गुरुवार, 7 फ़रवरी 2019

जीवसम्बन्धी प्रश्नोत्तर (पोस्ट 06)



ॐ श्रीमन्नारायणाय नम:

जीवसम्बन्धी प्रश्नोत्तर (पोस्ट 06)
(लेखक: श्री जयदयालजी गोयन्दका)

ऊर्ध्व गति

श्रुति कहती है-

ते य एवमेतद्विदुः ये चामी अरण्ये श्रद्धाँ सत्यमुपासते तेऽर्च्चिरभिसम्भवन्ति, अर्चिषोऽहरह्न, आपूर्य्यमाणपक्षमापूर्य्यमाणपक्षाद्यान्‌ षण्मासानुदड्‌ङादित्य एति मासेभ्यो देवलोकं देवलोकादादित्यमादित्याद्वेद्युतं, तान्‌ वैद्युतान्‌ पुरुषो मानस एत्य ब्रह्मलोकान्‌ गमयति ते ते ब्रह्मलोकेषु पराः। परावतो वसन्ति तेषां न पुनरावृत्तिः॥
………( बृहदारण्य उ० २ । ६ )

जिनको ज्ञान होता है, जो अरण्य में श्रद्धायुक्त होकर सत्य की उपासना करते हैं, वे अर्चिरूप होते हैं, अर्चि से दिन रूप होते हैं, दिन से शुक्लपक्षरूप होते हैं, शुक्लपक्ष से उत्तरायणरूप होते हैं, उत्तरायण से देवलोकरूप होते हैं, देवलोक से आदित्यरूप होते हैं, आदित्य से विद्युतरूप होते हैं, यहां से अमानव पुरुष उन्हें ब्रह्मलोक में ले जाते हैं। वहां अनन्त वर्षों तक वह रहते हैं, उनको वापस नहीं लौटना पड़ता ।यह देवयान मार्ग है । एवं--

अथ ये यज्ञेन दानेन तपसा लोकाञ्जयन्ति ते धूममभिसम्भवन्ति धूमाद्रात्रिँ रात्रेरपक्षीयमाणपक्षमपक्षीयमाणपक्षाद्यान्‌ षण्मासान्‌ दक्षिणाऽऽदित्य एति मासेभ्यः पितृलोकं पितृलोकाञ्चन्द्रं ते चन्द्रं प्राप्यान्नं भवन्ति ताँस्तत्र देवा यथा सोमँराजाननाप्यायस्वापक्षीयस्त्वेत्येवमनाँस्तत्र भक्षयन्ति.....।

……..( बृहदारण्यक उ० २ । ६ )


जो सकाम भाव से यज्ञ-दान तथा तपद्वारा लोकों पर विजय प्राप्त करते हैं, वे धूम को प्राप्त होते हैं, धूम से रात्रिरूप होते हैं, रात्रि से कृष्णपक्षरूप होते हैं, कृष्णपक्ष से दक्षिणायन को प्राप्त होते हैं, दक्षिणायन से पितृलोक को और वहां से चन्द्रलोक को प्राप्त होते हैं। चन्द्रलोक प्राप्त होनेपर वे अन्नरूप होते हैं...और देवता उनको भक्षण करते हैं।यहां अन्नहोने और भक्षणकरनेसे यह मतलब है कि वे देवताओं की खाद्य वस्तु में प्रविष्ट होकर उनके द्वारा खाये जाते हैं और फिर उनसे देवरूप में उत्पन्न होते हैं। अथवा अन्नशब्द से उन जीवों को देवताओं का आश्रयी समझना चाहिये। नौकर को भी अन्न कहते हैं, सेवा करने वाले पशुओं को भी अन्न कहते हैं-- "पशवः अन्नम्‌" आदि वाक्यों से यह सिद्ध है। वे देवताओं के नौकर होने से अपने सुखों से वञ्चित नहीं हो सकते। यह पितृयान मार्ग है।

शेष आगामी पोस्ट में ..........
................००३. ०८. फाल्गुन कृ०११ सं०१९८५. कल्याण (पृ०७९३)




जीवसम्बन्धी प्रश्नोत्तर (पोस्ट 05)



ॐ श्रीमन्नारायणाय नम:

