मंगलवार, 12 फ़रवरी 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - नवाँ अध्याय


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - नवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

ब्रह्माजी द्वारा भगवान्‌की स्तुति

ब्रह्मोवाच –

ज्ञातोऽसि मेऽद्य सुचिरान्ननु देहभाजां
    न ज्ञायते भगवतो गतिरित्यवद्यम् ।
नान्यत्त्वदस्ति भगवन्नपि तन्न शुद्धं
    मायागुणव्यतिकराद् यदुरुर्विभासि ॥ १ ॥
रूपं यदेतदवबोधरसोदयेन ।
    शश्वन्निवृत्ततमसः सदनुग्रहाय ।
आदौ गृहीतमवतारशतैकबीजं ।
    यन्नाभिपद्मभवनाद् अहमाविरासम् ॥ २ ॥
नातः परं परम यद्‍भवतः स्वरूपम् ।
    आनन्दमात्रमविकल्पमविद्धवर्चः ।
पश्यामि विश्वसृजमेकमविश्वमात्मन् ।
    भूतेन्द्रियात्मकमदस्त उपाश्रितोऽस्मि ॥ ३ ॥

ब्रह्माजीने कहाप्रभो ! आज बहुत समय के बाद मैं आपको जान सका हूँ। अहो ! कैसे दुर्भाग्य की बात है कि देहधारी जीव आपके स्वरूप को नहीं जान पाते। भगवन् ! आपके सिवा और कोई वस्तु नहीं है। जो वस्तु प्रतीत होती है, वह भी स्वरूपत: सत्य नहीं है, क्योंकि मायाके गुणोंके क्षुभित होनेके कारण केवल आप ही अनेकों रूपोंमें प्रतीत हो रहे हैं ॥ १ ॥ देव ! आपकी चित्- शक्ति के प्रकाशित रहनेके कारण अज्ञान आपसे सदा ही दूर रहता है। आपका यह रूप, जिसके नाभि-कमलसे मैं प्रकट हुआ हूँ, सैकड़ों अवतारोंका मूल कारण है। इसे आपने सत्पुरुषोंपर कृपा करनेके लिये ही पहले-पहल प्रकट किया है ॥ २ ॥ परमात्मन् ! आपका जो आनन्दमात्र, भेदरहित, अखण्ड तेजोमयस्वरूप है, उसे मैं इससे भिन्न नहीं समझता। इसलिये मैंने विश्वकी रचना करनेवाले होनेपर भी विश्वातीत आपके इस अद्वितीय रूपकी ही शरण ली है। यही सम्पूर्ण भूत और इन्द्रियोंका भी अधिष्ठान है ॥ ३ ॥

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से
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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - नवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

ब्रह्माजी द्वारा भगवान्‌की स्तुति

ब्रह्मोवाच –

तद्वा इदं भुवनमङ्गल मङ्गलाय ।
    ध्याने स्म नो दर्शितं त उपासकानाम् ।
तस्मै नमो भगवतेऽनुविधेम तुभ्यं ।
    योऽनादृतो नरकभाग्भिरसत्प्रसङ्गैः ॥ ४ ॥
ये तु त्वदीयचरणाम्बुजकोशगन्धं ।
    जिघ्रन्ति कर्णविवरैः श्रुतिवातनीतम् ।
भक्त्या गृहीतचरणः परया च तेषां ।
    नापैषि नाथ हृदयाम्बुरुहात्स्वपुंसाम् ॥ ५ ॥
तावद्‍भयं द्रविणगेहसुहृन्निमित्तं ।
    शोकः स्पृहा परिभवो विपुलश्च लोभः ।
तावन्ममेत्यसदवग्रह आर्तिमूलं ।
    यावन्न तेऽङ्‌घ्रिमभयं प्रवृणीत लोकः ॥ ६ ॥

हे विश्वकल्याणमय ! मैं आपका उपासक हूँ, आपने मेरे हितके लिये ही मुझे ध्यानमें अपना यह रूप दिखलाया है। जो पापात्मा विषयासक्त जीव हैं, वे ही इसका अनादर करते हैं। मैं तो आपको इसी रूपमें बार-बार नमस्कार करता हूँ ॥ ४ ॥ मेरे स्वामी ! जो लोग वेदरूप वायुसे लायी हुई आपके चरणरूप कमलकोश की गन्ध को अपने कर्णपुटों से ग्रहण करते हैं, उन अपने भक्तजनोंके हृदय-कमल से आप कभी दूर नहीं होते; क्योंकि वे पराभक्तिरूप डोरी से आपके पादपद्मों को बाँध लेते हैं ॥ ५ ॥ जबतक पुरुष आपके अभयप्रद चरणारविन्दों का आश्रय नहीं लेता, तभी तक उसे धन, घर और बन्धुजनों के कारण प्राप्त होनेवाले भय, शोक, लालसा, दीनता और अत्यन्त लोभ आदि सताते हैं और तभीतक उसे मैं-मेरेपनका दुराग्रह रहता है, जो दु:खका एकमात्र कारण है ॥ ६ ॥   

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - नवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

