बुधवार, 27 मार्च 2019

श्रीदुर्गासप्तशती -मूर्तिरहस्यम् (पोस्ट ०१)


श्रीदुर्गादेव्यै नमो नम:

अथ श्रीदुर्गासप्तशती
अथ मूर्तिरहस्यम्
(पोस्ट ०१)

ऋषिरुवाच 

ॐ नन्दा भगवती नाम या भविष्यति नन्दजा।
स्तुता सा पूजिता भक्त्या वशीकुर्याज्जगत्त्रयम्॥1
कनकोत्तमकान्ति: सा सुकान्तिकनकाम्बरा।
देवी कनकवर्णाभा कनकोत्तमभूषणा॥2 
कमलाङ्कुशपाशाब्जैरलंकृतचतुर्भुजा।
इन्दिरा कमला लक्ष्मी: सा श्री रुक्माम्बुजासना॥3 
या रक्त दन्तिका नाम देवी प्रोक्ता मयानघ।
तस्या: स्वरूपं वक्ष्यामि शृणु सर्वभयापहम्॥4
रक्ताम्बरा रक्त वर्णा रक्तसर्वाङ्गभूषणा।
रक्तायुधा रक्त नेत्रा रक्त केशातिभीषणा॥5
रक्त तीक्ष्णनखा रक्त दशना रक्त दन्तिका।
पतिं नारीवानुरक्ता देवी भक्तं भजेज्जनम्॥6

ऋषि कहते हैं- राजन्! नन्दा नाम की देवी जो नन्द से उत्पन्न होने वाली हैं, उनकी यदि भक्ति पूर्वक स्तुति और पूजा की जाय तो वे तीनों लोकों को उपासक के अधीन कर देती हैं॥1 
उनके श्रीअङ्गों की कान्ति कनक के समान उत्तम है। वे सुनहरे रंग के सुन्दर वस्त्र धारण करती हैं। उनकी आभा सुवर्ण के तुल्य है तथा वे सुवर्ण के ही उत्तम आभूषण धारण करती हैं॥2 
उनकी चार भुजाएँ कमल, अङ्कुश, पाश और शङ्ख से सुशोभित हैं। वे इन्दिरा, कमला, लक्ष्मी, श्री तथा रुक्माम्बुजासना (सुवर्णमय कमल के आसन पर विराजमान) आदि नामों से पुकारी जाती हैं॥3॥ निष्पाप नरेश! पहले मैंने रक्त दन्तिका नाम से जिन देवी का परिचय दिया है, अब उनके स्वरूप का वर्णन करूँगा; सुनो। वह सब प्रकार के भयों को दूर करने वाली है॥4
वे लाल रंग के वस्त्र धाण करती हैं। उनके शरीर का रंग भी लाल ही है और अङ्गों के समस्त आभूषण भी लाल रंग के हैं। उनके अस्त्र-शस्त्र, नेत्र, शिर के बाल, तीखे नख और दाँत सभी रक्त वर्ण के हैं; इसलिये वे रक्त दन्तिका कहलाती और अत्यन्त भयानक दिखायी देती हैं। जैसे स्त्री पति के प्रति अनुराग रखती है, उसी प्रकार देवी अपने भक्त पर (माता की भाँति) स्नेह रखते हुए उसकी सेवा करती हैं॥5-6

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* देवीकी अङ्गभूता छ: देवियाँ हैं-नन्दा, रक्तदन्तिका, शाकम्भरी, दुर्गा, भीमा और भ्रामरी। ये  देवियोंकी साक्षात् मूर्तियाँ हैं, उनके स्वरूपका प्रतिपादन होनेसे इस प्रकरणको मूर्तिरहस्य कहते हैं।

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीदुर्गासप्तशती पुस्तक कोड 1281 से




मंगलवार, 26 मार्च 2019

श्रीदुर्गासप्तशती -वैकृतिकं रहस्यम् (पोस्ट ०६)


श्रीदुर्गादेव्यै नमो नम:

अथ श्रीदुर्गासप्तशती
अथ वैकृतिकं रहस्यम्
(पोस्ट ०६)

एवं य: पूजयेद्भक्त्या प्रत्यहं परमेश्वरीम्।
भुक्त्वा भोगान् यथाकामं देवीसायुज्यमापनुयात्॥37 
यो न पूजयते नित्यं चण्डिकां भक्त वत्सलाम्।
भस्मीकृत्यास्य पुण्यानि निर्दहेत्परमेश्वरी॥38 
तस्मात्पूजय भूपाल सर्वलोकमहेश्वरीम्।
यथोक्ते न विधानेन चण्डिकां सुखमाप्स्यसि॥39 

