शुक्रवार, 30 मई 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - पचीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - पचीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)

देवहूति का प्रश्न तथा भगवान्‌ कपिलद्वारा 
भक्तियोग की महिमा का वर्णन

श्रीभगवानुवाच –

देवानां गुणलिङ्गानां आनुश्रविककर्मणाम् ।
सत्त्व एवैकमनसो वृत्तिः स्वाभाविकी तु या ॥ ३२ ॥
अनिमित्ता भागवती भक्तिः सिद्धेर्गरीयसी ।
जरयत्याशु या कोशं निगीर्णमनलो यथा ॥ ३३ ॥
नैकात्मतां मे स्पृहयन्ति केचिन्
     मत्पादसेवाभिरता मदीहाः ।
येऽन्योन्यतो भागवताः प्रसज्य
     सभाजयन्ते मम पौरुषाणि ॥ ३४ ॥

श्रीभगवान्‌ ने कहा—माता ! जिसका चित्त एकमात्र भगवान्‌ में ही लग गया है, ऐसे मनुष्यकी वेदविहित कर्मोंमें लगी हुई तथा विषयोंका ज्ञान करानेवाली (कर्मेन्द्रिय एवं ज्ञानेन्द्रिय—दोनों प्रकारकी) इन्द्रियोंकी जो सत्त्वमूर्ति श्रीहरिके प्रति स्वाभाविकी प्रवृत्ति है, वही भगवान्‌ की अहैतुकी भक्ति है। यह मुक्तिसे भी बढक़र है; क्योंकि जठरानल जिस प्रकार खाये हुए अन्न को पचाता है, उसी प्रकार यह भी कर्मसंस्कारोंके भंडाररूप लिङ्गशरीरको तत्काल भस्म कर देती है ॥ ३२-३३ ॥ मेरी चरणसेवामें प्रीति रखनेवाले और मेरी ही प्रसन्नताके लिये समस्त कार्य करनेवाले कितने ही बड़भागी भक्त, जो एक दूसरेसे मिलकर प्रेमपूर्वक मेरे ही पराक्रमोंकी चर्चा किया करते हैं, मेरे साथ एकीभाव (सायुज्यमोक्ष) की भी इच्छा नहीं करते ॥ ३४ ॥ 

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


गुरुवार, 29 मई 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - पचीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - पचीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)

देवहूति का प्रश्न  तथा भगवान्‌ कपिलद्वारा 
भक्तियोग की महिमा का वर्णन

देवहूतिरुवाच ।

काचित् त्वय्युचिता भक्तिः कीदृशी मम गोचरा ।
यया पदं ते निर्वाणं अञ्जसा अन्वाश्नवै अहम् ॥ २८ ॥
यो योगो भगवद्बािणो निर्वाणात्मंस्त्वयोदितः ।
कीदृशः कति चाङ्गानि यतस्तत्त्वावबोधनम् ॥ २९ ॥
तद् एतन्मे विजानीहि यथाहं मन्दधीर्हरे ।
सुखं बुद्ध्येय दुर्बोधं योषा भवदनुग्रहात् ॥ ३० ॥

मैत्रेय उवाच ।
विदित्वार्थं कपिलो मातुरित्थं
     जातस्नेहो यत्र तन्वाभिजातः ।
तत्त्वाम्नायं यत्प्रवदन्ति साङ्ख्यं
     प्रोवाच वै भक्तिवितानयोगम् ॥ ३१ ॥