ब्रह्माजी द्वारा भगवान्‌की स्तुति

ब्रह्मोवाच –

दैवेन ते हतधियो भवतः प्रसङ्गात् ।
    सर्वाशुभोपशमनाद् विमुखेन्द्रिया ये ।
कुर्वन्ति कामसुखलेशलवाय दीना ।
    लोभाभिभूतमनसोऽकुशलानि शश्वत् ॥ ७ ॥
क्षुत्तृट्‌त्रधातुभिरिमा मुहुरर्द्यमानाः ।
    शीतोष्णवातवर्षैरितरेतराच्च ।
कामाग्निनाच्युत रुषा च सुदुर्भरेण ।
    सम्पश्यतो मन उरुक्रम सीदते मे ॥ ८ ॥
यावत् पृथक्त्वमिदमात्मन इन्द्रियार्थ ।
    मायाबलं भगवतो जन ईश पश्येत् ।
तावन्न संसृतिरसौ प्रतिसङ्क्रमेत ।
    व्यर्थापि दुःखनिवहं वहती क्रियार्था ॥ ९ ॥

जो लोग सब प्रकारके अमङ्गलोंको नष्ट करनेवाले आपके श्रवण-कीर्तनादि प्रसङ्गोंसे इन्द्रियोंको हटाकर लेशमात्र विषय-सुखके लिये दीन और मन-ही-मन लालायित होकर निरन्तर दुष्कर्मों में लगे रहते हैं, उन बेचारोंकी बुद्धि दैव ने हर ली है ॥ ७ ॥ अच्युत ! उरुक्रम ! इस प्रजा को भूख-प्यास, वात, पित्त, कफ, सर्दी, गर्मी, हवा और वर्षासे, परस्पर एक-दूसरे से तथा कामाग्नि और दु:सह क्रोधसे बार-बार कष्ट उठाते देखकर मेरा मन बड़ा खिन्न होता है ॥ ८ ॥ स्वामिन् ! जबतक मनुष्य इन्द्रिय और विषयरूपी मायाके प्रभावसे आपसे अपनेको भिन्न देखता है, तबतक उसके लिये इस संसारचक्रकी निवृत्ति नहीं होती। यद्यपि यह मिथ्या है, तथापि कर्मफल-भोगका क्षेत्र होनेके कारण उसे नाना प्रकारके दु:खोंमें डालता रहता है ॥ ९ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - नवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

ब्रह्माजी द्वारा भगवान्‌की स्तुति

ब्रह्मोवाच –

अह्न्यापृतार्तकरणा निशि निःशयाना ।
    नानामनोरथधिया क्षणभग्ननिद्राः ।
दैवाहतार्थरचना ऋषयोऽपि देव ।
    युष्मत् प्रसङ्गविमुखा इह संसरन्ति ॥ १० ॥
त्वं भक्तियोगपरिभावितहृत्सरोज ।
    आस्से श्रुतेक्षितपथो ननु नाथ पुंसाम् ।
यद् यद् धिया ते उरुगाय विभावयन्ति ।
    तत्तद् वपुः प्रणयसे सदनुग्रहाय ॥ ११ ॥

देव ! औरोंकी तो बात ही क्याजो साक्षात् मुनि हैं, वे भी यदि आपके कथाप्रसङ्ग से विमुख रहते हैं तो उन्हें संसार में फँसना पड़ता है। वे दिनमें अनेक प्रकार के व्यापारों के कारण विक्षिप्तचित्त रहते हैं, रात्रि में निद्रामें अचेत पड़े रहते हैं; उस समय भी तरह-तरह के मनोरथों के कारण क्षण-क्षणमें उनकी नींद टूटती रहती है तथा दैववश उनकी अर्थसिद्धि के सब उद्योग भी विफल होते रहते हैं ॥ १० ॥ नाथ ! आपका मार्ग केवल गुण-श्रवणसे ही जाना जाता है। आप निश्चय ही मनुष्योंके भक्तियोगके द्वारा परिशुद्ध हुए हृदयकमलमें निवास करते हैं। पुण्यश्लोक प्रभो ! आपके भक्तजन जिस-जिस भावनासे आपका चिन्तन करते हैं, उन साधु पुरुषोंपर अनुग्रह करनेके लिये आप वही- वही रूप धारण कर लेते हैं ॥ ११ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - नवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

ब्रह्माजी द्वारा भगवान्‌की स्तुति

ब्रह्मोवाच –

नातिप्रसीदति तथोपचितोपचारैः ।
    आराधितः सुरगणैर्हृदि बद्धकामैः ।
यत्सर्वभूतदययासदलभ्ययैको ।
    नानाजनेष्ववहितः सुहृदन्तरात्मा ॥ १२ ॥
पुंसामतो विविधकर्मभिरध्वराद्यैः ।
    दानेन चोग्रतपसा परिचर्यया च ।
आराधनं भगवतस्तव सत्क्रियार्थो ।
    धर्मोऽर्पितः कर्हिचिद् ध्रियते न यत्र ॥ १३ ॥
शश्वत्स्वरूपमहसैव निपीतभेद ।
    मोहाय बोधधिषणाय नमः परस्मै ।
विश्वोद्‍भवस्थितिलयेषु निमित्तलीला ।
    रासाय ते नम इदं चकृमेश्वराय ॥ १४ ॥

