सोमवार, 4 दिसंबर 2017

भजन में दिखावा..(01)


|| ॐ श्री परमात्मने नम: ||
भजन में दिखावा..(01)
भगवान्‌ का नाम प्रेमपूर्वक लेता रहे, नेत्रोंसे जल झरता रहे, हृदय में स्नेह उमड़ता रहे, रोमांच होता रहे तो देखो, उनमें कितनी विलक्षणता आ जाती है, पर वही दूसरों को दिखाने के लिये, दूसरों को सुनाने के लिये करेंगे तो उसका मूल्य घट जायगा । यह चीज औरों को दिखाने की नहीं है । धन तिजोरी में रखने का होता है । किसी ने एक सेठ से पूछा‒‘तुम घरमें रहते हो या दूकान में ? कहाँ सोते हो ? ’ तो सेठने कहा‒ ‘हम हाट में सो वें, बाट में सोवें, घर में सोवें, सोवें और न भी सोवें ।’
अगर हम कहें कि दूकान में सोते हैं तो घर में चोरी कर लेगा ! घर में सोने की कहें तो दूकान में चोरी कर लेगा । अर्थ यह हुआ कि तुम चोरी करने मत आना । लौकिक धनके लिये इतनी सावधानी है कि साफ नहीं कह सकते हो कि कहाँ सोते हैं ? और नाम के लिये इतनी उदारता कि लोगों को दिखावें ! राम, राम, राम ! कितनी बेसमझी है ! यह क्या बात है ? नाम को धन नहीं समझा है । इसको धन समझते तो गुप्त रखते ।
एक राजा भगवान्‌के बड़े भक्त थे, वे गुप्त रीति से भगवान्‌ का भजन करते थे । उनकी रानी भी बड़ी भक्त थी । बचपन से ही वह भजन में लगी हुई थी । इस राजा के यहाँ ब्याहकर आयी तो यहाँ भी ठाकुरजी का खूब उत्सव मनाती,ब्राह्मणों की सेवा, दीन-दुःखियों की सेवा करती; भजन-ध्यानमें, उत्सवमें लगी रहती । राजा साहब उसे मना नहीं करते । वह रानी कभी-कभी कहती कि ‘महाराज ! आप भी कभी-कभी राम-राम‒ऐसे भगवान्‌ का नाम तो लिया करो ।’ वे हँस दिया करते । रानी के मनमें इस बात का बड़ा दुःख रहता कि क्या करें, और सब बड़ा अच्छा है । मेरे को सत्संग, भजन, ध्यान करते हुए मना नहीं करते; परन्तु राजा साहब स्वयं भजन नहीं करते ।
ऐसे होते-होते एक बार रानीने देखा कि राजा साहब गहरी नींद में सोये हैं । करवट बदली तो नींद में ही ‘राम’ नाम कह दिया । अब सुबह होते ही रानी ने उत्सव मनाया । बहुत ब्राह्मणों को निमन्त्रण दिया; बच्चों को, कन्याओं को भोजन कराया, उत्सव मनाया । राजासाहब ने पूछा‒‘आज उत्सव किस का मना रही हो ?आज तो ठाकुरजीका भी कोई दिन विशेष नहीं है ।’ रानी ने कहा‒‘आज हमारे बहुत ही खुशी की बात है ।’ क्या खुशीकी बात है ? ‘महाराज ! बरसोंसे मेरे मन में था कि आप भगवान्‌ का नाम उच्चारण करें । रात में आपके मुख से नींद में भगवान्‌ का नाम निकला ।’ निकल गया ? ‘हाँ’ इतना कहते ही राजा के प्राण निकल गये । ‘अरे मैंने उमर भर जिसे छिपा कर रखा था, आज निकल गया तो अब क्या जीना ?’
राम ! राम !! राम !!!
(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “मानस में नाम-वन्दना” पुस्तकसे


भगवान्‌ विष्णु .....(पोस्ट.०२)




।। जय श्रीहरिः ।।
भगवान्‌ विष्णु .....(पोस्ट.०२)

