मंगलवार, 20 मई 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - चौबीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - चौबीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)

श्रीकपिलदेवजी का जन्म

तान्येव तेऽभिरूपाणि रूपाणि भगवंस्तव ।
यानि यानि च रोचन्ते स्वजनानां अरूपिणः ॥ ३१ ॥
त्वां सूरिभिस्तत्त्वबुभुत्सयाद्धा
     सदाभिवादार्हणपादपीठम् ।
ऐश्वर्यवैराग्ययशोऽवबोध
     वीर्यश्रिया पूर्तमहं प्रपद्ये ॥ ३२ ॥
परं प्रधानं पुरुषं महान्तं
     कालं कविं त्रिवृतं लोकपालम् ।
आत्मानुभूत्यानुगतप्रपञ्चं
     स्वच्छन्दशक्तिं कपिलं प्रपद्ये ॥ ३३ ॥
आ स्माभिपृच्छेऽद्य पतिं प्रजानां
     त्वयावतीर्णर्ण उताप्तकामः ।
परिव्रजत्पदवीमास्थितोऽहं
     चरिष्ये त्वां हृदि युञ्जन् विशोकः ॥ ३४ ॥

(कर्दमजी कहरहे हैं) भगवन् ! आप प्राकृतरूप से रहित हैं, आपके जो चतुर्भुज आदि अलौकिक रूप हैं, वे ही आपके योग्य हैं तथा जो मनुष्य-सदृश रूप आपके भक्तों को प्रिय लगते हैं, वे भी आप को रुचिकर प्रतीत होते हैं ॥ ३१ ॥ आपका पाद-पीठ तत्त्वज्ञान की इच्छा से विद्वानोंद्वारा सर्वदा वन्दनीय है तथा आप ऐश्वर्य, वैराग्य, यश,ज्ञान, वीर्य और श्री—इन छहों ऐश्वर्योंसे पूर्ण हैं। मैं आपकी शरणमें हूँ ॥ ३२ ॥ भगवन् ! आप परब्रह्म हैं; सारी शक्तियाँ आपके अधीन हैं; प्रकृति, पुरुष, महत्तत्त्व, काल, त्रिविध अहंकार, समस्त लोक एवं लोकपालोंके रूपमें आप ही प्रकट हैं; तथा आप सर्वज्ञ परमात्मा ही इस सारे प्रपञ्चको चेतनशक्तिके द्वारा अपनेमें लीन कर लेते हैं। अत: इन सबसे परे भी आप ही हैं। मैं आप भगवान्‌ कपिलकी शरण लेता हूँ ॥ ३३ ॥ प्रभो ! आपकी कृपा से मैं तीनों ऋणों से मुक्त हो गया हूँ और मेरे सभी मनोरथ पूर्ण हो चुके हैं। अब मैं संन्यास-मार्गको ग्रहणकर आपका चिन्तन करते हुए शोकरहित होकर विचरूँगा। आप समस्त प्रजाओंके स्वामी हैं, अतएव इसके लिये मैं आपकी आज्ञा चाहता हूँ’ ॥ ३४ ॥

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सोमवार, 19 मई 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - चौबीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - चौबीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

श्रीकपिलदेवजी का जन्म

स चावतीर्णं त्रियुगं आज्ञाय विबुधर्षभम् ।
विविक्त उपसङ्गम्य प्रणम्य समभाषत ॥ २६ ॥
अहो पापच्यमानानां निरये स्वैरमङ्गलैः ।
कालेन भूयसा नूनं प्रसीदन्तीह देवताः ॥ २७ ॥
बहुजन्मविपक्वेन सम्यग् योगसमाधिना ।
द्रष्टुं यतन्ते यतयः शून्यागारेषु यत्पदम् ॥ २८ ॥
स एव भगवानद्य हेलनं न गणय्य नः ।
गृहेषु जातो ग्राम्याणां यः स्वानां पक्षपोषणः ॥ २९ ॥
स्वीयं वाक्यमृतं कर्तुमं अतीर्णोऽसि मे गृहे ।
चिकीर्षुर्भगवान् ज्ञानं भक्तानां मानवर्धनः ॥ ३० ॥

