शुक्रवार, 22 मार्च 2019

श्रीदुर्गासप्तशती -अथ प्राधानिकं रहस्यम् (पोस्ट ०३)


श्रीदुर्गादेव्यै नमो नम:

अथ श्रीदुर्गासप्तशती
अथ प्राधानिकं रहस्यम् (पोस्ट ०३)

तां प्रोवाच महालक्ष्मीस्तामसीं प्रमदोत्तमाम्।
ददामि तव नामानि यानि कर्माणि तानि ते॥11
महामाया महाकाली महामारी क्षुधा तृषा।
निद्रा तृष्णा चैकवीरा कालरात्रिर्दुरत्यया॥12 
इमानि तव नामानि प्रतिपाद्यानि कर्मभि:।
एभि: कर्माणि ते ज्ञात्वा योऽधीते सोऽश्रुते सुखम्॥13 
तामित्युक्त्वा महालक्ष्मी: स्वरूपमपरं नृप।
सत्त्‍‌वाख्येनातिशुद्धेन गुणेनेन्दुप्रभं दधौ॥14
अक्षमालाङ्कुशधरा वीणापुस्तकधारिणी।
सा बभूव वरा नारी नामान्यस्यै च सा ददौ॥15
महाविद्या महावाणी भारती वाक् सरस्वती।
आर्या ब्राह्मी कामधेनुर्वेदगर्भा च धीश्वरी॥16
अथोवाच महालक्ष्मीर्महाकालीं सरस्वतीम्।
युवां जनयतां देव्यौ मिथुने स्वानुरूपत:॥17

तब महालक्ष्मी ने स्त्रियों में श्रेष्ठ उस तामसी देवी से कहा-मैं तुम्हें नाम प्रदान करती हूँ और तुम्हारे जो-जो कर्म हैं, उनको भी बतलाती हूँ,11॥ महामाया, महाकाली, महामारी, क्षुधा, तृषा, निद्रा, तृष्णा, एकवीरा, कालरात्रि तथा दुरत्यया-॥12॥ ये तुम्हारे नाम हैं, जो कर्मो के द्वारा लोक में चरितार्थ होंगे। इन नामों के द्वारा तुम्हारे कर्मो को जानकर जो उनका पाठ करता है, वह सुख भोगता है॥13॥ राजन्! महाकाली से यों कहकर महालक्ष्मी ने अत्यन्त शुद्ध सत्त्‍‌वगुण के द्वारा दूसरा रूप धारण किया, जो चन्द्रमा के समान गौरवर्ण था॥ 14॥ वह श्रेष्ठ नारी अपने हाथों में अक्षमाला, अङ्कुश, वीणा तथा पुस्तक धारण किये हुए थी। महालक्ष्मी ने उसे भी नाम प्रदान किये॥15॥ महाविद्या, महावाणी, भारती, वाक्, सरस्वती, आर्या, ब्राह्मी, कामधेनु, वेदगर्भा और धीश्वरी (बुद्धि की स्वामिनी)- ये तुम्हारे नाम होंगे॥16
तदनन्तर महालक्ष्मी ने महाकाली और महासरस्वती से कहा-देवियों! तुम दोनों अपने-अपने गुणों के योग्य स्त्री-पुरुष के जोडे उत्पन्न करो॥17

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीदुर्गासप्तशती पुस्तक कोड 1281 से



गुरुवार, 21 मार्च 2019

श्रीदुर्गासप्तशती -अथ प्राधानिकं रहस्यम् (पोस्ट ०२)


श्रीदुर्गादेव्यै नमो नम:

अथ श्रीदुर्गासप्तशती
अथ प्राधानिकं रहस्यम् (पोस्ट ०२)

मातुलुङ्गं गदां खेटं पानपात्रं च बिभ्रती।
नागं लिङ्गं च योनिं च बिभ्रती नृप मूर्धनि॥5 
तप्तकाञ्चनवर्णाभा तप्तकाञ्चनभूषणा।
शून्यं तदखिलं स्वेन पूरयामास तेजसा॥6
शून्यं तदखिलं लोकं विलोक्य परमेश्वरी।
बभार परमं रूपं तमसा केवलेन हि॥7
सा भिन्नाञ्जनसंकाशा दंष्ट्राङ्कितवरानना।
विशाललोचना नारी बभूव तनुमध्यमा॥8  
खड्गपात्रशिर:खेटैरलंकृतचतुर्भुजा।
कबन्धहारं शिरसा बिभ्राणा हि शिर:स्रजम्॥9
सा प्रोवाच महालक्ष्मीं तामसी प्रमदोत्तमा।
नाम कर्म च मे मातर्देहि तुभ्यं नमो नम:॥10 

