रविवार, 2 मार्च 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट१२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट१२)

जय-विजय को सनकादि का शाप

एवं तदैव भगवान् अरविन्दनाभः ।
    स्वानां विबुध्य सदतिक्रममार्यहृद्यः ।
तस्मिन् यन्ययौ परमहंसमहामुनीनाम् ।
    अन्वेषणीयचरणौ चलयन् सहश्रीः ॥ ३७ ॥
तं त्वागतं प्रतिहृतौपयिकं स्वपुम्भिः ।
    तेऽचक्षताक्षविषयं स्वसमाधिभाग्यम् ।
हंसश्रियोर्व्यजनयोः शिववायुलोलः ।
    शुभ्रातपत्रशशिकेसरशीकराम्बुम् ॥ ३८ ॥

इधर जब साधुजनों के हृदयधन भगवान्‌ कमलनाभ को मालूम हुआ कि मेरे द्वारपालों ने सनकादि साधुओं का अनादर किया है, तब वे लक्ष्मीजी के सहित अपने उन्हीं श्रीचरणोंसे  चलकर ही, वहाँ पहुँचे, जिन्हें परमहंस मुनिजन भी ढूँढ़ते रहते हैं—सहज में पाते नहीं, ॥ ३७ ॥ सनकादि ने देखा कि उनकी समाधि के विषय श्रीवैकुण्ठनाथ स्वयं उनके नेत्रगोचर होकर पधारे हैं, उनके साथ-साथ पार्षदगण छत्र-चामरादि लिये चल रहे हैं तथा प्रभुके दोनों ओर राजहंस के पंखों के समान दो श्वेत चँवर डुलाये जा रहे हैं। उनकी शीतल वायुसे उनके श्वेत छत्रमें लगी हुई मोतियोंकी झालर हिलती हुई ऐसी शोभा दे रही है मानो चन्द्रमाकी किरणोंसे अमृतकी बूँदें झर रही हों ॥ ३८ ॥ 

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


शनिवार, 1 मार्च 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट११)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट११)

जय-विजय को सनकादि का शाप

तेषामितीरितमुभाववधार्य घोरं ।
    तं ब्रह्मदण्डमनिवारणमस्त्रपूगैः ।
सद्यो हरेरनुचरावुरु बिभ्यतस्तत् ।
    पादग्रहावपततामतिकातरेण ॥ ३५ ॥
भूयादघोनि भगवद्‌भिरकारि दण्डो ।
    यो नौ हरेत सुरहेलनमप्यशेषम् ।
मा वोऽनुतापकलया भगवत्स्मृतिघ्नो ।
    मोहो भवेदिह तु नौ व्रजतोरधोऽधः ॥ ३६ ॥

सनकादि के ये कठोर वचन सुनकर और ब्राह्मणों के शाप को किसी भी प्रकार के शस्त्रसमूह से निवारण होने योग्य न जान कर श्रीहरि के वे दोनों पार्षद अत्यन्त दीनभाव से उनके चरण पकडक़र पृथ्वी पर लोट गये। वे जानते थे कि उनके स्वामी श्रीहरि भी ब्राह्मणों से बहुत डरते हैं ॥ ३५ ॥ फिर उन्होंने अत्यन्त आतुर होकर कहा—‘भगवन् ! हम अवश्य अपराधी हैं; अत: आपने हमें जो दण्ड दिया है, वह उचित ही है और वह हमें मिलना ही चाहिये। हमने भगवान्‌ का अभिप्राय न समझकर उनकी आज्ञा का उल्लङ्घन किया है। इससे हमें जो पाप लगा है, वह आपके दिये हुए दण्डसे सर्वथा धुल जायगा। किन्तु हमारी इस दुर्दशा का विचार करके यदि करुणावश आपको थोड़ा-सा भी अनुताप हो, तो ऐसी कृपा कीजिये कि जिससे उन अधमाधम योनियों में जानेपर भी हमें भगवत्स्मृति को नष्ट करनेवाला मोह न प्राप्त हो ॥ ३६ ॥

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शुक्रवार, 28 फ़रवरी 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट१०)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट१०)