कर्दमजी ने देखा कि उनके यहाँ साक्षात् देवाधिदेव श्रीहरि ने ही अवतार लिया है, तो वे एकान्त में उनके पास गये और उन्हें प्रणाम करके इस प्रकार कहने लगे ॥ २६ ॥ ‘अहो ! अपने पापकर्मों के कारण इस दु:खमय संसार में नाना प्रकार से पीडित होते हुए पुरुषों पर देवगण तो बहुत काल बीतने पर प्रसन्न होते हैं ॥ २७ ॥ किन्तु जिनके स्वरूप को योगिजन अनेकों जन्मों के साधन से सिद्ध हुई सुदृढ़ समाधि के द्वारा एकान्त में देखने का प्रयत्न करते हैं, अपने भक्तों की रक्षा करनेवाले वे ही श्रीहरि हम विषयलोलुपों के द्वारा होनेवाली अपनी अवज्ञा का कुछ भी विचार न कर आज हमारे घर अवतीर्ण हुए हैं ॥ २८-२९ ॥ आप वास्तव में अपने भक्तों का मान बढ़ानेवाले हैं । आपने अपने वचनों को सत्य करने और सांख्ययोग का उपदेश करने के लिये ही मेरे यहाँ अवतार लिया है ॥ ३० ॥ 

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रविवार, 18 मई 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - चौबीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - चौबीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

श्रीकपिलदेवजी का जन्म

गते शतधृतौ क्षत्तः कर्दमस्तेन चोदितः ।
यथोदितं स्वदुहितॄः प्रादाद्विश्वसृजां ततः ॥ २१ ॥
मरीचये कलां प्रादाद् अनसूयां अथात्रये ।
श्रद्धां अङ्‌गिरसेऽयच्छत् पुलस्त्याय हविर्भुवम् ॥ २२ ॥
पुलहाय गतिं युक्तां क्रतवे च क्रियां सतीम् ।
ख्यातिं च भृगवेऽयच्छद् वसिष्ठायाप्यरुन्धतीम् ॥ २३ ॥
अथर्वणेऽददाच्छान्तिं यया यज्ञो वितन्यते ।
विप्रर्षभान् कृतोद्वाहान् सदारान् समलालयत् ॥ २४ ॥
ततस्त ऋषयः क्षत्तः कृतदारा निमन्त्र्य तम् ।
प्रातिष्ठन् नन्दिमापन्नाः स्वं स्वमाश्रम मण्डलम् ॥ २५ ॥

ब्रह्माजीके चले जानेपर कर्दमजी ने उनके आज्ञानुसार मरीचि आदि प्रजापतियों के साथ अपनी कन्याओंका विधिपूर्वक विवाह कर दिया ॥ २१ ॥ उन्होंने अपनी कला नामकी कन्या मरीचिको, अनसूया अत्रिको, श्रद्धा अङ्गिराको और हविर्भू पुलस्त्यको समर्पित की ॥ २२ ॥ पुलहको उनके अनुरूप गति नामकी कन्या दी, क्रतुके साथ परम साध्वी क्रिया का विवाह किया, भृगुजीको ख्याति और वसिष्ठजीको अरुन्धती समर्पित की ॥ २३ ॥ अथर्वा ऋषिको शान्ति नामकी कन्या दी, जिससे यज्ञकर्मका विस्तार किया जाता है। कर्दमजीने उन विवाहित ऋषियोंका उनकी पत्नियोंके सहित खूब सत्कार किया ॥ २४ ॥ विदुरजी ! इस प्रकार विवाह हो जानेपर वे सब ऋषि कर्दमजीकी आज्ञा ले अति आनन्दपूर्वक अपने-अपने आश्रमोंको चले गये ॥ २५ ॥

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शनिवार, 17 मई 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - चौबीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - चौबीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