इति  वैकृतिकं रहस्यं  सम्पूर्णम्

इस प्रकार जो मनुष्य प्रतिदिन भक्ति पूर्वक परमेश्वरी का पूजन करता है, वह मनोवाञ्छित भोगों को भोगकर अन्त में देवी का सायुज्य प्राप्त करता है॥37 जो भक्तवत्सला चण्डी का प्रतिदिन पूजन नहीं करता, भगवती परमेश्वरी उसके पुण्यों को जलाकर भस्म कर देती हैं॥38 
इसलिये राजन्! तुम सर्वलोकमहेश्वरी चण्डिका का शास्त्रोक्त विधि से पूजन करो। उससे तुम्हें सुख मिलेगा * ॥39
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* पूर्वोक्त प्राकृतिक या प्राधानिक रहस्यमें कारणात्मक प्रकृतिभूता महालक्ष्मीके स्वरूप तथा  अवतारोंका वर्णन किया गया। इस प्रकरणमें विशेषरूपसे प्रकृतिसहित विकृतियोंके ध्यान, पूजन, पूजनोपचार तथा पूजनकी महिमाका वर्णन हुआ है; अतः इसे वैकृतिक रहस्य कहते हैं। इसमें पहले सप्तशतीके तीन चरित्रों में वर्णित महाकाली, महालक्ष्मी तथा महासरस्वतीके ध्यानका वर्णन है; यहाँ महाकाली दशभुजा, महालक्ष्मी अष्टादशभुजा तथा महासरस्वती अष्टभुजा हैं। इनके आयुधोंका क्रम पहले बताये अनुसार दाहिने  भागके निचले हाथसे लेकर क्रमशः ऊपर वाले हाथों में, फिर वामभागके ऊपरवाले हाथसे लेकर नीचेवाले हाथ तक समझना चाहिये। जैसे महाकालीके दस हाथों में पाँच दाहिने और पाँच बायें हैं। दाहिनेवाले हाथोंमें क्रमशः नीचेसे ऊपरतक खड्ग, बाण, गदा, शूल और चक्र हैं; तथा बायें हाथोंमें ऊपरसे नीचेतक क्रमशः । शङ्ख, भुशुण्डि, परिघ, धनुष और मस्तक हैं। इसी तरह अष्टादशभुजा महालक्ष्मीके नौ दाहिने हाथों में नीचेकी  ओर से क्रमशः अक्षमाला,कमल, बाण,खड्ग,वज्र,गदा,चक्र,त्रिशूल और परशु हैं तथा बायें हाथों में के ऊपर से नीचे तक शङ्ख, घण्टा, पाश, शक्ति, दण्ड, ढाल, धनुष, पानपात्र और कमण्डलु हैं। अष्टभुजा महासरस्वती के भी चार दाहिने हाथों में पूर्वोक्त क्रमसे बाण, मुसल, शूल और चक्र हैं तथा बायें हाथों में शङ्ख, घण्टा, हल और धनुष हैं। इन तीनोंके ध्यानके विषयमें कही हुई अन्य सारी बातें स्पष्ट हैं। तत्पश्चात् इन सबकी उपासनाका क्रम यों बतलाया गया है-बीचमें चतुर्भुजा महालक्ष्मी को स्थापित करके उनके दक्षिण भाग में चतुर्भुजा महाकाली तथा वामभाग में चतुर्भुजा महासरस्वती की स्थापना करे। महाकाली के पृष्ठभाग में रुद्र-गौरी, महालक्ष्मीके पृष्ठभाग में ब्रह्मा-सरस्वती तथा महासरस्वतीके पृष्ठभागमें विष्णु-लक्ष्मीकी पूजा करे।।  