जय-विजय को सनकादि का शाप

न ह्यन्तरं भगवतीह समस्तकुक्षौ ।
    आत्मानमात्मनि नभो नभसीव धीराः ।
पश्यन्ति यत्र युवयोः सुरलिङ्‌गिनोः किं ।
    व्युत्पादितं ह्युदरभेदि भयं यतोऽस्य ॥ ३३ ॥
तद्वाममुष्य परमस्य विकुण्ठभर्तुः ।
    कर्तुं प्रकृष्टमिह धीमहि मन्दधीभ्याम् ।
लोकानितो व्रजतमन्तरभावदृष्ट्या ।
    पापीयसस्त्रय इमे रिपवोऽस्य यत्र ॥ ३४ ॥

(सनकादि मुनि कहते हैं) भगवान्‌ के उदर में यह सारा ब्रह्माण्ड स्थित है; इसलिये यहाँ रहनेवाले ज्ञानीजन सर्वात्मा श्रीहरि से अपना कोई भेद नहीं देखते, बल्कि महाकाश में घटाकाश की भाँति उनमें अपना अन्तर्भाव देखते हैं। तुम तो देव-रूपधारी हो; फिर भी तुम्हें ऐसा क्या दिखायी देता है, जिससे तुमने भगवान्‌ के साथ कुछ भेदभाव के कारण होनेवाले भय की कल्पना कर ली ॥ ३३ ॥ तुम हो तो इन भगवान्‌ वैकुण्ठनाथ के पार्षद, किन्तु तुम्हारी बुद्धि बहुत मन्द है। अतएव तुम्हारा कल्याण करने के लिये हम तुम्हारे अपराध के योग्य दण्डका विचार करते हैं। तुम अपनी भेदबुद्धि के दोषसे इस वैकुण्ठलोक से निकलकर उन पापमय योनियों में जाओ, जहाँ काम, क्रोध, लोभ—प्राणियों के ये तीन शत्रु निवास करते हैं ॥ ३४ ॥

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गुरुवार, 27 फ़रवरी 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०९)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०९)

जय-विजय को सनकादि का शाप

तान्वीक्ष्य वातरशनांश्चतुरः कुमारान् ।
    वृद्धान्दशार्धवयसो विदितात्मतत्त्वान् ।
वेत्रेण चास्खलयतामतदर्हणांस्तौ ।
    तेजो विहस्य भगवत् प्रतिकूलशीलौ ॥ ३० ॥
ताभ्यां मिषत्स्वनिमिषेषु निषिध्यमानाः ।
    स्वर्हत्तमा ह्यपि हरेः प्रतिहारपाभ्याम् ।
ऊचुः सुहृत्तमदिदृक्षितभङ्ग ईषत् ।
    कामानुजेन सहसा त उपप्लुताक्षाः ॥ ३१ ॥

मुनय ऊचुः ।
को वामिहैत्य भगवत् परिचर्ययोच्चैः ।
    तद्धर्मिणां निवसतां विषमः स्वभावः ।
तस्मिन् प्रशान्तपुरुषे गतविग्रहे वां ।
    को वात्मवत् कुहकयोः परिशङ्कनीयः ॥ ३२ ॥