श्रीकपिलदेवजी का जन्म

ज्ञानविज्ञानयोगेन कर्मणां उद्धरन्जटाः ।
हिरण्यकेशः पद्माक्षः पद्ममुद्रापदाम्बुजः ॥ १७ ॥
एष मानवि ते गर्भं प्रविष्टः कैटभार्दनः ।
अविद्यासंशयग्रन्थिं छित्त्वा गां विचरिष्यति ॥ १८ ॥
अयं सिद्धगणाधीशः साङ्ख्याचार्यैः सुसम्मतः ।
लोके कपिल इत्याख्यां गन्ता ते कीर्तिवर्धनः ॥ १९ ॥

मैत्रेय उवाच –

तौ आवाश्वास्य जगत्स्रष्टा कुमारैः सहनारदः ।
हंसो हंसेन यानेन त्रिधामपरमं ययौ ॥ २० ॥

[फिर ब्रह्माजी देवहूतिसे बोले—] राजकुमारी ! सुनहरे बाल, कमल-जैसे विशाल नेत्र और कमलाङ्कित चरण- कमलों वाले शिशु के रूप में कैटभासुर को मारनेवाले साक्षात् श्रीहरिने ही, ज्ञान-विज्ञानद्वारा कर्मोंकी वासनाओंका मूलोच्छेदन करनेके लिये, तेरे गर्भमें प्रवेश किया है। ये अविद्याजनित मोहकी ग्रन्थियों- को काटकर पृथ्वीमें स्वछन्द विचरेंगे ॥ १७-१८ ॥ ये सिद्धगणोंके स्वामी और सांख्याचार्योंके भी माननीय होंगे। लोकमें तेरी कीर्तिका विस्तार करेंगे और ‘कपिल’ नामसे विख्यात होंगे ॥ १९ ॥
श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—विदुरजी ! जगत् की सृष्टि करनेवाले ब्रह्माजी उन दोनोंको इस प्रकार आश्वासन देकर नारद और सनकादिको साथ ले, हंसपर चढक़र ब्रह्मलोकको चले गये ॥ २० ॥ 

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शुक्रवार, 16 मई 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - चौबीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - चौबीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

श्रीकपिलदेवजी का जन्म

ब्रह्मोवाच –

त्वया मेऽपचितिस्तात कल्पिता निर्व्यलीकतः ।
यन्मे सञ्जगृहे वाक्यं भवान्मानद मानयन् ॥ १२ ॥
एतावत्येव शुश्रूषा कार्या पितरि पुत्रकैः ।
बाढं इति अनुमन्येत गौरवेण गुरोर्वचः ॥ १३ ॥
इमा दुहितरः सभ्य तव वत्स सुमध्यमाः ।
सर्गमेतं प्रभावैः स्वैः बृंहयिष्यन्ति अनेकधा ॥ १४ ॥
अतस्त्वं ऋषिमुख्येभ्यो यथाशीलं यथारुचि ।
आत्मजाः परिदेह्यद्य विस्तृणीहि यशो भुवि ॥ १५ ॥
वेदाहमाद्यं पुरुषं अवतीर्णं स्वमायया ।
भूतानां शेवधिं देहं बिभ्राणं कपिलं मुने ॥ १६ ॥

श्रीब्रह्माजीने कहा—प्रिय कर्दम ! तुम दूसरोंको मान देनेवाले हो। तुमने मेरा सम्मान करते हुए जो मेरी आज्ञाका पालन किया है, इससे तुम्हारे द्वारा निष्कपट-भावसे मेरी पूजा सम्पन्न हुई है ॥ १२ ॥ पुत्रोंको अपने पिताकी सबसे बड़ी सेवा यही करनी चाहिये कि ‘जो आज्ञा’ ऐसा कहकर आदरपूर्वक उनके आदेशको स्वीकार करें ॥ १३ ॥ बेटा ! तुम सभ्य हो, तुम्हारी ये सुन्दरी कन्याएँ अपने वंशोंद्वारा इस सृष्टिको अनेक प्रकारसे बढ़ावेंगी ॥ १४ ॥ अब तुम इन मरीचि आदि मुनिवरों को इनके स्वभाव और रुचिके अनुसार अपनी कन्याएँ समर्पित करो और संसारमें अपना सुयश फैलाओ ॥ १५ ॥ मुने ! मैं जानता हूँ, जो सम्पूर्ण प्राणियोंकी निधि हैं—उनके अभीष्ट मनोरथ पूर्ण करनेवाले हैं, वे आदिपुरुष श्रीनारायण ही अपनी योगमाया से कपिल के रूप में अवतीर्ण हुए हैं ॥ १६ ॥ 