देवहूतिने कहा—भगवन् ! आपकी समुचित भक्तिका स्वरूप क्या है ? और मेरी-जैसी अबलाओंके लिये कैसी भक्ति ठीक है, जिससे कि मैं सहजमें ही आपके निर्वाणपदको प्राप्त कर सकूँ ? ॥ २८ ॥ निर्वाणस्वरूप प्रभो ! जिसके द्वारा तत्त्वज्ञान होता है और जो लक्ष्यको बेधनेवाले बाणके समान भगवान्‌ की प्राप्ति करानेवाला है, वह आपका कहा हुआ योग कैसा है और उसके कितने अङ्ग हैं ? ॥ २९ ॥ हरे ! यह सब आप मुझे इस प्रकार समझाइये जिससे कि आपकी कृपासे मैं मन्दमति स्त्रीजाति भी इस दुर्बोध विषयको सुगमतासे समझ सकूँ ॥ ३० ॥
श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—विदुरजी ! जिसके शरीरसे उन्होंने स्वयं जन्म लिया था, उस अपनी माताका ऐसा अभिप्राय जानकर कपिलजीके हृदयमें स्नेह उमड़ आया और उन्होंने प्रकृति आदि तत्त्वोंका निरूपण करनेवाले शास्त्रका, जिसे सांख्य कहते हैं, उपदेश किया। साथ ही भक्ति-विस्तार एवं योगका भी वर्णन किया ॥ ३१ ॥

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बुधवार, 28 मई 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - पचीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - पचीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

देवहूति का प्रश्न तथा भगवान्‌ कपिलद्वारा 
भक्तियोग की महिमा का वर्णन

ते एते साधवः साध्वि सर्वसङ्गविवर्जिताः ।
सङ्गस्तेष्वथ ते प्रार्थ्यः सङ्गदोषहरा हि ते ॥ २४ ॥
सतां प्रसङ्गान् मम वीर्यसंविदो
     भवन्ति हृत्कर्णरसायनाः कथाः ।
तज्जोषणादाश्वपवर्गवर्त्मनि
     श्रद्धा रतिर्भक्तिरनुक्रमिष्यति ॥ २५ ॥
भक्त्या पुमान्जातविराग ऐन्द्रियाद्
     दृष्टश्रुतान् मद्रचनानुचिन्तया ।
चित्तस्य यत्तो ग्रहणे योगयुक्तो
     यतिष्यते ऋजुभिर्योगमार्गैः ॥ २६ ॥
असेवयायं प्रकृतेर्गुणानां
     ज्ञानेन वैराग्यविजृम्भितेन ।
योगेन मय्यर्पितया च भक्त्या
     मां प्रत्यगात्मानमिहावरुन्धे ॥ २७ ॥

(भगवान्‌ कपिल अपनी माता देवहूति से कहरहे हैं) साध्वि ! ऐसे-ऐसे सर्वसङ्गपरित्यागी महापुरुष ही साधु होते हैं, तुम्हें उन्हीं के सङ्ग की इच्छा करनी चाहिये; क्योंकि वे आसक्ति से उत्पन्न सभी दोषों को हर लेनेवाले हैं ॥ २४ ॥ सत्पुरुषों के समागम से मेरे पराक्रमों का यथार्थ ज्ञान कराने वाली तथा हृदय और कानों को प्रिय लगनेवाली कथाएँ होती हैं। उनका सेवन करनेसे शीघ्र ही मोक्षमार्ग में श्रद्धा, प्रेम और भक्तिका क्रमश: विकास होगा ॥ २५ ॥ फिर मेरी सृष्टि आदि लीलाओं का चिन्तन करनेसे प्राप्त हुई भक्ति के द्वारा लौकिक एवं पारलौकिक सुखों में वैराग्य हो जाने पर मनुष्य सावधानतापूर्वक योग के भक्तिप्रधान सरल उपायों से समाहित होकर मनोनिग्रह के लिये यत्न करेगा ॥ २६ ॥ इस प्रकार प्रकृति के गुणों से उत्पन्न हुए शब्दादि विषयों का त्याग करने से, वैराग्ययुक्त ज्ञान से, योग से और मेरे प्रति की हुई सुदृढ़ भक्ति से मनुष्य मुझ अपने अन्तरात्मा को इस देह में ही प्राप्त कर लेता है ॥ २७ ॥

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मंगलवार, 27 मई 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - पचीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - पचीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

