मंगलवार, 31 दिसंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥



श्रीमद्भागवतमहापुराण

नवम स्कन्ध पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)



ऋचीक, जमदग्नि और परशुरामजी का चरित्र



अग्निहोत्रीं उपावर्त्य सवत्सां परवीरहा ।

समुपेत्याश्रमं पित्रे परिक्लिष्टां समर्पयत् ॥ ३६ ॥

स्वकर्म तत्कृतं रामः पित्रे भ्रातृभ्य एव च ।

वर्णयामास तत् श्रुत्वा जमदग्निरभाषत ॥ ३७ ॥

राम राम महाबाहो भवान् पापमकारषीत् ।

अवधीत् नरदेवं यत् सर्वदेवमयं वृथा ॥ ३८ ॥

वयं हि ब्राह्मणास्तात क्षमयार्हणतां गताः ।

यया लोकगुरुर्देवः पारमेष्ठ्यमगात् पदम् ॥ ३९ ॥

क्षमया रोचते लक्ष्मीः ब्राह्मी सौरी यथा प्रभा ।

क्षमिणामाशु भगवान् तुष्यते हरिरीश्वरः ॥ ४० ॥

राज्ञो मूर्धाभिषिक्तस्य वधो ब्रह्मवधाद् गुरुः ।

तीर्थसंसेवया चांहो जह्यङ्‌गाच्युतचेतनः ॥ ४१ ॥



परीक्षित्‌ ! विपक्षी वीरों के नाशक परशुरामजी ने बछड़े के साथ कामधेनु लौटा ली। वह बहुत ही दुखी हो रही थी। उन्होंने उसे अपने आश्रमपर लाकर पिताजीको सौंप दिया ॥ ३६ ॥ और माहिष्मतीमें सहस्रबाहुने तथा उन्होंने जो कुछ किया था, सब अपने पिताजी तथा भाइयोंको कह सुनाया। सब कुछ सुनकर जमदग्रि मुनिने कहा॥ ३७ ॥ हाय, हाय, परशुराम ! तुमने बड़ा पाप किया। राम , राम ! तुम बड़े वीर हो; परंतु सर्वदेवमय नरदेवका तुमने व्यर्थ ही वध किया ॥ ३८ ॥ बेटा ! हमलोग ब्राह्मण हैं। क्षमाके प्रभावसे ही हम संसारमें पूजनीय हुए हैं। और तो क्या, सबके दादा ब्रह्माजी भी क्षमाके बलसे ही ब्रह्मपदको प्राप्त हुए हैं ॥ ३९ ॥ ब्राह्मणोंकी शोभा क्षमाके द्वारा ही सूर्यकी प्रभाके समान चमक उठती है। सर्वशक्तिमान् भगवान्‌ श्रीहरि भी क्षमावानों पर ही शीघ्र प्रसन्न होते हैं ॥ ४० ॥ बेटा ! सार्वभौम राजाका वध ब्राह्मणकी हत्यासे भी बढक़र है। जाओ, भगवान्‌का स्मरण करते हुए तीर्थोंका सेवन करके अपने पापों को धो डालो॥ ४१ ॥



इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां

संहितायां नवमस्कन्धे पञ्चदशोऽध्यायः ॥ १५ ॥



हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥



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श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥



श्रीमद्भागवतमहापुराण

नवम स्कन्ध पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)



