट 01)
गिरिराज गोवर्धन की उत्पत्ति का वर्णन
श्रीबहुलाश्व उवाच -
अहो गोवर्धनः साक्षाद्गिरिराजो हरिप्रियः ।
तत्समानं न तीर्थं हि विद्यते भूतले दिवी ॥१॥
कदा बभूव श्रीकृष्णवक्षसोऽयं गिरीश्वरः ।
एतद्वद महाबुद्धे त्वं साक्षाद्धरिमानसः ॥२॥
श्रीनारद उवाच -
गोलोकोत्पत्तिवृत्तान्तं शृणु राजन् महामते ।
चतुष्पदार्थदं नॄणामाद्यलीलासमन्वितम् ॥३॥
अनादिरात्मा पुरुषो निर्गुणः प्रकृतेः परः ।
परिपूर्णतमः साक्षाच्छ्रीकृष्णो भगवान्प्रभुः ॥४॥
प्रत्यग्धामा स्वयंज्योती रममाणो निरन्तरम् ।
यत्र कालः कलयतामीश्वरो धाममानिनाम् ॥५॥
राजन्न प्रभवेन्माया न महांश्च गुणः कुतः ।
न विशन्ति क्वचिद्राजन् मनश्चितो मतिर्ह्यहम् ॥६॥
स्वधाम्नि ब्रह्म साकारमिच्छया व्यरचीकरत् ।
प्रथमं चाभवच्छेषो बिसश्वेतो बृहद्वपुः ॥७॥
तदुत्संगे महालोको गोलोको लोकवन्दितः ।
यं प्राप्य भक्तिसंयुक्तः पुनरावर्तते न हि ॥८॥
असंख्यब्रह्माण्डपतेर्गोलोकाधिपतेः प्रभोः ।
पुनः पादाब्जसंभूता गंगा त्रिपथगामिनी ॥९॥
पुनर्वामांसतस्तस्य कृष्णाऽभूत्सरितां वरा ।
रेजे शृङ्गारकुसुमैर्यथोष्णिङ्मुद्रिता नृप ॥१०॥
श्रीरासमण्डलं दिव्यं हेमरत्नसमन्वितम् ।
नानाशृङ्गारपटलं गुल्फाभ्यां श्रीहरेः प्रभोः ॥११॥
सभाप्रांगणवीथीभिर्मण्डपैः परिवेष्टितः ।
वसन्तमाधुर्यधरः कूजत्कोकिलसंकुलः ॥१२॥
मयूरैः षट्पदैर्व्याप्तः सरोभिः परिसेवितः ।
जातो निकुंजो जंघाभ्यां श्रीकृष्णस्य महात्मनः ॥१३॥
वृदावनं च जानुभ्यां राजन् सर्ववनोत्तमम् ।
लीलासरोवरः साक्षादूरुभ्यां परमात्मनः ॥१४॥
बहुलाश्व बोले- देवर्षे ! महान् आर्श्वयकी बात है,
गोवर्धन साक्षात् पर्वतोंका राजा एवं श्रीहरि को बहुत ही प्रिय
है। उसके समान दूसरा तीर्थ न तो इस भूतलपर है और न स्वर्गमें ही । महामते ! आप साक्षात् श्रीहरिके हृदय हैं | अतः अब यह बताइये कि यह गिरिराज
श्रीकृष्ण के वक्षःस्थल से कब प्रकट हुआ
।। १-२ ॥
श्रीनारदजीने कहा- राजन ! महामते ! गोलोक के प्राकट्यका वृत्तान्त सुनो – यह श्रीहरिकी आदिलीलासे सम्बद्ध है
और मनुष्योंको धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष - चारों पुरुषार्थ प्रदान करनेवाला है। प्रकृतिसे
परे विद्यमान साक्षात् परिपूर्णतम भगवान् श्रीकृष्ण सर्वसमर्थ, निर्गुण पुरुष एवं अनादि
आत्मा हैं। उनका तेज अन्तर्मुखी है। वे स्वयंप्रकाश प्रभु निरन्तर रमणशील हैं, जिनपर
धामाभिमानी गणनाशील देवताओंका ईश्वर 'काल' भी शासन करनेमें समर्थ नहीं है ।। ३-५ ।।
राजन् ! माया भी जिनपर अपना प्रभाव नहीं डाल सकती,
उनपर महत्तत्त्व और सत्त्वादि गुणोंका वश तो चल ही कैसे सकता है। राजन् ! उनमें कभी
मन, चित्त, बुद्धि और अहंकारका भी प्रवेश नहीं होता। उन्होंने अपने संकल्प से अपने ही स्वरूप में साकार ब्रह्म को व्यक्त किया ॥ सबसे पहले विशालकाय शेषनागका प्रादुर्भाव हुआ, जो
कमलनाल के समान श्वेतवर्ण के हैं। उन्हींकी
गोदमें लोकवन्दित महालोक गोलोक प्रकट हुआ, जिसे पाकर भक्तियुक्त पुरुष फिर इस संसार में नहीं लौटता है ।। ६-८ ।।