वे परमात्मा स्वयं विभाग-रहित होने पर भी अलग-अलग प्राणियों में विभक्त की तरह प्रतीत होते हैं । वे सम्पूर्ण जगत्‌को प्रकाशित करते हैं, पर उनको कोई प्रकाशित नहीं कर सकता । वे ज्ञानस्वरूप, प्रकाशस्वरूप परमात्मा सब के हृदय में नित्य-निरन्तर विद्यमान हैं ।
ऐसे वे जानने योग्य एक परमात्मा ही रजोगुण की प्रधानता स्वीकार करके ब्रह्मारूप से सबको उत्पन्न करते हैं, सत्त्वगुण की प्रधानता स्वीकार करके विष्णुरूप से सब का भरण-पोषण करते हैं और तमोगुण की प्रधानता स्वीकार करके शिवरूप से सब का संहार करते हैं‒
‘भूतभर्तृ च तज्ज्ञेयं ग्रसिष्णु प्रभविष्णु च’ (गीता १३ । १६) [†] ।
ऐसा करनेपर भी वे सम्पूर्ण गुणोंसे रहित और निर्लिप्त रहते हैं । वे परब्रह्म परमात्मा ही सगुणरूप में ‘महाविष्णु’ नाम से कहे जाते हैं । अनन्त ब्रह्माण्डों की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय करने वाले ब्रह्मा, विष्णु और महेश अनन्त हैं, पर महाविष्णु एक ही है । उस महाविष्णु से ही अलग-अलग ब्रह्माण्डों के अलग-अलग ब्रह्मा, विष्णु और महेश प्रकट होते हैं‒
‘संभु बिरंचि बिष्नु भगवाना ।
उपजहिं जासु अंस तें नाना ॥‘
.....................(मानस १ । १४४ । ३)
--------------------------------
[†] ‘सृष्टिस्थित्यन्तकरणाद् ब्रह्माविष्णुशिवात्मक:| ससंज्ञां याति भगवानेक एव जनार्दन:||’...................(पद्मपुराण सृष्टि ० २.११४)
.
....अर्थात् एक ही भगवान् जनार्दन सृष्टि, पालन और संहार करने के कारण ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव का नाम धारण करते हैं |

नारायण ! नारायण !! नारायण !!!

(शेष आगामी पोस्ट में)
‒---- गीता प्रेस,गोरखपुर से प्रकाशित ‘कल्याण-पथ’ पुस्तक से


रविवार, 3 दिसंबर 2017

भगवान्‌ विष्णु .....(पोस्ट.०१)


।। जय श्रीहरिः ।।
भगवान्‌ विष्णु .....(पोस्ट.०१)
परब्रह्म परमात्मा एक ही हैं । उनसे बढ़कर दूसरा कोई व्यापक, निर्विकार, सदा रहनेवाला तत्त्व नहीं है । गीतामें उस तत्त्वका ‘ज्ञेय’ नामसे वर्णन किया गया है (१३ । १२-१७) । जिसको जान सकते हैं, जो जानने योग्य है तथा जिसको अवश्य जानना चाहिये, उसको ‘ज्ञेय’ कहते हैं । उसको जान लेने पर मनुष्य ज्ञातज्ञातव्य होकर सदा के लिये जन्म-मरणसे रहित हो जाता है । उस अनादि और परब्रह्म परमात्मतत्त्वको सत् भी नहीं कह सकते और असत् भी नहीं कह सकते अर्थात् उसमें सत्-असत् शब्दों की पहुँच नहीं होती; क्योंकि वह शब्दातीत है ।
जैसे स्याही में सब जगह सब तरह की लिपियाँ विद्यमान रहती हैं और सोने में सब जगह सब तरह के गहने, मूर्तियाँ और उनके अवयव विद्यमान रहते हैं, ऐसे ही उस परमात्मतत्त्वमें सब जगह अनन्त वस्तुएँ, व्यक्ति और उनके अवयव विद्यमान रहते हैं । इसलिये वे सम्पूर्ण ब्रह्माण्डोंको अपने एक अंशसे व्याप्त करके स्थित हैं‒‘विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत्’ (गीता १० । ४२) । वे परमात्मा सम्पूर्ण इन्द्रियोंसे रहित होनेपर भी इन्द्रियोंके विषयोंको ग्रहण करते हैं, आसक्तिरहित होने पर भी सम्पूर्ण संसारका भरण-पोषण करते हैं और निर्गुण होनेपर भी गुणोंके भोक्ता बनते हैं । वे सम्पूर्ण प्राणियों के बाहर-भीतर परिपूर्ण हैं और उन प्राणियों के रूप में भी वे ही हैं‒‘वासुदेवः सर्वम्’ (गीता ७ । १९) । देश, काल और वस्तु‒तीनों ही दृष्टियों से वे परमात्मा दूर-से-दूर भी हैं और नजदीक-से-नजदीक भी हैं ।[*] अत्यन्त सूक्ष्म होने से वे इन्द्रियों और अन्तःकरण की पकड़ में नहीं आते ।
-------------------------------------
[*] दूर से दूर देश में भी वे परमात्मा हैं और नजदीक-से-नजदीक देश में भी वे परमात्मा हैं | सबसे पहले भी वे परमात्मा थे, सबके बाद भी वे परमात्मा रहेंगे और अब वस्तुओं के रूप में भी वे परमात्मा हैं |
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
(शेष आगामी पोस्ट में)
‒---- गीता प्रेस,गोरखपुर से प्रकाशित ‘कल्याण-पथ’ पुस्तक से


