गुरुवार, 2 जनवरी 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥



श्रीमद्भागवतमहापुराण

नवम स्कन्ध सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)



परशुरामजी के द्वारा क्षत्रियसंहार

और विश्वामित्र जी के वंश की कथा



गाधेरभूत् महातेजाः समिद्ध इव पावकः ।

तपसा क्षात्रमुत्सृज्य यो लेभे ब्रह्मवर्चसम् ॥ २८ ॥

विश्वामित्रस्य चैवासन् पुत्रा एकशतं नृप ।

मध्यमस्तु मधुच्छन्दा मधुच्छन्दस एव ते ॥ २९ ॥

पुत्रं कृत्वा शुनःशेपं देवरातं च भार्गवम् ।

आजीगर्तं सुतानाह ज्येष्ठ एष प्रकल्प्यताम् ॥ ३० ॥

यो वै हरिश्चन्द्रमखे विक्रीतः पुरुषः पशुः ।

स्तुत्वा देवान् प्रजेशादीन् मुमुचे पाशबन्धनात् ॥ ३१ ॥

यो रातो देवयजने देवैर्गाधिषु तापसः ।

देवरात इति ख्यातः शुनःशेपस्तु भार्गवः ॥ ३२ ॥

ये मधुच्छन्दसो ज्येष्ठाः कुशलं मेनिरे न तत् ।

अशपत् तान् मुनिः क्रुद्धो म्लेच्छा भवत दुर्जनाः ॥ ३३ ॥

स होवाच मधुच्छन्दाः सार्धं पञ्चाशता ततः ।

यन्नो भवान् संजानीते तस्मिन् तिष्ठामहे वयम् ॥ ३४ ॥

ज्येष्ठं मन्त्रदृशं चक्रुः त्वां अन्वञ्चो वयं स्म हि ।

विश्वामित्रः सुतानाह वीरवन्तो भविष्यथ ।

ये मानं मेऽनुगृह्णन्तो वीरवन्तमकर्त माम् ॥ ३५ ॥

एष वः कुशिका वीरो देवरातस्तमन्वित ।

अन्ये चाष्टकहारीत जयक्रतुमदादयः ॥ ३६ ॥

एवं कौशिकगोत्रं तु विश्वामित्रैः पृथग्विधम् ।

प्रवरान्तरमापन्नं तद्धि चैवं प्रकल्पितम् ॥ ३७ ॥


महाराज गाधिके पुत्र हुए प्रज्वलित अग्नि के समान परम तेजस्वी विश्वामित्रजी। इन्होंने अपने तपोबलसे क्षत्रियत्वका त्याग करके ब्रह्मतेज प्राप्त कर लिया ॥ २८ ॥ परीक्षित्‌ ! विश्वामित्रजीके सौ पुत्र थे। उनमें बिचले पुत्रका नाम था मधुच्छन्दा। इसलिये सभी पुत्र मधुच्छन्दाके ही नामसे विख्यात हुए ॥ २९ ॥ विश्वामित्रजीने भृगुवंशी अजीगर्तके पुत्र अपने भानजे शुन:शेप को, जिसका एक नाम देवरात भी था, पुत्ररूपमें स्वीकार कर लिया और अपने पुत्रोंसे कहा कि तुमलोग इसे अपना बड़ा भाई मानो॥ ३० ॥ यह वही प्रसिद्ध भृगुवंशी शुन:शेप था, जो हरिश्चन्द्रके यज्ञमें यज्ञपशुके रूपमें मोल लेकर लाया गया था। विश्वामित्रजीने प्रजापति वरुण आदि देवताओंकी स्तुति करके उसे पाशबन्धनसे छुड़ा लिया था। देवताओंके यज्ञमें यह शुन:शेप देवताओंद्वारा विश्वामित्रजीको दिया गया था; अत: देवै: रात:इस व्युत्पत्तिके अनुसार गाधिवंशमें यह तपस्वी देवरातके नामसे विख्यात हुआ ॥ ३१-३२ ॥ विश्वामित्रजीके पुत्रोंमें जो बड़े थे, उन्हें शुन:शेपको बड़ा भाई माननेकी बात अच्छी न लगी। इसपर विश्वामित्रजीने क्रोधित होकर उन्हें शाप दे दिया कि दुष्टो ! तुम सब म्लेच्छ हो जाओ॥ ३३ ॥ इस प्रकार जब उनचास भाई म्लेच्छ हो गये, तब विश्वामित्रजीके बिचले पुत्र मधुच्छन्दाने अपनेसे छोटे पचासों भाइयोंके साथ कहा—‘पिताजी ! आप हमलोगोंको जो आज्ञा करते हैं, हम उसका पालन करनेके लिये तैयार हैं॥ ३४ ॥ यह कहकर मधुच्छन्दाने मन्त्रद्रष्टा शुन:शेपको बड़ा भाई स्वीकार कर लिया और कहा कि हम सब तुम्हारे अनुयायीछोटे भाई हैं।तब विश्वामित्रजीने अपने इन आज्ञाकारी पुत्रोंसे कहा—‘तुम लोगोंने मेरी बात मानकर मेरे सम्मानकी रक्षा की है, इसलिये तुमलोगों-जैसे सुपुत्र प्राप्त करके मैं धन्य हुआ। मैं तुम्हें आशीर्वाद देता हूँ कि तुम्हें भी सुपुत्र प्राप्त होंगे ॥ ३५ ॥ मेरे प्यारे पुत्रो ! यह देवरात शुन:शेप भी तुम्हारे ही गोत्रका है। तुमलोग इसकी आज्ञामें रहना।परीक्षित्‌ ! विश्वा- मित्रजीके अष्टक, हारीत, जय और क्रतुमान् आदि और भी पुत्र थे ॥ ३६ ॥ इस प्रकार विश्वामित्रजीकी सन्तानोंसे कौशिकगोत्रमें कई भेद हो गये और देवरातको बड़ा भाई माननेके कारण उसका प्रवर ही दूसरा हो गया ॥ ३७ ॥


इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां

संहितायां नवमस्कन्धे षोडशोऽध्यायः ॥ १६ ॥



हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥



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श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥


श्रीमद्भागवतमहापुराण
नवम स्कन्ध सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)


परशुरामजी के द्वारा क्षत्रियसंहार
और विश्वामित्र जी के वंश की कथा


गत्वा माहिष्मतीं रामो ब्रह्मघ्नविहतश्रियम् ।

तेषां स शीर्षभी राजन् मध्ये चक्रे महागिरिम् ॥ १७ ॥
तद् रक्तेन नदीं घोरां अब्रह्मण्यभयावहाम् ।
हेतुं कृत्वा पितृवधं क्षत्रेऽमंगलकारिणि ॥ १८ ॥
त्रिःसप्तकृत्वः पृथिवीं कृत्वा निःक्षत्रियां प्रभुः ।

समन्तपञ्चके चक्रे शोणितोदान् ह्रदान् नृप ॥ १९ ॥
पितुः कायेन सन्धाय शिर आदाय बर्हिषि ।
सर्वदेवमयं देवं आत्मानं अयजन्मखैः ॥ २० ॥

ददौ प्राचीं दिशं होत्रे ब्रह्मणे दक्षिणां दिशम् ।
अध्वर्यवे प्रतीचीं वै उद्‍गात्रे उत्तरां दिशम् ॥ २१ ॥
अन्येभ्योऽवान्तरदिशः कश्यपाय च मध्यतः ।
आर्यावर्तं उपद्रष्ट्रे सदस्येभ्यस्ततः परम् ॥ २२ ॥

ततश्चावभृथस्नान विधूताशेषकिल्बिषः ।
सरस्वत्यां महानद्यां रेजे व्यभ्र इवांशुमान् ॥ २३ ॥
स्वदेहं जमदग्निस्तु लब्ध्वा संज्ञानलक्षणम् ।
ऋषीणां मण्डले सोऽभूत् सप्तमो रामपूजितः ॥ २४ ॥

जामदग्न्योऽपि भगवान् रामः कमललोचनः ।
आगामिन्यन्तरे राजन् वर्तयिष्यति वै बृहत् ॥ २५ ॥
आस्तेऽद्यापि महेन्द्राद्रौ न्यस्तदण्डः प्रशान्तधीः ।
उपगीयमानचरितः सिद्धगन्धर्वचारणैः ॥ २६ ॥
एवं भृगुषु विश्वात्मा भगवान् हरिरीश्वरः ।