ऋचीक, जमदग्नि और परशुरामजी का चरित्र



तं आपतन्तं भृगुवर्यमोजसा

धनुर्धरं बाणपरश्वधायुधम् ।

ऐणेयचर्माम्बरमर्कधामभिः

युतं जटाभिर्ददृशे पुरीं विशन् ॥ २९ ॥

अचोदयद्धस्तिरथाश्वपत्तिभिः

गदासिबाणर्ष्टिशतघ्निशक्तिभिः ।

अक्षौहिणीः सप्तदशातिभीषणाः

ता राम एको भगवानसूदयत् ॥ ३० ॥

यतो यतोऽसौ प्रहरत्परश्वधो

मनोऽनिलौजाः परचक्रसूदनः ।

ततस्ततश्छिन्नभुजोरुकन्धरा

निपेतुरुर्व्यां हतसूतवाहनाः ॥ ३१ ॥

दृष्ट्वा स्वसैन्यं रुधिरौघकर्दमे

रणाजिरे रामकुठारसायकैः ।

विवृक्णचर्मध्वजचापविग्रहं

निपातितं हैहय आपतद् रुषा ॥ ३२ ॥

अथार्जुनः पञ्चशतेषु बाहुभिः

धनुःषु बाणान् युगपत् स सन्दधे ।

रामाय रामोऽस्त्रभृतां समग्रणीः

तान्येकधन्वेषुभिराच्छिनत् समम् ॥ ३३ ॥

पुनः स्वहस्तैरचलान्मृधेङ्‌घ्रिपान्

उत्क्षिप्य वेगाद् अभिधावतो युधि ।

भुजान् कुठारेण कठोरनेमिना

चिच्छेद रामः प्रसभं त्वहेरिव ॥ ३४ ॥

कृत्तबाहोः शिरस्तस्य गिरेः श्रृङमिवाहरत् ।

हते पितरि तत्पुत्रा अयुतं दुद्रुवुर्भयात् ॥ ३५ ॥


सहस्रबाहु अर्जुन अभी अपने नगर में प्रवेश कर ही रहा था कि उसने देखा परशुराम जी महाराज बड़े वेगसे उसी की ओर झपटे आ रहे हैं। उनकी बड़ी विलक्षण झाँकी थी। वे हाथ में धनुष-बाण और फरसा लिये हुए थे, शरीरपर काला मृगचर्म धारण किये हुए थे और उनकी जटाएँ सूर्यकी किरणोंके समान चमक रही थीं ॥ २९ ॥ उन्हें देखते ही उसने गदा, खड्ग, बाण, ऋष्टि, शतघ्री और शक्ति आदि आयुधों से सुसज्जित एवं हाथी, घोड़े, रथ तथा पदातियों से युक्त अत्यन्त भयङ्कर सत्रह अक्षौहिणी सेना भेजी। भगवान्‌ परशुरामने बात-की-बातमें अकेले ही उस सारी सेनाको नष्ट कर दिया ॥ ३० ॥ भगवान्‌ परशुरामजीकी गति मन और वायुके समान थी। बस, वे शत्रुकी सेना काटते ही जा रहे थे। जहाँ-जहाँ वे अपने फरसेका प्रहार करते, वहाँ-वहाँ सारथि और वाहनोंके साथ बड़े-बड़े वीरोंकी बाँहें, जाँघें और कंधे कट-कटकर पृथ्वीपर गिरते जाते थे ॥ ३१ ॥ हैहयाधिपति अर्जुनने देखा कि मेरी सेनाके सैनिक, उनके धनुष, ध्वजाएँ और ढाल भगवान्‌ परशुराम के फरसे और बाणोंसे कट-कटकर खूनसे लथपथ रणभूमिमें गिर गये हैं, तब उसे बड़ा क्रोध आया और वह स्वयं भिडऩे के लिये आ धमका ॥ ३२ ॥ उसने एक साथ ही अपनी हजार भुजाओंसे पाँच सौ धनुषोंपर बाण चढ़ाये और परशुरामजीपर छोड़े। परंतु परशुरामजी तो समस्त शस्त्रधारियोंके शिरोमणि ठहरे। उन्होंने अपने एक धनुषपर छोड़े हुए बाणोंसे ही एक साथ सबको काट डाला ॥ ३३ ॥ अब हैहयाधिपति अपने हाथोंसे पहाड़ और पेड़ उखाडक़र बड़े वेगसे युद्धभूमिमें परशुरामजीकी ओर झपटा। परंतु परशुरामजीने अपनी तीखी धारवाले फरसे से बड़ी फुर्तीके साथ उसकी साँपोंके समान भुजाओंको काट डाला ॥ ३४ ॥ जब उसकी बाँहें कट गयीं, तब उन्होंने पहाडक़ी चोटी की तरह उसका ऊँचा सिर धड़ से अलग कर दिया। पिता के मर जानेपर उसके दस हजार लडक़े डरकर भग गये ॥ ३५ ॥



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सोमवार, 30 दिसंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥



श्रीमद्भागवतमहापुराण

नवम स्कन्ध पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)