फिर चतुर्भुजा महालक्ष्मी के सामने मध्यभागमें अष्टादशभुजाको स्थापित करे। इनका मुख चतुर्भुजा महालक्ष्मी की ओर होगा। अष्टादशभुजा के दक्षिणभाग में अष्टभुजा महासरस्वती और वामभाग में दशानना महाकाली रहेंगी। यदि केवल अष्टादशभुजा या दशानना अथवा अष्टभुजा का पूजन करना हो तो इनमें से किसी एक अभीष्ट देवी को स्थापित करके उनके दक्षिणभाग में काल और वामभाग में मृत्युकी स्थापना करनी चाहिये।
अष्टभुजाकी पूजा में कुछ विशेषता है। यदि केवल अष्टभुजा की पूजा करनी हो तो उनके साथ उनकी ब्राह्मी, माहेश्वरी, कौमारी, वैष्णवी, वाराही, नारसिंही, ऐन्द्री, शिवदूती और चामुण्डा-इन नौ शक्तियों की भी पूजा  करनी चाहिये। साथ ही दाहिने भाग में रुद्र और वामभाग में विनायकका पूजन भी आवश्यक है। काल और मृत्युकी पूजा भी, जो पहले बतायी गयी है,होनी चाहिये। कुछ लोग शैलपुत्री आदि नवदुर्गाओंको नौ शक्तियों में ग्रहण करते हैं, किन्तु यह ठीक नहीं है; क्योंकि उन्हें अष्टभुजाकी शक्तिरूपसे कहीं नहीं बताया गया है। ये ब्राह्मी आदि शक्तियाँ ही महासरस्वतीके अङ्गसे प्रकट हुई थीं; अतः वे ही उनकी नौ शक्तियाँ हैं। अष्टादशभुजा देवीके सामने दक्षिणभागमें सिंह और वामभागमें महिषकी पूजा करे। कुछ लोगों का कथन है कि जब अष्टादशभुजा देवीकी पूजा करनी हो, तब उनके दक्षिणभागमें दशानना और वामभागमें अष्टभुजाकी भी पूजा करे। जब केवल दशाननाकी पूजा करनी हो, तब उनके साथ दक्षिणभागमें कालकी और वामभागमें मृत्यु की पूजा करे तथा जब केवल अष्टभुजाकी पूजा करनी हो, तब उनके साथ पूर्वोक्त नौ शक्तियों और रुद्रविनायककी भी पूजा करनी चाहिये। यह क्रम-विभाग देखने में सुन्दर होनेपर भी मूलपाठके प्रतिकूल है। कुछ लोग ऐसा कहते हैं कि अष्टादशभुजा आदिमेंसे जिसकी प्रधानतासे पूजा करनी हो, उसे मध्यमें स्थापित करके दाहिने और वामभागमें शेष दो देवियों की स्थापना करे और मध्यमें स्थित देवीके दक्षिण-वाम-पार्श्वों में रुद्र-विनायकको स्थापित करके सबका पूजन करे। यह बात भी मूलसे सिद्ध नहीं होती। कोई-कोई अष्टभुजाके पूजनमें विकल्प मानते हैं। उनका कहना है कि अष्टभुजाके साथ या तो काल एवं मृत्युकी ही पूजा करे अथवा नौ शक्तियोंसहित रुद्र-विनायककी ही पूजा करे; सबका एक साथ नहीं, किंतु ऐसी धारणा के लिये भी कोई प्रबल प्रमाण नहीं है।