पाप का बाप..(02)


| ॐ श्री परमात्मने नम: ||
पाप का बाप..(02)
“पर उपदेस कुसल बहुतेरे ।
जे आचरहिं ते नर न घनेरे ॥“
..………..(मानस, लंकाकाण्ड, दोहा ७८ । २)
दूसरों को उपदेश देनेमें तो लोग कुशल होते हैं, परंतु उपदेश के अनुसार ही खुद आचरण करने वाले बहुत ही कम लोग होते हैं ।
मनुष्य खयाल नहीं करता कि क्या करना चाहिये और क्या नहीं करना चाहिये । औरों को समझाते हुए पण्डित बन जाते हैं । अपना काम जब सामने आता है, तब पण्डिताई भूल जाते हैं, वह याद नहीं रहती ।
“परोपदेशवेलायां शिष्टाः सर्वे भवन्ति हि ।
विस्मरन्तीह शिष्टत्वं स्वकार्ये समुपस्थिते ॥“
दूसरों को उपदेश देते समय जो पण्डिताई होती है, वही अगर अपने काम पड़े, उस समय आ जाय तो आदमी निहाल हो जाय । जानने की कमी नहीं है,काम में लाने की कमी है । हमें एक सज्जन ने बड़ी शिक्षाकी बात कही कि आप व्याख्यान देते हुए साथ-साथ खुद भी सुना करो । इसका अर्थ यह हुआ कि मैं जो बातें कह रहा हूँ तो मेरे आचरण में कहाँ कमी आती है ? कहाँ-कहाँ गलती होती है? जो आदमी अपना कल्याण चाहे तो वह दूसरों को सुननेके लिये व्याख्यान न दे । अपने सुननेके लिये व्याख्यान दे । लोग सुनने के लिये सामने आते हैं, उस समय कई बातें पैदा होती हैं । अकेले बैठे इतनी पैदा नहीं होतीं । इसलिये उन बातोंको स्वयं भी सुनें । केवल औरों की तरफ ज्ञानका प्रवाह होता है, यह गलती होती है ।
“पण्डिताई पाले पड़ी ओ पूरबलो पाप ।
ओराँ ने परमोदताँ खाली रह गया आप ॥
पण्डित केरी पोथियाँ ज्यूँ तीतरको ज्ञान ।
ओराँ सगुन बतावहि आपा फंद न जान ॥
करनी बिन कथनी कथे अज्ञानी दिन रात ।
कूकर ज्यूँ भुसता फिरे सुनी सुनाई बात ॥“
हमें एक ने बताया‒‘कूकर ज्यूँ भुसता फिरे’‒इसका अर्थ यह हुआ कि एक कुत्ता यहाँ किसी को देखकर भुसेगा तो दूसरे मोहल्लेके कुत्ते भी देखा-देखी भुसने लग जायेंगे । एक-एक को सुनकर सब कुत्ते भुसने लग जायेंगे । अब उनको पूछा जाय कि किस को भुसते हो ? यह तो पता नहीं । दूसरा भुसता है न, इसलिये बिना देखे ही भुसना शुरू कर दिया । ऐसे ही दूसरा कहता है तो अपने भी कहना शुरू कर दिया । अरे, वह क्यों कहता है ? क्या शिक्षा देता है ? उसका क्या विचार है ? सुनी-सुनायी बात कहना शुरू कर देनेसे बोध नहीं होता । इसलिये मनुष्य को अपनी जानकारी अपने आचरणमें लानी चाहिये ।
राम ! राम !! राम !!!
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “मानस में नाम-वन्दना” पुस्तकसे