भगवन् ! आप एक हैं तथा सम्पूर्ण प्राणियों के अन्त:करणों में स्थित उनके परम हितकारी अन्तरात्मा हैं। इसलिये यदि देवतालोग भी हृदयमें तरह-तरहकी कामनाएँ रखकर भाँति-भाँतिकी विपुल सामग्रियोंसे आपका पूजन करते हैं, तो उससे आप उतने प्रसन्न नहीं होते जितने सब प्राणियोंपर दया करनेसे होते हैं। किन्तु वह सर्वभूतदया असत् पुरुषोंको अत्यन्त दुर्लभ है ॥ १२ ॥ जो कर्म आपको अर्पण कर दिया जाता है, उसका कभी नाश नहीं होतावह अक्षय हो जाता है। अत: नाना प्रकारके कर्मयज्ञ, दान, कठिन तपस्या और व्रतादिके द्वारा आपकी प्रसन्नता प्राप्त करना ही मनुष्यका सबसे बड़ा कर्मफल है; क्योंकि आपकी प्रसन्नता होनेपर ऐसा कौन फल है जो सुलभ नहीं हो जाता ॥ १३ ॥ आप सर्वदा अपने स्वरूपके प्रकाशसे ही प्राणियोंके भेद-भ्रमरूप अन्धकारका नाश करते रहते हैं तथा ज्ञानके अधिष्ठान साक्षात् परमपुरुष हैं; मैं आपको नमस्कार करता हूँ। संसारकी उत्पत्ति, स्थिति और संहारके निमित्तसे जो मायाकी लीला होती है, वह आपका ही खेल है; अत: आप परमेश्वरको मैं बार-बार नमस्कार करता हूँ ॥ १४ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - नवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

ब्रह्माजी द्वारा भगवान्‌की स्तुति

ब्रह्मोवाच –

यस्यावतार गुणकर्मविडम्बनानि ।
    नामानि येऽसुविगमे विवशा गृणन्ति ।
तेऽनैकजन्मशमलं सहसैव हित्वा ।
    संयान्त्यपावृतामृतं तमजं प्रपद्ये ॥ १५ ॥
यो वा अहं च गिरिशश्च विभुः स्वयं च ।
    स्थित्युद्‍भवप्रलयहेतव आत्ममूलम् ।
भित्त्वा त्रिपाद्‌ववृध एक उरुप्ररोहः ।
    तस्मै नमो भगवते भुवनद्रुमाय ॥ १६ ॥

जो लोग प्राणत्याग करते समय आपके अवतार, गुण और कर्मोंको सूचित करनेवाले देवकीनन्दन, जनार्दन, कंसनिकन्दन आदि नामोंका विवश होकर भी उच्चारण करते हैं, वे अनेकों जन्मोंके पापों से तत्काल छूटकर मायादि आवरणों से रहित ब्रह्मपद प्राप्त करते हैं। आप नित्य अजन्मा हैं, मैं आपकी शरण लेता हूँ ॥ १५ ॥ भगवन् ! इस विश्ववृक्ष के रूप में आप ही विराजमान हैं। आप ही अपनी मूलप्रकृति को स्वीकार करके जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय के लिये मेरे, अपने और महादेवजी के रूप में तीन प्रधान शाखाओं में विभक्त हुए हैं और फिर प्रजापति एवं मनु आदि शाखा-प्रशाखाओं के रूप में फैलकर बहुत विस्तृत हो गये हैं। मैं आपको नमस्कार करता हूँ ॥ १६ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - नवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)

ब्रह्माजी द्वारा भगवान्‌की स्तुति

ब्रह्मोवाच

लोको विकर्मनिरतः कुशले प्रमत्तः ।
कर्मण्ययं त्वदुदिते भवदर्चने स्वे ।
यस्तावदस्य बलवान् इह जीविताशां ।
सद्यश्छिनत्त्यनिमिषाय नमोऽस्तु तस्मै ॥ १७ ॥
यस्माद्बिदभेम्यहमपि द्विपरार्धधिष्ण्यं ।
अध्यासितः सकललोकनमस्कृतं यत् ।
तेपे तपो बहुसवोऽवरुरुत्समानः ।
तस्मै नमो भगवतेऽधिमखाय तुभ्यम् ॥ १८ ॥

भगवन् ! आपने अपनी आराधना को ही लोकों के लिये कल्याणकारी स्वधर्म बताया है, किन्तु वे इस ओर से उदासीन रहकर सर्वदा विपरीत (निषिद्ध) कर्मोंमें लगे रहते हैं। ऐसी प्रमाद की अवस्था में पड़े हुए इन जीवों की जीवन-आशा को जो सदा सावधान रहकर बड़ी शीघ्रता से काटता रहता है, वह बलवान् काल भी आपका ही रूप है; मैं उसे नमस्कार करता हूँ ॥ १७ ॥
यद्यपि मैं सत्यलोक का अधिष्ठाता हूँ, जो दो परार्धपर्यन्त रहनेवाला और समस्त लोकों का वन्दनीय है, तो भी आपके उस कालरूप से डरता रहता हूँ। उससे बचने और आपको प्राप्त करने के लिये ही मैंने बहुत समयतक तपस्या की है। आप ही अधियज्ञरूपसे मेरी इस तपस्याके साक्षी हैं, मैं आपको नमस्कार करता हूँ ॥ १८ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - नवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)