जीवसम्बन्धी प्रश्नोत्तर (पोस्ट 05)
(लेखक: श्री जयदयालजी गोयन्दका)

ऊर्ध्व गति

भगवान्‌ कहते हैं-

अग्निर्ज्योतिरहः शुक्ल षण्मासा उत्तरायणम‌्।
तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जनाः॥
धूमो रात्रिस्तया कृष्णः षण्मासा दक्षिणायनम्‌।
तत्र चान्द्रमसं ज्योतिर्योगी प्राप्य निवर्तते॥
शुक्लकृष्णे गती ह्येते जगतः शाश्वते मते।
एकया यात्यनावृत्तिमन्ययावर्तते पुनः॥

.....................( गीता ८ । २४ से २६ )

दो प्रकार के मार्गों में से जिस मार्ग में ज्योतिर्मय अग्नि अभिमानी देवता, दिनका अभिमानी देवता, शुक्लपक्ष का अभिमानी देवता और उत्तरायण के छः महीनों का अभिमानी देवता है। उस मार्ग में मरकर गये हुए ब्रह्मवेत्ता अर्थात्‌ परमेश्‍वर की उपासना से परमेश्‍वर को परोक्षभाव से जानने वाले योगीजन उपर्युक्त देवताओं द्वारा क्रम से ले गये हुए ब्रह्म को प्राप्त होते हैं।तथा जिस मार्ग में धूमाभिमानी देवता, रात्रि अभिमानी देवता, कृष्णपक्ष का अभिमानी देवता और दक्षिणायन के छः महीनों का अभिमानी देवता है, उस मार्गसे मरकर गया हुआ सकाम कर्मयोगी उपर्युक्त देवताओं द्वारा क्रम से ले गया हुआ चन्द्रमा की ज्योति को प्राप्त होकर, स्वर्ग में अपने शुभ कर्मों का फल भोगकर वापस आता है। जगत्‌ के यह शुक्ल और कृष्ण नामक दो मार्ग सनातन माने गये हैं। इनमें से एक       (शुक्ल मार्ग) द्वारा गया हुआ वापस न लौटनेवाली परम गतिको प्राप्त होता है और दूसरे(कृष्ण मार्ग) के द्वारा गया हुआ वापस आता है, अर्थात्‌ जन्म मृत्युको प्राप्त होता है।

शुक्ल-अर्चि या देवयान मार्ग से गये हुए योगी नहीं लौटते और कृष्ण-धूम या पितृयान मार्ग से गये हुए योगियों को लौटना पड़ता है।

शेष आगामी पोस्ट में ..........
................००३. ०८. फाल्गुन कृ०११ सं०१९८५. कल्याण (पृ०७९३)




जीवसम्बन्धी प्रश्नोत्तर (पोस्ट 04)



ॐ श्रीमन्नारायणाय नम:

जीवसम्बन्धी प्रश्नोत्तर (पोस्ट 04)
(लेखक: श्री जयदयालजी गोयन्दका)

तीन प्रकारकी गति

जब साधक ध्यान करने बैठता है--कुछ समय स्वस्थ और एकान्त चित्त से परमात्मा का चिन्तन करना चाहता है, तब यह देखा जाता है कि पूर्व के अभ्यास के कारण उसे प्रायः उन्हीं कार्यों या भावों की स्फुरणा होती है, जैसे कार्यों में वह सदा लगा रहता है। वह साधक बार बार मन को विषयोंसे हटाने का प्रयत्न करता है, उसे धिक्कारता है, बहुत पश्चाताप भी करता है तथापि पूर्व का अभ्यास उसकी वृत्तियों को सदाके कार्यों की ओर खींच ले जाता है। जब मनुष्य सावधान अवस्थामें भी मन की साधना को सहसा अपनी इच्छानुसार नहीं बना सकता, तब जीवनभर के अभ्यास के विरुद्ध मृत्युकाल में हमारी वासना अनायास ही शुभ हो जायगी, यह समझना भ्रमके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। भगवान्‌ भी कहते हैं--सदा तद्भावभावितः।

यदि ऐसा ही होता तो शनैः शनैः उपरामता को प्राप्त करने और बुद्धिद्वारा मन को परमात्मा में लगाने की आज्ञा भगवान्‌ कैसे देते? ( गीता ६ । २५ )। इससे सिद्ध होता है कि मनुष्यके कर्मोंके अनुसार ही उसकी भावना होती है, जैसी अन्तकालकी भावना होती है--जिस गुणमें उसकी स्थिति होती है, उसीके अनुसार परवश होकर जीवको कर्मफल भोगनेके लिये दूसरी योनि में जाना पड़ता है !