शनिवार, 2 दिसंबर 2017

पाप का बाप..(01)




|| ॐ श्री परमात्मने नम: ||

पाप का बाप..(01)

एक प्रसिद्ध कहानी है‒एक पण्डितजी काशी से पढ़कर आये । ब्याह हुआ,स्त्री आयी । कई दिन हो गये । एक दिन स्त्री ने प्रश्न पूछा कि ‘पण्डित जी महाराज ! यह तो बताओ कि पाप का बाप कौन है ?’ पण्डित जी पोथी देखते रहे, पर पता नहीं लगा, उत्तर नहीं दे सके । अब बड़ी शर्म आयी कि स्त्री पूछती है पाप का बाप कौन है ? हमने इतनी पढ़ाई की, पर पता नहीं लगा । वे वापस काशी जाने लगे ।

मार्गमें ही एक वेश्या रहती थी । उसने सुन रखा था कि पण्डितजी काशी पढ़कर आये हैं । उसने पूछा‒‘कहाँ जा रहे हैं महाराज ?’ तो बोले‒‘मैं काशी जा रहा हूँ ।’ काशी क्यों जा रहे हैं ? आप तो पढ़कर आये हैं ? तो बोले‒‘क्या करूँ ? मेरे घरमें स्त्रीने यह प्रश्र पूछ लिया कि पाप का बाप कौन है ? मेरे को उत्तर देना आया नहीं । अब पढ़ाई करके देखूँगा कि पापका बाप कौन है ?’ वह वेश्या बोली‒‘आप वहाँ क्यों जाते हो ? यह तो मैं यहीं बता सकती हूँ आपको ।’

बहुत अच्छी बात । इतनी दूर जाना ही नहीं पड़ेगा । ‘आप घरपर पधारो । आपको पाप का बाप मैं बताऊँगी ।’ अमावस्या के एक दिन पहले पण्डित जी महाराज को अपने घर बुलाया । सौ रुपया सामने भेंट दे दिये और कहा कि ‘महाराज ! आप मेरे यहाँ कल भोजन करो ।’ पण्डित जी ने कह दिया‒‘क्या हर्ज है,कर लेंगे !’

पण्डितजी के लिये रसोई बनानेका सब सामान तैयार कर दिया । अब पण्डितजी महाराज पधार गये और रसोई बनाने लगे तो वह बोली‒‘देखो, पक्की रसोई तो आप पाते ही हो, कच्ची रसोई हरेक के हाथकी नहीं पाते । पक्की रसोई मैं बना दूँ, आप पा लेना’ ! ऐसा कह कर सौ रुपये पास में और रख दिये । उन्होंने देखा कि पक्की रसोई हम दूसरोंके हाथ की लेते ही हैं, कोई हर्ज नहीं, ऐसा करके स्वीकार कर लिया । अब रसोई बनाकर पण्डितजी को परोस दिया । सौ रुपये और पण्डित जी महाराज के आगे रख दिये और नमस्कार करके बोली‒‘महाराज ! जब मेरे हाथ से बनी रसोई आप पा रहें हैं तो मैं अपने हाथ से ग्रास दे दूँ । हाथ तो वे ही हैं, जिनसे रसोई बनायी है, ऐसी कृपा करो ।’ पण्डित जी तैयार हो गये उसकी बात पर । उसने ग्रास को मुँह के सामने किया और उन्होंने ज्यों ही ग्रास लेनेके लिये मुँह खोला कि उठाकर मारी थप्पड़ जोरसे, और वह बोली‒‘अभी तक आपको ज्ञान नहीं हुआ ? खबरदार ! जो मेरे घर का अन्न खाया तो ! आप जैसे पण्डित का मैं धर्म-भ्रष्ट करना नहीं चाहती । यह तो मैंने पाप का बाप कौन है, इसका ज्ञान कराया है ।’ रुपये ज्यों-ज्यों आगे रखते गये पण्डित जी ढीले होते गये ।
इससे सिद्ध क्या हुआ ? पापका बाप कौन हुआ ? रुपयोंका लोभ !

