||श्री परमात्मने नम: ||
विवेक चूडामणि (पोस्ट.२८)
दस इन्द्रियाँ
बुद्धीन्द्रियाणि श्रवणं त्वगक्षि
घ्राणं च जिह्वा विषयावबोधनात् ।
वाक्पाणिपादं गुदमप्युपस्थः
कर्मेन्द्रियाणि प्रवणेन कर्मसु ॥ ९४ ॥
(श्रवण, त्वचा, नेत्र,घ्राण और जिह्वा–ये पांच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं, क्योंकि इनसे विषय का ज्ञान होता है; तथा वाक्, पाणि, पाद, गुदा और उपस्थ-ये कर्मेन्द्रियाँ हैं, क्योंकि इनका कर्मों की ओर झुकाव होता है )
अंत:करण चतुष्टय:
निगद्यतेऽन्तःकरणं मनोधी-
रहंकृतिश्चित्तमिति स्ववृत्तिभिः ।
मनस्तु सङ्कल्पविकल्पनादिभि-
र्बुद्धिः पदार्थाध्यवसायधर्मतः ॥ ९५ ॥
अत्राभिमानादहमित्यहङ्कृतिः
स्वार्थानुसन्धानगुणेन चित्तम् ॥ ९६ ॥
(अपनी वृत्तियों के कारण अंत:करण मन,बुद्धि, चित्त और अहंकार [इन चार नामों से] कहा जाता है | संकल्प-विकल्प के कारण मन, पदार्थ का निश्चय करने के कारण बुद्धि, ‘अहम्-अहम्’ (मैं-मैं) ऐसा अभिमान करने से अहंकार, और अपना इष्ट चिंतन के कारण यह चित्त कहलाता है)
पञ्चप्राण
प्राणापानव्यानोदानसमाना भवत्यसौ प्राणः ।
स्वयमेव वृत्तिभेदाद्विकृतिभेदात्सु वर्णसलिलादिवत् ॥ ९७ ॥
(अपने विकारों के कारण सुवर्ण और जल आदिके समान स्वयं प्राण ही वृत्तिभेद से प्राण,अपान,व्यान,उदान और समान – इन पांच नामों वाला होता है)
नारायण ! नारायण !!
शेष आगामी पोस्ट में
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “विवेक चूडामणि”..हिन्दी अनुवाद सहित(कोड-133) पुस्तकसे
विवेक चूडामणि (पोस्ट.२८)
दस इन्द्रियाँ
बुद्धीन्द्रियाणि श्रवणं त्वगक्षि
घ्राणं च जिह्वा विषयावबोधनात् ।
वाक्पाणिपादं गुदमप्युपस्थः
कर्मेन्द्रियाणि प्रवणेन कर्मसु ॥ ९४ ॥
(श्रवण, त्वचा, नेत्र,घ्राण और जिह्वा–ये पांच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं, क्योंकि इनसे विषय का ज्ञान होता है; तथा वाक्, पाणि, पाद, गुदा और उपस्थ-ये कर्मेन्द्रियाँ हैं, क्योंकि इनका कर्मों की ओर झुकाव होता है )
अंत:करण चतुष्टय:
निगद्यतेऽन्तःकरणं मनोधी-
रहंकृतिश्चित्तमिति स्ववृत्तिभिः ।
मनस्तु सङ्कल्पविकल्पनादिभि-
र्बुद्धिः पदार्थाध्यवसायधर्मतः ॥ ९५ ॥
अत्राभिमानादहमित्यहङ्कृतिः
स्वार्थानुसन्धानगुणेन चित्तम् ॥ ९६ ॥
(अपनी वृत्तियों के कारण अंत:करण मन,बुद्धि, चित्त और अहंकार [इन चार नामों से] कहा जाता है | संकल्प-विकल्प के कारण मन, पदार्थ का निश्चय करने के कारण बुद्धि, ‘अहम्-अहम्’ (मैं-मैं) ऐसा अभिमान करने से अहंकार, और अपना इष्ट चिंतन के कारण यह चित्त कहलाता है)
पञ्चप्राण
प्राणापानव्यानोदानसमाना भवत्यसौ प्राणः ।
स्वयमेव वृत्तिभेदाद्विकृतिभेदात्सु
(अपने विकारों के कारण सुवर्ण और जल आदिके समान स्वयं प्राण ही वृत्तिभेद से प्राण,अपान,व्यान,उदान और समान – इन पांच नामों वाला होता है)
नारायण ! नारायण !!
शेष आगामी पोस्ट में
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “विवेक चूडामणि”..हिन्दी अनुवाद सहित(कोड-133) पुस्तकसे