सोमवार, 5 अगस्त 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – बारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – बारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

ब्रह्मचर्य और वानप्रस्थ-आश्रमोंके नियम

वानप्रस्थस्य वक्ष्यामि नियमान् मुनिसम्मतान् ।
यानास्थाय मुनिर्गच्छेद् ऋषिलोकमुहाञ्जसा ॥ १७ ॥
न कृष्टपच्यमश्नीयाद् अकृष्टं चाप्यकालतः ।
अग्निपक्वमथामं वा अर्कपक्वमुताहरेत् ॥ १८ ॥
वन्यैश्चरुपुरोडाशान् निर्वपेत्कालचोदितान् ।
लब्धे नवे नवेऽन्नाद्ये पुराणं च परित्यजेत् ॥ १९ ॥
अग्न्यर्थमेव शरणं उटजं वाद्रिकन्दरम् ।
श्रयेत हिमवाय्वग्नि वर्षार्कातपषाट् स्वयम् ॥ २० ॥
केशरोमनखश्मश्रु मलानि जटिलो दधत् ।
कमण्डल्वजिने दण्ड वल्कलाग्निपरिच्छदान् ॥ २१ ॥
चरेद् वने द्वादशाब्दान् अष्टौ वा चतुरो मुनिः ।
द्वावेकं वा यथा बुद्धिः न विपद्येत कृच्छ्रतः ॥ २२ ॥

(नारदजी कह रहे हैं) अब मैं ऋषियों के मतानुसार वानप्रस्थ-आश्रम के नियम बतलाता हूँ। इनका आचरण करनेसे वानप्रस्थ-आश्रमीको अनायास ही ऋषियोंके लोक महर्लोककी प्राप्ति हो जाती है ॥ १७ ॥ वानप्रस्थ-आश्रमीको जोती हुई भूमिमें उत्पन्न होनेवाले चावल, गेहूँ आदि अन्न नहीं खाने चाहिये। बिना जोते पैदा हुआ अन्न भी यदि असमयमें पका हो, तो उसे भी न खाना चाहिये। आगसे पकाया हुआ या कच्चा अन्न भी न खाय। केवल सूर्यके तापसे पके हुए कन्द, मूल, फल आदिका ही सेवन करे ॥ १८ ॥ जंगलोंमें अपने-आप पैदा हुए धान्योंसे नित्य-नैमित्तिक चरु और पुरोडाशका हवन करे। जब नये-नये अन्न, फल, फूल आदि मिलने लगें, तब पहलेके इकट्ठेकिये हुए अन्नका परित्याग कर दे ॥ १९ ॥ अग्निहोत्र के अग्नि की रक्षाके लिये ही घर, पर्णकुटी अथवा पहाडक़ी गुफाका आश्रय ले। स्वयं शीत, वायु, अग्नि, वर्षा और घामका सहन करे ॥ २० ॥ सिरपर जटा धारण करे और केश, रोम, नख एवं दाढ़ी-मूँछ न कटवाये तथा मैलको भी शरीरसे अलग न करे। कमण्डलु, मृगचर्म, दण्ड, वल्कल-वस्त्र और अग्रिहोत्रकी सामग्रियोंको अपने पास रखे ॥ २१ ॥ विचारवान् पुरुषको चाहिये कि बारह, आठ, चार, दो या एक वर्षतक वानप्रस्थ-आश्रमके नियमोंका पालन करे। ध्यान रहे कि कहीं अधिक तपस्याका क्लेश सहन करनेसे बुद्धि बिगड़ न जाय ॥ २२ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




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