देवहूति का प्रश्न तथा भगवान्‌ कपिलद्वारा 
भक्तियोग की महिमा का वर्णन

प्रसङ्गमजरं पाशं आत्मनः कवयो विदुः ।
स एव साधुषु कृतो मोक्षद्वारं अपावृतम् ॥ २० ॥
तितिक्षवः कारुणिकाः सुहृदः सर्वदेहिनाम् ।
अजातशत्रवः शान्ताः साधवः साधुभूषणाः ॥ २१ ॥
मय्यनन्येन भावेन भक्तिं कुर्वन्ति ये दृढाम् ।
मत्कृते त्यक्तकर्माणः त्यक्तस्वजनबान्धवाः ॥ २२ ॥
मदाश्रयाः कथा मृष्टाः शृण्वन्ति कथयन्ति च ।
तपन्ति विविधास्तापा नैतान् मद्ग तचेतसः ॥ २३ ॥

विवेकीजन सङ्ग या आसक्ति को ही आत्मा का अच्छेद्य बन्धन मानते हैं; किन्तु वही सङ्ग या आसक्ति जब संतों-महापुरुषों के प्रति हो जाती है, तो मोक्षका खुला द्वार बन जाती है ॥ २० ॥
जो लोग सहनशील, दयालु, समस्त देहधारियों के अकारण हितू, किसी के प्रति भी शत्रुभाव न रखनेवाले, शान्त, सरलस्वभाव और सत्पुरुषों का सम्मान करनेवाले होते हैं, जो मुझ में अनन्यभाव से सुदृढ़ प्रेम करते हैं, मेरे लिये सम्पूर्ण कर्म तथा अपने सगे-सम्बन्धियों को भी त्याग देते हैं, और मेरे परायण रहकर मेरी पवित्र कथाओंका श्रवण, कीर्तन करते हैं तथा मुझमें ही चित्त लगाये रहते हैं— उन भक्तों को संसार के तरह-तरह के ताप कोई कष्ट नहीं पहुँचाते हैं ॥ २१—२३॥ 

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सोमवार, 26 मई 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - पचीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - पचीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

देवहूति का प्रश्न तथा भगवान्‌ कपिलद्वारा 
भक्तियोग की महिमा का वर्णन

चेतः खल्वस्य बन्धाय मुक्तये चात्मनो मतम् ।
गुणेषु सक्तं बन्धाय रतं वा पुंसि मुक्तये ॥ १५ ॥
अहं ममाभिमानोत्थैः कामलोभादिभिर्मलैः ।
वीतं यदा मनः शुद्धं अदुःखं असुखं समम् ॥ १६ ॥
तदा पुरुष आत्मानं केवलं प्रकृतेः परम् ।
निरन्तरं स्वयंज्योतिः अणिमानं अखण्डितम् ॥ १७ ॥
ज्ञानवैराग्ययुक्तेन भक्तियुक्तेन चात्मना ।
परिपश्यति उदासीनं प्रकृतिं च हतौजसम् ॥ १८ ॥
न युज्यमानया भक्त्या भगवति अखिलात्मनि ।
सदृशोऽस्ति शिवः पन्था योगिनां ब्रह्मसिद्धये ॥ १९ ॥

इस जीव के बन्धन और मोक्ष का कारण मन ही माना गया है । विषयों में आसक्त होने पर वह बन्धन का हेतु होता है और परमात्मा में अनुरक्त होने पर वही मोक्ष का कारण बन जाता है ॥ १५ ॥ जिस समय यह मन मैं और मेरेपन के कारण होनेवाले काम-लोभ आदि विकारोंसे मुक्त एवं शुद्ध हो जाता है, उस समय वह सुख-दु:खसे छूटकर सम अवस्थामें आ जाता है ॥ १६ ॥ तब जीव अपने ज्ञान- वैराग्य और भक्तिसे युक्त हृदयसे आत्माको प्रकृतिसे परे, एकमात्र (अद्वितीय), भेदरहित, स्वयंप्रकाश, सूक्ष्म, अखण्ड और उदासीन (सुख-दु:खशून्य) देखता है तथा प्रकृतिको शक्तिहीन अनुभव करता है ॥ १७-१८ ॥ योगियों के लिये भगवत्प्राप्ति के निमित्त सर्वात्मा श्रीहरि के प्रति की हुई भक्ति के समान और कोई मङ्गलमय मार्ग नहीं है ॥ १९ ॥ 