अवतीर्य परं भारं भुवोऽहन् बहुशो नृपान् ॥ २७ ॥   

परीक्षित्‌ ! परशुरामजीने माहिष्मती नगरीमें जाकर सहस्रबाहु अर्जुनके पुत्रोंके सिरोंसे नगरके बीचो-बीच एक बड़ा भारी पर्वत खड़ा कर दिया। उस नगरकी शोभा तो उन ब्रह्मघाती नीच क्षत्रियोंके कारण ही नष्ट हो चुकी थी ॥ १७ ॥ उनके रक्तसे एक बड़ी भयङ्कर नदी बह निकली, जिसे देखकर ब्राह्मणद्रोहियोंका हृदय भयसे काँप उठता था। भगवान्‌ने देखा कि वर्तमान क्षत्रिय अत्याचारी हो गये हैं। इसलिये राजन् ! उन्होंने अपने पिताके वधको निमित्त बनाकर इक्कीस बार पृथ्वीको क्षत्रियहीन कर दिया और कुरुक्षेत्रके समन्तपञ्चकमें ऐसे-ऐसे पाँच तालाब बना दिये, जो रक्तके जलसे भरे हुए थे ॥ १८-१९ ॥ परशुरामजीने अपने पिताजीका सिर लाकर उनके धड़से जोड़ दिया और यज्ञोंद्वारा सर्वदेवमय आत्मस्वरूप भगवान्‌का यजन किया ॥ २० ॥ यज्ञोंमें उन्होंने पूर्व दिशा होताको, दक्षिण दिशा ब्रह्माको, पश्चिम दिशा अध्वर्युको और उत्तर दिशा सामगान करनेवाले उद्गाताको दे दी ॥ २१ ॥ इसी प्रकार अग्निकोण आदि विदिशाएँ ऋत्विजोंको दीं, कश्यपजीको मध्यभूमि दी, उपद्रष्टाको आर्यावर्त दिया तथा दूसरे सदस्योंको अन्यान्य दिशाएँ प्रदान कर दीं ॥ २२ ॥ इसके बाद यज्ञान्त-स्नान करके वे समस्त पापोंसे मुक्त हो गये और ब्रह्मनदी सरस्वतीके तटपर मेघरहित सूर्यके समान शोभायमान हुए ॥ २३ ॥ महर्षि जमदग्नि को स्मृतिरूप संकल्पमय शरीरकी प्राप्ति हो गयी। परशुरामजीसे सम्मानित होकर वे सप्तर्षियोंके मण्डलमें सातवें ऋषि हो गये ॥ २४ ॥ परीक्षित्‌ ! कमललोचन जमदग्नि-नन्दन भगवान्‌ परशुराम आगामी मन्वन्तरमें सप्तर्षियोंके मण्डलमें रहकर वेदोंका विस्तार करेंगे ॥ २५ ॥ वे आज भी किसीको किसी प्रकारका दण्ड न देते हुए शान्त चित्तसे महेन्द्र पर्वतपर निवास करते हैं। वहाँ सिद्ध, गन्धर्व और चारण उनके चरित्रका मधुर स्वरसे गान करते रहते हैं ॥ २६ ॥ सर्वशक्तिमान् विश्वात्मा भगवान्‌ श्रीहरिने इस प्रकार भृगुवंशियोंमें अवतार ग्रहण करके पृथ्वीके भारभूत राजाओंका बहुत बार वध किया ॥ २७ ॥



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बुधवार, 1 जनवरी 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥



श्रीमद्भागवतमहापुराण

नवम स्कन्ध सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)