इति  वैकृतिकं रहस्यं  सम्पूर्णम्

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीदुर्गासप्तशती पुस्तक कोड 1281 से




श्रीदुर्गासप्तशती -वैकृतिकं रहस्यम् (पोस्ट ०५)


श्रीदुर्गादेव्यै नमो नम:

अथ श्रीदुर्गासप्तशती
अथ वैकृतिकं रहस्यम्
(पोस्ट ०५)

अर्घ्यादिभिरलंकारैर्गन्धपुष्पैस्तथाक्षतै:।
धूपैर्दीपैश्च नैवेद्यैर्नानाभक्ष्यसमन्वितै:॥27
रुधिराक्ते न बलिना मांसेन सुरया नृप।
(बलिमांसादिपूजेयं विप्रवज्र्या मयेरिता॥
तेषां किल सुरामांसैर्नोक्ता पूजा नृप क्वचित्।)
प्रणामाचमनीयेन चन्दनेन सुगन्धिना॥28 
कर्पूरैश्च ताम्बूलैर्भक्ति भावसमन्वितै:।
वामभागेऽग्रतो देव्याश्छिन्नशीर्ष महासुरम्॥29
पूजयेन्महिषं येन प्राप्तं सायुज्यमीशया।
दक्षिणे पुरत: सिंहं समग्रं धर्ममीश्वरम्॥30
वाहनं पूजयेद्देव्या धृतं येन चराचरम्।
कुर्याच्च स्तवनं धीमांस्तस्या एकाग्रमानस:॥31
तत: कृताञ्जलिर्भूत्वा स्तुवीत चरितैरिमै:।
एकेन वा मध्यमेन नैकेनेतरयोरिह॥32
चरितार्ध तु न जपेज्जपञिछद्रमवापनुयात्।
प्रदक्षिणानमस्कारान् कृत्वा मूर्ध्नि कृताञ्जलि:॥33 
क्षमापयेज्जगद्धात्रीं मुहुर्मुहुरतन्द्रित:।
प्रतिश्लोकं च जुहुयात्पायसं तिलसर्पिषा॥34
जुहुयात्स्तोत्रमन्त्रैर्वा चण्डिकायै शुभं हवि:।
भूयो नामपदैर्देवीं पूजयेत्सुसमाहित:॥35 
प्रयत: प्राञ्जलि: प्रह्व: प्रणम्यारोप्य चात्मनि।
सुचिरं भावयेदीशां चण्डिकां तन्मयो भवेत्॥36

 अर्घ्य आदि से, आभूषणों से, गन्ध, पुष्प, अक्षत, धूप, दीप तथा नाना प्रकार के भक्ष्य पदार्थो से युक्त नैवेद्यों से, रक्त सिञ्चित बलि से, मांस से तथा मदिरा से भी देवी का पूजन होता है।* (राजन्! बलि और मांस आदि से की जाने वाली पूजा ब्राह्मणों को छोडकर बतायी गयी है। उनके लिये मांस और मदिरा से कहीं भी पूजा का विधान नहीं है।) प्रणाम, आचमन के योग्य जल, सुगन्धित चन्दन, कपूर तथा ताम्बूल आदि सामग्रियों को भक्ति भाव से निवेदन करके देवी की पूजा करनी चाहिये। देवी के सामने बायें भाग में कटे मस्तकवाले महादैत्य महिषासुर का पूजन करना चाहिये, जिसने भगवती के साथ सायुज्य प्राप्त कर लिया। इसी प्रकार देवी के सामने दक्षिण भाग में उनके वाहन सिंह का पूजन करना चाहिये, जो सम्पूर्ण धर्म का प्रतीक एवं षड्विध ऐश्वर्य से युक्त है। उसी ने इस चराचर जगत् को धारण कर रखा है। तदनन्तर बुद्धिमान् पुरुष एकाग्रचित हो देवी की स्तुति करे। फिर हाथ जोडकर तीनों पूर्वोक्त चरित्रों द्वारा भगवती का स्तवन करे। यदि कोई एक ही चरित्र से स्तुति करना चाहे तो केवल मध्यम चरित्र के पाठ से कर ले; किंतु प्रथम और उत्तर चरित्रों में से एक का पाठ न करे। आधे चरित्र का भी पाठ करना मना है। जो आधे चरित्र का पाठ करता है, उसका पाठ सफल नहीं होता। पाठ-समाप्ति के बाद साधक प्रदक्षिणा और नमस्कार कर तथा आलस्य छोडकर जगदम्बा के उद्देश्य से मस्तक पर हाथ जोडे और उनके बारम्बार त्रुटियों या अपराधों के लिये क्षमा प्रार्थना करे। सप्तशती का प्रत्येक श्लोक मन्त्ररूप है, उससे तिल और घृत मिली हुई खीर की आहुति दे॥27-34॥ अथवा सप्तशती में जो स्तोत्र आये हैं, उन्हीं के मन्त्रों से चण्डिका के लिये पवित्र हविष्य का हवन करे। होम के पश्चात एकाग्रचित्त हो महालक्ष्मी देवी के नाम मन्त्रों को उच्चारण करते हुए पुन: उनकी पूजा करे॥35 तत्पश्चात् मन और इन्द्रियों को वश में रखते हुए हाथ जोड विनीत भाव से देवी को प्रणाम करे और अन्त:करण में स्थापित करके उन सर्वेश्वरी चण्डिका देवी का देरतक चिन्तन करे। चिन्तन करते-करते उन्हीं में तन्मय हो जाय॥36 
........................................................
*जो लोग मांस और मदिरा का व्यवहार करते हैं, उन्हीं लोगों के लिये मांस-मदिरा द्वारा पूजन का विधान है। शेष लोगों को मांस-मदिरा आदि के द्वारा पूजा नहीं करनी चाहिये |