‘त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः’ (गीता १६ । २१) ।

काम, क्रोध और लोभ‒ये नरकके खास दरवाजे हैं ।

राम ! राम !! राम !!!

(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “मानस में नाम-वन्दना” पुस्तकसे


पाप का बाप..(01)




|| ॐ श्री परमात्मने नम: ||

पाप का बाप..(01)

एक प्रसिद्ध कहानी है‒एक पण्डितजी काशी से पढ़कर आये । ब्याह हुआ,स्त्री आयी । कई दिन हो गये । एक दिन स्त्री ने प्रश्न पूछा कि ‘पण्डित जी महाराज ! यह तो बताओ कि पाप का बाप कौन है ?’ पण्डित जी पोथी देखते रहे, पर पता नहीं लगा, उत्तर नहीं दे सके । अब बड़ी शर्म आयी कि स्त्री पूछती है पाप का बाप कौन है ? हमने इतनी पढ़ाई की, पर पता नहीं लगा । वे वापस काशी जाने लगे ।

मार्गमें ही एक वेश्या रहती थी । उसने सुन रखा था कि पण्डितजी काशी पढ़कर आये हैं । उसने पूछा‒‘कहाँ जा रहे हैं महाराज ?’ तो बोले‒‘मैं काशी जा रहा हूँ ।’ काशी क्यों जा रहे हैं ? आप तो पढ़कर आये हैं ? तो बोले‒‘क्या करूँ ? मेरे घरमें स्त्रीने यह प्रश्र पूछ लिया कि पाप का बाप कौन है ? मेरे को उत्तर देना आया नहीं । अब पढ़ाई करके देखूँगा कि पापका बाप कौन है ?’ वह वेश्या बोली‒‘आप वहाँ क्यों जाते हो ? यह तो मैं यहीं बता सकती हूँ आपको ।’

बहुत अच्छी बात । इतनी दूर जाना ही नहीं पड़ेगा । ‘आप घरपर पधारो । आपको पाप का बाप मैं बताऊँगी ।’ अमावस्या के एक दिन पहले पण्डित जी महाराज को अपने घर बुलाया । सौ रुपया सामने भेंट दे दिये और कहा कि ‘महाराज ! आप मेरे यहाँ कल भोजन करो ।’ पण्डित जी ने कह दिया‒‘क्या हर्ज है,कर लेंगे !’

पण्डितजी के लिये रसोई बनानेका सब सामान तैयार कर दिया । अब पण्डितजी महाराज पधार गये और रसोई बनाने लगे तो वह बोली‒‘देखो, पक्की रसोई तो आप पाते ही हो, कच्ची रसोई हरेक के हाथकी नहीं पाते । पक्की रसोई मैं बना दूँ, आप पा लेना’ ! ऐसा कह कर सौ रुपये पास में और रख दिये । उन्होंने देखा कि पक्की रसोई हम दूसरोंके हाथ की लेते ही हैं, कोई हर्ज नहीं, ऐसा करके स्वीकार कर लिया । अब रसोई बनाकर पण्डितजी को परोस दिया । सौ रुपये और पण्डित जी महाराज के आगे रख दिये और नमस्कार करके बोली‒‘महाराज ! जब मेरे हाथ से बनी रसोई आप पा रहें हैं तो मैं अपने हाथ से ग्रास दे दूँ । हाथ तो वे ही हैं, जिनसे रसोई बनायी है, ऐसी कृपा करो ।’ पण्डित जी तैयार हो गये उसकी बात पर । उसने ग्रास को मुँह के सामने किया और उन्होंने ज्यों ही ग्रास लेनेके लिये मुँह खोला कि उठाकर मारी थप्पड़ जोरसे, और वह बोली‒‘अभी तक आपको ज्ञान नहीं हुआ ? खबरदार ! जो मेरे घर का अन्न खाया तो ! आप जैसे पण्डित का मैं धर्म-भ्रष्ट करना नहीं चाहती । यह तो मैंने पाप का बाप कौन है, इसका ज्ञान कराया है ।’ रुपये ज्यों-ज्यों आगे रखते गये पण्डित जी ढीले होते गये ।
इससे सिद्ध क्या हुआ ? पापका बाप कौन हुआ ? रुपयोंका लोभ !

