॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम
स्कन्ध – दसवाँ
अध्याय..(पोस्ट०२)
प्रह्लादजी
के राज्याभिषेक और त्रिपुरदहन की कथा
श्रीभगवानुवाच
नैकान्तिनो
मे मयि जात्विहाशिष
आशासतेऽमुत्र
च ये भवद्विधाः
तथापि
मन्वन्तरमेतदत्र
दैत्येश्वराणामनुभुङ्क्ष्व
भोगान् ॥ ११ ॥
कथा
मदीया जुषमाणः प्रियास्त्व-
मावेश्य
मामात्मनि सन्तमेकम्
सर्वेषु
भूतेष्वधियज्ञमीशं
यजस्व
योगेन च कर्म हिन्वन् ॥ १२ ॥
भोगेन
पुण्यं कुशलेन पापं
कलेवरं
कालजवेन हित्वा
कीर्तिं
विशुद्धां सुरलोकगीतां
विताय
मामेष्यसि मुक्तबन्धः ॥ १३ ॥
य
एतत्कीर्तयेन्मह्यं त्वया गीतमिदं नरः
त्वां
च मां च स्मरन्काले कर्मबन्धात्प्रमुच्यते ॥ १४ ॥
श्रीनृसिंहभगवान्ने
कहा—प्रह्लाद ! तुम्हारे-जैसे मेरे एकान्तप्रेमी इस लोक अथवा परलोककी किसी भी
वस्तुके लिये कभी कोई कामना नहीं करते। फिर भी अधिक नहीं, केवल
एक मन्वन्तर- तक मेरी प्रसन्नताके लिये तुम इस लोकमें दैत्याधिपतियोंके समस्त भोग
स्वीकार कर लो ॥ ११ ॥ समस्त प्राणियोंके हृदयमें यज्ञोंके भोक्ता ईश्वरके रूपमें
मैं ही विराजमान हूँ। तुम अपने हृदयमें मुझे देखते रहना और मेरी लीला-कथाएँ,
जो तुम्हें अत्यन्त प्रिय हैं, सुनते रहना।
समस्त कर्मोंके द्वारा मेरी ही आराधना करना और इस प्रकार अपने प्रारब्ध-कर्मका
क्षय कर देना ॥ १२ ॥ भोगके द्वारा पुण्यकर्मोंके फल और निष्काम पुण्यकर्मोंके
द्वारा पापका नाश करते हुए समयपर शरीरका त्याग करके समस्त बन्धनोंसे मुक्त होकर
तुम मेरे पास आ जाओगे। देवलोकमें भी लोग तुम्हारी विशुद्ध कीर्तिका गान करेंगे ॥
१३ ॥ तुम्हारे द्वारा की हुई मेरी इस स्तुतिका जो मनुष्य कीर्तन करेगा और साथ ही
मेरा और तुम्हारा स्मरण भी करेगा, वह समयपर कर्मोंके बन्धनसे
मुक्त हो जायगा ॥ १४ ॥
शेष
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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से