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सोमवार, 25 मार्च 2019

श्रीदुर्गासप्तशती -वैकृतिकं रहस्यम् (पोस्ट ०४)


श्रीदुर्गादेव्यै नमो नम:

अथ श्रीदुर्गासप्तशती
अथ वैकृतिकं रहस्यम्
(पोस्ट ०४)

महालक्ष्मीर्यदा पूज्या महाकाली सरस्वती।
दक्षिणोत्तरयो: पूज्ये पृष्ठतो मिथुनत्रयम्॥18 
विरञ्चि: स्वरया मध्ये रुद्रो गौर्या च दक्षिणे।
वामे लक्ष्म्या हृषीकेश: पुरतो देवतात्रयम्॥19 
अष्टादशभुजा मध्ये वामे चास्या दशानना।
दक्षिणेऽष्टभुजा लक्ष्मीर्महतीति समर्चयेत्॥20
अष्टादशभुजा चैषा यदा पूज्या नराधिप।
दशानना चाष्टभुजा दक्षिणोत्तरयोस्तदा॥21 
कालमृत्यू च सम्पूज्यौ सर्वारिष्टप्रशान्तये।
यदा चाष्टभुजा पूज्या शुम्भासुरनिबर्हिणी॥22 
नवास्या: शक्त य: पूज्यास्तदा रुद्रविनायकौ।
नमो देव्या इति स्तोत्रैर्महालक्ष्मीं समर्चयेत्॥23
अवतारत्रयार्चायां स्तोत्रमन्त्रास्तदाश्रया:।
अष्टादशभुजा सैव पूज्या महिषमर्दिनी॥24
महालक्ष्मीर्महाकाली सैव प्रोक्ता सरस्वती।
ईश्वरी पुण्यपापानां सर्वलोकमहेश्वरी॥25
महिषान्तकरी येन पूजिता स जगत्प्रभु:।
पूजयेज्जगतां धात्रीं चण्डिकां भक्त वत्सलाम्॥26

जब महालक्ष्मी की पूजा करनी हो, तब उन्हें मध्य में स्थापित करके उनके दक्षिण और वाम भाग में क्रमश: महाकाली और महासरस्वती का पूजन करना चाहिये और पृष्ठ भाग में तीनों युगल देवताओं की पूजा करनी चाहिये॥18 महालक्ष्मी के ठीक पीछे मध्य भाग में सरस्वती के साथ ब्रह्मा का पूजन करे। उनके दक्षिण भाग में गौरी के साथ रुद्र की पूजा करे तथा वामभाग में लक्ष्मी सहित विष्णु का पूजन करे। महालक्ष्मी आदि तीनों देवियों के सामने निम्नाङ्कित तीन देवियों की भी पूजा करनी चाहिये॥19॥ मध्यस्थ महालक्ष्मी के आगे मध्यभाग में अठारह भुजाओं वाली महालक्ष्मी का पूजन करे। उनके वामभाग में दस मुखों वाली महाकाली का तथा दक्षिणभाग में आठ भुजाओं वाली महासरस्वती का पूजन करे॥20 
राजन्! जब केवल अठारह भुजाओं वाली महालक्ष्मी का अथवा दशमुखी काली का अष्टभुजा सरस्वती का पूजन करना हो, तब सब अरिष्टों की शान्ति के लिये इनके दक्षिणभाग में काल की और वामभाग में मृत्यु की भी भलीभाँति पूजा करनी चाहिये। जब शुम्भासुर का संहार करने वाली अष्टभुजा देवी की पूजा करनी हो, तब उनके साथ उनकी नौ शक्तियों का और दक्षिण भाग में रुद्र एवं वामभाग में गणेशजी का भी पूजन करना चाहिये (ब्राह्मी, माहेश्वरी, कौमारी, वैष्णवी, वाराही, नारसिंही, ऐन्द्री, शिवदूती तथा चामुण्डा-ये नौ शक्ति याँ हैं)। नमो देव्यै...... इस स्तोत्र से महालक्ष्मी की पूजा करनी चाहिये॥21-23॥ तथा उनके तीन अवतारों की पूजा के समय उनके चरित्रों में जो स्तोत्र और मन्त्र आये हैं, उन्हीं का उपयोग करना चाहिये। अठारह भुजाओं वाली महिषासुरमर्दिनी महालक्ष्मी ही विशेषरूप से पूजनीय हैं; क्योंकि वे ही महालक्ष्मी, महाकाली तथा महासरस्वती कहलाती हैं। वे ही पुण्य पापों की अधीश्वरी तथा सम्पूर्ण लोकों की महेश्वरी हैं॥24-25 जिसने महिषासुर का अन्त करने वाली महालक्ष्मी की भक्ति पूर्वक आराधना की है, वही संसार का स्वामी है। अत: जगत् को धारण करने वाली भक्त वत्सला भगवती चण्डिका की अवश्य पूजा करनी चाहिये॥26 