परशुरामजी के द्वारा क्षत्रियसंहार

और विश्वामित्र जी के वंश की कथा



येऽर्जुनस्य सुता राजन् स्मरन्तः स्वपितुर्वधम् ।

रामवीर्यपराभूता लेभिरे शर्म न क्वचित् ॥ ९ ॥

एकदाश्रमतो रामे सभ्रातरि वनं गते ।

वैरं सिसाधयिषवो लब्धच्छिद्रा उपागमन् ॥ १० ॥

दृष्ट्वाग्न्यगार आसीनं आवेशितधियं मुनिम् ।

भगवति उत्तमश्लोके जघ्नुस्ते पापनिश्चयाः ॥ ११ ॥

याच्यमानाः कृपणया राममात्रातिदारुणाः ।

प्रसह्य शिर उत्कृत्य निन्युस्ते क्षत्रबन्धवः ॥ १२ ॥

रेणुका दुःखशोकार्ता निघ्नन्त्यात्मानमात्मना ।

राम रामेति तातेति विचुक्रोशोच्चकैः सती ॥ १३ ॥

तदुपश्रुत्य दूरस्था हा रामेत्यार्तवत्स्वनम् ।

त्वरयाऽऽश्रममासाद्य ददृशुः पितरं हतम् ॥ १४ ॥

ते दुःखरोषामर्षार्ति शोकवेगविमोहिताः ।

हा तात साधो धर्मिष्ठ त्यक्त्वास्मान् स्वर्गतो भवान् ॥ १५ ॥

विलप्यैवं पितुर्देहं निधाय भ्रातृषु स्वयम् ।

प्रगृह्य परशुं रामः क्षत्रान्ताय मनो दधे ॥ १६ ॥


परीक्षित्‌ ! सहस्रबाहु अर्जुनके जो लडक़े परशुरामजीसे हारकर भाग गये थे, उन्हें अपने पिताके वधकी याद निरन्तर बनी रहती थी। कहीं एक क्षणके लिये भी उन्हें चैन नहीं मिलता था ॥ ९ ॥ एक दिनकी बात है, परशुरामजी अपने भाइयोंके साथ आश्रमसे बाहर वनकी ओर गये हुए थे। यह अवसर पाकर वैर साधनेके लिये सहस्रबाहुके लडक़े वहाँ आ पहुँचे ॥ १० ॥ उस समय महर्षि जमदग्नि अग्निशाला में बैठे हुए थे और अपनी समस्त वृत्तियोंसे पवित्रकीर्ति भगवान्‌ के ही चिन्तनमें मग्न हो रहे थे। उन्हें बाहरकी कोई सुध न थी। उसी समय उन पापियोंने जमदग्नि ऋषिको मार डाला। उन्होंने पहलेसे ही ऐसा पापपूर्ण निश्चय कर रखा था ॥ ११ ॥ परशुरामकी माता रेणुका बड़ी दीनतासे उनसे प्रार्थना कर रही थीं, परंतु उन सबोंने उनकी एक न सुनी। वे बलपूर्वक महर्षि जमदग्रिका सिर काटकर ले गये। परीक्षित्‌ ! वास्तवमें वे नीच क्षत्रिय अत्यन्त क्रूर थे ॥ १२ ॥ सती रेणुका दु:ख और शोकसे आतुर हो गयीं। वे अपने हाथों अपनी छाती और सिर पीट-पीटकर जोर-जोरसे रोने लगीं— ‘परशुराम ! बेटा परशुराम ! शीघ्र आओ ॥ १३ ॥ परशुरामजीने बहुत दूरसे माताका हा राम !यह करुण-क्रन्दन सुन लिया। वे बड़ी शीघ्रतासे आश्रमपर आये और वहाँ आकर देखा कि पिताजी मार डाले गये हैं ॥ १४ ॥ परीक्षित्‌ ! उस समय परशुरामजीको बड़ा दु:ख हुआ। साथ ही क्रोध, असहिष्णुता, मानसिक पीड़ा और शोकके वेगसे वे अत्यन्त मोहित हो गये। हाय पिताजी ! आप तो बड़े महात्मा थे। पिताजी ! आप तो धर्मके सच्चे पुजारी थे। आप हमलोगोंको छोडक़र स्वर्ग चले गये॥ १५ ॥ इस प्रकार विलापकर उन्होंने पिताका शरीर तो भाइयोंको सौंप दिया और स्वयं हाथमें फरसा उठाकर क्षत्रियोंका संहार कर डालनेका निश्चय किया ॥ १६ ॥



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श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥



श्रीमद्भागवतमहापुराण

नवम स्कन्ध सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)