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रविवार, 25 मई 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - पचीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - पचीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

देवहूति का प्रश्न तथा भगवान्‌ कपिलद्वारा 
भक्तियोग की महिमा का वर्णन

मैत्रेय उवाच –

इति स्वमातुर्निरवद्यमीप्सितं
     निशम्य पुंसां अपवर्गवर्धनम् ।
धियाभिनन्द्यात्मवतां सतां गतिः
     बभाष ईषत् स्मितशोभिताननः ॥ १२ ॥

श्रीभगवानुवाच –

योग आध्यात्मिकः पुंसां मतो निःश्रेयसाय मे ।
अत्यन्तोपरतिर्यत्र दुःखस्य च सुखस्य च ॥ १३ ॥
तमिमं ते प्रवक्ष्यामि यं अवोचं पुरानघे ।
ऋषीणां श्रोतुकामानां योगं सर्वाङ्गनैपुणम् ॥ १४ ॥

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—इस प्रकार माता देवहूति ने अपनी जो अभिलाषा प्रकट की, वह परम पवित्र और लोगोंका मोक्षमार्गमें अनुराग उत्पन्न करनेवाली थी, उसे सुनकर आत्मज्ञ सत्पुरुषोंकी गति श्रीकपिलजी उसकी मन-ही-मन प्रशंसा करने लगे और फिर मृदु मुसकानसे सुशोभित मुखारविन्दसे इस प्रकार कहने लगे ॥ १२ ॥
भगवान्‌ कपिलने कहा—माता ! यह मेरा निश्चय है कि अध्यात्मयोग ही मनुष्यों के आत्यन्तिक कल्याण का मुख्य साधन है, जहाँ दु:ख और सुख की सर्वथा निवृत्ति हो जाती है ॥१३॥ साध्वि ! सब अङ्गों से सम्पन्न उस योग का मैंने पहले नारदादि ऋषियोंके सामने, उनकी सुननेकी इच्छा होने पर, वर्णन किया था। वही अब मैं आपको सुनाता हूँ ॥ १४ ॥

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शनिवार, 24 मई 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - पचीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - पचीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

देवहूति का प्रश्न तथा भगवान्‌ कपिलद्वारा 
भक्तियोग की महिमा का वर्णन

देवहूतिरुवाच ।

निर्विण्णा नितरां भूमन् असत् इन्द्रियतर्षणात् ।
येन सम्भाव्यमानेन प्रपन्नान्धं तमः प्रभो ॥ ७ ॥
तस्य त्वं तमसोऽन्धस्य दुष्पारस्याद्य पारगम् ।
सच्चक्षुर्जन्मनामन्ते लब्धं मे त्वदनुग्रहात् ॥ ८ ॥
य आद्यो भगवान् पुंसां ईश्वरो वै भवान्किल ।
लोकस्य तमसान्धस्य चक्षुः सूर्य इवोदितः ॥ ९ ॥
अथ मे देव सम्मोहं अपाक्रष्टुं त्वमर्हसि ।
योऽवग्रहोऽहं मम इति इति एतस्मिन् योजितस्त्वया ॥ १० ॥
तं त्वा गताहं शरणं शरण्यं
     स्वभृत्यसंसारतरोः कुठारम् ।
जिज्ञासयाहं प्रकृतेः पूरुषस्य
     नमामि सद्धर्मविदां वरिष्ठम् ॥ ११ ॥