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प्रार्थना

!! श्रीहरि :!!

प्रार्थना 


हे नाथ ! तुम्हीं सबके स्वामी तुम ही सबके रखवारे हो |
तुम ही सब जग में व्याप रहे, विभु ! रूप अनेको धारे हो ||
तुम ही नभ जल थल अग्नि तुम्ही, तुम सूरज चाँद सितारे हो | 
यह सभी चराचर है तुममे, तुम ही सबके ध्रुव-तारे हो ||
हम महामूढ़ अज्ञानी जन, प्रभु ! भवसागर में पूर रहे |
नहीं नेक तुम्हारी भक्ति करे, मन मलिन विषय में चूर रहे ||
सत्संगति में नहि जायँ कभी, खल-संगति में भरपूर रहे | 
सहते दारुण दुःख दिवस रैन, हम सच्चे सुख से दूर रहे ||
तुम दीनबन्धु जगपावन हो, हम दीन पतित अति भारी है |
है नहीं जगत में ठौर कही, हम आये शरण तुम्हारी है ||
हम पड़े तुम्हारे है दरपर, तुम पर तन मन धन वारी है |
अब कष्ट हरो हरी, हे हमरे हम निंदित निपट दुखारी है ||
इस टूटी फूटी नैय्या को, भवसागर से खेना होगा |
फिर निज हाथो से नाथ ! उठाकर, पास बिठा लेना होगा ||
हा अशरण-शरण-अनाथ-नाथ, अब तो आश्रय देना होगा |
हमको निज चरणों का निश्चित, नित दास बना लेना होगा || 

—-श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्दार भाईजी, भगवतचर्चा पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर


श्रीदुर्गासप्तशती -वैकृतिकं रहस्यम् (पोस्ट ०३)


श्रीदुर्गादेव्यै नमो नम:

अथ श्रीदुर्गासप्तशती
अथ वैकृतिकं रहस्यम्
(पोस्ट ०३)

अक्षमाला च कमलं बाणोऽसि: कुलिशं गदा।
चक्रं त्रिशूलं परशु: शङ्खो घण्टा च पाशक:॥11 
शक्तिर्दण्डश्चर्म चापं पानपात्रं कमण्डलु:।
अलंकृतभुजामेभिरायुधै: कमलासनाम्॥12 
सर्वदेवमयीमीशां महालक्ष्मीमियां नृप।
पूजयेत्सर्वलोकानां स देवानां प्रभुर्भवेत्॥13 
गौरीदेहात्समुद्भूता या सत्त्‍‌वैकगुणाश्रया।
साक्षात्सरस्वती प्रोक्ता शुम्भासुरनिबर्हिणी॥14
दधौ चाष्टभुजा बाणमुसले शूलचक्रभृत्।
शङ्खं घण्टां लाङ्गलं च कार्मुकं वसुधाधिप॥15
एषा सम्पूजिता भक्त्या सर्वज्ञत्वं प्रयच्छति।
निशुम्भमथिनी देवी शुम्भासुरनिबर्हिणी॥16
इत्युक्तानि स्वरूपाणि मूर्तीनां तव पार्थिव।
उपासनं जगन्मातु: पृथगासां निशामय॥17 