ऊर्ध्वगति के दो भेद-इस ऊर्ध्व गति के दो भेद हैं। एक ऊर्ध्व गति से वापस लौटकर आना पड़ता है। इसी को गीता में शुक्लकृष्ण गति और उपनिषदों में देवयान पितॄयान कहा है। सकाम भावसे वेदोक्त कर्म करने वाले, स्वर्ग-प्राप्तिके प्रतिबन्धक देव ऋणरूप पापसे छूटे हुए पुण्यात्मा पुरुष धूममार्ग से पुण्यलोकों को प्राप्त होकर वहां दिव्य देवताओं के विशाल भोग भोगकर , पुण्य क्षीण होते ही पुनः मृत्युलोक में लौट आते हैं और निष्कामभाव से भगवद्भक्ति या ईश्वरार्पण बुद्धिसे भेदज्ञानयुक्त श्रौत-स्मार्त कर्म करनेवाले-परोक्षभाव से परमेश्वर को जानने वाले योगीजन क्रम से ब्रह्म को प्राप्त हो जाते हैं।

शेष आगामी पोस्ट में ..........
................००३. ०८. फाल्गुन कृ०११ सं०१९८५. कल्याण (पृ०७९३)




जीवसम्बन्धी प्रश्नोत्तर (पोस्ट 03)



ॐ श्रीमन्नारायणाय नम:

जीवसम्बन्धी प्रश्नोत्तर (पोस्ट 03)
(लेखक: श्री जयदयालजी गोयन्दका)

तीन प्रकारकी गति

यहां यह प्रश्न होता है कि यदि वासना के अनुसार ही अच्छे बुरे लोकों की प्राप्ति होती है तो कोई मनुष्य अशुभ वासना ही क्यों करेगा ? सभी कोई उत्तम लोकों को पाने के लिये उत्तम वासना ही करेंगे ? इसका उत्तर यह है कि अन्तकाल की वासना या कामना अपने आप नहीं होती, वह प्रायः उसके तात्कालिक कर्मों के अनुसार ही हुआ करती है। आयु के शेष काल में या अन्तकाल के समय मनुष्य जैसे कर्मों में लिप्त रहता है, करीब करीब उन्हीं के अनुसार उसकी मरण-काल की वासना होती है। मृत्यु का कोई पता नहीं, कब आ जाय, इससे मनुष्य को सदा सर्वदा उत्तम कर्मों में ही लगे रहना चाहिये। सर्वदा शुभ कर्मों में लगे रहनेसे वासना भी शुद्ध रहेगी, सर्वथा शुद्ध वासना रहना ही सत्त्वगुणी स्थिति है क्योंकि देह के सभी द्वारों में चेतनता और बोध-शक्ति का उत्पन्न होना ही सत्त्वगुण की वृद्धि का लक्ष्ण है ( गीता १४ । ११ ) और इस स्थिति में होनेवाली मृत्यु ही ऊर्ध्वलोकों की प्राप्ति का कारण है।

जो लोग ऐसा समझते हैं कि अन्तकालमें सात्त्विक वासना कर ली जायगी, अभी से उसकी क्या आवश्यकता है ? वे बड़ी भूल करते हैं । अन्तकाल में वही वासना होगी, जैसी पहले से होती रही होगी । 

शेष आगामी पोस्ट में ..........
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जीवसम्बन्धी प्रश्नोत्तर (पोस्ट 02)



ॐ श्रीमन्नारायणाय नम:

जीवसम्बन्धी प्रश्नोत्तर (पोस्ट 02)
(लेखक: श्री जयदयालजी गोयन्दका)