ब्रह्माजी द्वारा भगवान्‌की स्तुति

ब्रह्मोवाच –

तिर्यङ्‌मनुष्यविबुधादिषु जीवयोनि ।
    ष्वात्मेच्छयात्मकृतसेतुपरीप्सया यः ।
रेमे निरस्तविषयोऽप्यवरुद्धदेहः ।
    तस्मै नमो भगवते पुरुषोत्तमाय ॥ १९ ॥
योऽविद्ययानुपहतोऽपि दशार्धवृत्त्या ।
    निद्रामुवाह जठरीकृतलोकयात्रः ।
अन्तर्जलेऽहिकशिपुस्पर्शानुकूलां ।
    भीमोर्मिमालिनि जनस्य सुखं विवृण्वन् ॥ २० ॥

आप पूर्णकाम हैं, आपको किसी विषयसुखकी इच्छा नहीं है, तो भी आपने अपनी बनायी हुई धर्ममर्यादा की रक्षाके लिये पशु-पक्षी, मनुष्य और देवता आदि जीवयोनियों में अपनी ही इच्छासे शरीर धारण कर अनेकों लीलाएँ की हैं। ऐसे आप पुरुषोत्तम भगवान्‌ को मेरा नमस्कार है ॥ १९ ॥ प्रभो ! आप अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेशपाँचों में से किसी के भी अधीन नहीं हैं; तथापि इस समय जो सारे संसार को अपने उदर में लीनकर भयङ्कर तरङ्गमालाओं से विक्षुब्ध प्रलयकालीन जल में अनन्तविग्रह की कोमल शय्या पर शयन कर रहे हैं, वह पूर्वकल्पकी कर्मपरम्परासे श्रमित हुए जीवोंको विश्राम देनेके लिये ही है ॥ २० ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - नवाँ अध्याय..(पोस्ट०९)

ब्रह्माजी द्वारा भगवान्‌की स्तुति

ब्रह्मोवाच –

यन्नाभिपद्मभवनाद् अहमासमीड्य ।
    लोकत्रयोपकरणो यदनुग्रहेण ।
तस्मै नमस्त उदरस्थभवाय योग ।
    निद्रावसानविकसन् नलिनेक्षणाय ॥ २१ ॥
सोऽयं समस्तजगतां सुहृदेक आत्मा ।
    सत्त्वेन यन्मृडयते भगवान् भगेन ।
तेनैव मे दृशमनुस्पृशताद्यथाहं ।
    स्रक्ष्यामि पूर्ववदिदं प्रणतप्रियोऽसौ ॥ २२ ॥

आपके नाभिकमलरूप भवन से मेरा जन्म हुआ है। यह सम्पूर्ण विश्व आपके उदर में समाया हुआ है। आपकी कृपा से ही मैं त्रिलोकी की रचनारूप उपकार में प्रवृत्त हुआ हूँ । इस समय योगनिद्रा का अन्त हो जानेके कारण आपके नेत्र-कमल विकसित हो रहे हैं, आपको मेरा नमस्कार है ॥ २१ ॥ आप सम्पूर्ण जगत् के एकमात्र सुहृद् और आत्मा हैं तथा शरणागतोंपर कृपा करनेवाले हैं। अत: अपने जिस ज्ञान और ऐश्वर्य से आप विश्वको आनन्दित करते हैं, उसी से मेरी बुद्धि को भी युक्त करेंजिससे मैं पूर्वकल्पके समान इस समय भी जगत् की  रचना कर सकूँ ॥ २२ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - नवाँ अध्याय..(पोस्ट१०)

ब्रह्माजी द्वारा भगवान्‌की स्तुति

ब्रह्मोवाच –

एष प्रपन्नवरदो रमयात्मशक्त्या ।
    यद्यत् करिष्यति गृहीतगुणावतारः ।
तस्मिन्स्वविक्रममिदं सृजतोऽपि चेतो ।
    युञ्जीत कर्मशमलं च यथा विजह्याम् ॥ २३ ॥
नाभिह्रदादिह सतोऽम्भसि यस्य पुंसो ।
    विज्ञानशक्तिरहमासमनन्तशक्तेः ।
रूपं विचित्रमिदमस्य विवृण्वतो मे ।
    मा रीरिषीष्ट निगमस्य गिरां विसर्गः ॥ २४ ॥
सोऽसौ अदभ्रकरुणो भगवान् विवृद्ध ।
    प्रेमस्मितेन नयनाम्बुरुहं विजृम्भन् ।
उत्थाय विश्वविजयाय च नो विषादं ।
    माध्व्या गिरापनयतात्पुरुषः पुराणः ॥ २५ ॥