देवहूति बोली—भूमन् ! प्रभो ! इन दुष्ट इन्द्रियोंकी विषय-लालसा से मैं बहुत ऊब गयी हूँ और इनकी इच्छा पूरी करते रहने से ही घोर अज्ञानान्धकार में पड़ी हुई हूँ ॥ ७ ॥ अब आपकी कृपा से मेरी जन्मपरम्परा समाप्त हो चुकी है, इसीसे इस दुस्तर अज्ञानान्धकार से पार लगाने के लिये सुन्दर नेत्ररूप आप प्राप्त हुए हैं ॥ ८ ॥ आप सम्पूर्ण जीवों के स्वामी भगवान्‌ आदिपुरुष हैं तथा अज्ञानान्धकार से अन्धे पुरुषों के लिये नेत्रस्वरूप सूर्य की भाँति उदित हुए हैं ॥ ९ ॥ देव ! इन देह-गेह आदिमें जो मैं- मेरे पन का दुराग्रह होता है, वह भी आपका ही कराया हुआ है; अत: अब आप मेरे इस महामोह को दूर कीजिये ॥ १० ॥ आप अपने भक्तों के संसाररूप वृक्षके लिये कुठार के समान हैं; मैं प्रकृति और पुरुषका ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा से आप शरणागतवत्सल की शरण में आयी हूँ। आप भागवतधर्म जाननेवालों में सबसे श्रेष्ठ हैं, मैं आपको प्रणाम करती हूँ ॥ ११ ॥

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शुक्रवार, 23 मई 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - पचीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - पचीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

देवहूति का प्रश्न  तथा भगवान्‌ कपिलद्वारा 
भक्तियोग की महिमा का वर्णन

शौनक उवाच ।
कपिलस्तत्त्वसङ्ख्याता भगवान् आत्ममायया ।
जातः स्वयमजः साक्षाद् आत्मप्रज्ञप्तये नृणाम् ॥ १ ॥
न ह्यस्य वर्ष्मणः पुंसां वरिम्णः सर्वयोगिनाम् ।
विश्रुतौ श्रुतदेवस्य भूरि तृप्यन्ति मेऽसवः ॥ २ ॥
यद् यद् विधत्ते भगवान् स्वच्छन्दात्मात्ममायया ।
तानि मे श्रद्दधानस्य कीर्तन्यान्यनुकीर्तय ॥ ३ ॥

सूत उवाच -
द्वैपायनसखस्त्वेवं मैत्रेयो भगवांस्तथा ।
प्राहेदं विदुरं प्रीत आन्वीक्षिक्यां प्रचोदितः ॥ ४ ॥

मैत्रेय उवाच -
पितरि प्रस्थितेऽरण्यं मातुः प्रियचिकीर्षया ।
तस्मिन् बिन्दुसरेऽवात्सीत् भगवान् कपिलः किल ॥ ५ ॥
तमासीनमकर्माणं तत्त्वमार्गाग्रदर्शनम् ।
स्वसुतं देवहूत्याह धातुः संस्मरती वचः ॥ ६ ॥

शौनकजीने पूछा—सूतजी ! तत्त्वों की संख्या करने वाले भगवान्‌ कपिल साक्षात् अजन्मा नारायण होकर भी लोगों को आत्मज्ञान का उपदेश करने के लिये अपनी माया से उत्पन्न हुए थे ॥ १ ॥ मैंने भगवान्‌ के बहुत-से चरित्र सुने हैं, तथापि इन योगिप्रवर पुरुषश्रेष्ठ कपिलजी की कीर्ति को सुनते-सुनते मेरी इन्द्रियाँ तृप्त नहीं होतीं ॥ २ ॥ सर्वथा स्वतन्त्र श्रीहरि अपनी योगमाया द्वारा भक्तों की इच्छा के अनुसार शरीर धारण करके जो-जो लीलाएँ करते हैं, वे सभी कीर्तन करने योग्य हैं; अत: आप मुझे वे सभी सुनाइये, मुझे उन्हें सुननेमें बड़ी श्रद्धा है ॥ ३ ॥
सूतजी कहते हैं—मुने ! आपकी ही भाँति जब विदुर ने भी यह आत्मज्ञानविषयक प्रश्र किया, तो श्रीव्यासजी के सखा भगवान्‌ मैत्रेय जी प्रसन्न होकर इस प्रकार कहने लगे ॥ ४ ॥
श्रीमैत्रेयजीने कहा—विदुरजी ! पिताके वनमें चले जानेपर भगवान्‌ कपिल जी माता का प्रिय करने की इच्छासे उस बिन्दुसर तीर्थ में रहने लगे ॥ ५ ॥ एक दिन तत्त्वसमूह के पारदर्शी भगवान्‌ कपिल कर्मकलाप से विरत हो आसनपर विराजमान थे। उस समय ब्रह्माजीके वचनोंका स्मरण करके देवहूति ने उनसे कहा ॥ ६ ॥