फिर असंख्य ब्रह्माण्डोंके अधिपति गोलोकनाथ भगवान्
श्रीकृष्णके चरणारविन्दसे त्रिपथगा गङ्गा प्रकट हुईं। नरेश्वर ! तत्पश्चात् श्रीकृष्णके
बायें कंधेसे सरिताओंमें श्रेष्ठ यमुनाजीका प्रादुर्भाव हुआ, जो शृङ्गार-कुसुमोंसे
उसी प्रकार सुशोभित हुई, जैसे छपी हुई पगड़ीके वस्त्रकी शोभा होती है । तदनन्तर भगवान्
श्रीहरिके दोनों गुल्फों (टखनों या घुट्टियों) से हेमरत्नोंसे युक्त दिव्य रासमण्डल
और नाना प्रकारके शृङ्गार-साधनोंके समूहका प्रादुर्भाव हुआ ।। ९-११ ।।
इसके बाद महात्मा श्रीकृष्णकी दोनों पिंडलियोंसे निकुञ्ज
प्रकट हुआ, जो सभाभवनों, आँगनों, गलियों और मण्डपोंसे घिरा हुआ था। वह निकुञ्ज वसन्तकी
माधुरी धारण किये हुए था। उसमें कूजते हुए कोकिलों की काकली सर्वत्र
व्याप्त थी । मोर, भ्रमर तथा विविध सरोवरों से भी वह परिशोभित
एवं परिसेवित दिखायी देता था । राजन् ! भगवान् के दोनों घुटनों से सम्पूर्ण वनों में उत्तम श्रीवृन्दावन का आविर्भाव हुआ। साथ ही उन साक्षात् परमात्मा की
दोनों जाँघों से लीला-सरोवर प्रकट हुआ। ।। १२-१४ ।।
शेष
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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-नवां अध्याय..(पोस्ट०५)
रविवार, 15 सितंबर 2024
श्रीगर्ग-संहिता (गिरिराज खण्ड) आठवाँ अध्याय
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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(गिरिराज खण्ड)
आठवाँ अध्याय
विभिन्न तीर्थों में गिरिराज के विभिन्न अङ्गों की स्थिति का
वर्णन
श्रीबहुलाश्व उवाच -
केषु केषु तदङ्गेषु किं किं तीर्थं समाश्रितम्॥
वद देव महादेव त्वं परावरवित्तमः॥१॥
श्रीनारद उवाच -
यत्र यस्य प्रसिद्धिः स्यात्तदंगं परमं विदुः॥
क्रमतो नास्त्यंगचयो गिरिराजस्य मैथिल॥२॥
यथा सर्वगतं ब्रह्म सर्वांगानि च तस्य वै॥
विभूतेर्भावतः शश्वत्तथा वक्ष्यामि मानद॥३॥
शृङ्गारमण्डलस्याधो मुखं गोवर्धनस्य च॥
यत्रान्नकूटं कृतवान् भगवान् व्रजवासिभिः॥४॥
नेत्रे वै मानसी गंगा नासा चन्द्रसरोवरः॥
गोविन्दकुण्डो ह्यधरश्चिबुकं कृष्णकुण्डकः॥५॥
राधाकुण्डं तस्य जिह्वा कपोलौ ललितासरः॥
गोपालकुण्डः कर्णश्च कर्णान्तः कुसुमाकरः॥६॥
मौलिचिह्ना शीला तस्य ललाटं विद्धि मैथिल॥
शिरश्चित्रशिला तस्य ग्रीवा वै वादनी शिला॥७॥
कांदुकं पार्श्वदेशञ्च औष्णिषं कटिरुच्यते॥
द्रोणतीर्थं पृष्ठदेशे लौकिकं चोदरे स्मृतम्॥८॥
कदम्बखण्डमुरसि जीवः शृङ्गारमण्डलम्॥
श्रीकृष्णपादचिह्नं तु मनस्तस्य महात्मनः॥९॥
हस्तचिह्नं तथा बुद्धिरैरावतपदं पदम्॥
सुरभेः पादचिह्नेषु पक्षौ तस्य महात्मनः॥१०॥
पुच्छकुण्डे तथा पुच्छं वत्सकुंडे बलं स्मृतम्॥
रुद्रकुण्डे तथा क्रोधं कामं शक्रसरोवरे॥११॥
कुबेरतीर्थे चोद्योगं ब्रह्मतीर्थे प्रसन्नताम्॥
यमतीर्थे ह्यहंकारं वदन्तीत्थं पुराविदः॥१२॥
एवमंगानि सर्वत्र गिरिराजस्य मैथिल॥