आप भक्तवाञ्छाकल्पतरु हैं। अपनी शक्ति लक्ष्मीजी के सहित अनेकों गुणावतार लेकर आप जो-जो अद्भुत कर्म करेंगे, मेरा यह जगत् की  रचना करने का उद्यम भी उन्हीं में से एक है। अत: इसे रचते समय आप मेरे चित्त को प्रेरित करेंशक्ति प्रदान करें, जिससे मैं सृष्टिरचनाविषयक अभिमानरूप मलसे दूर रह सकूँ ॥ २३ ॥ प्रभो ! इस प्रलयकालीन जलमें शयन करते हुए आप अनन्तशक्ति परमपुरुष के नाभि-कमल से मेरा प्रादुर्भाव हुआ है और मैं हूँ भी आपकी ही विज्ञानशक्ति; अत: इस जगत् के विचित्र रूप का विस्तार करते समय आपकी कृपा से मेरी वेदरूप वाणी का उच्चारण लुप्त न हो ॥ २४ ॥ आप अपार करुणामय पुराणपुरुष हैं। आप परम प्रेममयी मुसकान के सहित अपने नेत्रकमल खोलिये और शेष-शय्या से उठकर विश्व के उद्भव के लिये अपनी सुमधुर वाणी से मेरा विषाद दूर कीजिये ॥ २५ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - नवाँ अध्याय..(पोस्ट११)

ब्रह्माजी द्वारा भगवान्‌की स्तुति

मैत्रेय उवाच -

स्वसम्भवं निशाम्यैवं तपोविद्यासमाधिभिः ।
यावन्मनोवचः स्तुत्वा विरराम स खिन्नवत् ॥ २६ ॥
अथाभिप्रेतमन्वीक्ष्य ब्रह्मणो मधुसूदनः ।
विषण्णचेतसं तेन कल्पव्यतिकराम्भसा ॥ २७ ॥
लोकसंस्थानविज्ञान आत्मनः परिखिद्यतः ।
तमाहागाधया वाचा कश्मलं शमयन्निव ॥ २८ ॥

श्रीमैत्रेयजी कहते हैंविदुरजी ! इस प्रकार तप, विद्या और समाधिके द्वारा अपने उत्पत्तिस्थान श्रीभगवान्‌को देखकर तथा अपने मन और वाणीकी शक्तिके अनुसार उनकी स्तुति कर ब्रह्माजी थके-से होकर मौन हो गये ॥ २६ ॥ श्रीमधुसूदन भगवान्‌ने देखा कि ब्रह्माजी इस प्रलयजलराशि से बहुत घबराये हुए हैं तथा लोकरचना के विषय में कोई निश्चित विचार न होने के कारण उनका चित्त बहुत खिन्न है। तब उनके अभिप्रायको जानकर वे अपनी गम्भीर वाणीसे उनका खेद शान्त करते हुए कहने लगे ॥ २७-२८ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - नवाँ अध्याय..(पोस्ट१२)

ब्रह्माजी द्वारा भगवान्‌की स्तुति

श्रीभगवानुवाच –

मा वेदगर्भ गास्तन्द्रीं सर्ग उद्यममावह ।
तन्मयाऽऽपादितं ह्यग्रे यन्मां प्रार्थयते भवान् ॥ २९ ॥
भूयस्त्वं तप आतिष्ठ विद्यां चैव मदाश्रयाम् ।
ताभ्यां अन्तर्हृदि ब्रह्मन् लोकान् द्रक्ष्यसि अपावृतान् ॥ ३० ॥
तत आत्मनि लोके च भक्तियुक्तः समाहितः ।
द्रष्टासि मां ततं ब्रह्मन् मयि लोकान् त्वमात्मनः ॥ ३१ ॥
यदा तु सर्वभूतेषु दारुष्वग्निमिव स्थितम् ।
प्रतिचक्षीत मां लोको जह्यात्तर्ह्येव कश्मलम् ॥ ३२ ॥
यदा रहितमात्मानं भूतेन्द्रियगुणाशयैः ।
स्वरूपेण मयोपेतं पश्यन् स्वाराज्यमृच्छति ॥ ३३ ॥

श्रीभगवान्‌ ने कहावेदगर्भ ! तुम विषाद के वशीभूत हो आलस्य न करो, सृष्टिरचना के उद्यम में तत्पर हो जाओ। तुम मुझसे जो कुछ चाहते हो, उसे तो मैं पहले ही कर चुका हूँ ॥ २९ ॥ तुम एक बार फिर तप करो और भागवत-ज्ञानका अनुष्ठान करो। उनके द्वारा तुम सब लोकोंको स्पष्टतया अपने अन्त:करणमें देखोगे ॥ ३० ॥ फिर भक्तियुक्त और समाहितचित्त होकर तुम सम्पूर्ण लोक और अपनेमें मुझको व्याप्त देखोगे तथा मुझमें सम्पूर्ण लोक और अपने-आपको देखोगे ॥ ३१ ॥ जिस समय जीव काष्ठमें व्याप्त अग्रिके समान समस्त भूतोंमें मुझे ही स्थित देखता है, उसी समय वह अपने अज्ञानरूप मलसे मुक्त हो जाता है ॥ ३२ ॥ जब वह अपनेको भूत, इन्द्रिय, गुण और अन्त:करणसे रहित तथा स्वरूपत: मुझसे अभिन्न देखता है, तब मोक्षपद प्राप्त कर लेता है ॥ ३३ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - नवाँ अध्याय..(पोस्ट१३)