जीव अपनी पूर्वकी योनिसे, योनिके अनुसार साधनोंद्वारा प्रारब्ध कर्मका फल भोगनेके लिये पूर्वकृत शुभाशुभ कर्मराशि के अनन्त संस्कारोंको साथ लेकर सूक्ष्म शरीरसहित परवश नयी योनिमें आता है। गर्भसे पैदा होनेवाला जीव अपनी योनिका गर्भकाल पूरा होनेपर प्रसूतिरूप अपान वायुकी प्रेरणासे बाहर निकलता है और प्राण निकलनेपर सूक्ष्म शरीर और शुभाशुभ कर्मराशिके संस्कारोंसहित कर्मानुसार भिन्न भिन्न साधनों और मार्गों द्वारा मरणकाल की कर्मजन्य वासना के अनुसार परवशता से भिन्न भिन्न गतियोंको प्राप्त होता है। संक्षेपमें यही सिद्धान्त है। परन्तु इतने शब्दोंसे ही यह बात ठीक समझमें नहीं आती । 

शास्त्रोंके विविध प्रसंगोंमें भिन्न भिन्न वर्णन पढ़कर भ्रमसा हो जाता है, इसलिये कुछ विस्तार से विवेचन किया जाता है-

तीन प्रकारकी गति

भगवान्‌ने श्रीगीताजीमें मनुष्यकी तीन गतियां बतलायी हैं।---अधः, मध्य और ऊर्ध्व । तमोगुणसे नीची, रजोगुणसे बीचकी और सतोगुणसे ऊंची गति प्राप्त होती है। भगवान्‌ने कहा है-

ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्त्वस्था मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः। 
जघन्यगुणवृत्तिस्था अधो गच्छन्ति तामसाः॥
……………( गीता १४ । १८ ) 

सत्त्वगुणमें स्थित हुए पुरुष स्वर्गादि उच्च लोकोंको जाते हैं, रजोगुणमें स्थित राजस पुरुष मध्यमें अर्थात्‌ मनुष्य लोकमें ही रहते हैं एवं तमोगुणके कार्यरूप निद्रा प्रमाद और आलस्यादिमें स्थित हुए तामस पुरुष, अधोगति अर्थात्‌ कीट, पशु आदि नीच योनियोंको प्राप्त होते हैं।यह स्मरण रखना चाहिये कि, तीनों गुणोंमेंसे किसी एक या दोका सर्वथा नाश नहीं होता , संग और कर्मोंके अनुसार कोईसा एक गुण बढ़कर शेष दोनों गुणोंको दबा लेता है। तमोगुणी पुरुषोंकी संगति और तमोगुणी कार्योंसे तमोगुण बढ़कर रज और सत्त्वको दबाता है, रजोगुणी संगति और कार्यों से रजोगुण बढ़कर तम और सत्त्वको दबा लेता है तथा इसीप्रकार सतोगुणी संगति और कार्यों से सत्त्वगुण बढ़कर रज और तमको दबा लेता है ( गीता १४ । १० )। जिस समय जो गुण बढ़ा हुआ होता है, उसी में मनुष्य की स्थिति समझी जाती है और जिस स्थिति में मृत्यु होती है, उसी के अनुसार उसकी गति होती है। यह नियम है कि अन्तकालमें मनुष्य जिस भाव का स्मरण करता हुआ शरीरका त्याग करता है, उसीप्रकार के भाव को वह प्राप्त होता है। ( गीता ८ । ६ )। सतोगुण में स्थिति होनेसे ही अन्तकाल में शुभ भावना या वासना होती है। शुभ वासनामें सत्त्वगुणकी वृद्धि में मृत्यु होनेसे मनुष्य निर्मल ऊर्ध्व के लोकों को जाता है।

शेष आगामी पोस्ट में ..........
................००३. ०८. फाल्गुन कृ०११ सं०१९८५. कल्याण (पृ०७९३)



जीवसम्बन्धी प्रश्नोत्तर (पोस्ट 01)



ॐ श्रीमन्नारायणाय नम:

जीवसम्बन्धी प्रश्नोत्तर (पोस्ट 01)
(लेखक: श्री जयदयालजी गोयन्दका)