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गुरुवार, 15 मई 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - चौबीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - चौबीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

श्रीकपिलदेवजी का जन्म

मैत्रेय उवाच –

देवहूत्यपि सन्देशं गौरवेण प्रजापतेः ।
सम्यक् श्रद्धाय पुरुषं कूटस्थं अभजद्गुतरुम् ॥ ५ ॥
तस्यां बहुतिथे काले भगवान् मधुसूदनः ।
कार्दमं वीर्यमापन्नो जज्ञेऽग्निरिव दारुणि ॥ ६ ॥
अवादयन् तदा व्योम्नि वादित्राणि घनाघनाः ।
गायन्ति तं स्म गन्धर्वा नृत्यन्ति अप्सरसो मुदा ॥ ७ ॥
पेतुः सुमनसो दिव्याः खेचरैः अपवर्जिताः ।
प्रसेदुश्च दिशः सर्वा अम्भांसि च मनांसि च ॥ ८ ॥
तत्कर्दमाश्रमपदं सरस्वत्या परिश्रितम् ।
स्वयम्भूः साकं ऋषिभिः मरीच्यादिभिरभ्ययात् ॥ ९ ॥
भगवन्तं परं ब्रह्म सत्त्वेनांशेन शत्रुहन् ।
तत्त्वसङ्ख्यानविज्ञप्त्यै जातं विद्वानजः स्वराट् ॥ १० ॥
सभाजयन् विशुद्धेन चेतसा तच्चिकीर्षितम् ।
प्रहृष्यमाणैरसुभिः कर्दमं चेदमभ्यधात् ॥ ११ ॥

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—विदुरजी ! प्रजापति कर्दमके आदेशमें गौरव-बुद्धि होनेसे देवहूतिने उसपर पूर्ण विश्वास किया और वह निर्विकार, जगद्गुरु भगवान्‌ श्रीपुरुषोत्तमकी आराधना करने लगी ॥ ५ ॥ इस प्रकार बहुत समय बीत जानेपर भगवान्‌ मधुसूदन कर्दमजीके वीर्यका आश्रय ले उसके गर्भसे इस प्रकार प्रकट हुए, जैसे काष्ठमेंसे अग्नि ॥ ६ ॥ उस समय आकाशमें मेघ जल बरसाते हुए गरज-गरजकर बाजे बजाने लगे, गन्धर्वगण गान करने लगे और अप्सराएँ आनन्दित होकर नाचने लगीं ॥ ७ ॥ आकाशसे देवताओंके बरसाये हुए दिव्य पुष्पोंकी वर्षा होने लगी; सब दिशाओंमें आनन्द छा गया, जलाशयोंका जल निर्मल हो गया और सभी जीवोंके मन प्रसन्न हो गये ॥ ८ ॥ इसी समय सरस्वती नदीसे घिरे हुए कर्दमजीके उस आश्रममें मरीचि आदि मुनियोंके सहित श्रीब्रह्माजी आये ॥ ९ ॥ शत्रुदमन विदुरजी ! स्वत:सिद्ध ज्ञानसे सम्पन्न अजन्मा ब्रह्माजीको यह मालूम हो गया था कि साक्षात् परब्रह्म भगवान्‌ विष्णु सांख्यशास्त्रका उपदेश करनेके लिये अपने विशुद्ध सत्त्वमय अंशसे अवतीर्ण हुए हैं ॥ १० ॥ अत: भगवान्‌ जिस कार्यको करना चाहते थे, उसका उन्होंने विशुद्ध चित्तसे अनुमोदन एवं आदर किया और अपनी सम्पूर्ण इन्द्रियोंसे प्रसन्नता प्रकट करते हुए कर्दमजीसे इस प्रकार कहा ॥ ११ ॥