अक्षमाला, कमल, बाण, खड्ग, वज्र, गदा, चक्र, त्रिशूल, परशु, शङ्ख, घण्टा, पाश, शक्ति दण्ड, चर्म (ढाल), धनुष, पानपात्र और कमण्डलु- इन आयुधों से उनकी भुजाएँ विभूषित हैं। वे कमल के आसन पर विराजमान हैं, सर्वदेवमयी हैं तथा सबकी ईश्वरी हैं। राजन्! जो इन महालक्ष्मी देवी का पूजन करता है, वह सब लोकों तथा देवताओं का भी स्वामी होता है॥11-13 
जो एकमात्र सत्त्‍‌वगुण के आश्रित हो पार्वतीजी के शरीर से प्रकट हुई थीं तथा जिन्होंने शुम्भ नामक दैत्य का संहार किया था, वे साक्षात् सरस्वती कही गयी हैं॥14 
पृथ्वीपते! उनके आठ भुजाएँ हैं तथा वे अपने हाथों में क्रमश: बाण, मुसल, शूल, चक्र, शङ्ख, घण्टा, हल एवं धनुष धारण करती हैं॥15 ये सरस्वती देवी, जो निशुम्भ का मर्दन तथा शुम्भासुर का संहार करने वाली हैं, भक्ति पूर्वक पूजित होने पर सर्वज्ञता प्रदान करती हैं॥16
राजन! इस प्रकार तुमसे महाकाली आदि तीनों मूर्तियों के स्वरूप बतलाये, अब जगन्माता महालक्ष्मी की तथा इन महाकाली आदि तीनों मूर्तियों की पृथक्-पृथक् उपासना श्रवण करो॥17 

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रविवार, 24 मार्च 2019

हे जगद्‌गुरो ! तुम करुणामय हो !

हे जगद्‌गुरो ! तुम करुणामय हो ! 

तुम्हारा इस भांति अपने दासों को विषयों की ओर प्रवृत्त करना असम्भव है। जो तुम्हारा दुर्लभ दर्शन पाकर तुमसे विषय-जन्य सुख माँगता है, वह सेवक नहीं, बनिया है। मैं जैसे तुम्हारा निष्काम सेवक हूं, वैसे तुम भी मेरे अभिसन्धि-शून्य स्वामी हो। अतः राजा और उसके सेवक की भांति हम लोगोंमें अभिसन्धिकी कोई आवश्यकता नहीं है। हे वरदानियों में श्रेष्ठ! यदि मुझे मनोवाञ्छित वर देना ही चाहते हो, तो यही एक वर दो कि मेरे हृदय में कभी विषय-वासनाओं का अंकुर न उगे।

सांसारिक अभिलाषाओं का अंकुर सच्चे भक्तके हृदय में जम ही नहीं सकता, क्योंकि राग-द्वेषादि तभी तक जीव की सद्‌वृत्तियों को लूटते रहते हैं, घर तभी तक उसे जेलखाना है और मोह तभी तक उसके पैर की बेड़ी है, जबतक, नाथ ! वह तुम्हारा दास नहीं हो गया-

तावद्रागादयस्तेनास्तावत्कारागृहं गृहम्‌।
तावन्मोहोंघ्रिनिगड़ो यावत्कृष्ण न ते जनाः॥

-----श्री वियोगी हरि जी
(००४. ०५. मार्गशीर्ष कृष्ण ११ सं० १९८६वि०.कल्याण ( पृ०७५५ )


श्रीदुर्गासप्तशती -वैकृतिकं रहस्यम् (पोस्ट ०२)


श्रीदुर्गादेव्यै नमो नम:

अथ श्रीदुर्गासप्तशती
अथ वैकृतिकं रहस्यम्
(पोस्ट ०२)

एषा सा वैष्णवी माया महाकाली दुरत्यया।
आराधिता वशीकुर्यात् पूजाकर्तुश्चराचरम्॥6 
सर्वदेवशरीरेभ्यो याऽऽविर्भूतामितप्रभा।
त्रिगुणा सा महालक्ष्मी: साक्षान्महिषमर्दिनी॥7 
श्वेतानना नीलभुजा सुश्वेतस्तनमण्डला।
रक्त मध्या रक्त पादा नीलजङ्घोरुरुन्मदा॥8 
सुचित्रजघना चित्रमाल्याम्बरविभूषणा।
चित्रानुलेपना कान्तिरूपसौभाग्यशालिनी॥9 
सुचित्रजघना चित्रमाल्याम्बरविभूषणा।
चित्रानुलेपना कान्तिरूपसौभाग्यशालिनी॥9 
अष्टादशभुजा पूज्या सा सहस्त्रभुजा सती।
आयुधान्यत्र वक्ष्यन्ते दक्षिणाध:करक्रमात्॥10 