कथितानि मया तुभ्यं सर्वपापहराणि च॥१३॥
गिरिराजविभूतिं च यः शृणोति नरोत्तमः॥
स गच्छेद्धाम परमं गोलोकं योगिदुर्लभम्॥१४॥
समुत्थितोऽसौ हरिवक्षसो गिरि-
र्गोवर्धनो नाम गिरीन्द्रराजराट्॥
समागतो ह्यत्र पुलस्त्यतेजसा
यद्दर्शनाज्जन्म पुनर्न विद्यते॥१५॥
बहुलाश्वने पूछा- महाभाग ! देव !! आप पर, अपर भूत और
भविष्यके ज्ञाताओंमें सर्वश्रेष्ठ हैं। अतः बताइये, गिरिराजके किन-किन अङ्गोंमें कौन-
कौन-से तीर्थ विद्यमान हैं ? ॥ १ ॥
श्रीनारदजी बोले – राजन् ! जहाँ, जिस अङ्ग- की प्रसिद्धि
है, वही गिरिराजका उत्तम अङ्ग माना गया है। क्रमशः गणना करनेपर कोई भी ऐसा स्थान नहीं
है, जो गिरिराजका अङ्ग न हो। मानद ! जैसे ब्रह्म सर्वत्र विद्यमान है और सारे अङ्ग
उसीके हैं, उसी प्रकार विभूति और भावकी दृष्टिसे गोवर्धनके जो शाश्वत अङ्ग माने जाते
हैं, उनका मैं वर्णन करूँगा ।। २-३ ॥
शृङ्गारमण्डलके अधोभागमें श्रीगोवर्धनका मुख हैं, जहाँ
भगवान् ने व्रजवासियोंके साथ अन्नकूट का
उत्सव किया था । 'मानसी गङ्गा' गोवर्धनके दोनों नेत्र हैं, 'चन्द्रसरोवर' नासिका,
'गोविन्दकुण्ड' अधर और 'श्रीकृष्णकुण्ड' चिबुक है। 'राधाकुण्ड' गोवर्धनकी जिह्वा और
'ललितासरोवर' कपोल है। 'गोपालकुण्ड' कान और 'कुसुमसरोवर' कर्णान्तभाग है ।। ४-६ ॥
मिथिलेश्वर
! जिस शिलापर मुकुटका चिह्न है, उसे गिरिराजका ललाट समझो । 'चित्रशिला' उनका मस्तक
और 'वादिनी शिला' उनकी ग्रीवा है। 'कन्दुकतीर्थ' उनका पार्श्वभाग है और 'उष्णीषतीर्थ
को उनका कटिप्रदेश बतलाया जाता है । 'द्रोणतीर्थ' पृष्ठदेशमें और 'लौकिकतीर्थ' पेट में है ।। ७-८ ॥
'कदम्बखण्ड' हृदयस्थलमें है । 'शृङ्गारमण्डलतीर्थ'
उनका जीवात्मा है। 'श्रीकृष्ण-चरण-चिह्न' महात्मा गोवर्धन का
मन है । 'हस्तचिह्नतीर्थ' बुद्धि तथा 'ऐरावत - चरणचिह्न' उनका चरण है। सुरभिके चरण
चिह्नों में महात्मा गोवर्धनके पंख हैं ।। ९-१०
॥
'पुच्छकुण्ड' में पूँछकी भावना की जाती है। 'वत्सकुण्ड'
में उनका बल, 'रुद्रकुण्ड' में क्रोध तथा 'इन्द्रसरोवर' में कामकी स्थिति है। 'कुबेरतीर्थ'
उनका उद्योगस्थल और 'ब्रह्मतीर्थ' प्रसन्नताका प्रतीक है । पुराणवेत्ता पुरुष 'यमतीर्थ
में गोवर्धनके अहंकारकी स्थिति बताते हैं ।। ११-१२ ॥
मैथिल ! इस प्रकार मैंने तुम्हें सर्वत्र गिरिराज के अङ्ग बताये हैं, जो समस्त पापोंको हर लेनेवाले हैं। जो नरश्रेष्ठ
गिरिराजकी इस विभूतिको सुनता है, वह योगिजनदुर्लभ 'गोलोक' नामक परमधाममें जाता है।
गिरिराजोंका भी राजा गोवर्धन पर्वत श्रीहरिके वक्षःस्थलसे प्रकट हुआ है और पुलस्त्यमुनिके
तेजसे इस व्रजमण्डलमें उसका शुभागमन हुआ है। उसके दर्शनसे मनुष्यका इस लोकमें पुनर्जन्म
नहीं होता ।। १३-१५ ।।
इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें श्रीगिरिराजखण्डके
अन्तर्गत नारद- बहुलाश्व-संवादमें 'गिरिराजकी विभूतियोंका वर्णन नामक आठवाँ अध्याय
पूरा हुआ ॥ ८ ॥
शेष
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