श्रीगर्ग-संहिता
( श्रीवृन्दावनखण्ड
)
अठारहवाँ
अध्याय (पोस्ट 01)
श्रीकृष्ण के द्वारा गोपदेवीरूप से श्रीराधा के प्रेम की परीक्षा तथा
श्रीराधा को श्रीकृष्णका दर्शन
श्रीनारद
उवाच -
अथ रात्र्यां व्यतीतायां मायायोषिद्वपुर्हरिः ।
राधादुःखप्रशान्त्यर्थं वृषभानोर्गृहं ययौ ॥ १ ॥
राधा तमागतं वीक्ष्य समुत्थायातिहर्षिता ।
दत्तासुना विधानेन पूजयामास मैथिल ॥ २ ॥
श्रीराधोवाच -
त्वया विनाऽहं निशि दुःखिताऽऽसं
त्वय्यागतायां सखि लब्धवस्तुवत् ।
पूर्वं ह्यपथ्यस्य सुखं यथा ततो
दुःखं तथा भामिनि मत्प्रसंगतः ॥ ३ ॥
श्रीनारद उवाच -
इति श्रुत्वाऽथ तद्वाक्यं विमना गोपदेवता ।
न किंचिदूचे श्रीराधां दुःखितेव व्यवस्थिता ॥ ४ ॥
विज्ञाय खेदसंपन्नां राधिकां गोपदेवताम् ।
सखीभिः संविचार्याथ जगाद स्नेहतत्परा ॥ ५ ॥
राधोवाच -
विमनास्त्वं कथं भद्रे वद मां गोपदेवते ।
मात्रा भर्त्रा ननांद्रा वा श्वश्र्वा क्रोधेन भर्त्सिता ॥ ६ ॥
सपत्नीकृतदोषेण स्वभर्तुर्विरहेण वा ।
अन्यत्र लग्नचित्तेन विमनाः किं मनोहरे ॥ ७ ॥
मार्गखेदेन वा कच्चिद्विह्वलाऽभूद्रुजाऽथवा ।
शीघ्रं वद महाभागे स्वस्य दुःखस्य कारणम् ॥ ८ ॥
कृष्णभक्तमृते विप्रं येन केनापि कुत्सितम् ।
कथितं तेऽथ रंभोरु तच्चिकित्सां करोम्यहम् ॥ ९ ॥
गजाश्वादीनि रत्नानि वस्त्राणि च धनानि च ।
मन्दिराणि विचित्राणि गृहाण त्वं यदीच्छसि ॥ १० ॥
धनं दत्त्वा तनुं रक्षेत्तनुं दत्त्वा त्रपां व्यधात् ।
धनं तनुं त्रपां दद्यान्मित्रकार्यार्थमेव हि ।
धनं दत्त्वा च सततं रक्षेत्प्राणान्निरन्तरम् ॥ ११ ॥
यो मित्रतां निष्कपटं करोति
निष्कारणमं धन्यतमं स एव ।
विधाय मैत्रीं कपटं विदध्या-
त्तं लंपटं हेतुपटं नटं धिक् ॥ १२ ॥
तस्याः प्रेमवचः श्रुत्वा भगवान् गोपदेवता ।
प्रहसन्नाह राजेन्द्र श्रीराधां कीर्तिनन्दिनीम् ॥ १३ ॥
श्रीनारदजी कहते हैं-
मिथिलेश्वर ! तदनन्तर रात व्यतीत होनेपर मायासे नारीका रूप धारण करनेवाले श्रीहरि श्रीराधाका
दुःख शान्त करनेके लिये वृषभानु-भवनमें गये। उन्हें आया देखकर श्रीराधा उठकर बड़े हर्षके
साथ भीतर लिवा ले गयीं और आसन देकर विधि विधानके साथ उनका पूजन किया ॥ १-२ ॥
श्रीराधा बोलीं- सखी!
तुम्हारे बिना मैं रातभर बहुत दुःखी रही और तुम्हारे आ जानेसे मुझे इतनी प्रसन्नता
हुई है, मानो कोई खोयी हुई वस्तु मिल गयी हो । जैसे कुपथ्य- सेवनसे पहले तो सुख मालूम
होता है, किंतु पीछे दुःख भोगना पड़ता है, इसी तरह सत्सङ्गसे भी पहले सुख होता है और
पीछे वियोगका दुःख उठाना पड़ता है ॥ ३ ॥
श्रीनारदजी कहते हैं— राजन् ! श्रीराधाकी यह बात सुनकर गोपदेवी अनमनी हो गयीं। वे श्रीराधासे कुछ भी नहीं बोलीं । किसी दुःखिनीकी भाँति चुपचाप बैठी रहीं । गोपदेवीको खिन्न जानकर श्रीराधिकाने सखियोंके साथ विचार करके, स्नेहतत्पर हो, इस प्रकार कहा ।। ४-५ ॥
श्रीराधा बोलीं- गोपदेवि
! तुम अनमनी क्यों हो गयीं ? कल्याणि ! मुझे इसका कारण बताओ। माता, पति, ननद अथवा सासने
कुपित होकर तुम्हें फटकारा तो नहीं है ? मनोहरे ! किसी सौतके दोषसे या अपने पतिके वियोगसे
अथवा अन्यत्र चित्त लग जानेसे तो तुम्हारा मन खिन्न नहीं हुआ है ? क्या कारण है ? महाभागे
! रास्ता चलनेकी थकावटसे या शरीरमें कोई रोग हो जानेसे तो तुम्हें खेद नहीं हुआ है
? अपने दुःखका कारण शीघ्र बताओ । रम्भोरु ! किसी कृष्ण- भक्त या ब्राह्मणको छोड़कर
दूसरे जिस किसीने भी तुमसे कोई कुत्सित बात कह दी हो तो मैं उसकी चिकित्सा करूँगी
(उसे दण्ड दूँगी) । यदि तुम्हारी इच्छा हो तो हाथी, घोड़े आदि वाहन, नाना प्रकारके
रत्न, वस्त्र, धन और विचित्र भवन मुझसे ग्रहण करो ।
धन देकर शरीरकी रक्षा
करे, शरीरका भी उत्सर्ग करके लाजकी रक्षा करे तथा मित्रके कार्यकी सिद्धिके लिये तन,
धन और लज्जाको भी अर्पित कर दे। धन देकर निरन्तर प्राणोंकी रक्षा करे। जो बिना किसी
कारण या कामनाके निश्छल भावसे मित्रताका निर्वाह करता है, वही मनुष्य परम धन्य है ।
जो मैत्री स्थापित करके कपट करता है, उस स्वार्थ-साधनमें पटु लम्पट नटको धिक्कार है।
राजेन्द्र ! उनका यह प्रेमपूर्ण वचन सुनकर गोपदेवीके रूपमें आये हुए भगवान् उन कीर्तिनन्दिनी
श्रीराधासे हँसते हुए बोले ।। ६–१३ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से