हे जगद्गुरो ! तुम करुणामय हो !
तुम्हारा इस भांति अपने दासों को विषयों की ओर प्रवृत्त करना असम्भव है। जो तुम्हारा दुर्लभ दर्शन पाकर तुमसे विषय-जन्य सुख माँगता है, वह सेवक नहीं, बनिया है। मैं जैसे तुम्हारा निष्काम सेवक हूं, वैसे तुम भी मेरे अभिसन्धि-शून्य स्वामी हो। अतः राजा और उसके सेवक की भांति हम लोगोंमें अभिसन्धिकी कोई आवश्यकता नहीं है। हे वरदानियों में श्रेष्ठ! यदि मुझे मनोवाञ्छित वर देना ही चाहते हो, तो यही एक वर दो कि मेरे हृदय में कभी विषय-वासनाओं का अंकुर न उगे।
सांसारिक अभिलाषाओं का अंकुर सच्चे भक्तके हृदय में जम ही नहीं सकता, क्योंकि राग-द्वेषादि तभी तक जीव की सद्वृत्तियों को लूटते रहते हैं, घर तभी तक उसे जेलखाना है और मोह तभी तक उसके पैर की बेड़ी है, जबतक, नाथ ! वह तुम्हारा दास नहीं हो गया-
तावद्रागादयस्तेनास्तावत्का रागृहं गृहम्।
तावन्मोहोंघ्रिनिगड़ो यावत्कृष्ण न ते जनाः॥
-----श्री वियोगी हरि जी
(००४. ०५. मार्गशीर्ष कृष्ण ११ सं० १९८६वि०.कल्याण ( पृ०७५५ )
तुम्हारा इस भांति अपने दासों को विषयों की ओर प्रवृत्त करना असम्भव है। जो तुम्हारा दुर्लभ दर्शन पाकर तुमसे विषय-जन्य सुख माँगता है, वह सेवक नहीं, बनिया है। मैं जैसे तुम्हारा निष्काम सेवक हूं, वैसे तुम भी मेरे अभिसन्धि-शून्य स्वामी हो। अतः राजा और उसके सेवक की भांति हम लोगोंमें अभिसन्धिकी कोई आवश्यकता नहीं है। हे वरदानियों में श्रेष्ठ! यदि मुझे मनोवाञ्छित वर देना ही चाहते हो, तो यही एक वर दो कि मेरे हृदय में कभी विषय-वासनाओं का अंकुर न उगे।
सांसारिक अभिलाषाओं का अंकुर सच्चे भक्तके हृदय में जम ही नहीं सकता, क्योंकि राग-द्वेषादि तभी तक जीव की सद्वृत्तियों को लूटते रहते हैं, घर तभी तक उसे जेलखाना है और मोह तभी तक उसके पैर की बेड़ी है, जबतक, नाथ ! वह तुम्हारा दास नहीं हो गया-
तावद्रागादयस्तेनास्तावत्का
तावन्मोहोंघ्रिनिगड़ो यावत्कृष्ण न ते जनाः॥
-----श्री वियोगी हरि जी
(००४. ०५. मार्गशीर्ष कृष्ण ११ सं० १९८६वि०.कल्याण ( पृ०७५५ )