परशुरामजी के द्वारा क्षत्रियसंहार

और विश्वामित्र जी के वंश की कथा



श्रीशुक उवाच ।

पित्रोपशिक्षितो रामः तथेति कुरुनन्दन ।

संवत्सरं तीर्थयात्रां चरित्वाऽऽश्रममाव्रजत् ॥ १ ॥

कदाचित् रेणुका याता गंगायां पद्ममालिनम् ।

गन्धर्वराजं क्रीडन्तं अप्सरोभिरपश्यत ॥ २ ॥

विलोकयन्ती क्रीडन्तं उदकार्थं नदीं गता ।

होमवेलां न सस्मार किञ्चित् चित्ररथस्पृहा ॥ ३ ॥

कालात्ययं तं विलोक्य मुनेः शापविशंकिता ।

आगत्य कलशं तस्थौ पुरोधाय कृताञ्जलिः ॥ ४ ॥

व्यभिचारं मुनिर्ज्ञात्वा पत्‍न्याः प्रकुपितोऽब्रवीत् ।

घ्नतैनां पुत्रकाः पापां इत्युक्तास्ते न चक्रिरे ॥ ५ ॥

रामः सञ्चोदितः पित्रा भ्रातॄन् मात्रा सहावधीत् ।

प्रभावज्ञो मुनेः सम्यक् समाधेस्तपसश्च सः ॥ ६ ॥

वरेण च्छन्दयामास प्रीतः सत्यवतीसुतः ।

वव्रे हतानां रामोऽपि जीवितं चास्मृतिं वधे ॥ ७ ॥

उत्तस्थुस्ते कुशलिनो निद्रापाय इवाञ्जसा ।

पितुर्विद्वान् तपोवीर्यं रामश्चक्रे सुहृद्वधम् ॥ ८ ॥


श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! अपने पिता की यह शिक्षा भगवान्‌ परशुराम ने जो आज्ञाकहकर स्वीकार की। इसके बाद वे एक वर्षतक तीर्थयात्रा करके अपने आश्रमपर लौट आये ॥१॥ एक दिनकी बात है परशुरामजी की माता रेणुका गङ्गातट पर गयी हुई थीं। वहाँ उन्होंने देखा कि गन्धर्वराज चित्ररथ कमलों की माला पहने अप्सराओं के साथ विहार कर रहा है ॥ २ ॥ वे जल लानेके लिये नदीतट पर गयी थीं, परंतु वहाँ जलक्रीडा करते हुए गन्धर्व को देखने लगीं और पतिदेव के हवन का समय हो गया हैइस बातको भूल गयीं। उनका मन कुछ-कुछ चित्ररथ की ओर  खिंच भी गया था ॥ ३ ॥ हवन का समय बीत गया, यह जानकर वे महर्षि जमदग्नि के शापसे भयभीत हो गयीं और तुरंत वहाँसे आश्रमपर चली आयीं। वहाँ जल का कलश महर्षि के सामने रखकर हाथ जोड़ खड़ी हो गयीं ॥ ४ ॥ जमदग्नि मुनि ने अपनी पत्नी का मानसिक व्यभिचार जान लिया और क्रोध करके कहा—‘मेरे पुत्रो ! इस पापिनीको मार डालो।परंतु उनके किसी भी पुत्रने उनकी वह आज्ञा स्वीकार नहीं की ॥ ५ ॥ इसके बाद पिताकी आज्ञासे परशुरामजीने माताके साथ सब भाइयोंको भी मार डाला। इसका कारण थावे अपने पिताजीके योग और तपस्याका प्रभाव भलीभाँति जानते थे ॥ ६ ॥ परशुरामजीके इस कामसे सत्यवतीनन्दन महर्षि जमदग्नि बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने कहा—‘बेटा ! तुम्हारी जो इच्छा हो, वर माँग लो।परशुरामजीने कहा—‘पिताजी ! मेरी माता और सब भाई जीवित हो जायँ तथा उन्हें इस बातकी याद न रहे कि मैंने उन्हें मारा था॥ ७ ॥ परशुरामजी के इस प्रकार कहते ही जैसे कोई सोकर उठे, सब-के-सब अनायास ही सकुशल उठ बैठे। परशुरामजी ने अपने पिताजी का तपोबल जानकर ही तो अपने सुहृदोंका वध किया था ॥ ८ ॥



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मंगलवार, 31 दिसंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥



श्रीमद्भागवतमहापुराण

नवम स्कन्ध पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)