वे चारों कुमार (सनकादि मुनि)  पूर्ण तत्त्वज्ञ थे तथा ब्रह्माकी सृष्टि में आयु में सबसे बड़े होने पर भी देखने में पाँच वर्ष के बालकों-से जान पड़ते थे और दिगम्बर-वृत्तिसे (नंग-धड़ंग) रहते थे। उन्हें इस प्रकार नि:सङ्कोचरूप से भीतर जाते देख उन द्वारपालोंने भगवान्‌के शील-स्वभावके विपरीत सनकादि के तेज की हँसी उड़ाते हुए उन्हें बेंत अड़ाकर रोक दिया, यद्यपि वे ऐसे दुर्व्यवहार के योग्य नहीं थे ॥ ३० ॥ जब उन द्वारपालों ने वैकुण्ठवासी देवताओं के सामने पूजा के सर्वश्रेष्ठ पात्र उन कुमारों को इस प्रकार रोका, तब अपने प्रियतम प्रभु के दर्शनों में विघ्र पडऩे के कारण उनके नेत्र सहसा कुछ-कुछ क्रोध से लाल हो उठे और वे इस प्रकार कहने लगे ॥ ३१ ॥
मुनियोंने कहा—अरे द्वारपालो ! जो लोग भगवान्‌ की महती सेवा के प्रभाव से इस लोक को प्राप्त होकर यहाँ निवास करते हैं, वे तो भगवान्‌ के समान ही समदर्शी होते हैं। तुम दोनों भी उन्हींमें से हो, किन्तु तुम्हारे स्वभाव में यह विषमता क्यों है ? भगवान्‌ तो परम शान्तस्वभाव हैं, उनका किसीसे विरोध भी नहीं है; फिर यहाँ ऐसा कौन है, जिसपर शङ्का की जा सके ? तुम स्वयं कपटी हो, इसीसे अपने ही समान दूसरोंपर शङ्का करते हो ॥ ३२ ॥ 

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बुधवार, 26 फ़रवरी 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)

जय-विजय को सनकादि का शाप

तस्मिन्नतीत्य मुनयः षडसज्जमानाः ।
    कक्षाः समानवयसावथ सप्तमायाम् ।
देवावचक्षत गृहीतगदौ परार्ध्य ।
    केयूरकुण्डलकिरीटविटङ्कवेषौ ॥ २७ ॥
मत्तद्विरेफवनमालिकया निवीतौ ।
    विन्यस्तयासितचतुष्टयबाहुमध्ये ।
वक्त्रं भ्रुवा कुटिलया स्फुटनिर्गमाभ्यां ।
    रक्तेक्षणेन च मनाग्रभसं दधानौ ॥ २८ ॥
द्वार्येतयोर्निविविशुर्मिषतोरपृष्ट्वा ।
    पूर्वा यथा पुरटवज्रकपाटिका याः ।
सर्वत्र तेऽविषमया मुनयः स्वदृष्ट्या ।
    ये सञ्चरन्त्यविहता विगताभिशङ्काः ॥ २९ ॥

भगवद्दर्शन की लालसा से अन्य दर्शनीय सामग्री की उपेक्षा करते हुए वैकुण्ठधाम की छ: ड्यौढिय़ाँ पार करके जब वे (सनकादि मुनि) सातवीं पर पहुँचे, तब वहाँ उन्हें हाथ में गदा लिये दो समान आयुवाले देवश्रेष्ठ दिखलायी दिये—जो बाजूबंद, कुण्डल और किरीट आदि अनेकों अमूल्य आभूषणों से अलङ्कृत थे ॥ २७ ॥ उनकी चार श्यामल भुजाओं के बीच में मतवाले मधुकरों से गुञ्जायमान वनमाला सुशोभित थी तथा बाँकी भौंहें, फडक़ते हुए नासिकारन्ध्र और अरुण नयनों के कारण उनके चेहरेपर कुछ क्षोभके-से चिह्न दिखायी दे रहे थे ॥ २८ ॥ उनके इस प्रकार देखते रहनेपर भी वे मुनिगण उनसे बिना कुछ पूछताछ किये, जैसे सुवर्ण और वज्रमय किवाड़ोंसे युक्त पहली छ: ड्यौढ़ी लाँघकर आये थे, उसी प्रकार उनके द्वारमें भी घुस गये। उनकी दृष्टि तो सर्वत्र समान थी और वे नि:शङ्क होकर सर्वत्र बिना किसी रोक-टोकके विचरते थे ॥ २९ ॥ 

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


मंगलवार, 25 फ़रवरी 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)

जय-विजय को सनकादि का शाप

यच्च व्रजन्त्यनिमिषामृषभानुवृत्त्या ।
    दूरे यमा ह्युपरि नः स्पृहणीयशीलाः ।
भर्तुर्मिथः सुयशसः कथनानुराग ।
    वैक्लव्यबाष्पकलया पुलकीकृताङ्गाः ॥ २५ ॥
तद्विश्वगुर्वधिकृतं भुवनैकवन्द्यं ।
    दिव्यं विचित्रविबुधाग्र्यविमानशोचिः ।
आपुः परां मुदमपूर्वमुपेत्य योग ।
    मायाबलेन मुनयस्तदथो विकुण्ठम् ॥ २६ ॥

