जय रघुनन्दन जय सियाराम ! हे दुखभंजन तुम्हे प्रणाम !!
नवधा भक्ति
“ नवधा भगति कहउँ तोहि पाहीं । सावधान सुनु धरु मन माहीं ॥“
भक्ति के प्रधान दो भेद हैं ---एक साधन रूप, जिसको वैध और नवधा के नाम से भी कहा गया है और दूसरा साध्यरूप, जिसको प्रेमा-प्रेमलक्षणा आदि नामों से कहा है | इनमें नवधा साधनरूप है और प्रेम साध्य है |
अब यह विचार करा चाहिए कि वैध-भक्ति किसका नाम है | इसके उत्तर में यही कहा जा सकता है कि स्वामी जिससे संतुष्ट हो उस प्रकार के भाव से भावित होकर उसकी आज्ञा के अनुसार आचरण करने का नाम वैध-भक्ति है | शास्त्रों में उसके अनेक प्रकार के लक्षण बताए गये हैं |
अब यह विचार करा चाहिए कि वैध-भक्ति किसका नाम है | इसके उत्तर में यही कहा जा सकता है कि स्वामी जिससे संतुष्ट हो उस प्रकार के भाव से भावित होकर उसकी आज्ञा के अनुसार आचरण करने का नाम वैध-भक्ति है | शास्त्रों में उसके अनेक प्रकार के लक्षण बताए गये हैं |
तुलसीकृत रामायण में शबरी के प्रति भगवान् श्रीरामचंद्र जी कहते हैं:----
“ प्रथम भगति संतन्ह कर संगा । दूसरि रति मम कथा प्रसंगा॥
गुर पद पंकज सेवा तीसरि भगति अमान ।
चौथि भगति मम गुन गन करइ कपट तजि गान ॥
मंत्र जाप मम दृढ़ बिस्वासा । पंचम भजन सो बेद प्रकासा ॥
छठ दम सील बिरति बहु करमा । निरत निरंतर सज्जन धरमा ॥
सातवँ सम मोहि मय जग देखा । मोतें संत अधिक करि लेखा ॥
आठवँ जथालाभ संतोषा । सपनेहुँ नहिं देखइ परदोषा ॥
नवम सरल सब सन छलहीना । मम भरोस हियँ हरष न दीना ॥“
गुर पद पंकज सेवा तीसरि भगति अमान ।
चौथि भगति मम गुन गन करइ कपट तजि गान ॥
मंत्र जाप मम दृढ़ बिस्वासा । पंचम भजन सो बेद प्रकासा ॥
छठ दम सील बिरति बहु करमा । निरत निरंतर सज्जन धरमा ॥
सातवँ सम मोहि मय जग देखा । मोतें संत अधिक करि लेखा ॥
आठवँ जथालाभ संतोषा । सपनेहुँ नहिं देखइ परदोषा ॥
नवम सरल सब सन छलहीना । मम भरोस हियँ हरष न दीना ॥“
( पहली भक्ति है संतों का सत्संग । दूसरी भक्ति है मेरे कथा प्रसंग में प्रेम ॥ तीसरी भक्ति है अभिमानरहित होकर गुरु के चरण कमलों की सेवा और चौथी भक्ति यह है कि कपट छोड़कर मेरे गुण समूहों का गान करें॥ मेरे (राम) मंत्र का जाप और मुझपर दृढ़ विश्वास- यह पाँचवीं भक्ति है, जो वेदों में प्रसिद्ध है । छठी भक्ति है इंद्रियों का निग्रह, शील (अच्छा स्वभाव या चरित्र), बहुत कार्यों से वैराग्य और निरंतर संत पुरुषों के धर्म (आचरण) में लगे रहना ॥ सातवीं भक्ति है जगत् भर को समभाव से मुझमें ओतप्रोत (राममय) देखना और संतों को मुझसे भी अधिक करके मानना । आठवीं भक्ति है जो कुछ मिल जाए, उसी में संतोष करना और स्वप्न में भी पराए दोषों को न देखना ॥ नवीं भक्ति है सरलता और सबके साथ कपटरहित बर्ताव करना, हृदय में मेरा भरोसा रखना और किसी भी अवस्था में हर्ष और दैन्य (विषाद) का न होना ) |
श्रीमद्भागवत में प्रह्लाद जी ने कहा है :-
“श्रवणं कीर्तनं विष्णो: स्मरणं पाद सेवनम् |
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ||... (७.५.२३)
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ||... (७.५.२३)
( भगवान विष्णु के नाम, रूप, गुण और प्रभावादि का श्रवण, कीर्तन और स्मरण तथा भगवान् की चरणसेवा, पूजन और वंदन एवं भगवान् में दासभाव सखाभाव और अपने को समर्पण कर देना—यह नौ प्रकार की भक्ति है )|
इस प्रकार शास्त्रों में भक्ति के भिन्न भिन्न प्रकार से अनेक लक्षण बतलाए गए हैं, किन्तु विचार करने पर सिद्धांत में कोई भेद नहीं है | तात्पर्य सबका प्राय: एक ही है कि स्वामी जिस भाव और आचरण से संतुष्ट हो,उसी प्रकार के भावों से भावित होकर उनकी आज्ञा के अनुकूल आचरण करना ही सेवा यानी भक्ति है ||
इस प्रकार शास्त्रों में भक्ति के भिन्न भिन्न प्रकार से अनेक लक्षण बतलाए गए हैं, किन्तु विचार करने पर सिद्धांत में कोई भेद नहीं है | तात्पर्य सबका प्राय: एक ही है कि स्वामी जिस भाव और आचरण से संतुष्ट हो,उसी प्रकार के भावों से भावित होकर उनकी आज्ञा के अनुकूल आचरण करना ही सेवा यानी भक्ति है ||
(गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “नवधा भक्ति”--कोड:२९२, से उद्धृत)
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