ब्रह्माजी द्वारा भगवान्‌की स्तुति

नानाकर्मवितानेन प्रजा बह्वीः सिसृक्षतः ।
नात्मावसीदत्यस्मिन् ते वर्षीयान् मदनुग्रहः ॥ ३४ ॥
ऋषिमाद्यं न बध्नाति पापीयान् त्वां रजोगुणः ।
यन्मनो मयि निर्बद्धं प्रजाः संसृजतोऽपि ते ॥ ३५ ॥
ज्ञातोऽहं भवता त्वद्य दुर्विज्ञेयोऽपि देहिनाम् ।
यन्मां त्वं मन्यसेऽयुक्तं भूतेन्द्रियगुणात्मभिः ॥ ३६ ॥
तुभ्यं मद्विचिकित्सायां आत्मा मे दर्शितोऽबहिः ।
नालेन सलिले मूलं पुष्करस्य विचिन्वतः ॥ ३७ ॥

ब्रह्माजी नाना प्रकार के कर्मसंस्कारों के अनुसार अनेक प्रकार की जीवसृष्टि को रचने की इच्छा होनेपर भी तुम्हारा चित्त मोहित नहीं होता, यह मेरी अतिशय कृपा का ही फल है ॥ ३४ ॥ तुम सबसे पहले मन्त्रद्रष्टा हो। प्रजा उत्पन्न करते समय भी तुम्हारा मन मुझमें ही लगा रहता है, इसीसे पापमय रजोगुण तुमको बाँध नहीं पाता ॥ ३५ ॥ तुम मुझे भूत, इन्द्रिय, गुण और अन्त:करणसे रहित समझते हो; इससे जान पड़ता है कि यद्यपि देहधारी जीवोंको मेरा ज्ञान होना बहुत कठिन है, तथापि तुमने मुझे जान लिया है ॥ ३६ ॥ मेरा आश्रय कोई है या नहींइस सन्देहसे तुम कमलनाल के द्वारा जलमें उसका मूल खोज रहे थे, सो मैंने तुम्हें अपना यह स्वरूप अन्त:करणमें ही दिखलाया है ॥ ३७ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - नवाँ अध्याय..(पोस्ट१४)

ब्रह्माजी द्वारा भगवान्‌की स्तुति

यच्चकर्थाङ्ग मत्स्तोत्रं मत्कथा अभ्युदयांकितम् ।
यद्वा तपसि ते निष्ठा स एष मदनुग्रहः ॥ ३८ ॥
प्रीतोऽहमस्तु भद्रं ते लोकानां विजयेच्छया ।
यद् अस्तौषीर्गुणमयं निर्गुणं मानुवर्णयन् ॥ ३९ ॥
य एतेन पुमान्नित्यं स्तुत्वा स्तोत्रेण मां भजेत् ।
तस्याशु सम्प्रसीदेयं सर्वकामवरेश्वरः ॥ ४० ॥

प्यारे ब्रह्माजी ! तुमने जो मेरी कथाओं के वैभवसे युक्त मेरी स्तुति की है और तपस्या में जो तुम्हारी निष्ठा है, वह भी मेरी ही कृपा का फल है ॥ ३८ ॥ लोक-रचना की इच्छा से तुमने सगुण प्रतीत होनेपर भी जो निर्गुणरूप से मेरा वर्णन करते हुए स्तुति की है, उससे मैं बहुत प्रसन्न हूँ; तुम्हारा कल्याण हो ॥ ३९ ॥ मैं समस्त कामनाओं और मनोरथोंको पूर्ण करनेमें समर्थ हूँ। जो पुरुष नित्यप्रति इस स्तोत्रद्वारा स्तुति करके मेरा भजन करेगा, उसपर मैं शीघ्र ही प्रसन्न हो जाऊँगा ॥ ४० ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - नवाँ अध्याय..(पोस्ट१५)

ब्रह्माजी द्वारा भगवान्‌की स्तुति

पूर्तेन तपसा यज्ञैः दानैर्योगसमाधिना ।
राद्धं निःश्रेयसं पुंसां मत्प्रीतिः तत्त्वविन्मतम् ॥ ४१ ॥
अहमात्मात्मनां धातः प्रेष्ठः सन् प्रेयसामपि ।
अतो मयि रतिं कुर्याद् देहादिर्यत्कृते प्रियः ॥ ४२ ॥
सर्ववेदमयेनेदं आत्मनाऽऽत्माऽऽत्मयोनिना ।
प्रजाः सृज यथापूर्वं याश्च मय्यनुशेरते ॥ ४३ ॥

मैत्रेय उवाच –

तस्मा एवं जगत्स्रष्ट्रे प्रधानपुरुषेश्वरः ।
व्यज्येदं स्वेन रूपेण कञ्जनाभस्तिरोदधे ॥ ४४ ॥

तत्त्ववेत्ताओंका मत है कि पूर्त, तप, यज्ञ, दान, योग और समाधि आदि साधनोंसे प्राप्त होनेवाला जो परम कल्याणमय फल है, वह मेरी प्रसन्नता ही है ॥ ४१ ॥ विधाता ! मैं आत्माओं का भी आत्मा और स्त्री-पुत्रादि प्रियों का भी प्रिय हूँ। देहादि भी मेरे ही लिये प्रिय हैं। अत: मुझसे ही प्रेम करना चाहिये ॥ ४२ ॥ ब्रह्माजी ! त्रिलोकी को तथा जो प्रजा इस समय मुझ में लीन है, उसे तुम पूर्वकल्प के समान मुझसे उत्पन्न हुए अपने सर्ववेदमय स्वरूप से स्वयं ही रचो ॥ ४३ ॥
श्रीमैत्रेयजी कहते हैंप्रकृति और पुरुष के स्वामी कमलनाभ भगवान्‌ सृष्टिकर्ता ब्रह्माजी को इस प्रकार जगत् की अभिव्यक्ति करवाकर अपने उस नारायणरूपसे अदृश्य हो गये ॥ ४४ ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
तृतीयस्कन्धे नवमोऽध्यायः ॥ ९ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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जीवसम्बन्धी प्रश्नोत्तर (पोस्ट 19)