 ये महाकाली भगवान् विष्णु की दुस्तर माया हैं। आराधना करने पर ये चराचर जगत् को अपने उपासक के अधीन कर देती हैं॥6॥ सम्पूर्ण देवताओं के अङ्गों से जिनका प्रादुर्भाव हुआ था, वे अनन्त कान्ति से युक्त साक्षात् महालक्ष्मी हैं। उन्हें ही त्रिगुणमयी प्रकृति कहते हैं तथा वे ही महिषासुर का मर्दन करने वाली हैं॥7 उनका मुख गोरा, भुजाएँ श्याम, स्तनमण्डल अत्यन्त श्वेत, कटिभाग और चरण लाल तथा जङ्घा और पिंडली नीले रंग की हैं। अजेय होने के कारण उनको अपने शौर्य का अभिमान है॥8 कटि के आगे का भाग बहुरंगे वस्त्र से आच्छादित होने के कारण अत्यन्त सुन्दर एवं विचित्र दिखायी देता है। उनकी माला, वस्त्र, आभूषण तथा अङ्गराग सभी विचित्र हैं। वे कान्ति, रूप और सौभाग्य से सुशोभित हैं॥9 यद्यपि उनकी हजारों भुजाएँ हैं, तथापि उन्हें अठारह भुजाओं से युक्त मानकर उनकी पूजा करनी चाहिये। अब उनके दाहिनी ओर के निचले हाथों से लेकर बायीं ओर के निचले हाथों तक में क्रमश: जो अस्त्र हैं, उनका वर्णन किया जाता है॥10 

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श्रीदुर्गासप्तशती -वैकृतिकं रहस्यम् (पोस्ट ०१)


श्रीदुर्गादेव्यै नमो नम:

अथ श्रीदुर्गासप्तशती
अथ वैकृतिकं रहस्यम्
(पोस्ट ०१)

ॐ त्रिगुणा तामसी देवी सात्त्विकी या त्रिधोदिता।
सा शर्वा चण्डिका दुर्गा भद्रा भगवतीर्यते॥1
योगनिद्रा हरेरुक्ता महाकाली तमोगुणा।
मधुकैटभनाशार्थ यां तुष्टावाम्बुजासन:॥2 
दशवक्त्रा दशभुजा दशपादाञ्जनप्रभा।
विशालया राजमाना त्रिंशल्लोचनमालया॥3 
स्फुरद्दशनदंष्ट्रा सा भीमरूपापि भूमिप।
रूपसौभाग्यकान्तीनां सा प्रतिष्ठा महाश्रिय:॥4 
खड्गबाणगदाशूलचक्रशङ्खभुशुण्डिभृत्।
परिघं कार्मुकं शीर्ष निश्च्योतद्रुधिरं दधौ॥5

ऋषि कहते हैं- राजन्! पहले जिन सत्त्‍‌वप्रधाना त्रिगुणामयी महालक्ष्मी के तामसी आदि भेद से तीन स्वरूप बतलाये गये, वे ही शर्वा, चण्डिका, दुर्गा, भद्रा और भगवती आदि अनेक नामों से कही जाती हैं॥1  तमोगुणमयी महाकाली भगवान् विष्णु की योगनिद्रा कही गयी हैं। मधु और कैटभ का नाश करने के लिये ब्रह्माजी ने जिनकी स्तुति की थी, उन्हीं का नाम महाकाली है॥2  उनके दस मुख, दस भुजाएँ और दस पैर हैं। वे काजल के समान काले रंग की हैं अथा तीस नेत्रों की विशाल पंक्ति से सुशोभित होती हैं॥3 भूपाल! उनके दाँत और दाढें चमकती रहती हैं। यद्यपि उनका रूप भयंकर है, तथापि वे रूप, सौभाग्य, कान्ति एवं महती सम्पदा की अधिष्ठान (प्राप्तिस्थान) हैं॥4 वे अपने हाथों में खड्ग, बाण, गदा, शूल, चक्र, शङ्ख, भुशुण्डि, परिघ, धनुष तथा जिससे रक्त चूता रहता है, ऐसा कटा हुआ मस्तक धारण करती हैं॥5 

इन अवतारोंका क्रम इस प्रकार है--
चतुर्भुजा महालक्ष्मी (मूल प्रकृति)
चतुर्भुजा महाकाली
चतुर्भुजा महासरस्वती
शङ्कर-सरस्वती
विष्णु और गौरी
ब्रह्मा और लक्ष्मी

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीदुर्गासप्तशती पुस्तक कोड 1281 से





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