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गुरुवार, 22 मई 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - चौबीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०९)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - चौबीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०९)

श्रीकपिलदेवजी का जन्म

मैत्रेय उवाच -
एवं समुदितस्तेन कपिलेन प्रजापतिः ।
दक्षिणीकृत्य तं प्रीतो वनमेव जगाम ह ॥ ४१ ॥
व्रतं स आस्थितो मौनं आत्मैकशरणो मुनिः ।
निःसङ्गो व्यचरत् क्षोणीं अनग्निरनिकेतनः ॥ ४२ ॥
मनो ब्रह्मणि युञ्जानो यत्तत् सदसतः परम् ।
गुणावभासे विगुण एकभक्त्यानुभाविते ॥ ४३ ॥
निरहङ्कृतिर्निर्ममश्च निर्द्वन्द्वः समदृक् स्वदृक् ।
प्रत्यक्प्रशान्तधीर्धीरः प्रशान्तोर्मिरिवोदधिः ॥ ४४ ॥
वासुदेवे भगवति सर्वज्ञे प्रत्यगात्मनि ।
परेण भक्तिभावेन लब्धात्मा मुक्तबन्धनः ॥ ४५ ॥
आत्मानं सर्वभूतेषु भगवन्तं अवस्थितम् ।
अपश्यत्सर्वभूतानि भगवत्यपि चात्मनि ॥ ४६ ॥
इच्छाद्वेषविहीनेन सर्वत्र समचेतसा ।
भगवद्भ्क्तियुक्तेन प्राप्ता भागवती गतिः ॥ ४७ ॥

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—भगवान्‌ कपिलके इस प्रकार कहने पर प्रजापति कर्दम जी उनकी परिक्रमा कर प्रसन्नतापूर्वक वनको चले गये ॥ ४१ ॥
वहाँ अहिंसामय संन्यास-धर्मका पालन करते हुए वे एकमात्र श्रीभगवान्‌ की शरण हो गये तथा अग्नि और आश्रमका त्याग करके नि:सङ्गभावसे पृथ्वीपर विचरने लगे ॥ ४२ ॥ जो कार्यकारण से अतीत है, सत्त्वादि गुणोंका प्रकाशक एवं निर्गुण है और अनन्य भक्ति से ही प्रत्यक्ष होता है, उस परब्रह्म में उन्होंने अपना मन लगा दिया ॥ ४३ ॥ वे अहंकार, ममता और सुख-दु:खादि द्वन्द्वों से छूटकर समदर्शी (भेददृष्टिसे रहित) हो, सबमें अपने आत्मा को ही देखने लगे । उनकी बुद्धि अन्तर्मुख एवं शान्त हो गयी । उस समय धीर कर्दम जी शान्त लहरोंवाले समुद्र के समान जान पडऩे लगे ॥ ४४ ॥ परम भक्तिभावके द्वारा सर्वान्तर्यामी सर्वज्ञ श्रीवासुदेवमें चित्त स्थिर हो जानेसे वे सारे बन्धनोंसे मुक्त हो गये ॥ ४५ ॥ सम्पूर्ण भूतोंमें अपने आत्मा श्रीभगवान्‌को और सम्पूर्ण भूतोंको आत्मस्वरूप श्रीहरिमें स्थित देखने लगे ॥ ४६ ॥ इस प्रकार इच्छा और द्वेषसे रहित, सर्वत्र समबुद्धि और भगवद्भक्तिसे सम्पन्न होकर श्रीकर्दमजीने भगवान्‌का परमपद प्राप्त कर लिया ॥ ४७ ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
तृतीयस्कन्धे चतुर्विंशोऽध्यायः ॥ २४ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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बुधवार, 21 मई 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - चौबीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - चौबीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)

