॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम
स्कन्ध – पंद्रहवाँ
अध्याय..(पोस्ट१५)
गृहस्थोंके
लिये मोक्षधर्मका वर्णन
यद्यस्य
वानिषिद्धं स्याद्येन यत्र यतो नृप
स
तेनेहेत कार्याणि नरो नान्यैरनापदि ॥ ६६ ॥
एतैरन्यैश्च
वेदोक्तैर्वर्तमानः स्वकर्मभिः
गृहेऽप्यस्य
गतिं यायाद्राजंस्तद्भक्तिभाङ्नरः ॥ ६७ ॥
यथा
हि यूयं नृपदेव दुस्त्यजा-
दापद्गणादुत्तरतात्मनः
प्रभोः
यत्पादपङ्केरुहसेवया
भवा-
नहार्षीन्निर्जितदिग्गजः
क्रतून् ॥
६८ ॥
युधिष्ठिर
! जिस पुरुषके लिये जिस द्रव्यको जिस समय जिस उपायसे जिससे ग्रहण करना
शास्त्राज्ञाके विरुद्ध न हो, उसे उसीसे अपने सब कार्य
सम्पन्न करने चाहिये; आपत्तिकालको छोडक़र इससे अन्यथा नहीं
करना चाहिये ॥ ६६ ॥ महाराज ! भगवद्भक्त मनुष्य वेदमें कहे हुए इन कर्मोंके तथा
अन्यान्य स्वकर्मोंके अनुष्ठानसे घरमें रहते हुए भी श्रीकृष्णकी गतिको प्राप्त
करता है ॥ ६७ ॥ युधिष्ठिर ! जैसे तुम अपने स्वामी भगवान् श्रीकृष्णकी कृपा और
सहायतासे बड़ी-बड़ी कठिन विपत्तियोंसे पार हो गये हो और उन्हींके चरणकमलोंकी
सेवासे समस्त भूमण्डलको जीतकर तुमने बड़े-बड़े राजसूय आदि यज्ञ किये हैं ॥ ६८ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
🌼🥀🌹🍂जय श्री हरि: !!🙏🙏
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