॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
नवम स्कन्ध –पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)
ऋचीक,
जमदग्नि और परशुरामजी का चरित्र
अग्निहोत्रीं उपावर्त्य सवत्सां परवीरहा ।
समुपेत्याश्रमं पित्रे परिक्लिष्टां समर्पयत् ॥ ३६ ॥
स्वकर्म तत्कृतं रामः पित्रे भ्रातृभ्य एव च ।
वर्णयामास तत् श्रुत्वा जमदग्निरभाषत ॥ ३७ ॥
राम राम महाबाहो भवान् पापमकारषीत् ।
अवधीत् नरदेवं यत् सर्वदेवमयं वृथा ॥ ३८ ॥
वयं हि ब्राह्मणास्तात क्षमयार्हणतां गताः ।
यया लोकगुरुर्देवः पारमेष्ठ्यमगात् पदम् ॥ ३९ ॥
क्षमया रोचते लक्ष्मीः ब्राह्मी सौरी यथा प्रभा ।
क्षमिणामाशु भगवान् तुष्यते हरिरीश्वरः ॥ ४० ॥
राज्ञो मूर्धाभिषिक्तस्य वधो ब्रह्मवधाद् गुरुः ।
तीर्थसंसेवया चांहो जह्यङ्गाच्युतचेतनः ॥ ४१ ॥
परीक्षित् ! विपक्षी वीरों के नाशक परशुरामजी ने बछड़े के साथ
कामधेनु लौटा ली। वह बहुत ही दुखी हो रही थी। उन्होंने उसे अपने आश्रमपर लाकर
पिताजीको सौंप दिया ॥ ३६ ॥ और माहिष्मतीमें सहस्रबाहुने तथा उन्होंने जो कुछ किया
था, सब अपने पिताजी तथा भाइयोंको कह सुनाया। सब कुछ
सुनकर जमदग्रि मुनिने कहा— ॥ ३७ ॥ ‘हाय,
हाय, परशुराम ! तुमने बड़ा पाप किया। राम ,
राम ! तुम बड़े वीर हो; परंतु सर्वदेवमय
नरदेवका तुमने व्यर्थ ही वध किया ॥ ३८ ॥ बेटा ! हमलोग ब्राह्मण हैं। क्षमाके
प्रभावसे ही हम संसारमें पूजनीय हुए हैं। और तो क्या, सबके
दादा ब्रह्माजी भी क्षमाके बलसे ही ब्रह्मपदको प्राप्त हुए हैं ॥ ३९ ॥
ब्राह्मणोंकी शोभा क्षमाके द्वारा ही सूर्यकी प्रभाके समान चमक उठती है।
सर्वशक्तिमान् भगवान् श्रीहरि भी क्षमावानों पर ही शीघ्र प्रसन्न होते हैं ॥ ४० ॥
बेटा ! सार्वभौम राजाका वध ब्राह्मणकी हत्यासे भी बढक़र है। जाओ, भगवान्का स्मरण करते हुए तीर्थोंका सेवन करके अपने पापों को धो डालो’
॥ ४१ ॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायां नवमस्कन्धे पञ्चदशोऽध्यायः ॥ १५ ॥
हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से