राजन! वे अपनी चार भुजाओं में मातुलुङ्ग (बिजौरे का फल), गदा, खेट (ढाल) एवं पानपात्र और मस्तक पर नाग, लिङ्ग तथा योनि-इन वस्तुओं को धारण करती हैं॥5॥ तपाये हुए सुवर्ण के समान उनकी कान्ति है, तपाये हुए सुवर्ण के ही उनके भूषण हैं। उन्होंने अपने तेज से इस शून्य जगत् को परिपूर्ण किया है॥6॥ परमेश्वरी महालक्ष्मी ने इस सम्पूर्ण जगत् को शून्य देखकर केवल तमोगुणरूप उपाधि के द्वारा एक अन्य उत्कृष्ट रूप धारण किया॥7॥ वह रूप एक नारी के रूप में प्रकट हुआ, जिसके शरीर की कान्ति निखरे हुए काजल की भाँति काले रंग की थी। उसका श्रेष्ठ मुख दाढों से सुशोभित था। नेत्र बडे-बडे और कमर पतली थी॥8॥ उसकी चार भुजाएं ढाल, तलवार, प्याले और कटे हुए मस्तक से सुशोभित थीं। वह वक्ष:स्थल पर कबन्ध (धड) की तथा मस्तक पर मुण्डों की माला धारण किये हुए थी ॥ 9 ॥ इस प्रकार प्रकट हुई स्त्रियों में श्रेष्ठ तामसी देवी ने महालक्ष्मी से कहा माता जी ! आपको नमस्कार है । मुझे मेरा नाम और कर्म बताइये ॥10 ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीदुर्गासप्तशती पुस्तक कोड 1281 से




दीवानों की दुनियाँ (पोस्ट 04)

❈ श्री हरिः शरणम् ❈

दीवानों की दुनियाँ (पोस्ट 04)


सांसारिक लोग धन, मान, ऐश्वर्य, प्रभुता, बल, कीर्ति आदिकी प्राप्तिके लिये परमात्माकी कुछ भी परवा न कर अपना सारा जीवन इन्हीं पदार्थोंके प्राप्त करने में लगा देते हैं और इसीको परम पुरुषार्थ मानते हैं। इसके विपरीत परमात्माकी प्राप्तिके अभिलाषी पुरुष परमात्माके लिये इन सारी लोभनीय वस्तुओंका तृणवत्‌, नहीं, नहीं, विषवत्‌ परित्याग कर देते हैं और उसीमेंउनको बड़ा आनन्द मिलता है। पहलेको मान प्राण समान प्रिय है तो दूसरा मान-प्रतिष्ठाको शूकरी-विष्ठा समझता है। पहला धनको-जीवनका आधार समझता है तो दूसरा लौकिक धनको परमधनकी प्राप्तिमें प्रतिबन्धक मानकर उसका त्याग कर देता है। पहला प्रभुता प्राप्तकर जगत्‌पर शासन करना चाहता है तो दूसरा ‘तृणादपि सुनीचेन तरोरिव सहिष्णुना’ बनकर महापुरुषोंके चरणकी रजका अभिषेक करनेमें ही अपना मंगल मानता है। दोनोंके भिन्न भिन्न ध्येय और मार्ग हैं। ऐसी स्थितिमें एक दूसरेको पथभ्रान्त समझना कोई आश्चर्यकी बात नहीं है। यह तो विषयी और मुमुक्षुका अन्तर है। परन्तु इससे पहले किये हुए विवेचनके अनुसार मुक्त अथवा भगवदीय लीलामें सम्मिलित भक्तके लिये तो जगत्‌का स्वरूप ही बदल जाता है। इसीसे वह इस खेलसे मोहित नहीं होता। जब छोटे लड़के काँचके या मिट्टीके खिलौनोंसे खेलते और उनके लेन-देन ब्याह-शादीमें लगे रहते हैं, तब बड़े लोग उनके खेलको देखकर हँसा करते हैं, परन्तु छोटे बच्चोंकी दृष्टिमें वह बड़ोंकी भांति कल्पित वस्तुओंका खेल नहीं होता। वे उसे सत्य समझते हैं और जरा-जरासी वस्तुके लिये लड़ते हैं, किसी खिलौनेके टूट जाने या छिन जानेपर रोते हैं, वास्तवमें उनके मनमें बड़ा कष्ट होता है। नया खिलौना मिल जानेपर वे बहुत हर्षित होते हैं। जब माता-पिता किसी ऐसे बच्चेको, जिसके मिट्टीके खिलौने टूट गये हैं या छिन गये हैं, रोते देखते हैं तो उसे प्रसन्न करनेके लिये कुछ खिलौने और दे देते हैं, जिससे वह बच्चा चुप हो जाता है और अपने मनमें बहुत हर्षित होता है परन्तु सच्चे हितैषी माता-पिता बालको केवल खिलौना देकर ही हर्षित नहीं करना चाहते, क्योंकि इससे तो इस खिलौनेके टूटनेपर भी उन्हें फिर रोना पड़ेगा। अतएव वे समझाकर उनका यह भ्रम भी दूर कर देना चाहते हैं कि खिलौने वास्तवमें सच्ची वस्तु नहीं है। मिट्टीकी मामूली चीज हैं, उनके जाने-आने या बनने-बिगड़नेमें कोई विशेष लाभ-हानि नहीं है। इसी प्रकारकी दशा संसारके मनुष्यों की हो रही है।