देवाधिदेव श्रीहरि का निरन्तर चिन्तन करते रहने के कारण जिनसे यमराज दूर रहते हैं, आपस में प्रभुके सुयशकी चर्चा चलने पर अनुरागजन्य विह्वलतावश जिनके नेत्रों से अविरल अश्रुधारा बहने लगती है तथा शरीरमें रोमाञ्च हो जाता है और जिनके-से शील-स्वभावकी हमलोग भी इच्छा करते हैं—वे परमभागवत ही हमारे लोकोंसे ऊपर उस वैकुण्ठधाममें जाते हैं ॥ २५ ॥ जिस समय सनकादि मुनि विश्वगुरु श्रीहरि के निवासस्थान, सम्पूर्ण लोकों के वन्दनीय और श्रेष्ठ देवताओं के विचित्र विमानोंसे विभूषित उस परम दिव्य और अद्भुत वैकुण्ठधाम में अपने योगबल से पहुँचे, तब उन्हें बड़ा ही आनन्द हुआ ॥ २६ ॥

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


सोमवार, 24 फ़रवरी 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

जय-विजय को सनकादि का शाप

यन्न व्रजन्त्यघभिदो रचनानुवादात् ।
    श्रृण्वन्ति येऽन्यविषयाः कुकथा मतिघ्नीः ।
यास्तु श्रुता हतभगैर्नृभिरात्तसारान् ।
    तांस्तान् क्षिपन्त्यशरणेषु तमःसु हन्त ॥ २३ ॥
येऽभ्यर्थितामपि च नो नृगतिं प्रपन्ना ।
    ज्ञानं च तत्त्वविषयं सहधर्मं यत्र ।
नाराधनं भगवतो वितरन्त्यमुष्य ।
    सम्मोहिता विततया बत मायया ते ॥ २४ ॥

जो लोग भगवान्‌ की पापापहारिणी लीलाकथाओं को छोडक़र बुद्धि को नष्ट करनेवाली अर्थ- कामसम्बन्धिनी अन्य निन्दित कथाएँ सुनते हैं, वे उस वैकुण्ठलोक में नहीं जा सकते। हाय ! जब वे अभागे लोग इन सारहीन बातों को सुनते हैं, तब ये उनके पुण्यों को नष्टकर उन्हें आश्रयहीन घोर नरकों में डाल देती हैं ॥ २३ ॥ अहा ! इस मनुष्ययोनि की बड़ी महिमा है, हम देवतालोग भी इसकी चाह करते हैं। इसीमें तत्त्वज्ञान और धर्मकी भी प्राप्ति हो सकती है। इसे पाकर भी जो लोग भगवान्‌ की आराधना नहीं करते, वे वास्तवमें उनकी सर्वत्र फैली हुई मायासे ही मोहित हैं ॥ २४ ॥ 

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


रविवार, 23 फ़रवरी 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

जय-विजय को सनकादि का शाप

यत्सङ्कुलं हरिपदानतिमात्रदृष्टैः ।
    वैदूर्यमारकतहेममयैर्विमानैः ।
येषां बृहत्कटितटाः स्मितशोभिमुख्यः ।
    कृष्णात्मनां न रज आदधुरुत्स्मयाद्यैः ॥ २० ॥
श्री रूपिणी क्वणयती चरणारविन्दं ।
    लीलाम्बुजेन हरिसद्मनि मुक्तदोषा ।
संलक्ष्यते स्फटिककुड्य उपेतहेम्नि ।
    सम्मार्जतीव यदनुग्रहणेऽन्ययत्नः  ॥ २१ ॥
वापीषु विद्रुमतटास्वमलामृताप्सु ।
    प्रेष्यान्विता निजवने तुलसीभिरीशम् ।
अभ्यर्चती स्वलकमुन्नसमीक्ष्य वक्त्रम् ।
    उच्छेषितं भगवतेत्यमताङ्ग यच्छ्रीः ॥ २२ ॥