ऋचीक, जमदग्नि और परशुरामजी का चरित्र



स एकदा तु मृगयां विचरन् विजने वने ।

यदृच्छयाऽऽश्रमपदं जमदग्नेरुपाविशत् ॥ २३ ॥

तस्मै स नरदेवाय मुनिरर्हणमाहरत् ।

ससैन्यामात्यवाहाय हविष्मत्या तपोधनः ॥ २४ ॥

स वै रत्‍नं तु तद् दृष्ट्वा आत्मैश्वर्यातिशायनम् ।

तन्नाद्रियताग्निहोत्र्यां साभिलाषः स हैहयः ॥ २५ ॥

हविर्धानीं ऋषेर्दर्पान् नरान् हर्तुमचोदयत् ।

ते च माहिष्मतीं निन्युः सवत्सां क्रन्दतीं बलात् ॥ २६ ॥

अथ राजनि निर्याते राम आश्रम आगतः ।

श्रुत्वा तत् तस्य दौरात्म्यं चुक्रोधाहिरिवाहतः ॥ २७ ॥

घोरमादाय परशुं सतूणं चर्म कार्मुकम् ।

अन्वधावत दुर्धर्षो मृगेन्द्र इव यूथपम् ॥ २८ ॥


एक दिन सहस्रबाहु अर्जुन शिकार खेलने के लिये बड़े घोर जंगल में निकल गया था। दैववश वह जमदग्नि मुनि के आश्रमपर जा पहुँचा ॥ २३ ॥ परम तपस्वी जमदग्नि मुनिके आश्रममें कामधेनु रहती थी। उसके प्रताप से उन्होंने सेना, मन्त्री और वाहनोंके साथ हैहयाधिपति का खूब स्वागत- सत्कार किया ॥ २४ ॥ वीर हैहयाधिपति ने देखा कि जमदग्नि मुनि का ऐश्वर्य तो मुझसे भी बढ़ा-चढ़ा है। इसलिये उसने उनके स्वागत-सत्कारको कुछ भी आदर न देकर कामधेनुको ही ले लेना चाहा ॥ २५ ॥ उसने अभिमानवश जमदग्नि मुनिसे माँगा भी नहीं, अपने सेवकोंको आज्ञा दी कि कामधेनु को छीन ले चलो। उसकी आज्ञासे उसके सेवक बछड़ेके साथ बाँ-बाँडकराती हुई कामधेनु को बलपूर्वक माहिष्मतीपुरी ले गये ॥ २६ ॥ जब वे सब चले गये, तब परशुरामजी आश्रमपर आये और उसकी दुष्टताका वृत्तान्त सुनकर चोट खाये हुए साँपकी तरह क्रोधसे तिलमिला उठे ॥ २७ ॥ वे अपना भयङ्कर फरसा, तरकस, ढाल एवं धनुष लेकर बड़े वेगसे उसके पीछे दौड़ेजैसे कोई किसीसे न दबनेवाला सिंह हाथीपर टूट पड़े ॥ २८ ॥



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श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥



श्रीमद्भागवतमहापुराण

नवम स्कन्ध पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)