शेष आगामी पोस्ट में ...................

...............००४. ०५. मार्गशीर्ष कृष्ण ११ सं०१९८६वि०. कल्याण ( पृ० ७५९ )


श्रीदुर्गासप्तशती -अथ प्राधानिकं रहस्यम् (पोस्ट ०१)


श्रीदुर्गादेव्यै नमो नम:

अथ श्रीदुर्गासप्तशती
अथ प्राधानिकं रहस्यम् (पोस्ट ०१)

ॐ अस्य श्रीसप्तशतीरहस्यत्रयस्य नारायण ऋषिरनुष्टुप्छन्द:, महाकालीमहालक्ष्मीमहासरस्वत्यो देवता यथोक्तफलावाप्त्यर्थ जपे विनियोग:। 

राजोवाच 

भगवन्नवतारा मे चण्डिकायास्त्वयोदिता:।
एतेषां प्रकृतिं ब्रह्मन् प्रधानं वक्तुमर्हसि॥1
आराध्यं यन्मया देव्या: स्वरूपं येन च द्विज।
विधिना ब्रूहि सकलं यथावत्प्रणतस्य मे॥2
ऋषिरुवाच इदं रहस्यं परममनाख्येयं प्रचक्षते।
भक्तोऽसीति न मे किञ्चित्तवावाच्यं नराधिप॥3  
सर्वस्याद्या महालक्ष्मीस्त्रिगुणा परमेश्वरी।
लक्ष्यालक्ष्यस्वरूपा सा व्याप्य कृत्स्नं व्यवस्थिता॥4

अर्थ :- ॐ सप्तशती के इन तीनों रहस्यों के नारायण ऋषि, अनुष्टुप् छन्द तथा महाकाली, महालक्ष्मी एवं महासरस्वती देवता हैं। शास्त्रोक्त फल की प्राप्ति के लिये जप में इनका विनियोग होता है।
राजा बोले- भगवन्! आपने चण्डिका के अवतारों की कथा मुझसे कही। ब्रह्मन्! अब इन अवतारों की प्रधान प्रकृति का निरूपण कीजिये॥1
द्विजश्रेष्ठ! मैं आपके चरणों में पडा हूँ। मुझे देवी के जिस स्वरूप की और जिस विधि से आराधना करनी है, वह सब यथार्थरूप से बतलाइये॥2
ऋषि कहते हैं-राजन्! यह रहस्य परम गोपनीय है। इसे किसी से कहने योग्य नहीं बतलाया गया है; किंतु तुम मेरे भक्त हो, इसलिये तुमसे न कहने योग्य मेरे पास कुछ भी नहीं है॥3
त्रिगुणमयी परमेश्वरी महालक्ष्मी ही सबका आदि कारण हैं। वे ही दृश्य और अदृश्यरूप से सम्पूर्ण विश्व को व्याप्त करके स्थित हैं॥4

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीदुर्गासप्तशती पुस्तक कोड 1281 से






जगजननी जय ! जय !! मा ! जगजननी जय ! जय !!