एक सज्जन का प्रश्न है कि इस देहमें जीव कहाँ से, कैसे और क्यों आता है, क्या क्या वस्तुएँ साथ लाता है । गर्भ से बाहर कैसे निकलता है और प्राण निकलने पर कहां कैसे और क्यों जाता है तथा क्या क्या वस्तुएँ साथ ले जाता है ?’ प्रश्नकर्त्ता ने शास्त्रप्रमाण और युक्तियोंसहित उत्तर लिखने का अनुरोध किया है।

प्रश्न वास्तव में बड़ा गहन है, इसका वास्तविक उत्तर तो सर्वज्ञ योगी महात्मागण ही दे सकते हैं, मेरा तो इस विषय पर कुछ लिखना एक विनोद के सदृश है । मैं किसी को यह माननेके लिये आग्रह नहीं करता कि इस प्रश्न पर मैं जो कुछ लिख रहा हूं, सो सर्वथा निर्भ्रान्त और यथार्थ है, क्योंकि ऐसा कहने का मैं कोई अधिकार नहीं रखता । अवश्य ही शास्त्र सन्त महात्माओं के प्रसाद से मैंने अपनी साधारण बुद्धि के अनुसार जो कुछ समझा है, उस में मुझे तत्त्वतः कोई शङ्का नहीं है।

इस विषय में मनस्वियों में बड़ा मतभेद है, जो लोग जीव की सत्ता केवल मृत्यु तक ही समझते हैं और पुनर्जन्म आदि बिल्कुल नहीं मानते, उनकी तो कोई बात ही नहीं है, परन्तु पुनर्जन्म मानने वालों में भी मतभेद की कमी नहीं है। इस अवस्था में अमुक मत ही सर्वथा सत्य है, यह कहने का मैं अपना कोई अधिकार नहीं समझता, तथापि अपने विचारों को नम्रता के साथ पाठकों के सन्मुख इसीलिये रखता हूं, वे इस विषय का मनन अवश्य करें।

वेदान्त के मत से तो संसार माया का कार्य होने से वास्तव में गमनागमन का कोई प्रश्न ही नहीं रह जाता, परन्तु यह सिद्धान्त समझाने की वस्तु नहीं है, यह तो वास्तविक स्थिति है । इस स्थिति में स्थित पुरुष ही इसका यथार्थ रहस्य जानते हैं । जिस यथार्थता में एक शुद्ध सत्‌ चित्‌ आनन्दघन ब्रह्म के सिवा अन्य का सर्वथा अभाव है । उसमें तो कुछ भी कहना सुनना संभव नहीं होता, जहां व्यवहार है, वहां इस स्थिति का सिद्धान्त सामने रखनेमात्र से काम नहीं चलता । वहां सृष्टि, जीव, जीव के कर्म, कर्मानुसार गमनागमन और भोग आदि सभी सत्य हैं। अतएव यही समझकर यहां इस विषयपर कुछ विचार किया जाता है।

शेष आगामी पोस्ट में ..........
................००३. ०८. फाल्गुन कृ०११ सं०१९८५. कल्याण (पृ०७९३)




मंगलवार, 5 फ़रवरी 2019

‘हरे ! जगत्पते !! नारायण’ !!!





जब भगवान्‌ के लीलाशरीरों से किये हुए अद्भुत पराक्रम, उनके अनुपम गुण और चरित्रों को श्रवण करके अत्यन्त आनन्द के उद्रेक से मनुष्य का रोम-रोम खिल उठता है, आँसुओं के मारे कण्ठ गद्गद हो जाता है और वह सङ्कोच छोडक़र जोर-जोर से गाने-चिल्लाने और नाचने लगता है; जिस समय वह ग्रहग्रस्त पागल की तरह कभी हँसता है, कभी करुण-क्रन्दन करने लगता है, कभी ध्यान करता है तो कभी भगवद्भाव से लोगों की वन्दना करने लगता है; जब वह भगवान्‌ में ही तन्मय हो जाता है, बार-बार लंबी साँस खींचता है और सङ्कोच छोडक़र हरे ! जगत्पते !! नारायण’ !!! कहकर पुकारने लगता हैतब भक्तियोग के महान् प्रभाव से उसके सारे बन्धन कट जाते हैं और भगवद्भाव की ही भावना करते-करते उसका हृदय भी तदाकारभगवन्मय हो जाता है। उस समय उसके जन्म-मृत्यु के बीजों का खजाना ही जल जाता है और वह पुरुष श्रीभगवान्‌ को प्राप्त कर लेता है ॥