‘त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः’ (गीता १६ । २१) ।

काम, क्रोध और लोभ‒ये नरकके खास दरवाजे हैं ।

राम ! राम !! राम !!!

(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “मानस में नाम-वन्दना” पुस्तकसे


“मोहमूल बहुसूलप्रद त्यागहुँ तम अभिमान | भजहु राम रघुनायक कृपा सिंधु भगवान ||”



जय सियाराम जय सियाराम जय सियाराम जय जय सियाराम
“मोहमूल बहुसूलप्रद त्यागहुँ तम अभिमान |
भजहु राम रघुनायक कृपा सिंधु भगवान ||”
जब हृदय में विश्वास का अभाव रहता है, तब संसार के समस्त रोगों को दूर करने वाली महौषधि देने पर भी रोगी अविश्वासी बनकर उसका पान नहीं करता और अपने विनाश का कारण स्वयं प्रस्तुत कर लेता है | रावण ने भी यही मार्ग अपनाया | भक्तिस्वरूपा सीताजी को अपनी लंका में लाकर वह अपना कल्याण दो कारणों से नहीं कर सका; पहला कारण था-- संशय और दूसरा था—अभिमान |
परोपकारी सन्त श्री हनुमान जी रावण की दशा पर दया करके असाध्य रोग से ग्रसित रावण को समझाते हैं –
“मोहमूल बहुसूलप्रद त्यागहुँ तम अभिमान |
भजहु राम रघुनायक कृपा सिंधु भगवान ||”
...........(मानस ५.२३)
‘हे रावण ! मोह ही जिसका मूल है –ऐसे अत्यधिक पीड़ा देने वाले तमरूप अभिमान का तुम त्याग कर दो और कृपा के समुद्र राघवेन्द्र भगवान् श्री राम का भजन करो |’ भला अन्धकार और सूर्य में कभी मैत्री हो सकती है !
{गीताप्रेस- श्री हनुमान अंक}


“मोहमूल बहुसूलप्रद त्यागहुँ तम अभिमान | भजहु राम रघुनायक कृपा सिंधु भगवान ||”



जय सियाराम जय सियाराम जय सियाराम जय जय सियाराम
“मोहमूल बहुसूलप्रद त्यागहुँ तम अभिमान |
भजहु राम रघुनायक कृपा सिंधु भगवान ||”
जब हृदय में विश्वास का अभाव रहता है, तब संसार के समस्त रोगों को दूर करने वाली महौषधि देने पर भी रोगी अविश्वासी बनकर उसका पान नहीं करता और अपने विनाश का कारण स्वयं प्रस्तुत कर लेता है | रावण ने भी यही मार्ग अपनाया | भक्तिस्वरूपा सीताजी को अपनी लंका में लाकर वह अपना कल्याण दो कारणों से नहीं कर सका; पहला कारण था-- संशय और दूसरा था—अभिमान |
परोपकारी सन्त श्री हनुमान जी रावण की दशा पर दया करके असाध्य रोग से ग्रसित रावण को समझाते हैं –
“मोहमूल बहुसूलप्रद त्यागहुँ तम अभिमान |
भजहु राम रघुनायक कृपा सिंधु भगवान ||”
...........(मानस ५.२३)
‘हे रावण ! मोह ही जिसका मूल है –ऐसे अत्यधिक पीड़ा देने वाले तमरूप अभिमान का तुम त्याग कर दो और कृपा के समुद्र राघवेन्द्र भगवान् श्री राम का भजन करो |’ भला अन्धकार और सूर्य में कभी मैत्री हो सकती है !
{गीताप्रेस- श्री हनुमान अंक}