हम अति दीन दुखी मा! विपत-जाल घेरे ।
हैं कपूत अति कपटी, पर बालक तेरे ॥




बुधवार, 20 मार्च 2019

दीवानों की दुनियाँ (पोस्ट 03)

❈ श्री हरिः शरणम् ❈

दीवानों की दुनियाँ (पोस्ट 03)


इसी प्रकार लोकदृष्टि से भासनेवाले महान्‌ से महान्‌ दुःखमें वे महात्मा विचलित नहीं होते, क्योंकि उनकी दृष्टिमें दुःख-सुख कोई वस्तु ही नहीं रह गये हैं । ऐसे महापुरुष ही ब्रह्म में नित्य स्थित समझे जाते हैं। भगवान्‌ने गीतामें कहा है-

न प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम्‌।
स्थिरबुद्धिरसंमूढो ब्रह्मविद्ब्रह्मणि स्थितः॥


ऐसे स्थिरबुद्धि संशय-शून्य ब्रह्मवित्‌ महात्मा लोकदृष्टिसे प्रिय प्रतीत होनेवाली वस्तुको पाकर हर्षित नहीं होते और लोकदृष्टिसे अप्रिय पदार्थको पाकर उद्विग्न नहीं होते, क्योंकि वे सच्चिदानन्दघन सर्वरूप परब्रह्म परमात्मामें नित्य अभिन्न भावसे स्थित हैं। जगत्‌के लोगोको जिस घटनामें अमंगल दीखता है, महात्माओंकी दृष्टिमें वही घटना ब्रह्मसे ओतप्रोत होती है, इसलिये वे न तो ऐसी घटनाका विरोध करते हैं और न उससे विपरीत घटनाके लिये आकांक्षा करते हैं। क्योंकि वे सांसारिक शुभाशुभके परित्यागी हैं।


ऐसे महापुरुषोंद्वारा जो कुछ क्रियाएं होती हैं, उनसे कभी जगत्‌का अमंगल नहीं हो सकता, चाहे वे क्रियाएं लोकदृष्टिमें प्रतिकूल ही प्रतीत होती हों। सत्यपर स्थित और केवल सत्यके ही लक्ष्यपर चलनेवाले लोगोंकी चाल विपरीतगति असत्य-परायण लोगोंको प्रतिकूल प्रतीत हो सकती है और वे सब उनको दोषी भी बतला सकते है, परन्तु सत्यपर स्थित महात्मा उन लोगोंकी कोई परवा नहीं करते। वे अपने लक्ष्यपर सदा अटलरूपसे स्थित रहते हैं। लोगोंकी दृष्टिमें महाभारत-युद्धसे भारतवर्षकी बहुत हानि हुई, पर जिन परमात्माके संकेतसे यह संहार-लीला सम्पन्न हुई, उनकी, और उनके रहस्य को समझनेवाले दिव्यकर्मी पुरुषों की दृष्टिमें उससे देश और विश्व का बड़ा भारी मंगल हुआ । इसीलिये दिव्यकर्मी अर्जुन भगवान्‌ के सङ्केतानुसार सब प्रकार के धर्मों का आश्रय छोड़कर केवल भगवान्‌ के वचनके अनुसार ही महासंग्रामके लिये सहर्ष प्रस्तुत होगया था । जगत्‌में ऐसी बहुत-सी बातें होती हैं जो बहुसंख्यक लोगोंके मतसे बुरी होनेपर भी उनके तत्त्वज्ञके मतमें अच्छी होती हैं और यथार्थमें अच्छी ही होती हैं, जिनका अच्छापन समयपर बहुसंख्यक लोगोंके सामने प्रकट और प्रसिद्ध होनेपर वे उसे मान भी लेते हैं, अथवा ऐसा भी होता है कि उनका अच्छापन कभी प्रसिद्ध ही नहीं हो पाता। परन्तु इससे उनके अच्छे होनेमें कोई आपत्ति नहीं होती। सत्य कभी असत्य नहीं हो सकता, चाहे उसे सारा संसार सदा असत्य ही समझता रहे। अतएव जो भगवत्तत्त्व और भगवान्‌की दिव्य लीलाका रहस्य समझते हैं, उनके दृष्टिकोणमें जो कुछ यथार्थ प्रतीत होता है वही यथार्थ है। परन्तु इनकी यथार्थ प्रतीति साधारण बहुसंख्यक लोगोंकी समझसे प्रायः प्रतिकूल ही हुआ करती है। क्योंकि दोनोंके ध्येय और साधनामें पूरी प्रतिकूलता रहती है।