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बुधवार, 14 मई 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - चौबीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - चौबीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

श्रीकपिलदेवजी का जन्म

मैत्रेय उवाच –

निर्वेदवादिनीमेवं मनोर्दुहितरं मुनिः ।
दयालुः शालिनीमाह शुक्लाभिव्याहृतं स्मरन् ॥ १ ॥

ऋषिरुवाच –

मा खिदो राजपुत्रीत्थं आत्मानं प्रत्यनिन्दिते ।
भगवान् तेऽक्षरो गर्भं अदूरात्सम्प्रपत्स्यते ॥ २ ॥
धृतव्रतासि भद्रं ते दमेन नियमेन च ।
तपोद्रविणदानैश्च श्रद्धया चेश्वरं भज ॥ ३ ॥
स त्वयाऽऽराधितः शुक्लो वितन्वन् मामकं यशः ।
छेत्ता ते हृदयग्रन्थिं औदर्यो ब्रह्मभावनः ॥ ४ ॥

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—उत्तम गुणोंसे सुशोभित मनुकुमारी देवहूतिने जब ऐसी वैराग्ययुक्त बातें कहीं, तब कृपालु कर्दम मुनिको भगवान्‌ विष्णुके कथनका स्मरण हो आया और उन्होंने उससे कहा ॥ १ ॥
कर्दमजी बोले—दोषरहित राजकुमारी ! तुम अपने विषयमें इस प्रकार खेद न करो; तुम्हारे गर्भमें अविनाशी भगवान्‌ विष्णु शीघ्र ही पधारेंगे ॥ २ ॥ प्रिये ! तुमने अनेक प्रकारके व्रतोंका पालन किया है, अत: तुम्हारा कल्याण होगा। अब तुम संयम, नियम, तप और दानादि करती हुई श्रद्धापूर्वक भगवान्‌ का भजन करो ॥ ३ ॥ इस प्रकार आराधना करनेपर श्रीहरि तुम्हारे गर्भसे अवतीर्ण होकर मेरा यश बढ़ावेंगे और ब्रह्मज्ञानका उपदेश करके तुम्हारे हृदयकी अहंकारमयी ग्रन्थिका छेदन करेंगे ॥ ४ ॥

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मंगलवार, 13 मई 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - तेईसवाँ अध्याय..(पोस्ट१०)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - तेईसवाँ अध्याय..(पोस्ट१०)

कर्दम और देवहूतिका विहार

पतिं सा प्रव्रजिष्यन्तं तदाऽऽलक्ष्योशती बहिः ।
स्मयमाना विक्लवेन हृदयेन विदूयता ॥ ४९ ॥
लिखन्त्यधोमुखी भूमिं पदा नखमणिश्रिया ।
उवाच ललितां वाचं निरुध्याश्रुकलां शनैः ॥ ५० ॥

देवहूतिरुवाच -
सर्वं तद्भागवान् मह्यं उपोवाह प्रतिश्रुतम् ।
अथापि मे प्रपन्नाया अभयं दातुमर्हसि ॥ ५१ ॥
ब्रह्मन् दुहितृभिस्तुभ्यं विमृग्याः पतयः समाः ।
कश्चित्स्यान्मे विशोकाय त्वयि प्रव्रजिते वनम् ॥ ५२ ॥
एतावतालं कालेन व्यतिक्रान्तेन मे प्रभो ।
इन्द्रियार्थप्रसङ्गेन परित्यक्तपरात्मनः ॥ ५३ ॥
इन्द्रियार्थेषु सज्जन्त्या प्रसङ्गस्त्वयि मे कृतः ।
अजानन्त्या परं भावं तथाप्यस्तु अभयाय मे ॥ ५४ ॥
सङ्गो यः संसृतेर्हेतुः असत्सु विहितोऽधिया ।
स एव साधुषु कृतो निःसङ्गत्वाय कल्पते ॥ ५५ ॥
नेह यत्कर्म धर्माय न विरागाय कल्पते ।
न तीर्थपदसेवायै जीवन्नपि मृतो हि सः ॥ ५६ ॥
साहं भगवतो नूनं वञ्चिता मायया दृढम् ।
यत्त्वां विमुक्तिदं प्राप्य न मुमुक्षेय बन्धनात् ॥ ५७ ॥