ऋचीक, जमदग्नि और परशुरामजी का चरित्र



अग्निहोत्रीं उपावर्त्य सवत्सां परवीरहा ।

समुपेत्याश्रमं पित्रे परिक्लिष्टां समर्पयत् ॥ ३६ ॥

स्वकर्म तत्कृतं रामः पित्रे भ्रातृभ्य एव च ।

वर्णयामास तत् श्रुत्वा जमदग्निरभाषत ॥ ३७ ॥

राम राम महाबाहो भवान् पापमकारषीत् ।

अवधीत् नरदेवं यत् सर्वदेवमयं वृथा ॥ ३८ ॥

वयं हि ब्राह्मणास्तात क्षमयार्हणतां गताः ।

यया लोकगुरुर्देवः पारमेष्ठ्यमगात् पदम् ॥ ३९ ॥

क्षमया रोचते लक्ष्मीः ब्राह्मी सौरी यथा प्रभा ।

क्षमिणामाशु भगवान् तुष्यते हरिरीश्वरः ॥ ४० ॥

राज्ञो मूर्धाभिषिक्तस्य वधो ब्रह्मवधाद् गुरुः ।

तीर्थसंसेवया चांहो जह्यङ्‌गाच्युतचेतनः ॥ ४१ ॥



परीक्षित्‌ ! विपक्षी वीरों के नाशक परशुरामजी ने बछड़े के साथ कामधेनु लौटा ली। वह बहुत ही दुखी हो रही थी। उन्होंने उसे अपने आश्रमपर लाकर पिताजीको सौंप दिया ॥ ३६ ॥ और माहिष्मतीमें सहस्रबाहुने तथा उन्होंने जो कुछ किया था, सब अपने पिताजी तथा भाइयोंको कह सुनाया। सब कुछ सुनकर जमदग्रि मुनिने कहा॥ ३७ ॥ हाय, हाय, परशुराम ! तुमने बड़ा पाप किया। राम , राम ! तुम बड़े वीर हो; परंतु सर्वदेवमय नरदेवका तुमने व्यर्थ ही वध किया ॥ ३८ ॥ बेटा ! हमलोग ब्राह्मण हैं। क्षमाके प्रभावसे ही हम संसारमें पूजनीय हुए हैं। और तो क्या, सबके दादा ब्रह्माजी भी क्षमाके बलसे ही ब्रह्मपदको प्राप्त हुए हैं ॥ ३९ ॥ ब्राह्मणोंकी शोभा क्षमाके द्वारा ही सूर्यकी प्रभाके समान चमक उठती है। सर्वशक्तिमान् भगवान्‌ श्रीहरि भी क्षमावानों पर ही शीघ्र प्रसन्न होते हैं ॥ ४० ॥ बेटा ! सार्वभौम राजाका वध ब्राह्मणकी हत्यासे भी बढक़र है। जाओ, भगवान्‌का स्मरण करते हुए तीर्थोंका सेवन करके अपने पापों को धो डालो॥ ४१ ॥



इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां

संहितायां नवमस्कन्धे पञ्चदशोऽध्यायः ॥ १५ ॥



हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥



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श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥



श्रीमद्भागवतमहापुराण

नवम स्कन्ध पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)