ऋचीक, जमदग्नि और परशुरामजी का चरित्र



श्रीराजोवाच ।

किं तदंहो भगवतो राजन्यैरजितात्मभिः ।

कृतं येन कुलं नष्टं क्षत्रियाणां अभीक्ष्णशः ॥ १६ ॥



श्रीशुक उवाच ।

हैहयानां अधिपतिः अर्जुनः क्षत्रियर्षभः ।

दत्तं नारायण अंशांशं आराध्य परिकर्मभिः ॥ १७ ॥

बाहून् दशशतं लेभे दुर्धर्षत्वमरातिषु ।

अव्याहतेन्द्रियौजः श्री तेजोवीर्ययशोबलम् ॥ १८ ॥

योगेश्वरत्वं ऐश्वर्यं गुणा यत्राणिमादयः ।

चचार अव्याहतगतिः लोकेषु पवनो यथा ॥ १९ ॥

स्त्रीरत्‍नैः आवृतः क्रीडन् रेवाम्भसि मदोत्कटः ।

वैजयन्तीं स्रजं बिभ्रद् रुरोध सरितं भुजैः ॥ २० ॥

विप्लावितं स्वशिबिरं प्रतिस्रोतःसरिज्जलैः ।

नामृष्यत् तस्य तद् वीर्यं वीरमानी दशाननः ॥ २१ ॥

गृहीतो लीलया स्त्रीणां समक्षं कृतकिल्बिषः ।

माहिष्मत्यां सन्निरुद्धो मुक्तो येन कपिर्यथा ॥ २२ ॥


राजा परीक्षित्‌ ने पूछाभगवन् ! अवश्य ही उस समय के क्षत्रिय विषयलोलुप हो गये थे; परंतु उन्होंने परशुरामजीका ऐसा कौन-सा अपराध कर दिया, जिसके कारण उन्होंने बार-बार क्षत्रियोंके वंशका संहार किया ? ॥ १६ ॥
श्रीशुकदेवजी कहने लगेपरीक्षित्‌ ! उन दिनों हैहयवंशका अधिपति था अर्जुन। वह एक श्रेष्ठ क्षत्रिय था। उसने अनेकों प्रकारकी सेवा-शुश्रूषा करके भगवान्‌ नारायणके अंशावतार दत्तात्रेयजीको प्रसन्न कर लिया और उनसे एक हजार भुजाएँ तथा कोई भी शत्रु युद्धमें पराजित न कर सकेयह वरदान प्राप्त कर लिया। साथ ही इन्द्रियोंका अबाध बल, अतुल सम्पत्ति, तेजस्विता, वीरता, कीर्ति और शारीरिक बल भी उसने उनकी कृपासे प्राप्त कर लिये थे ॥ १७-१८ ॥ वह योगेश्वर हो गया था। उसमें ऐसा ऐश्वर्य था कि वह सूक्ष्म-से-सूक्ष्म, स्थूल-से- स्थूल रूप धारण कर लेता। सभी सिद्धियाँ उसे प्राप्त थीं। वह संसारमें वायुकी तरह सब जगह बेरोक-टोक विचरा करता ॥ १९ ॥ एक बार गलेमें वैजयन्ती माला पहने सहस्रबाहु अर्जुन बहुत-सी सुन्दरी स्त्रियोंके साथ नर्मदा नदीमें जल-विहार कर रहा था। उस समय मदोन्मत्त सहस्रबाहुने अपनी बाँहोंसे नदीका प्रवाह रोक दिया ॥ २० ॥ दशमुख रावणका शिविर भी वहीं कहीं पासमें ही था। नदीकी धारा उलटी बहने लगी, जिससे उसका शिविर डूबने लगा। रावण अपनेको बहुत बड़ा वीर तो मानता ही था, इसलिये सहस्रार्जुनका यह पराक्रम उससे सहन नहीं हुआ ॥ २१ ॥ जब रावण सहस्रबाहु अर्जुनके पास जाकर बुरा-भला कहने लगा, तब उसने स्त्रियोंके सामने ही खेल-खेल में रावण को पकड़ लिया और अपनी राजधानी माहिष्मती में ले जाकर बंदर के समान कैद कर लिया। पीछे पुलस्त्यजी के कहने से सहस्रबाहु ने रावण को छोड़ दिया ॥ २२ ॥



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रविवार, 29 दिसंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥



श्रीमद्भागवतमहापुराण

नवम स्कन्ध पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)