इसी समय शुद्ध स्वभाववाली सती देवहूतिने देखा कि पूर्व प्रतिज्ञाके अनुसार उसके पतिदेव संन्यासाश्रम ग्रहण करके वनको जाना चाहते हैं, तो उसने अपने आँसुओंको रोककर ऊपरसे मुसकराते हुए व्याकुल एवं संतप्त हृदयसे धीर-धीरे अति मधुर वाणीमें कहा। उस समय वह सिर नीचा किये हुए अपने नखमणिमण्डित चरणकमलसे पृथ्वीको कुरेद रही थी ॥ ४९-५० ॥
देवहूतिने कहा—भगवन् ! आपने जो कुछ प्रतिज्ञा की थी, वह सब तो पूर्णत: निभा दी; तो भी मैं आपकी शरणागत हूँ, अत: आप मुझे अभयदान और दीजिये ॥ ५१ ॥ ब्रह्मन् ! इन कन्याओंके लिये योग्य वर खोजने पड़ेंगे और आपके वनको चले जानेके बाद मेरे जन्म-मरणरूप शोकको दूर करनेके लिये भी कोई होना चाहिये ॥ ५२ ॥ प्रभो ! अबतक परमात्मासे विमुख रहकर मेरा जो समय इन्द्रियसुख भोगनेमें बीता है, वह तो निरर्थक ही गया ॥ ५३ ॥ आपके परम प्रभावको न जाननेके कारण ही मैंने इन्द्रियोंके विषयोंमें आसक्त रहकर आपसे अनुराग किया। तथापि यह भी मेरे संसार-भयको दूर करनेवाला ही होना चाहिये ॥ ५४ ॥ अज्ञानवश असत्पुरुषोंके साथ किया हुआ जो संग संसार-बन्धनका कारण होता है, वही सत्पुरुषोंके साथ किये जानेपर असङ्गता प्रदान करता है ॥ ५५ ॥ संसारमें जिस पुरुषके कर्मोंसे न तो धर्मका सम्पादन होता है, न वैराग्य उत्पन्न होता है और न भगवान्‌की सेवा ही सम्पन्न होती है, वह पुरुष जीते ही मुर्देके समान है ॥ ५६ ॥ अवश्य ही मैं भगवान्‌की मायासे बहुत ठगी गयी, जो आप-जैसे मुक्तिदाता पतिदेवको पाकर भी मैंने संसार-बन्धनसे छूटनेकी इच्छा नहीं की ॥ ५७ ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
तृतीयस्कन्धे त्रयोविंशोऽध्यायः ॥ २३ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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सोमवार, 12 मई 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - तेईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०९)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - तेईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०९)

कर्दम और देवहूतिका विहार

भ्राजिष्णुना विमानेन कामगेन महीयसा ।
वैमानिकानत्यशेत चरन् लोकान यथानिलः ॥ ४१ ॥
किं दुरापादनं तेषां पुंसां उद्दामचेतसाम् ।
यैराश्रितस्तीर्थपदः चरणो व्यसनात्ययः ॥ ४२ ॥
प्रेक्षयित्वा भुवो गोलं पत्न्यैत यावान् स्वसंस्थया ।
बह्वाश्चर्यं महायोगी स्वाश्रमाय न्यवर्तत ॥ ४३ ॥
विभज्य नवधाऽऽत्मानं मानवीं सुरतोत्सुकाम् ।
रामां निरमयन् रेमे वर्षपूगान् मुहूर्तवत् ॥ ४४ ॥
तस्मिन् विमान उत्कृष्टां शय्यां रतिकरीं श्रिता ।
न चाबुध्यत तं कालं पत्यापीच्येन सङ्गता ॥ ४५ ॥
एवं योगानुभावेन दम्पत्यो रममाणयोः ।
शतं व्यतीयुः शरदः कामलालसयोर्मनाक् ॥ ४६ ॥
तस्यां आधत्त रेतस्तां भावयन् आत्मनाऽऽत्मवित् ।
नोधा विधाय रूपं स्वं सर्वसङ्कल्पविद्विभुः ॥ ४७ ॥
अतः सा सुषुवे सद्यो देवहूतिः स्त्रियः प्रजाः ।
सर्वास्ताश्चारुसर्वाङ्ग्यो लोहितोत्पलगन्धयः ॥ ४८ ॥

