॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
नवम स्कन्ध –सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)
परशुरामजी
के द्वारा क्षत्रियसंहार
और विश्वामित्र जी के वंश की कथा
गाधेरभूत् महातेजाः समिद्ध इव पावकः ।
तपसा क्षात्रमुत्सृज्य यो लेभे ब्रह्मवर्चसम् ॥ २८ ॥
विश्वामित्रस्य चैवासन् पुत्रा एकशतं नृप ।
मध्यमस्तु मधुच्छन्दा मधुच्छन्दस एव ते ॥ २९ ॥
पुत्रं कृत्वा शुनःशेपं देवरातं च भार्गवम् ।
आजीगर्तं सुतानाह ज्येष्ठ एष प्रकल्प्यताम् ॥ ३० ॥
यो वै हरिश्चन्द्रमखे विक्रीतः पुरुषः पशुः ।
स्तुत्वा देवान् प्रजेशादीन् मुमुचे पाशबन्धनात् ॥ ३१ ॥
यो रातो देवयजने देवैर्गाधिषु तापसः ।
देवरात इति ख्यातः शुनःशेपस्तु भार्गवः ॥ ३२ ॥
ये मधुच्छन्दसो ज्येष्ठाः कुशलं मेनिरे न तत् ।
अशपत् तान् मुनिः क्रुद्धो म्लेच्छा भवत दुर्जनाः ॥ ३३ ॥
स होवाच मधुच्छन्दाः सार्धं पञ्चाशता ततः ।
यन्नो भवान् संजानीते तस्मिन् तिष्ठामहे वयम् ॥ ३४ ॥
ज्येष्ठं मन्त्रदृशं चक्रुः त्वां अन्वञ्चो वयं स्म हि ।
विश्वामित्रः सुतानाह वीरवन्तो भविष्यथ ।
ये मानं मेऽनुगृह्णन्तो वीरवन्तमकर्त माम् ॥ ३५ ॥
एष वः कुशिका वीरो देवरातस्तमन्वित ।
अन्ये चाष्टकहारीत जयक्रतुमदादयः ॥ ३६ ॥
एवं कौशिकगोत्रं तु विश्वामित्रैः पृथग्विधम् ।
प्रवरान्तरमापन्नं तद्धि चैवं प्रकल्पितम् ॥ ३७ ॥
महाराज गाधिके पुत्र हुए प्रज्वलित अग्नि के समान परम तेजस्वी विश्वामित्रजी। इन्होंने अपने तपोबलसे क्षत्रियत्वका त्याग करके ब्रह्मतेज प्राप्त कर लिया ॥ २८ ॥ परीक्षित् ! विश्वामित्रजीके सौ पुत्र थे। उनमें बिचले पुत्रका नाम था मधुच्छन्दा। इसलिये सभी पुत्र ‘मधुच्छन्दा’ के ही नामसे विख्यात हुए ॥ २९ ॥ विश्वामित्रजीने भृगुवंशी अजीगर्तके पुत्र अपने भानजे शुन:शेप को, जिसका एक नाम देवरात भी था, पुत्ररूपमें स्वीकार कर लिया और अपने पुत्रोंसे कहा कि ‘तुमलोग इसे अपना बड़ा भाई मानो’ ॥ ३० ॥ यह वही प्रसिद्ध भृगुवंशी शुन:शेप था, जो हरिश्चन्द्रके यज्ञमें यज्ञपशुके रूपमें मोल लेकर लाया गया था। विश्वामित्रजीने प्रजापति वरुण आदि देवताओंकी स्तुति करके उसे पाशबन्धनसे छुड़ा लिया था। देवताओंके यज्ञमें यह शुन:शेप देवताओंद्वारा विश्वामित्रजीको दिया गया था; अत: ‘देवै: रात:’ इस व्युत्पत्तिके अनुसार गाधिवंशमें यह तपस्वी देवरातके नामसे विख्यात हुआ ॥ ३१-३२ ॥ विश्वामित्रजीके पुत्रोंमें जो बड़े थे, उन्हें शुन:शेपको बड़ा भाई माननेकी बात अच्छी न लगी। इसपर विश्वामित्रजीने क्रोधित होकर उन्हें शाप दे दिया कि ‘दुष्टो ! तुम सब म्लेच्छ हो जाओ’ ॥ ३३ ॥ इस प्रकार जब उनचास भाई म्लेच्छ हो गये, तब विश्वामित्रजीके बिचले पुत्र मधुच्छन्दाने अपनेसे छोटे पचासों भाइयोंके साथ कहा—‘पिताजी ! आप हमलोगोंको जो आज्ञा करते हैं, हम उसका पालन करनेके लिये तैयार हैं’ ॥ ३४ ॥ यह कहकर मधुच्छन्दाने मन्त्रद्रष्टा शुन:शेपको बड़ा भाई स्वीकार कर लिया और कहा कि ‘हम सब तुम्हारे अनुयायी—छोटे भाई हैं।’ तब विश्वामित्रजीने अपने इन आज्ञाकारी पुत्रोंसे कहा—‘तुम लोगोंने मेरी बात मानकर मेरे सम्मानकी रक्षा की है, इसलिये तुमलोगों-जैसे सुपुत्र प्राप्त करके मैं धन्य हुआ। मैं तुम्हें आशीर्वाद देता हूँ कि तुम्हें भी सुपुत्र प्राप्त होंगे ॥ ३५ ॥ मेरे प्यारे पुत्रो ! यह देवरात शुन:शेप भी तुम्हारे ही गोत्रका है। तुमलोग इसकी आज्ञामें रहना।’ परीक्षित् ! विश्वा- मित्रजीके अष्टक, हारीत, जय और क्रतुमान् आदि और भी पुत्र थे ॥ ३६ ॥ इस प्रकार विश्वामित्रजीकी सन्तानोंसे कौशिकगोत्रमें कई भेद हो गये और देवरातको बड़ा भाई माननेके कारण उसका प्रवर ही दूसरा हो गया ॥ ३७ ॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायां नवमस्कन्धे षोडशोऽध्यायः ॥ १६ ॥
हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से