......श्रीमद्भागवत ७/७/३४३६



सोमवार, 4 फ़रवरी 2019

अष्टसिद्धि नौ निधि के दाता अस वर दीन्ह जानकी माता



जय सियाराम जय जय सियाराम ! जय सियाराम जय जय सियाराम!!
अष्टसिद्धि नौ निधि के दाता अस वर दीन्ह जानकी माता
संसार में ऐसा कौन है, जो पराक्रम, उत्साह, बुद्धि, प्रताप, सुशीलता, मधुरता, नीति-अनीति के विवेक, गंभीरता, चतुरता, उत्तम बल और धैर्य में श्रीहनुमान जी से बढ़कर हो |
पराक्रमोत्साहमतिप्रताप-
सौशील्यमाधुर्यनयानायैश्च |
गाम्भीर्यचातुर्यसुवीर्यधैर्यै-
र्हनूमत: ऽप्यधिकोऽस्ति लोके ||”
.................(वा०रा०७|३६\४४)
विशेषता तो यह है कि श्रीहनुमान जी की उपासना से उनके भक्तों में अभीष्ट गुण प्रकट होने लगते हैं | यथा---
बुद्धिर्बलं यशो धैर्यं निर्भयत्वमरोगता |
अजाड्यं वाक्पटुत्वं च हनुमत्समरणाद्भवेत् ||”
(श्रीहनुमान जी के स्मरण से मनुष्य में बुद्धि, बल, यश, धैर्य,निर्भयता, आरोग्यता, विवेक और वाक्पटुता आदि गुण आ जाते हैं )
गोस्वामी तुलसीदास जी हनुमान चालीसामें कहते हैं
दुर्गम काज जगत के जेते | सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते ||
नासै रोग हरै सब पीरा | जपत निरंतर हनुमत बीरा ||”
माँ जानकी के वरप्रदान से आप अष्ट-सिद्धि-नवनिधि के दाता भी हैं
अष्टसिद्धि नौ निधि के दाता अस वर दीन्ह जानकी माता
इसलिए हम सभी द्वारा श्रीरामभक्त हनुमान जी की उपासना जोरों से प्रचलित होनी चाहिए |
{कल्याण श्रीहनुमान अंक}




गीता में व्यक्तोपासना (पोस्ट 12)



श्री हरिः शरणम्

गीता में व्यक्तोपासना (पोस्ट 12)

( सम्पादक-कल्याण )

व्यक्तोपासना में भजन का अभ्यास, भगवान्‌ के साकार-निराकार-तत्त्वका ज्ञान, उपास्य इष्टका ध्यान और उसीके लिये सर्व कर्मों का आचरण और उसी में सर्व कर्मफल का संन्यास रहता है। व्यक्तोपासक अपने उपास्यकी सेवाको छोड़कर मोक्ष भी नहीं चाहता। इसीसे अभ्यास, ज्ञान और ध्यानसे युक्त रहकर सर्व कर्मफलका परमात्माके लिये त्याग करते ही उसे परम शान्ति, परमात्माके परम पदका अधिकार मिल जाता है। यही भाव १२वें श्लोकमें व्यक्त किया गया है।

श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्धऽयानं विशिष्यते।
ध्यानाकर्मफलत्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्‌ ॥

रहस्यज्ञानरहित अभ्याससे परोक्ष ज्ञान श्रेष्ठ है। उससे परमात्मा का ज्ञान श्रेष्ठ है और जिस सर्व-कर्म-फलत्याग में अभ्यास, ज्ञान और ध्यान तीनों रहते हैं, वह सर्वश्रेष्ठ है। उस त्यागके अनन्तर ही परम शान्ति मिल जाती है। इसके बीचके ८ से ११ तकके चार श्लोकोंमें ध्यान, अभ्यास, भगवदर्थ कर्म और भगवत्प्राप्तिरूप योगका आश्रय लेकर कर्मफलत्याग-ये चार साधन बतलाये गये हैं। जो जिसका अधिकारी हो, वह उसीको ग्रहण करे। इनमें छोटा बड़ा समझने की कोई आवश्यकता नहीं है। हाँ, जिसमें चारों हों, वह सर्वोत्तम है; वही परम भक्त है। ऐसे भक्तको जब परम सिद्धि मिल जाती है तब उसमें जिन सब लक्षणोंका प्रादुर्भाव होता है, उन्हींका वर्णन अधायकी समाप्तितकके अगले आठ श्लोकोंमें है। वे लक्षण सिद्ध भक्तमें स्वाभाविक होते हैं और साधकके लिये आदर्श हैं। यही गीतोक्त व्यक्तोपासना का रहस्य है।