शुभाशुभ कर्म का फल अवश्य ही भोगना पड़ता है


---:श्री परमात्मने नम:---
शुभाशुभ कर्म का फल अवश्य ही भोगना पड़ता है
वेद का यह निश्चित सिद्धांत है कि प्रत्येक व्यक्ति को उसके द्वारा किये गए कर्म का फल अवश्य ही भोगना पड़ता है | शुभकर्म का फल शुभ और अशुभ कर्म का फल अशुभ मिलता है | यह सिद्धांत केवल मनुष्यों पर ही घटित नहीं होता प्रत्युत देवता भी इस परिधि में आते हैं | जब देवताओं को भी कर्म का फल मिलता है तो फिर मनुष्यों को मिले तो इसमें क्या आश्चर्य ! ऋग्वेद के एक ऋचा (१/३५/९) में संकेत आया है कि अपने अशुभ कर्म के कारण सवितादेव को हिरण्यपाणि होना पड़ा ..(हिरण्यपाणि: सविता) | आख्यान इस प्रकार है कि एक बार जब एक देवयाग में अध्वर्युओं ने पुरोडाश सविता देव के निमित्त प्रदान किया तो उस समय सवितादेव ने अमंत्रक ही वह पुरोडाश अपने हाथ में ग्रहण कर लिया | इस निषिद्ध कर्म के फलस्वरूप उनका वह हाथ कट गया, बाद में अध्वर्युओं ने स्वर्णनिर्मित हाथ को प्रतिष्ठित किया | इसी प्रकार उस यज्ञ में भग देवता को नेत्रविहीन होना पड़ा और पूषादेव को दंतविहीन होना पड़ा |
अत: कल्याणकामी व्यक्ति को चाहिए कि शास्त्रविहित एवं प्रशस्त उत्तम कर्मों का ही अनुष्ठान करे, निषिद्ध और निन्द्य कर्मों का अनुष्ठान कभी भी न करे | नीति मंजरी में इस आख्यान का संकेत इस प्रकार दिया गया है –
“शुभाशुभं कृतं कर्म भुंजते देवता अपि |
सविता हेमहस्तोऽभूद्भगोऽन्ध:पूषकोऽद्विज: ||”...(१.१५)
...(कल्याण नीतिसार अंक)


शुभाशुभ कर्म का फल अवश्य ही भोगना पड़ता है


---:श्री परमात्मने नम:---
शुभाशुभ कर्म का फल अवश्य ही भोगना पड़ता है
वेद का यह निश्चित सिद्धांत है कि प्रत्येक व्यक्ति को उसके द्वारा किये गए कर्म का फल अवश्य ही भोगना पड़ता है | शुभकर्म का फल शुभ और अशुभ कर्म का फल अशुभ मिलता है | यह सिद्धांत केवल मनुष्यों पर ही घटित नहीं होता प्रत्युत देवता भी इस परिधि में आते हैं | जब देवताओं को भी कर्म का फल मिलता है तो फिर मनुष्यों को मिले तो इसमें क्या आश्चर्य ! ऋग्वेद के एक ऋचा (१/३५/९) में संकेत आया है कि अपने अशुभ कर्म के कारण सवितादेव को हिरण्यपाणि होना पड़ा ..(हिरण्यपाणि: सविता) | आख्यान इस प्रकार है कि एक बार जब एक देवयाग में अध्वर्युओं ने पुरोडाश सविता देव के निमित्त प्रदान किया तो उस समय सवितादेव ने अमंत्रक ही वह पुरोडाश अपने हाथ में ग्रहण कर लिया | इस निषिद्ध कर्म के फलस्वरूप उनका वह हाथ कट गया, बाद में अध्वर्युओं ने स्वर्णनिर्मित हाथ को प्रतिष्ठित किया | इसी प्रकार उस यज्ञ में भग देवता को नेत्रविहीन होना पड़ा और पूषादेव को दंतविहीन होना पड़ा |
अत: कल्याणकामी व्यक्ति को चाहिए कि शास्त्रविहित एवं प्रशस्त उत्तम कर्मों का ही अनुष्ठान करे, निषिद्ध और निन्द्य कर्मों का अनुष्ठान कभी भी न करे | नीति मंजरी में इस आख्यान का संकेत इस प्रकार दिया गया है –
“शुभाशुभं कृतं कर्म भुंजते देवता अपि |
सविता हेमहस्तोऽभूद्भगोऽन्ध:पूषकोऽद्विज: ||”...(१.१५)
...(कल्याण नीतिसार अंक)


श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट०९)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट०९) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन देव...