(श्रीब्रह्माजी कहरहे हैं ) वह लोक (वैकुण्ठलोक) वैदूर्य, मरकत-मणि (पन्ने) और सुवर्ण के विमानों से भरा हुआ है। ये सब किसी कर्मफल से नहीं, बल्कि एकमात्र श्रीहरि के पादपद्मों की वन्दना करने से ही प्राप्त होते हैं। उन विमानों पर चढ़े हुए कृष्णप्राण भगवद्भक्तों के चित्तों में बड़े-बड़े नितम्बोंवाली सुमुखी सुन्दरियाँ भी अपनी मन्द मुसकान एवं मनोहर हास-परिहास से कामविकार नहीं उत्पन्न कर सकतीं ॥ २० ॥ परम सौन्दर्यशालिनी लक्ष्मीजी, जिनकी कृपा प्राप्त करनेके लिये देवगण भी यत्नशील रहते हैं, श्रीहरि के भवनमें चञ्चलतारूप दोषको त्यागकर रहती हैं। जिस समय अपने चरण-कमलों के नूपुरों की झनकार करती हुई वे अपना लीलाकमल घुमाती हैं, उस समय उस कनकभवन की स्फटिकमय दीवारों में उनका प्रतिबिम्ब पडऩेसे ऐसा जान पड़ता है मानो वे उन्हें बुहार रही हों ॥ २१ ॥ प्यारे देवताओ ! जिस समय दासियों को साथ लिये वे अपने क्रीडावन में तुलसीदल द्वारा भगवान्‌ का पूजन करती हैं, तब वहाँ के निर्मल जल से भरे हुए सरोवरों में, जिनमें मूँगे के घाट बने हुए हैं, अपना सुन्दर अलकावली और उन्नत नासिकासे सुशोभित मुखारविन्द देखकर ‘यह भगवान्‌का चुम्बन किया हुआ है’ यों जानकर उसे बड़ा सौभाग्यशाली समझती हैं ॥ २२ ॥ 

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


शनिवार, 22 फ़रवरी 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

जय-विजय को सनकादि का शाप

वैमानिकाः सललनाश्चरितानि यत्र ।
    गायन्ति लोकशमलक्षपणानि भर्तुः ।
अन्तर्जलेऽनुविकसन् मधुमाधवीनां ।
    गन्धेन खण्डितधियोऽप्यनिलं क्षिपन्तः ॥ १७ ॥
पारावतान्यभृतसारसचक्रवाक ।
    दात्यूहहंसशुकतित्तिरिबर्हिणां यः ।
कोलाहलो विरमतेऽचिरमात्रमुच्चैः ।
    भृङ्गाधिपे हरिकथामिव गायमाने ॥ १८ ॥
मन्दारकुन्दकुरबोत्पलचम्पकार्ण ।
    पुन्नागनागबकुलाम्बुजपारिजाताः ।
गन्धेऽर्चिते तुलसिकाभरणेन तस्या ।
    यस्मिंस्तपः सुमनसो बहु मानयन्ति ॥ १९ ॥

वहाँ (वैकुण्ठधाममें) विमानचारी गन्धर्वगण अपनी प्रियाओंके सहित अपने प्रभुकी पवित्र लीलाओंका गान करते रहते हैं, जो लोगोंकी सम्पूर्ण पापराशिको भस्म कर देनेवाली हैं। उस समय सरोवरोंमें खिली हुई मकरन्दपूर्ण वासन्तिक माधवी लताकी सुमधुर गन्ध उनके चित्तको अपनी ओर खींचना चाहती है; परन्तु वे उसकी ओर ध्यान ही नहीं देते वरं उस गन्धको उड़ाकर लानेवाले वायुको ही बुरा-भला कहते हैं ॥ १७ ॥ जिस समय भ्रमरराज ऊँचे स्वर से गुंजार करते हुए मानो हरिकथा का गान करते हैं, उस समय थोड़ी देर के लिये कबूतर, कोयल, सारस, चकवे, पपीहे, हंस, तोते, तीतर और मोरों का कोलाहल बंद हो जाता है—मानो वे भी उस कीर्तनानन्द में बेसुध हो जाते हैं ॥ १८ ॥ श्रीहरि तुलसी से अपने श्रीविग्रह को सजाते हैं और तुलसी की गन्धका ही अधिक आदर करते हैं—यह देखकर वहाँके मन्दार, कुन्द, कुरबक (तिलकवृक्ष), उत्पल (रात्रिमें खिलनेवाले कमल), चम्पक, अर्ण, पुन्नाग, नागकेसर, बकुल (मौलसिरी), अम्बुज (दिनमें खिलनेवाले कमल) और पारिजात आदि पुष्प सुगन्धयुक्त होनेपर भी तुलसीका ही तप अधिक मानते हैं ॥ १९ ॥ 