ॐ श्रीमन्नारायणाय नम:

जीवसम्बन्धी प्रश्नोत्तर (पोस्ट 19)
(लेखक: श्री जयदयालजी गोयन्दका)

आवागमन से छूटने का उपाय

तत्त्वज्ञान की प्राप्ति हो जानेपर जीवनमुक्त पुरुष लोकदृष्टि में जीता हुआ और कर्म करता हुआ प्रतीत होता है, परन्तु वास्तव में उसका कर्म से सम्बन्ध नहीं होता। यदि कोई कहे कि, सम्बन्ध बिना उससे कर्म कैसे होते हैं ? इसका उत्तर यह है कि वास्तव में वह तो किसी कर्म का कर्ता है नहीं, पूर्व कृत शुभाशुभ कर्मों से बने हुए प्रारब्ध का जो शेष भाग अवशिष्ट है, उसके भोग के लिये उसी के वेग से, कुलाल के न रहने पर भी कुलालचक्र की भांति कर्ता के अभाव में भी परमेश्वरकी सत्ता-स्फूर्तिसे पूर्व-स्वभावानुसार कर्म होते रहते हैं, परन्तु वे कर्तॄत्व-अहंकारसे शून्य कर्म किसी पुण्य-पाप के उत्पादक न होनेके कारण वास्तव में कर्म ही नहीं समझे जाते ( गीता १८ । १७ )।

जो लोकदृष्टि में दीखता है, वह अन्तकाल में तत्त्वज्ञान के द्वारा तीनों शरीरों का अत्यन्त अभाव होने से जब शुद्ध सच्चिदानन्दघन में तद्रूपता को प्राप्त हो जाता है ( गीता २ । ७२ ), तब उसे विदेहमुक्ति कहते हैं। जिस माया से कहीं भी नहीं आने जानेवाले निर्मल निर्गुण सच्चिदानन्दरूप आत्मा में भ्रमवश आने जाने की भावना होती है, भगवान्‌ की भक्ति के द्वारा उस माया से छूटकर इस परमपद की प्राप्ति के लिये ही हम सब को प्रयत्न करना चाहिये !

ॐ तत्सत् !

................००३. ०८. फाल्गुन कृ०११ सं०१९८५. कल्याण (पृ०७९३)




माता गंगा का वात्सल्य भाव





नमामि गंगे तव पादपंकजम् !

माता गंगा का वात्सल्य भाव

महाभारत की कथा है कि कुरुश्रेष्ठ महाभागवत भीष्म उत्तरायण की प्रतीक्षा करते हुए कुरुक्षेत्र की रणस्थली में शरशय्या पर लेटे हुए थे | सूर्य के उत्तरायण होने पर ब्रह्मरंध्र फोडकर उनके प्राणों ने महाप्रयाण किया | युधिष्ठिरादि करुवंशी उनका दाह-संस्कार कर उन्हें जलांजलि देने परमपवित्र श्रीगंगा जी के तट पर गए | उस समय उनके साथ भगवान् श्रीकृष्ण, महर्षि व्यास, देवर्षि नारद आदि मुनिगण और नगरवासी भी थे | इन सबने जब महात्मा भीष्म को जलांजलि दी तो पुत्र स्नेह से शोकाकुला गंगाजी जल से प्रकट हो गयीं और विलाप करते हुए कौरवों से कहने लगीं-- निष्पाप पुत्रगण ! महान व्रतधारी भीष्म कुरुकुलवृद्ध पुरुषों का सत्कार करने वाले और अपने पिता के बड़े भक्त थे | परशुराम जी भी अपने दिव्य अस्त्रों द्वारा जिस मेरे पराक्रमी पुत्र को पराजित नहीं कर सके, वही महाव्रती इस समय शिखंडी के हाथों मारा गया ! यह मेरे लिए कितने कष्ट की बात है |
तब भगवान् श्रीकृष्ण और व्यास जी ने उन्हें आश्वासन देते हुए कहा हे सरिताओं में श्रेष्ठ देवि ! सम्पूर्ण देवताओं सहित साक्षात् इन्द्र भी तुम्हारे पुत्र को मार नहीं सकते थे, वे तो अपनी इच्छा से शरीर छोड़कर उत्तम-लोक को गए हैं | क्षत्रिय धर्म के अनुसार युद्ध करते हुए वे अर्जुन के हाथ से मारे गए हैं, शिखंडी के हाथ से नहीं |
इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्ण और व्यास जी के समझाने पर नदियों में श्रेष्ठ गंगाजी शोक त्याग कर अपने जल में उतर गयीं |
……..{कल्याणगंगा-अंक}