ऋचीक, जमदग्नि और परशुरामजी का चरित्र



तं आपतन्तं भृगुवर्यमोजसा

धनुर्धरं बाणपरश्वधायुधम् ।

ऐणेयचर्माम्बरमर्कधामभिः

युतं जटाभिर्ददृशे पुरीं विशन् ॥ २९ ॥

अचोदयद्धस्तिरथाश्वपत्तिभिः

गदासिबाणर्ष्टिशतघ्निशक्तिभिः ।

अक्षौहिणीः सप्तदशातिभीषणाः

ता राम एको भगवानसूदयत् ॥ ३० ॥

यतो यतोऽसौ प्रहरत्परश्वधो

मनोऽनिलौजाः परचक्रसूदनः ।

ततस्ततश्छिन्नभुजोरुकन्धरा

निपेतुरुर्व्यां हतसूतवाहनाः ॥ ३१ ॥

दृष्ट्वा स्वसैन्यं रुधिरौघकर्दमे

रणाजिरे रामकुठारसायकैः ।

विवृक्णचर्मध्वजचापविग्रहं

निपातितं हैहय आपतद् रुषा ॥ ३२ ॥

अथार्जुनः पञ्चशतेषु बाहुभिः

धनुःषु बाणान् युगपत् स सन्दधे ।

रामाय रामोऽस्त्रभृतां समग्रणीः

तान्येकधन्वेषुभिराच्छिनत् समम् ॥ ३३ ॥

पुनः स्वहस्तैरचलान्मृधेङ्‌घ्रिपान्

उत्क्षिप्य वेगाद् अभिधावतो युधि ।

भुजान् कुठारेण कठोरनेमिना

चिच्छेद रामः प्रसभं त्वहेरिव ॥ ३४ ॥

कृत्तबाहोः शिरस्तस्य गिरेः श्रृङमिवाहरत् ।

हते पितरि तत्पुत्रा अयुतं दुद्रुवुर्भयात् ॥ ३५ ॥


सहस्रबाहु अर्जुन अभी अपने नगर में प्रवेश कर ही रहा था कि उसने देखा परशुराम जी महाराज बड़े वेगसे उसी की ओर झपटे आ रहे हैं। उनकी बड़ी विलक्षण झाँकी थी। वे हाथ में धनुष-बाण और फरसा लिये हुए थे, शरीरपर काला मृगचर्म धारण किये हुए थे और उनकी जटाएँ सूर्यकी किरणोंके समान चमक रही थीं ॥ २९ ॥ उन्हें देखते ही उसने गदा, खड्ग, बाण, ऋष्टि, शतघ्री और शक्ति आदि आयुधों से सुसज्जित एवं हाथी, घोड़े, रथ तथा पदातियों से युक्त अत्यन्त भयङ्कर सत्रह अक्षौहिणी सेना भेजी। भगवान्‌ परशुरामने बात-की-बातमें अकेले ही उस सारी सेनाको नष्ट कर दिया ॥ ३० ॥ भगवान्‌ परशुरामजीकी गति मन और वायुके समान थी। बस, वे शत्रुकी सेना काटते ही जा रहे थे। जहाँ-जहाँ वे अपने फरसेका प्रहार करते, वहाँ-वहाँ सारथि और वाहनोंके साथ बड़े-बड़े वीरोंकी बाँहें, जाँघें और कंधे कट-कटकर पृथ्वीपर गिरते जाते थे ॥ ३१ ॥ हैहयाधिपति अर्जुनने देखा कि मेरी सेनाके सैनिक, उनके धनुष, ध्वजाएँ और ढाल भगवान्‌ परशुराम के फरसे और बाणोंसे कट-कटकर खूनसे लथपथ रणभूमिमें गिर गये हैं, तब उसे बड़ा क्रोध आया और वह स्वयं भिडऩे के लिये आ धमका ॥ ३२ ॥ उसने एक साथ ही अपनी हजार भुजाओंसे पाँच सौ धनुषोंपर बाण चढ़ाये और परशुरामजीपर छोड़े। परंतु परशुरामजी तो समस्त शस्त्रधारियोंके शिरोमणि ठहरे। उन्होंने अपने एक धनुषपर छोड़े हुए बाणोंसे ही एक साथ सबको काट डाला ॥ ३३ ॥ अब हैहयाधिपति अपने हाथोंसे पहाड़ और पेड़ उखाडक़र बड़े वेगसे युद्धभूमिमें परशुरामजीकी ओर झपटा। परंतु परशुरामजीने अपनी तीखी धारवाले फरसे से बड़ी फुर्तीके साथ उसकी साँपोंके समान भुजाओंको काट डाला ॥ ३४ ॥ जब उसकी बाँहें कट गयीं, तब उन्होंने पहाडक़ी चोटी की तरह उसका ऊँचा सिर धड़ से अलग कर दिया। पिता के मर जानेपर उसके दस हजार लडक़े डरकर भग गये ॥ ३५ ॥



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सोमवार, 30 दिसंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥



श्रीमद्भागवतमहापुराण

नवम स्कन्ध पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)



ऋचीक, जमदग्नि और परशुरामजी का चरित्र



स एकदा तु मृगयां विचरन् विजने वने ।

यदृच्छयाऽऽश्रमपदं जमदग्नेरुपाविशत् ॥ २३ ॥

तस्मै स नरदेवाय मुनिरर्हणमाहरत् ।

ससैन्यामात्यवाहाय हविष्मत्या तपोधनः ॥ २४ ॥

स वै रत्‍नं तु तद् दृष्ट्वा आत्मैश्वर्यातिशायनम् ।

तन्नाद्रियताग्निहोत्र्यां साभिलाषः स हैहयः ॥ २५ ॥

हविर्धानीं ऋषेर्दर्पान् नरान् हर्तुमचोदयत् ।

ते च माहिष्मतीं निन्युः सवत्सां क्रन्दतीं बलात् ॥ २६ ॥

अथ राजनि निर्याते राम आश्रम आगतः ।

श्रुत्वा तत् तस्य दौरात्म्यं चुक्रोधाहिरिवाहतः ॥ २७ ॥

घोरमादाय परशुं सतूणं चर्म कार्मुकम् ।

अन्वधावत दुर्धर्षो मृगेन्द्र इव यूथपम् ॥ २८ ॥


एक दिन सहस्रबाहु अर्जुन शिकार खेलने के लिये बड़े घोर जंगल में निकल गया था। दैववश वह जमदग्नि मुनि के आश्रमपर जा पहुँचा ॥ २३ ॥ परम तपस्वी जमदग्नि मुनिके आश्रममें कामधेनु रहती थी। उसके प्रताप से उन्होंने सेना, मन्त्री और वाहनोंके साथ हैहयाधिपति का खूब स्वागत- सत्कार किया ॥ २४ ॥ वीर हैहयाधिपति ने देखा कि जमदग्नि मुनि का ऐश्वर्य तो मुझसे भी बढ़ा-चढ़ा है। इसलिये उसने उनके स्वागत-सत्कारको कुछ भी आदर न देकर कामधेनुको ही ले लेना चाहा ॥ २५ ॥ उसने अभिमानवश जमदग्नि मुनिसे माँगा भी नहीं, अपने सेवकोंको आज्ञा दी कि कामधेनु को छीन ले चलो। उसकी आज्ञासे उसके सेवक बछड़ेके साथ बाँ-बाँडकराती हुई कामधेनु को बलपूर्वक माहिष्मतीपुरी ले गये ॥ २६ ॥ जब वे सब चले गये, तब परशुरामजी आश्रमपर आये और उसकी दुष्टताका वृत्तान्त सुनकर चोट खाये हुए साँपकी तरह क्रोधसे तिलमिला उठे ॥ २७ ॥ वे अपना भयङ्कर फरसा, तरकस, ढाल एवं धनुष लेकर बड़े वेगसे उसके पीछे दौड़ेजैसे कोई किसीसे न दबनेवाला सिंह हाथीपर टूट पड़े ॥ २८ ॥



शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥



श्रीमद्भागवतमहापुराण

नवम स्कन्ध पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)



ऋचीक, जमदग्नि और परशुरामजी का चरित्र



श्रीराजोवाच ।

किं तदंहो भगवतो राजन्यैरजितात्मभिः ।

कृतं येन कुलं नष्टं क्षत्रियाणां अभीक्ष्णशः ॥ १६ ॥



श्रीशुक उवाच ।

हैहयानां अधिपतिः अर्जुनः क्षत्रियर्षभः ।

दत्तं नारायण अंशांशं आराध्य परिकर्मभिः ॥ १७ ॥

बाहून् दशशतं लेभे दुर्धर्षत्वमरातिषु ।

अव्याहतेन्द्रियौजः श्री तेजोवीर्ययशोबलम् ॥ १८ ॥

योगेश्वरत्वं ऐश्वर्यं गुणा यत्राणिमादयः ।

चचार अव्याहतगतिः लोकेषु पवनो यथा ॥ १९ ॥

स्त्रीरत्‍नैः आवृतः क्रीडन् रेवाम्भसि मदोत्कटः ।

वैजयन्तीं स्रजं बिभ्रद् रुरोध सरितं भुजैः ॥ २० ॥

विप्लावितं स्वशिबिरं प्रतिस्रोतःसरिज्जलैः ।

नामृष्यत् तस्य तद् वीर्यं वीरमानी दशाननः ॥ २१ ॥

गृहीतो लीलया स्त्रीणां समक्षं कृतकिल्बिषः ।

माहिष्मत्यां सन्निरुद्धो मुक्तो येन कपिर्यथा ॥ २२ ॥


राजा परीक्षित्‌ ने पूछाभगवन् ! अवश्य ही उस समय के क्षत्रिय विषयलोलुप हो गये थे; परंतु उन्होंने परशुरामजीका ऐसा कौन-सा अपराध कर दिया, जिसके कारण उन्होंने बार-बार क्षत्रियोंके वंशका संहार किया ? ॥ १६ ॥
श्रीशुकदेवजी कहने लगेपरीक्षित्‌ ! उन दिनों हैहयवंशका अधिपति था अर्जुन। वह एक श्रेष्ठ क्षत्रिय था। उसने अनेकों प्रकारकी सेवा-शुश्रूषा करके भगवान्‌ नारायणके अंशावतार दत्तात्रेयजीको प्रसन्न कर लिया और उनसे एक हजार भुजाएँ तथा कोई भी शत्रु युद्धमें पराजित न कर सकेयह वरदान प्राप्त कर लिया। साथ ही इन्द्रियोंका अबाध बल, अतुल सम्पत्ति, तेजस्विता, वीरता, कीर्ति और शारीरिक बल भी उसने उनकी कृपासे प्राप्त कर लिये थे ॥ १७-१८ ॥ वह योगेश्वर हो गया था। उसमें ऐसा ऐश्वर्य था कि वह सूक्ष्म-से-सूक्ष्म, स्थूल-से- स्थूल रूप धारण कर लेता। सभी सिद्धियाँ उसे प्राप्त थीं। वह संसारमें वायुकी तरह सब जगह बेरोक-टोक विचरा करता ॥ १९ ॥ एक बार गलेमें वैजयन्ती माला पहने सहस्रबाहु अर्जुन बहुत-सी सुन्दरी स्त्रियोंके साथ नर्मदा नदीमें जल-विहार कर रहा था। उस समय मदोन्मत्त सहस्रबाहुने अपनी बाँहोंसे नदीका प्रवाह रोक दिया ॥ २० ॥ दशमुख रावणका शिविर भी वहीं कहीं पासमें ही था। नदीकी धारा उलटी बहने लगी, जिससे उसका शिविर डूबने लगा। रावण अपनेको बहुत बड़ा वीर तो मानता ही था, इसलिये सहस्रार्जुनका यह पराक्रम उससे सहन नहीं हुआ ॥ २१ ॥ जब रावण सहस्रबाहु अर्जुनके पास जाकर बुरा-भला कहने लगा, तब उसने स्त्रियोंके सामने ही खेल-खेल में रावण को पकड़ लिया और अपनी राजधानी माहिष्मती में ले जाकर बंदर के समान कैद कर लिया। पीछे पुलस्त्यजी के कहने से सहस्रबाहु ने रावण को छोड़ दिया ॥ २२ ॥



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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट१२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट१२) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन तत्...