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शुक्रवार, 21 फ़रवरी 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

जय-विजय को सनकादि का शाप

मैत्रेय उवाच ।
स प्रहस्य महाबाहो भगवान् शब्दगोचरः ।
प्रत्याचष्टात्मभूर्देवान् प्रीणन् रुचिरया गिरा ॥ ११ ॥

ब्रह्मोवाच ।
मानसा मे सुता युष्मत् पूर्वजाः सनकादयः ।
चेरुर्विहायसा लोकान् लोकेषु विगतस्पृहाः ॥ १२ ॥
त एकदा भगवतो वैकुण्ठस्यामलात्मनः ।
ययुर्वैकुण्ठनिलयं सर्वलोकनमस्कृतम् ॥ १३ ॥
वसन्ति यत्र पुरुषाः सर्वे वैकुण्ठमूर्तयः ।
येऽनिमित्तनिमित्तेन धर्मेणाराधयन् हरिम् ॥ १४ ॥
यत्र चाद्यः पुमानास्ते भगवान् शब्दगोचरः ।
सत्त्वं विष्टभ्य विरजं स्वानां नो मृडयन् वृषः ॥ १५ ॥
यत्र नैःश्रेयसं नाम वनं कामदुघैर्द्रुमैः ।
सर्वर्तुश्रीभिर्विभ्राजत् कैवल्यमिव मूर्तिमत् ॥ १६ ॥

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—महाबाहो ! देवताओंकी प्रार्थना सुनकर भगवान्‌ ब्रह्माजी हँसे और उन्हें अपनी मधुर वाणीसे आनन्दित करते हुए कहने लगे ॥ ११ ॥
श्रीब्रह्माजी ने कहा—देवताओ ! तुम्हारे पूर्वज, मेरे मानसपुत्र सनकादि लोकों की आसक्ति त्यागकर समस्त लोकों में आकाशमार्ग से विचरा करते थे ॥ १२ ॥ एक बार वे भगवान्‌ विष्णु के शुद्ध-सत्त्वमय सब लोकोंके शिरोभागमें स्थित, वैकुण्ठधाममें जा पहुँचे ॥ १३ ॥ वहाँ सभी लोग विष्णुरूप होकर रहते हैं और वह प्राप्त भी उन्हींको होता है, जो अन्य सब प्रकारकी कामनाएँ छोडक़र केवल भगवच्चरण-शरणकी प्राप्तिके लिये ही अपने धर्मद्वारा उनकी आराधना करते हैं ॥ १४ ॥ वहाँ वेदान्तप्रतिपाद्य धर्ममूर्ति श्रीआदिनारायण हम अपने भक्तों को सुख देनेके लिये शुद्धसत्त्वमय स्वरूप धारणकर हर समय विराजमान रहते हैं ॥ १५ ॥ उस लोकमें नै:श्रेयस नामका एक वन है, जो मूर्तिमान् कैवल्य-सा ही जान पड़ता है। वह सब प्रकारकी कामनाओंको पूर्ण करने वाले वृक्षों से सुशोभित है, जो स्वयं हर समय छहों ऋतुओं की शोभा से सम्पन्न रहते हैं ॥१६ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - सत्ताईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - सत्ताईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३) प्रकृति-पुरुषके विवेक से मोक्ष-प्राप्ति का वर्णन...