जीवसम्बन्धी प्रश्नोत्तर (पोस्ट 18)



ॐ श्रीमन्नारायणाय नम:

जीवसम्बन्धी प्रश्नोत्तर (पोस्ट 18)
(लेखक: श्री जयदयालजी गोयन्दका)

आवागमन से छूटने का उपाय

जब तक परमात्मा की भक्ति उपासना निष्काम कर्मयोग आदि साधनोंद्वारा यथार्थ ज्ञान उत्पन्न होकर उसकी अग्नि से अनन्त कर्मराशि सम्पूर्णतः भस्म नहीं हो जाती, तबतक उन्हें भोगने के लिये जीव को परवश होकर शुभाशुभ कर्मों के संस्कार, मूल प्रकृति और अन्तःकरण तथा इन्द्रियों को साथ लिये लगातार बारम्बार जाना आना पड़ता है। जाने और आने में यही वस्तुएं साथ जाती आती हैं। जीव के पूर्वजन्मकृत शुभाशुभ कर्म ही इसके गर्भ में आनेके हेतु हैं और अनेक जन्मार्जित संचित कर्मों के अंश विशेष निर्मित प्रारब्ध का भोग करना ही इसके जन्म का कारण है।
कर्म या तो भोग से नाश होते हैं या प्रायश्चित्त निष्काम कर्म उपासनादि साधनोंसे नष्ट होते हैं ।
इनका सर्वतोभाव से नाश परमात्मा की प्राप्ति से होता है । जो निष्काम भावसे सदा सर्वदा परमात्मा का स्मरण करते हुए मन-बुद्धि परमात्मा को अर्पण करके समस्त कार्य परमात्मा के लिये ही करते हैं, उनकी अन्त समयकी वासना परमात्माकी प्राप्ति होती है। भगवान्‌ कहते हैं--

तस्मात्‌ सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्‌॥
........( गीता ८ । ७ )

अतएव हे अर्जुन! तू सब समय निरन्तर मेरा स्मरण कर और युद्ध भी कर, इसप्रकार मुझमें अर्पण किये हुए मन बुद्धिसे युक्त हुआ तू निस्सन्देह मुझको ही प्राप्त होगा।

इस स्थितिमें तत्त्वज्ञानकी प्राप्ति होनेके कारण अज्ञानसहित पुरुषके सभी कर्म नाश हो जाते हैं। इनसे उसका आवागमन सदाके लिये मिट जाता है। यही मुक्ति है, इसीका नाम परमपदकी प्राप्ति है, यही जीवका चरम लक्ष्य है। इस मुक्तिके दो भेद हैं-एक सद्योमुक्ति और दूसरी क्रममुक्ति। इनमें क्रममुक्तिका वर्णन तो देवयान-मार्गके प्रकरणमें ऊपर आ चुका है। सद्योमुक्ति दो प्रकारकी होती है-जीवनमुक्ति और विदेहमुक्ति।

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................००३. ०८. फाल्गुन कृ०११ सं०१९८५. कल्याण (पृ०७९३)




गुरुवार, 7 फ़रवरी 2019

जीवसम्बन्धी प्रश्नोत्तर (पोस्ट 17)



ॐ श्रीमन्नारायणाय नम:

जीवसम्बन्धी प्रश्नोत्तर (पोस्ट 17)
(लेखक: श्री जयदयालजी गोयन्दका)

सूक्ष्मदेह का आना जाना कर्मबन्धन न छूटने तक चला ही करता है |

प्रलयमें भी सूक्ष्म शरीर रहता है--

प्रलयकाल में भी जीवों के यह सत्रह तत्त्वों के शरीर ब्रह्माके समष्टि सूक्ष्मशरीरमें अपने अपने संचितकर्म-संस्कारों सहित विश्राम करते हैं और सृष्टिकी आदिमें उसीके द्वारा पुनः इनकी रचना हो जाती है; ( गीता ८ । १८ )। महाप्रलयमें ब्रह्मा सहित समष्टि व्यष्टि सम्पूर्ण सूक्ष्म शरीर ब्रह्मा के शान्त होनेपर शान्त हो जाते हैं, उस समय एक मूल प्रकृति रहती है, जिसको अव्याकृत माया कहते हैं। उसी महाकाल में जीवों के समस्त कारण शरीर अमुक कर्म-संस्कारों सहित अविकसित रूपसे विश्राम पाते हैं। सृष्टिकी आदिमें सृष्टिके आदिपुरुष द्वारा ये सब पुनः रचे जाते हैं; (गीता १४।३-४)। अर्थात्‌ परमात्मारूप अधिष्ठाता के सकाश से प्रकृति ही चराचरसहित इस जगत्‌ को रचती है, इसी तरह यह संसार आवागमनरूप चक्र में घूमता रहता है; ( गीता ९ । १० )। महाप्रलय में पुरुष और उसकी शक्तिरूपा प्रकृति-- यह दो ही वस्तु रह जाती है, उस समय जीवों का प्रकृतिसहित पुरुष में लय हुआ करता है, इसीसे सृष्टि की आदि में उनका पुनरुत्थान होता है।

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................००३. ०८. फाल्गुन कृ०११ सं०१९८५. कल्याण (पृ०७९३)




श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट१०)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट१०) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन विश...