ऋचीक, जमदग्नि और परशुरामजी का चरित्र



तस्य सत्यवतीं कन्यां ऋचीकोऽयाचत द्विजः ।

वरं विसदृशं मत्वा गाधिर्भार्गवमब्रवीत् ॥ ५ ॥

एकतः श्यामकर्णानां हयानां चन्द्रवर्चसाम् ।

सहस्रं दीयतां शुल्कं कन्यायाः कुशिका वयम् ॥ ६ ॥

इत्युक्तस्तन्मतं ज्ञात्वा गतः स वरुणान्तिकम् ।

आनीय दत्त्वा तान् अश्वान् उपयेमे वराननाम् ॥ ७ ॥

स ऋषिः प्रार्थितः पत्‍न्या श्वश्र्वा चापत्यकाम्यया ।

श्रपयित्वोभयैर्मन्त्रैः चरुं स्नातुं गतो मुनिः ॥ ८ ॥

तावत् सत्यवती मात्रा स्वचरुं याचिता सती ।

श्रेष्ठं मत्वा तयायच्छन् मात्रे मातुरदत् स्वयम् ॥ ९ ॥

तद् विज्ञाय मुनिः प्राह पत्‍नीं कष्टमकारषीः ।

घोरो दण्डधरः पुत्रो भ्राता ते ब्रह्मवित्तमः ॥ १० ॥

प्रसादितः सत्यवत्या मैवं भूरिति भार्गवः ।

अथ तर्हि भवेत् पौत्रो जमदग्निस्ततोऽभवत् ॥ ११ ॥

सा चाभूत् सुमहपुण्या कौशिकी लोकपावनी ।

रेणोः सुतां रेणुकां वै जमदग्निरुवाह याम् ॥ १२ ॥

तस्यां वै भार्गवऋषेः सुता वसुमदादयः ।

यवीयान्जज्ञ एतेषां राम इत्यभिविश्रुतः ॥ १३ ॥

यमाहुर्वासुदेवांशं हैहयानां कुलान्तकम् ।

त्रिःसप्तकृत्वो य इमां चक्रे निःक्षत्रियां महीम् ॥ १४ ॥

दुष्टं क्षत्रं भुवो भारं अब्रह्मण्यं अनीनशत् ।

रजस्तमोवृतमहन् फल्गुन्यपि कृतेंऽहसि ॥ १५ ॥


परीक्षित्‌ ! गाधि की कन्या का नाम था सत्यवती। ऋचीक ऋृषि ने गाधि से उनकी कन्या माँगी। गाधि ने यह समझकर कि ये कन्या के योग्य वर नहीं है, ऋचीक से कहा॥ ५ ॥ मुनिवर ! हमलोग कुशिक-वंशके हैं। हमारी कन्या मिलनी कठिन है। इसलिये आप एक हजार ऐसे घोड़े लाकर मुझे शुल्करूपमें दीजिये, जिनका सारा शरीर तो श्वेत हो, परंतु एक-एक कान श्याम वर्णका हो॥ ६ ॥ जब गाधिने यह बात कही, तब ऋचीक मुनि उनका आशय समझ गये और वरुणके पास जाकर वैसे ही घोड़े ले आये तथा उन्हें देकर सुन्दरी सत्यवतीसे विवाह कर लिया ॥ ७ ॥ एक बार महर्षि ऋचीकसे उनकी पत्नी और सास दोनोंने ही पुत्रप्राप्तिके लिये प्रार्थना की। महर्षि ऋचीकने उनकी प्रार्थना स्वीकार करके दोनोंके लिये अलग-अलग मन्त्रोंसे चरु पकाया और स्नान करनेके लिये चले गये ॥ ८ ॥ सत्यवतीकी माने यह समझकर कि ऋषिने अपनी पत्नीके लिये श्रेष्ठ चरु पकाया होगा, उससे वह चरु माँग लिया। इसपर सत्यवतीने अपना चरु तो मा को दे दिया और माका चरु वह स्वयं खा गयी ॥ ९ ॥ जब ऋचीक मुनिको इस बातका पता चला, तब उन्होंने अपनी पत्नी सत्यवतीसे कहा कि तुमने बड़ा अनर्थ कर डाला। अब तुम्हारा पुत्र तो लोगोंको दण्ड देनेवाला घोर प्रकृतिका होगा और तुम्हारा भाई होगा एक श्रेष्ठ ब्रह्मवेत्ता॥ १० ॥ सत्यवतीने ऋचीक मुनिको प्रसन्न किया और प्रार्थना की कि स्वामी ! ऐसा नहीं होना चाहिये।तब उन्होंने कहा—‘अच्छी बात है। पुत्रके बदले तुम्हारा पौत्र वैसा (घोर प्रकृतिका) होगा।समयपर सत्यवती के गर्भ से जमदग्नि का जन्म हुआ ॥ ११ ॥ सत्यवती समस्त लोकोंको पवित्र करनेवाली परम पुण्यमयी कौशिकी नदी बन गयी। रेणु ऋषिकी कन्या थी रेणुका। जमदग्रिने उसका पाणि- ग्रहण किया ॥ १२ ॥ रेणुका के गर्भ से जमदग्नि ऋषि के वसुमान् आदि कई पुत्र हुए। उनमें सबसे छोटे परशुरामजी थे। उनका यश सारे संसार में प्रसिद्ध है ॥ १३ ॥ कहते हैं कि हैहयवंश का अन्त करनेके लिये स्वयं भगवान्‌ ने ही परशुराम के रूप में अंशावतार ग्रहण किया था। उन्होंने इस पृथ्वी को इक्कीस बार क्षत्रियहीन कर दिया ॥ १४ ॥ यद्यपि क्षत्रियों ने उनका थोड़ा-सा ही अपराध किया थाफिर भी वे लोग बड़े दुष्ट, ब्राह्मणों के अभक्त, रजोगुणी और विशेष करके तमोगुणी हो रहे थे। यही कारण था कि वे पृथ्वी के भार हो गये थे और इसी के फलस्वरूप भगवान्‌ परशुराम ने उनका नाश करके पृथ्वी का भार उतार दिया  ॥ १५ ॥