शेष आगामी पोस्ट में ...................
...............००४. ०५. मार्गशीर्ष कृष्ण ११ सं०१९८६वि०. कल्याण ( पृ० ७५९ )


रंगों का त्योहार –- होली





सभी को होली के पावन पर्व पर
रंगभरी हार्दिक शुभकामनाएं !!


रंगों का त्योहार –- होली


होली जहाँ एक ओर एक सामाजिक एवं धार्मिक त्योहार है, वहीं यह रंगों का त्योहार भी है | आबाल-वृद्ध, नर-नारी-सभी इसे बड़े उत्साह से मनाते हैं | यह एक देशव्यापी त्योहार भी है | इसमें वर्ण अथवा जातिभेद को कोई स्थान नहीं है | इस अवसर पर लकडियों तथा कंडों आदि का ढेर लगाकर होलिकापूजन किया जाता है फिर उसमें आग लगाई जाती है | पूजन के समय निम्न मंत्र का उच्चारण किया जाता है –
‘असृक्पाभयसन्त्रस्तै: कृता त्वं होलि बालिशै: |
अतस्त्वां पूजयिष्यामि भूते भूतिप्रदा भव ||’
इस पर्व को नवान्नेष्टि पर्व भी कहा जाता है | खेत से नवीन अन्न को यज्ञ में हवन करके प्रसाद लेने की परम्परा भी है | उस अन्न को होला कहते हैं | इसी से इसका नाम होलिकोत्सव पड़ा |
होलिकोत्सव मनाने के सम्बन्ध में अनेक मत प्रचलित हैं | यहाँ कुछ प्रमुख मतों का उल्लेख किया गया है –
(१). ऐसी मान्यता है कि पर्व का सम्बन्ध ‘काम दहन’ से है | भगवान् शंकर ने अपनी क्रोधाग्नि से कामदेव को भस्म कर दिया था | तभी से इस त्योहार का प्रचलन हुआ |
(२). फाल्गुन शुक्ल अष्टमी से पूर्णिमापर्यंत आठ दिन होलाष्टक मनाया जाता है | भारत के कई प्रदेशों में होलाष्टक शुरू होने पर एक पेड की शाखा काटकर उसमें रंग बिरंगे कपडों के टुकड़े बांधते हैं | इस शाखा को जमीन में गाड दिया जाता है | सभी लोग इसके नीचे होलिकोत्सव मनाते हैं |
(३).यह त्योहार हिरण्यकशिपु की बहन की स्मृति में भी मनाया जाता है | ऐसा कहा जाता है कि हिरण्यकशिपु की बहन होलिका वरदान के प्रभाव से नित्यप्रति अग्नि-स्नान करती और जलती नहीं थी | हिरण्यकशिपु ने अपनी बहन से प्रह्लाद को गोद मेंलेकर अग्नि-स्नान के लिए कहा | उसने समझा था कि ऐसा करने से प्रह्लाद जल जायेगी तथा होलिका बच निकलेगी |
हिरण्यकशिपु की बहन ने ऐसा ही किया, होलिका तो जल गयी किन्तु प्रह्लाद बच गए | तभी से इस त्योहार के मनाने की प्रथा चल पडी |
(४).इस दिन आम्र-मंजरी तथा चन्दन को मिलाकर खाने का बड़ा माहात्म्य है | कहते हैं कि जो लोग फाल्गुन पूर्णिमा के दिन एकाग्र-चित्त से हिंडोले में झूलते हुए श्री गोविन्द पुरुषोत्तम के दर्शन करते हैं, वे निश्चय ही वैकुंठलोक में वास करते हैं |
(५).भविष्यपुराण में कहा गया है कि एक बार नारदजी ने महाराज युधिष्टिर से कहा—राजन् ! फाल्गुन पूर्णिमा के दिन सब लोगों को अभयदान देना चाहिए, जिससे सम्पूर्ण प्रजा उल्लासपूर्वक हँसे | बालक गाँव के बाहर से लकडी-कंडे लाकर ढेर लगाएं | होलिका का पूर्ण सामग्रीसहित विधिवत् पूजन करें | होलिका दहन करें | इस से सारे अनिष्ट दूर हो जाते हैं |
होली सम्मिलन, मित्रता एवं एकता का पर्व है | इस दिन द्वेषभाव भूलकर सब से प्रेम और भाईचारे से मिलना चाहिए | यही इस पर्व का मूल उद्देश्य एवं सन्देश है |