श्रीकपिलदेवजी का जन्म

श्रीभगवानुवाच –

मया प्रोक्तं हि लोकस्य प्रमाणं सत्यलौकिके ।
अथाजनि मया तुभ्यं यदवोचमृतं मुने ॥ ३५ ॥
एतन्मे जन्म लोकेऽस्मिन् मुमुक्षूणां दुराशयात् ।
प्रसङ्ख्यानाय तत्त्वानां सम्मतायात्मदर्शने ॥ ३६ ॥
एष आत्मपथोऽव्यक्तो नष्टः कालेन भूयसा ।
तं प्रवर्तयितुं देहं इमं विद्धि मया भृतम् ॥ ३७ ॥
गच्छ कामं मयाऽऽपृष्टो मयि सन्न्यस्तकर्मणा ।
जित्वा सुदुर्जयं मृत्युं अमृतत्वाय मां भज ॥ ३८ ॥
मामात्मानं स्वयंज्योतिः सर्वभूतगुहाशयम् ।
आत्मन्येवात्मना वीक्ष्य विशोकोऽभयमृच्छसि ॥ ३९ ॥
मात्र आध्यात्मिकीं विद्यां शमनीं सर्वकर्मणाम् ।
वितरिष्ये यया चासौ भयं चातितरिष्यति ॥ ४० ॥

श्रीभगवान्‌ ने (कर्दमजी को) कहा—मुने ! वैदिक और लौकिक सभी कर्मों में संसार के लिये मेरा कथन ही प्रमाण है। इसलिये मैंने जो तुमसे कहा था कि ‘मैं तुम्हारे यहाँ जन्म लूँगा’, उसे सत्य करनेके लिये ही मैंने यह अवतार लिया है ॥ ३५ ॥ इस लोक में मेरा यह जन्म लिङ्गशरीर से मुक्त होने की इच्छावाले मुनियों के लिये आत्मदर्शन में उपयोगी प्रकृति आदि तत्त्वों का  विवेचन करनेके लिये ही हुआ है ॥ ३६ ॥ आत्मज्ञान का यह सूक्ष्म मार्ग बहुत समय से लुप्त हो गया है । इसे फिरसे प्रवृत्त करनेके लिये ही मैंने यह शरीर ग्रहण किया है—ऐसा जानो ॥ ३७ ॥ मुने ! मैं आज्ञा देता हूँ, तुम इच्छानुसार जाओ और अपने सम्पूर्ण कर्म मुझे अर्पण करते हुए दुर्जय मृत्यु को जीतकर मोक्षपद प्राप्त करने के लिये मेरा भजन करो ॥ ३८ ॥ मैं स्वयंप्रकाश और सम्पूर्ण जीवोंके अन्त:करणों में रहनेवाला परमात्मा ही हूँ। अत: जब तुम विशुद्ध बुद्धिके द्वारा अपने अन्त:करण में मेरा साक्षात्कार कर लोगे, तब सब प्रकारके शोकों से छूटकर निर्भय पद (मोक्ष) प्राप्त कर लोगे ॥ ३९ ॥ माता देवहूति को भी मैं सम्पूर्ण कर्मोंसे  छुड़ानेवाला आत्मज्ञान प्रदान करूँगा, जिससे यह संसाररूप भय से पार हो जायगी ॥ ४० ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - सत्ताईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - सत्ताईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३) प्रकृति-पुरुषके विवेक से मोक्ष-प्राप्ति का वर्णन...