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श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥



श्रीमद्भागवतमहापुराण

नवम स्कन्ध पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)



ऋचीक, जमदग्नि और परशुरामजी का चरित्र


श्रीशुक उवाच ।

ऐलस्य च उर्वशीगर्भात् षडासन्नात्मजा नृप ।

आयुः श्रुतायुः सत्यायू रयोऽथ विजयो जयः ॥ १ ॥

श्रुतायोर्वसुमान्पुत्रः सत्यायोश्च श्रुतञ्जयः ।

रयस्य सुत एकश्च जयस्य तनयोऽमितः ॥ २ ॥

भीमस्तु विजयस्याथ काञ्चनो होत्रकस्ततः ।

तस्य जह्नुः सुतो गंगां गण्डूषीकृत्य योऽपिबत् ।

जह्नोस्तु पूरुस्तस्याथ बलाकश्चात्मजोऽजकः ॥ ३ ॥

ततः कुशः कुशस्यापि कुशाम्बुस्तनयो वसुः ।

कुशनाभश्च चत्वारो गाधिरासीत् कुशाम्बुजः ॥ ४ ॥


श्रीशुकदेव जी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! उर्वशी के गर्भ से पुरूरवा के छ: पुत्र हुएआयु, श्रुतायु, सत्यायु, रय, विजय और जय ॥ १ ॥ श्रुतायु का पुत्र था वसुमान्, सत्यायु का श्रुतञ्जय, रयका एक और जयका अमित ॥ २ ॥ विजयका भीम, भीमका काञ्चन, काञ्चनका होत्र और होत्रका पुत्र था जह्नु। ये जह्नु वही थे, जो गङ्गाजी को अपनी अञ्जलि में लेकर पी गये थे। जह्नु का पुत्र था पूरु, पूरु का बलाक और बलाक का अजक ॥ ३ ॥ अजक का कुश था। कुश के चार पुत्र थेकुशाम्बु, तनय, वसु और कुशनाभ। इनमें से कुशाम्बु के पुत्र गाधि हुए ॥ ४ ॥



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शनिवार, 28 दिसंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥



श्रीमद्भागवतमहापुराण

नवम स्कन्ध चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)