इससे यह सिद्धान्त नहीं निकालना चाहिये कि अव्यक्तोपासनाका दर्ज़ा नीचा है या उसकी उपासनामें आचरणोंकी कोई खास भिन्नता है। अव्यक्तोपासनाका अधिकार बहुत ही ऊँचा है। विरक्त, धीर, वीर और सर्वथा संयमी पुरुष-पुंगव ही इस कण्टककीर्ण-मार्गपर पैर रख सकते हैं। उपासनामें भी दो-एक बातोंको छोड़कर प्रायः सादृश्यता ही है। व्यक्तोपासकके लिये सर्वभूतेषु निर्वैरःकी और मैत्रः करुणकी शर्त है, तो अव्यक्तोपासक के लिये सर्वभूतहिते रताःकी है । उसके लिये भगवान्‌में मनको एकाग्र करना आवश्यक है, तो इसके लिये भी समस्त इन्द्रियग्रामको भलीभाँति वशमें करना ज़रुरी है। वह अपने उपास्यमें परम श्रद्धावान्‌ है, तो यह भी सर्वत्र ब्रह्मदर्शनमें समबुद्धिहै।

वास्तवमें भगवान्‌का क्या स्वरूप है और उनकी वाणी गीताके श्लोकोंका क्या मर्म है, इस बातको यथार्थतः भगवान्‌ ही जानते हैं अथवा जो महात्मा भगवत्कृपाका अनुभव कर चुके हैं, वे कुछ जान सकते हैं। मुझ-सरीखा विषयरत प्राणी इन विषयोंमें क्या जाने। मैंने यहाँपर जो कुछ लिखा है सो असलमें पूज्य महात्मा पुरुषोंका जूठन-प्रसाद ही है। जिन प्राचीन या अर्वाचीन महात्माओंका मत इस मतसे भिन्न है, वे भी मेरे लिये तो उसी भावसे पूज्य और आदरणीय हैं। मैंने उनकी वाणीका अनादर करनेके अभिप्रायसे एक अक्षर भी नहीं लिखा है। अवश्य ही मुझे यह मत प्यारा लगता है। सम्भव है इसमें मेरी रुचि और इस ओर की आसक्ति ही खास कारण हो। मैं तो सब सन्तोंका दासानुदास और उनकी चरण-रज का भिखारी हूँ।

ॐ तत्सत्

(श्रीवियोगी हरिजी-लिखित भक्तियोगनामक पुस्तक की भूमिका से )
............हनुमानप्रसाद पोद्दार

…....००५.०५.मार्गशीर्ष कृष्ण ११ सं०१९८७; नवम्बर १९३०.कल्याण (पृ०७५८)




गीता में व्यक्तोपासना (पोस्ट 11)




श्री हरिः शरणम्

गीता में व्यक्तोपासना (पोस्ट 11)

( सम्पादक-कल्याण )