उस कान्तिमान् और इच्छानुसार चलनेवाले श्रेष्ठ विमानपर बैठकर वायुके समान सभी लोकोंमें विचरते हुए कर्दमजी विमानविहारी देवताओंसे भी आगे बढ़ गये ॥ ४१ ॥ विदुरजी ! जिन्होंने भगवान्‌के भवभयहारी पवित्र पादपद्मोंका आश्रय लिया है, उन धीर पुरुषोंके लिये कौन-सी वस्तु या शक्ति दुर्लभ है ॥ ४२ ॥ इस प्रकार महायोगी कर्दमजी यह सारा भूमण्डल, जो द्वीप-वर्ष आदिकी विचित्र रचनाके कारण बड़ा आश्चर्यमय प्रतीत होता है, अपनी प्रिया को दिखाकर अपने आश्रम को लौट आये ॥ ४३ ॥ फिर उन्होंने अपने को नौ रूपोंमें विभक्तकर रतिसुख के लिये अत्यन्त उत्सुक मनुकुमारी देवहूति को आनन्दित करते हुए उसके साथ बहुत वर्षोंतक विहार किया, किन्तु उनका इतना लम्बा समय एक मुहूर्तके समान बीत गया ॥ ४४ ॥ उस विमानमें रतिसुखको बढ़ानेवाली बड़ी सुन्दर शय्याका आश्रय ले अपने परम रूपवान् प्रियतमके साथ रहती हुई देवहूतिको इतना काल कुछ भी न जान पड़ा ॥ ४५ ॥ इस प्रकार उस कामासक्त दम्पतिको अपने योगबलसे सैकड़ों वर्षोंतक विहार करते हुए भी वह काल बहुत थोड़े समयके समान निकल गया ॥ ४६ ॥ आत्मज्ञानी कर्दमजी सब प्रकारके सङ्कल्पोंको जानते थे; अत: देवहूतिको सन्तानप्राप्तिके लिये उत्सुक देख तथा भगवान्‌के आदेशको स्मरणकर उन्होंने अपने स्वरूपके नौ विभाग किये तथा कन्याओंकी उत्पत्तिके लिये एकाग्रचित्तसे अर्धाङ्गरूपमें अपनी पत्नीकी भावना करते हुए उसके गर्भमें वीर्य स्थापित किया ॥ ४७ ॥ इससे देवहूतिके एक ही साथ नौ कन्याएँ पैदा हुर्ईं। वे सभी सर्वाङ्गसुन्दरी थीं और उनके शरीरसे लाल कमलकी-सी सुगन्ध निकलती थी ॥ ४८ ॥

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रविवार, 11 मई 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - तेईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - तेईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)