{कल्याण—व्रतपर्वोत्सव अंक}


मंगलवार, 19 मार्च 2019

दीवानों की दुनियाँ (पोस्ट 02)

❈ श्री हरिः शरणम् ❈

दीवानों की दुनियाँ (पोस्ट 02)


अजब पहेली है, पहले आप कहते हैं कि ‘मेरे अव्यक्त स्वरूप से सारा जगत्‌ भरा है, फिर कहते हैं, जगत्‌ मुझ में है, मैं उसमें नहीं हूं, इसके बाद ही कह देते हैं कि न तो यह जगत्‌ ही मुझमें है और न मैं इसमें हूं। यह सब मेरी माया का अप्रतिम प्रभाव है।’ मेरी लीला है। यह अजब उलझन उन महात्माओंकी बुद्धिमें सुलझी हुई होती है, वे इसका यथार्थ मर्म समझते हैं। वे जानते हैं कि जगत्‌में परमात्मा उसी तरह सत्यरूपसे परिपूर्ण है, जैसे जलसे बर्फ ओतप्रोत रहती है यानी जल ही बर्फके रूपमें भास रहा है। यह सारा विश्व कोई भिन्न वस्तु नहीं है; परमात्माके सङ्कल्पसे, बाजीगर के खेलकी भांति, उस सङ्कल्पके ही आधारपर स्थित है। जब कोई भिन्न वस्तु ही नहीं है तब उसमें किसीकी स्थिति कैसी? इसीलिये परमात्माके सङ्कल्पमें ही विश्वकी स्थिति होनेके कारण वास्तवमें परमात्मा उसमें स्थित नहीं है। परन्तु विश्वकी यह स्थिति भी परमात्मामें वास्तविक नहीं है, यह तो उनका एक सङ्कल्पमात्र है । वास्तव में केवल परमात्मा ही अपने आपमें लीला कर रहे हैं, यही उनका रहस्य है ! इस रहस्यको तत्त्वसे समझनेके कारण ही महात्माओं की दृष्टि दूसरी होजाती है । इसीलिये वे प्रत्येक शुभाशुभ घटनामें सम रहते हैं-जगत्‌ का बड़े से बड़ा लाभ उनको आकर्षित नहीं कर सकता, क्योंकि वे जिस परम वस्तुको पहचानकर प्राप्त कर चुके हैं उसके सामने कोई लाभ, लाभ ही नहीं है। 

शेष आगामी पोस्ट में ...................
...............००४. ०५. मार्गशीर्ष कृष्ण ११ सं०१९८६वि०. कल्याण (पृ० ७५९)


सोमवार, 18 मार्च 2019

दीवानों की दुनियाँ (पोस्ट 01)