अब रही उपासनाकी पद्धति । सो व्यक्तोपासना भक्तिप्रधान होती है । अव्यक्त और व्यक्त की उपासनामें प्रधान भेद दो हैं--उपास्यके स्वरूपका और भावका । अव्यक्तोपासना में उपास्य निराकार है और व्यक्तोपासनामें साकार । अव्यक्तोपासना का साधक अपनेको ब्रह्म से अभिन्न समझकर अहं ब्रह्मास्मिकहता है, तो व्यक्तोपासना का साधक भगवान्‌ को ही सर्वरूपों में अभिव्यक्त हुआ समझकर वासुदेव सर्वमितिकहता है। उसकी पूजा में कोई आधार नहीं है और इसकी पूजा में भगवान्‌के साकार मनमोहन विग्रह का आधार है। वह सब कुछ स्वप्नवत्‌ मायिक मानता है, तो यह सब कुछ भगवान्‌ की आनन्दमयी लीला समझता है। वह अपने बल पर अग्रसर होता है, तो यह भगवान्‌ की कृपा के बलपर चलता है। उसमें ज्ञानकी प्रधानता है, तो इसमें भक्तिकी । अवश्य ही परस्पर भक्ति और ज्ञान दोनों में ही रहते हैं । अव्यक्तोपासक समझता है कि मैं कुछ भी नहीं कर रहा हूँ, गुण ही गुणों में बरत रहे हैं, वास्तव में कुछ है ही नहीं । व्यक्तोपासक समझता है कि मुझे अपने हाथ की कठपुतली बनाकर भगवान‌ ही सब कुछ करा रहे हैं। कर्ता, भोक्ता सब वे ही हैं । मेरे द्वारा जो कुछ होता है, सब उनकी प्रेरणा से और उन्हीं की शक्ति से होता है। मेरा अस्तित्व ही उनकी इच्छापर अवलम्बित है। यों समझकर वह अपना परम कर्तव्य केवल भगवान्‌का नित्य चिन्तन करना ही मानता है, भगवान्‌ क्या कराते हैं या करायेंगे--इस बातकी वह चिन्ता नहीं करता। वह तो अपने मन-बुद्धि उन्हें सौंपकर निश्चिन्त हो रहता है। भगवान्‌के इन वचनों के अनुसार उसके आचरण होते हैं-

तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्‌ ॥
.........................( गी० ८ । ७ )

इस उपासनामें दम्भ, दर्प, काम, क्रोध, लोभ, अभिमान, असत्य और मोहको तनिक-सा भी स्थान नहीं है। उपासक इन दुर्गुणोंसे रहित होकर सारे चराचरमें सर्वत्र अपने उपास्य-देवको देखता हुआ उनके नाम, गुण, प्रभाव और रहस्यके श्रवण, कीर्तन, मनन और ध्यानमें निरत रहता है। भजन-साधन को परम मुख्य माननेपर भी वह कर्त्तव्यकर्मों से कभी मुख नहीं मोड़ता, वरं न्याय से प्राप्त सभी योग्य कर्मोंको निर्भयतापूर्वक धैर्य-बुद्धिसे भगवान्‌के निमित्त करता है। उसके मनमें एक ही सकामभाव रहता है कि अपने प्यारे भगवान्‌की इच्छाके विपरीत कोई भी कार्य मुझसे कभी न बन जाय। उसका यह भाव भी रहता है कि मैं परमात्माका ही प्यारा सेवक हूँ और परमात्मा ही मेरे एकमात्र सेव्य हैं। वे मुझपर दया करके मेरी सेवा स्वीकार कर मुझे कृतार्थ करनेके लिये ही अपने अव्यक्त अनन्तस्वरूपमें स्थित रहते हुए ही साकार-व्यक्तरूपमें मेरे सामने प्रकट हो रहे हैं। इसलिये वह निरन्तर श्रद्धापूर्वक भगवान्‌का स्मरण करता हुआ ही समस्त कर्म करता है। भगवान्‌ने छठें अध्यायके अन्तमें ऐसे ही भजनपरायण योगीको सर्वश्रेष्ठ योगी माना है-

योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना।
श्रद्धावान्‌ भजते यो मां स मे युक्ततमो मतः॥
......................( गी० ६ । ४७ )

समस्त योगियोंमें भी जो श्रद्धालु योगी मुझमें लगाये हुए अन्तरात्मासे निरन्तर मुझे भजता है, वही मेरे मतमें सर्वश्रेष्ठ है। इस श्लोकमें आये हुए श्रद्धावान्‌और मद्गतैनान्तरात्मनाके भाव ही द्वादश अध्यायके दूसरे श्लोकमें श्रद्धया परयोपेताऔर मय्यावेश्य मनःमें व्यक्त हुए हैं । युक्ततमशब्द तो दोनों में एक ही है।

शेष आगामी पोस्ट में .................
…....००५.०५.मार्गशीर्ष कृष्ण ११ सं०१९८७; नवम्बर १९३०.कल्याण (पृ०७५८)



श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट०९)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट०९) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन देव...