चन्द्रवंश का वर्णन


अन्तर्वत्‍नीमुपालक्ष्य देवीं स प्रययौ पुरीम् ।

पुनस्तत्र गतोऽब्दान्ते उर्वशीं वीरमातरम् ॥ ४० ॥

उपलभ्य मुदा युक्तः समुवास तया निशाम् ।

अथैनमुर्वशी प्राह कृपणं विरहातुरम् ॥ ४१ ॥

गन्धर्वान् उपधावेमान् तुभ्यं दास्यन्ति मामिति ।

तस्य संस्तुवतस्तुष्टा अग्निस्थालीं ददुर्नृप ।

उर्वशीं मन्यमानस्तां सोऽबुध्यत चरन् वने ॥ ४२ ॥

स्थालीं न्यस्य वने गत्वा गृहानाध्यायतो निशि ।

त्रेतायां सम्प्रवृत्तायां मनसि त्रय्यवर्तत ॥ ४३ ॥

स्थालीस्थानं गतोऽश्वत्थं शमीगर्भं विलक्ष्य सः ।

तेन द्वे अरणी कृत्वा उर्वशीलोककाम्यया ॥ ४४ ॥

उर्वशीं मन्त्रतो ध्यायन् अधरारणिमुत्तराम् ।

आत्मानं उभयोर्मध्ये यत्तत् प्रजननं प्रभुः ॥ ४५ ॥

तस्य निर्मन्थनात् जातो जातवेदा विभावसुः ।

त्रय्या स विद्यया राज्ञा पुत्रत्वे कल्पितस्त्रिवृत् ॥ ४६ ॥

तेनायजत यज्ञेशं भगवन्तं अधोक्षजम् ।

उर्वशीलोकमन्विच्छन् सर्वदेवमयं हरिम् ॥ ४७ ॥

एक एव पुरा वेदः प्रणवः सर्ववाङ्‌मयः ।

देवो नारायणो नान्य एकोऽग्निर्वर्ण एव च ॥ ४८ ॥

पुरूरवस एवासीत् त्वयी त्रेतामुखे नृप ।

अग्निना प्रजया राजा लोकं गान्धर्वमेयिवान् ॥ ४९ ॥


राजा पुरूरवाने देखा कि उर्वशी गर्भवती है, इसलिये वे अपनी राजधानीमें लौट आये। एक वर्षके बाद फिर वहाँ गये। तबतक उर्वशी एक वीर पुत्रकी माता हो चुकी थी ॥ ४० ॥ उर्वशीके मिलनेसे पुरूरवाको बड़ा सुख मिला और वे एक रात उसीके साथ रहे। प्रात:काल जब वे विदा होने लगे, तब विरहके दु:खसे वे अत्यन्त दीन हो गये। उर्वशीने उनसे कहा॥ ४१ ॥ तुम इन गन्धर्वोंकी स्तुति करो, ये चाहें तो तुम्हें मुझे दे सकते हैं। तब राजा पुरूरवाने गन्धर्वोंकी स्तुति की। परीक्षित्‌ ! राजा पुरूरवाकी स्तुतिसे प्रसन्न होकर गन्धर्वोंने उन्हें एक अग्निस्थाली (अग्निस्थापन करनेका पात्र) दी। राजाने समझा यही उर्वशी है, इसलिये उसको हृदयसे लगाकर वे एक वनसे दूसरे वनमें घूमते रहे ॥ ४२ ॥ जब उन्हें होश हुआ, तब वे स्थालीको वनमें छोडक़र अपने महलमें लौट आये एवं रात के समय उर्वशी का ध्यान करने रहे। इस प्रकार जब त्रेतायुगका प्रारम्भ हुआ, तब उनके हृदयमें तीनों वेद प्रकट हुए ॥ ४३ ॥ फिर वे उस स्थानपर गये, जहाँ उन्होंने वह अग्निस्थाली छोड़ी थी। अब उस स्थानपर शमीवृक्षके गर्भमें एक पीपलका वृक्ष उग आया था, उसे देखकर उन्होंने उससे दो अरणियाँ (मन्थनकाष्ठ) बनायीं। फिर उन्होंने उर्वशीलोककी कामनासे नीचेकी अरणिको उर्वशी, ऊपरकी अरणिको पुरूरवा और बीचके काष्ठको पुत्ररूपसे चिन्तन करते हुए अग्नि प्रज्वलित करनेवाले मन्त्रोंसे मन्थन किया ॥ ४४-४५ ॥ उनके मन्थनसे जातवेदानामका अग्नि प्रकट हुआ। राजा पुरूरवाने अग्निदेवता को त्रयीविद्याके द्वारा आहवनीय, गाहर्पत्य और दक्षिणाग्निइन तीन भागोंमें विभक्त करके पुत्ररूपसे स्वीकार कर लिया ॥ ४६ ॥ फिर उर्वशीलोककी इच्छासे पुरूरवाने उन तीनों अग्नियोंद्वारा सर्वदेवस्वरूप इन्द्रियातीत यज्ञपति भगवान्‌ श्रीहरिका यजन किया ॥ ४७ ॥
परीक्षित्‌ ! त्रेताके पूर्व सत्ययुगमें एकमात्र प्रणव (ॐ कार) ही वेद था। सारे वेद-शास्त्र उसीके अन्तर्भूत थे। देवता थे एकमात्र नारायण; और कोई न था। अग्नि भी तीन नहीं, केवल एक था और वर्ण भी केवल एक हंसही था ॥ ४८ ॥ परीक्षित्‌ ! त्रेताके प्रारम्भमें पुरूरवासे ही वेदत्रयी और अग्नित्रयी का आविर्भाव हुआ। राजा पुरूरवाने अग्नि को सन्तानरूपसे स्वीकार करके गन्धर्वलोक की प्राप्ति की ॥ ४९ ॥



इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां

संहितायां नवमस्कन्धे चतुर्दशोऽध्यायः ॥ १४ ॥



हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥



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श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥



श्रीमद्भागवतमहापुराण

नवम स्कन्ध चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)



