|| ॐ श्री परमात्मने नम: |
‘असति नामवैभवकथा’‒(२) जो भगवन्नाम नहीं लेता, भगवान् की महिमा नहीं जानता, भगवान् की निन्दा करता है, जिसकी नाममें रुचि नहीं है, उसको जबरदस्ती भगवान्के नामकी महिमा मत सुनाओ । वह सुननेसे तिरस्कार करेगा तो नाम महाराज का अपमान होगा । वह एक अपराध बन जायगा । इस वास्ते उसके सामने भगवान् के नामकी महिमा मत कहो । साधारण कहावत आती है -
हरि हीराँ री गाठडी, गाहक बिना मत खोल ।
आसी हीराँ पारखी, बिकसी मँहगे मोल ॥
भगवान् के ग्राहक के बिना नाम-हीरा सामने क्यों रखे भाई ? वह तो आया है दो पैसों की मूँगफली लेने के लिये और आप सामने रखो तीन लाख रत्न-दाना ? क्या करेगा वह रतन का ? उसके सामने भगवान् का नाम क्यों रखो भाई ? ऐसे कई सज्जन होते हैं जो नामकी महिमा सुन नहीं सकते । उनके भीतर अरुचि पैदा हो जाती है ।
अन्नसे पले हैं, इतने बड़े हुए; परन्तु भीतर पित्त का जोर होता है तो मिश्री खराब लगती है, अन्न की गन्ध आती है । वह भाता नहीं, सुहाता नहीं । अगर अन्न अच्छा नहीं है तो इतनी बड़ी अवस्था कैसे हो गयी ? अन्न खाकर तो पले हो,फिर भी अन्न अच्छा नहीं लगता ? कारण क्या है ? पेट खराब है । पित्तका जोर है ।
तुलसी पूरब पाप ते, हरिचर्चा न सुहात ।
जैसे जुरके जोरसे, भोजनकी रुचि जात ॥
ज्वर में अन्न अच्छा नहीं लगता । ऐसे ही पापी को बुखार है, इस वास्ते उसे नाम अच्छा नहीं लगता । तो उसको नाम मत सुनाओ । मिश्री कड़वी लगती है सज्जनो ! और मिश्री कड़वी है तो क्या कुटक, चिरायता मीठा होगा ? परन्तु पित्तके जोरसे जीभ खराब है । पित्तकी परवाह नहीं मिश्री खाना शुरू कर दो । खाते-खाते पित्त शान्त हो जायगा और मिश्री मीठी लगने लग जायगी ।
ऐसे किसीका विचार हो, रुचि न हो तो नाम-जप करना शुरू कर दे इस भाव से कि यह भगवान् का नाम है । हमें अच्छा नहीं लगता है, हमारी अरुचि है तो हमारी जीभ खराब है । यह नाम तो अच्छा ही है‒ऐसा भाव रखकर नाम लेना शुरू कर दें और भगवान् से प्रार्थना करें कि हे नाथ ! आपके चरणोंमें रुचि हो जाय, आपका नाम अच्छा लगे । ऐसे भगवान्से कहता रहे, प्रार्थना करता रहे तो ठीक हो जायगा ।
नारायण ! नारायण !!
(शेष आगामी पोस्ट में)
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “भगवन्नाम” पुस्तकसे