❈ श्री हरिः शरणम् ❈
दीवानों की दुनियाँ (पोस्ट 01)
या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी।
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः॥
भगवान्‌ श्रीकृष्ण कहते हैं कि "जो सब भूत प्राणियोंके लिये रात्रि है, संयमी पुरुष उसमें जागता है और सब भूतप्राणी जिसमें जागते हैं, तत्त्वदर्शी मुनिके लिये वह रात्रि है।" अर्थात्‌ साधारण भूतप्राणी और यथार्थ तत्त्वके जाननेवाले अन्तर्मुखी योगियोंके ज्ञानमें रातदिनका अन्तर है। साधारण संसारी-लोगोंकी स्थिति क्षणभंगुर विनाशशील सांसारिक भोगोंमें होती है, उल्लूके लिये रात्रीकी भाँति उनके विचारमें वही परम सुखकर हैं, परन्तु इसके विपरीत तत्त्वदर्शियोंकी स्थिति नित्य शुद्ध बोधस्वरूप परमानन्दमें परमात्मामें होती है, उनके विचारमें सांसारिक विषयोंकी सत्ता ही नहीं है, तब उनमें सुखकी प्रतीति तो होती ही कहाँसे? इसीलिये सांसारिक मनुष्य जहां विषयोंके संग्रह और भोगमें लगे रहते हैं,-उनका जीवन भोग-परायण रहता है, वहां तत्त्वज्ञ पुरुष न तो विषयोंकी कोई परवा करते हैं और न भोगोंको कोई वस्तु ही समझते हैं। साधारण लोगोंकी दृष्टिमें ऐसे महात्मा मूर्ख और पागल जँचते हैं, परन्तु महात्माओंकी दृष्टिमें तो एक ब्रह्मकी अखण्ड सत्ताके सिवा मूर्ख-विद्वान्‌की कोई पहेली ही नहीं रह जाती। इसीलिये वे जगत्‌को सत्य और सुखरूप समझनेवाले अविद्याके फन्देमें फँसकर रागद्वेषके आश्रयसे भोगोंमें रचे-पचे हुए लोगोंको समय समयपर सावधान करके उन्हें जीवनका यथार्थ पथ दिखलाया करते हैं। ऐसे पुरुष जीवन-मत्यु दोनोंसे ऊपर उठे हुए होते हैं। अन्तर्जगत्‌में प्रविष्ट होकर दिव्यदृष्टि प्राप्त कर लेनेके कारण इनकी दृष्टिमें बहिर्जगत्‌का स्वरूप कुछ विलक्षण ही हो जाता है। ऐसे ही महात्माओंके लिये भगवान्‌ने कहा है-
वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः॥
‘सब कुछ एक वासुदेव ही है, ऐसा मानने-जाननेवाला महात्मा अति दुर्लभ है। ऐसे महात्मा देखते हैं कि ‘सारा जगत्‌ केवल एक परमात्माका ही विस्तार है, वही अनेक रूपोंसे इस संसारमें व्यक्त हो रहे हैं। प्रत्येक व्यक्त वस्तुके अन्दर परमात्मा व्याप्त हैं। असलमें व्यक्त वस्तु भी उस अव्यक्तसे भिन्न नहीं है। परम रहस्यमय वह एक परमात्मा ही अपनी लीलासे भिन्न भिन्न व्यक्तरूपोंमें प्रतिभासित हो रहे हैं, जिनको प्रतिभासित होते हैं, उनकी सत्ता भी उन परमात्मासे पृथक्‌ नहीं है।’ ऐसे महात्मा ही परमात्माकी इस अद्भुत रहस्यमय पवित्र गीतोक्त घोषणाका पद पद पर प्रत्यक्ष करते हैं कि-
मया ततमिदं सर्वं जगद्‌व्यक्तमूर्तिना।
मत्स्थानि सर्वभूतानि न चाहं तेष्ववस्थितः॥
न च मत्स्थानि भूतानि पश्य मे योगमैश्वरम्‌।
भूतभृन्न च भूतस्थो ममात्मा भूतभावनः॥
‘मुझ सच्चिदान्दघन अव्यक्त परमात्मासे यह समस्त विश्व परिपूर्ण है, और ये समस्त भूत मुझमें स्थित हैं, परन्तु मैं उनमें नहीं हूं, ये समस्त भूत भी मुझमें स्थित नहीं हैं, मेरी योगमाया और प्रभावको देख, कि समस्त भूतोंका धारण पोषण करनेवाला मेरा आत्मा उन भूतोंमें स्थित नहीं है।’
शेष आगामी पोस्ट में ...................
...............००४. ०५. मार्गशीर्ष कृष्ण ११ सं०१९८६वि०. कल्याण (पृ० ७५९)


शुक्रवार, 15 मार्च 2019

जय सियाराम

“ सीता अनुज समेत प्रभु नील जलद तनु स्याम।
मम हियँ बसहु निरंतर सगुनरूप श्री राम॥“
( हे नीले मेघ के समान श्याम शरीर वाले सगुण रूप श्री रामजी ! सीताजी और छोटे भाई लक्ष्मणजी सहित प्रभु (आप) निरंतर मेरे हृदय में निवास कीजिए)


श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-छठा अध्याय..(पोस्ट०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - छठा अध्याय..(पोस्ट०३) विराट् शरीर की उत्पत्ति स्मरन्विश्वसृजामीशो विज्ञापितं ...