चन्द्रवंश का वर्णन


तच्चित्तो विह्वलः शोचन् बभ्रामोन्मत्तवन् महीम् ॥ ३२ ॥

स तां वीक्ष्य कुरुक्षेत्रे सरस्वत्यां च तत्सखीः ।

पञ्च प्रहृष्टवदनाः प्राह सूक्तं पुरूरवाः ॥ ३३ ॥

अहो जाये तिष्ठ तिष्ठ घोरे न त्यक्तुमर्हसि ।

मां त्वमद्याप्यनिर्वृत्य वचांसि कृणवावहै ॥ ३४ ॥

सुदेहोऽयं पतत्यत्र देवि दूरं हृतस्त्वया ।

खादन्त्येनं वृका गृध्राः त्वत्प्रसादस्य नास्पदम् ॥ ३५ ॥



उर्वश्युवाच ।

मा मृथाः पुरुषोऽसि त्वं मा स्म त्वाद्युर्वृका इमे ।

क्वापि सख्यं न वै स्त्रीणां वृकाणां हृदयं यथा ॥ ३६ ॥

स्त्रियो ह्यकरुणाः क्रूरा दुर्मर्षाः प्रियसाहसाः ।

घ्नन्त्यल्पार्थेऽपि विश्रब्धं पतिं भ्रातरमप्युत ॥ ३७ ॥

विधायालीकविश्रम्भं अज्ञेषु त्यक्तसौहृदाः ।

नवं नवमभीप्सन्त्यः पुंश्चल्यः स्वैरवृत्तयः ॥ ३८ ॥

संवत्सरान्ते हि भवान् एकरात्रं मयेश्वरः ।

वस्यत्यपत्यानि च ते भविष्यन्त्यपराणि भोः ॥ ३९ ॥


परीक्षित्‌ ! राजा पुरूरवा ने जब अपने शयनागार में अपनी प्रियतमा उर्वशी को नहीं देखा तो वे अनमने हो गये। उनका चित्त उर्वशीमें ही बसा हुआ था। वे उसके लिये शोकसे विह्वल हो गये और उन्मत्तकी भाँति पृथ्वी में इधर-उधर भटकने लगे ॥ ३२ ॥ एक दिन कुरुक्षेत्र में सरस्वती नदीके तटपर उन्होंने उर्वशी और उसकी पाँच प्रसन्नमुखी सखियोंको देखा और बड़ी मीठी वाणीसे कहा॥ ३३ ॥ प्रिये ! तनिक ठहर जाओ। एक बार मेरी बात मान लो। निष्ठुरे ! अब आज तो मुझे सुखी किये बिना मत जाओ। क्षणभर ठहरो; आओ हम दोनों कुछ बातें तो कर लें ॥ ३४ ॥ देवि ! अब इस शरीरपर तुम्हारा कृपा-प्रसाद नहीं रहा, इसीसे तुमने इसे दूर फेंक दिया है। अत: मेरा यह सुन्दर शरीर अभी ढेर हुआ जाता है और तुम्हारे देखते-देखते इसे भेडिय़े और गीध खा जायँगे॥ ३५ ॥
उर्वशीने कहाराजन् ! तुम पुरुष हो। इस प्रकार मत मरो। देखो, सचमुच ये भेडिय़े तुम्हें खा न जायँ ! स्त्रियोंकी किसीके साथ मित्रता नहीं हुआ करती। स्त्रियोंका हृदय और भेडिय़ोंका हृदय बिलकुल एक-जैसा होता है ॥ ३६ ॥ स्त्रियाँ निर्दय होती हैं। क्रूरता तो उनमें स्वाभाविक ही रहती है। तनिक-सी बातमें चिढ़ जाती हैं और अपने सुखके लिये बड़े-बड़े साहसके काम कर बैठती हैं, थोड़े-से स्वार्थके लिये विश्वास दिलाकर अपने पति और भाईतकको मार डालती हैं ॥ ३७ ॥ इनके हृदयमें सौहार्द तो है ही नहीं। भोले-भाले लोगोंको झूठ-मूठका विश्वास दिलाकर फाँस लेती हैं और नये-नये पुरुषकी चाहसे कुलटा और स्वच्छन्दचारिणी बन जाती हैं ॥ ३८ ॥ तो फिर तुम धीरज धरो। तुम राजराजेश्वर हो। घबराओ मत। प्रति एक वर्षके बाद एक रात तुम मेरे साथ रहोगे। तब तुम्हारे और भी सन्तानें होंगी ॥ ३९ ॥



शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




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