कर्दम और देवहूतिका विहार

यदा सस्मार ऋषभं ऋषीणां दयितं पतिम् ।
तत्र चास्ते सह स्त्रीभिः यत्रास्ते स प्रजापतिः ॥ ३४ ॥
भर्तुः पुरस्तादात्मानं स्त्रीसहस्रवृतं तदा ।
निशाम्य तद्योगगतिं संशयं प्रत्यपद्यत ॥ ३५ ॥
स तां कृतमलस्नानां विभ्राजन्तीमपूर्ववत् ।
आत्मनो बिभ्रतीं रूपं संवीतरुचिरस्तनीम् ॥ ३६ ॥
विद्याधरीसहस्रेण सेव्यमानां सुवाससम् ।
जातभावो विमानं तद् आरोहयद् अमित्रहन् ॥ ३७ ॥
तस्मिन् अलुप्तमहिमा प्रिययानुरक्तो
     विद्याधरीभिरुपचीर्णवपुर्विमाने ।
बभ्राज उत्कचकुमुद्गरणवानपीच्यः
     ताराभिरावृत इव उडुपतिः नभःस्थः ॥ ३८ ॥
तेनाष्टलोकपविहारकुलाचलेन्द्र
     द्रोणीष्वनङ्गसखमारुतसौभगासु ।
सिद्धैर्नुतो द्युधुनिपातशिवस्वनासु
     रेमे चिरं धनदवल्ललनावरूथी ॥ ३९ ॥
वैश्रम्भके सुरसने नन्दने पुष्पभद्रके ।
मानसे चैत्ररथ्ये च स रेमे रामया रतः ॥ ४० ॥

विदुरजी ! जब देवहूतिने अपने प्रिय पतिदेवका स्मरण किया, तो अपनेको सहेलियोंके सहित वहीं पाया, जहाँ प्रजापति कर्दम जी विराजमान थे ॥ ३४ ॥ उस समय अपने को सहस्रों स्त्रियों के सहित अपने प्राणनाथ के सामने देख और इसे उनके योग का प्रभाव समझकर देवहूति को बड़ा विस्मय हुआ ॥ ३५ ॥
शत्रुविजयी विदुर ! जब कर्दमजीने देखा कि देवहूतिका शरीर स्नान करनेसे अत्यन्त निर्मल हो गया है, और विवाहकालसे पूर्व उसका जैसा रूप था, उसी रूपको पाकर वह अपूर्व शोभासे सम्पन्न हो गयी है, उसका सुन्दर वक्ष:स्थल चोलीसे ढका हुआ है, हजारों विद्याधरियाँ उसकी सेवामें लगी हुई हैं तथा उसके शरीरपर बढिय़ा-बढिय़ा वस्त्र शोभा पा रहे हैं, तब उन्होंने बड़े प्रेमसे उसे विमानपर चढ़ाया ॥ ३६-३७ ॥ उस समय अपनी प्रियाके प्रति अनुरक्त होनेपर भी कर्दमजीकी महिमा (मन और इन्द्रियोंपर प्रभुता) कम नहीं हुई। विद्याधरियाँ उनके शरीरकी सेवा कर रही थीं। खिले हुए कुमुदके फूलोंसे सृंगार करके अत्यन्त सुन्दर बने हुए वे विमानपर इस प्रकार शोभा पा रहे थे, मानो आकाशमें तारागणसे घिरे हुए चन्द्रदेव विराजमान हों ॥ ३८ ॥ उस विमानपर निवासकर उन्होंने दीर्घकालतक कुबेरजीके समान मेरु पर्वतकी घाटियोंमें विहार किया। ये घाटियाँ आठों लोकपालों- की विहारभूमि हैं। इनमें कामदेवको बढ़ानेवाली शीतल, मन्द, सुगन्ध वायु चलकर इनकी कमनीय शोभाका विस्तार करती है तथा श्रीगङ्गाजीके स्वर्गलोकसे गिरनेकी मङ्गलमय ध्वनि निरन्तर गूँजती रहती है। उस समय भी दिव्य विद्याधरियोंका समुदाय उनकी सेवामें उपस्थित था और सिद्धगण वन्दना किया करते थे ॥ ३९ ॥ इसी प्रकार प्राणप्रिया देवहूतिके साथ उन्होंने(कर्दमजी ने) वैश्रम्भक, सुरसन, नन्दन, पुष्पभद्र और चैत्ररथ आदि अनेकों देवोद्यानों तथा मानस सरोवरमें अनुरागपूर्वक विहार किया ॥ ४० ॥

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - सत्ताईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

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