रविवार, 24 मार्च 2019

हे जगद्‌गुरो ! तुम करुणामय हो !

हे जगद्‌गुरो ! तुम करुणामय हो ! 

तुम्हारा इस भांति अपने दासों को विषयों की ओर प्रवृत्त करना असम्भव है। जो तुम्हारा दुर्लभ दर्शन पाकर तुमसे विषय-जन्य सुख माँगता है, वह सेवक नहीं, बनिया है। मैं जैसे तुम्हारा निष्काम सेवक हूं, वैसे तुम भी मेरे अभिसन्धि-शून्य स्वामी हो। अतः राजा और उसके सेवक की भांति हम लोगोंमें अभिसन्धिकी कोई आवश्यकता नहीं है। हे वरदानियों में श्रेष्ठ! यदि मुझे मनोवाञ्छित वर देना ही चाहते हो, तो यही एक वर दो कि मेरे हृदय में कभी विषय-वासनाओं का अंकुर न उगे।

सांसारिक अभिलाषाओं का अंकुर सच्चे भक्तके हृदय में जम ही नहीं सकता, क्योंकि राग-द्वेषादि तभी तक जीव की सद्‌वृत्तियों को लूटते रहते हैं, घर तभी तक उसे जेलखाना है और मोह तभी तक उसके पैर की बेड़ी है, जबतक, नाथ ! वह तुम्हारा दास नहीं हो गया-

तावद्रागादयस्तेनास्तावत्कारागृहं गृहम्‌।
तावन्मोहोंघ्रिनिगड़ो यावत्कृष्ण न ते जनाः॥

-----श्री वियोगी हरि जी
(००४. ०५. मार्गशीर्ष कृष्ण ११ सं० १९८६वि०.कल्याण ( पृ०७५५ )


श्रीदुर्गासप्तशती -वैकृतिकं रहस्यम् (पोस्ट ०२)


श्रीदुर्गादेव्यै नमो नम:

अथ श्रीदुर्गासप्तशती
अथ वैकृतिकं रहस्यम्
(पोस्ट ०२)

एषा सा वैष्णवी माया महाकाली दुरत्यया।
आराधिता वशीकुर्यात् पूजाकर्तुश्चराचरम्॥6 
सर्वदेवशरीरेभ्यो याऽऽविर्भूतामितप्रभा।
त्रिगुणा सा महालक्ष्मी: साक्षान्महिषमर्दिनी॥7 
श्वेतानना नीलभुजा सुश्वेतस्तनमण्डला।
रक्त मध्या रक्त पादा नीलजङ्घोरुरुन्मदा॥8 
सुचित्रजघना चित्रमाल्याम्बरविभूषणा।
चित्रानुलेपना कान्तिरूपसौभाग्यशालिनी॥9 
सुचित्रजघना चित्रमाल्याम्बरविभूषणा।
चित्रानुलेपना कान्तिरूपसौभाग्यशालिनी॥9 
अष्टादशभुजा पूज्या सा सहस्त्रभुजा सती।
आयुधान्यत्र वक्ष्यन्ते दक्षिणाध:करक्रमात्॥10 

 ये महाकाली भगवान् विष्णु की दुस्तर माया हैं। आराधना करने पर ये चराचर जगत् को अपने उपासक के अधीन कर देती हैं॥6॥ सम्पूर्ण देवताओं के अङ्गों से जिनका प्रादुर्भाव हुआ था, वे अनन्त कान्ति से युक्त साक्षात् महालक्ष्मी हैं। उन्हें ही त्रिगुणमयी प्रकृति कहते हैं तथा वे ही महिषासुर का मर्दन करने वाली हैं॥7 उनका मुख गोरा, भुजाएँ श्याम, स्तनमण्डल अत्यन्त श्वेत, कटिभाग और चरण लाल तथा जङ्घा और पिंडली नीले रंग की हैं। अजेय होने के कारण उनको अपने शौर्य का अभिमान है॥8 कटि के आगे का भाग बहुरंगे वस्त्र से आच्छादित होने के कारण अत्यन्त सुन्दर एवं विचित्र दिखायी देता है। उनकी माला, वस्त्र, आभूषण तथा अङ्गराग सभी विचित्र हैं। वे कान्ति, रूप और सौभाग्य से सुशोभित हैं॥9 यद्यपि उनकी हजारों भुजाएँ हैं, तथापि उन्हें अठारह भुजाओं से युक्त मानकर उनकी पूजा करनी चाहिये। अब उनके दाहिनी ओर के निचले हाथों से लेकर बायीं ओर के निचले हाथों तक में क्रमश: जो अस्त्र हैं, उनका वर्णन किया जाता है॥10 

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीदुर्गासप्तशती पुस्तक कोड 1281 से





श्रीदुर्गासप्तशती -वैकृतिकं रहस्यम् (पोस्ट ०१)


श्रीदुर्गादेव्यै नमो नम:

अथ श्रीदुर्गासप्तशती
अथ वैकृतिकं रहस्यम्
(पोस्ट ०१)

ॐ त्रिगुणा तामसी देवी सात्त्विकी या त्रिधोदिता।
सा शर्वा चण्डिका दुर्गा भद्रा भगवतीर्यते॥1
योगनिद्रा हरेरुक्ता महाकाली तमोगुणा।
मधुकैटभनाशार्थ यां तुष्टावाम्बुजासन:॥2 
दशवक्त्रा दशभुजा दशपादाञ्जनप्रभा।
विशालया राजमाना त्रिंशल्लोचनमालया॥3 
स्फुरद्दशनदंष्ट्रा सा भीमरूपापि भूमिप।
रूपसौभाग्यकान्तीनां सा प्रतिष्ठा महाश्रिय:॥4 
खड्गबाणगदाशूलचक्रशङ्खभुशुण्डिभृत्।
परिघं कार्मुकं शीर्ष निश्च्योतद्रुधिरं दधौ॥5

ऋषि कहते हैं- राजन्! पहले जिन सत्त्‍‌वप्रधाना त्रिगुणामयी महालक्ष्मी के तामसी आदि भेद से तीन स्वरूप बतलाये गये, वे ही शर्वा, चण्डिका, दुर्गा, भद्रा और भगवती आदि अनेक नामों से कही जाती हैं॥1  तमोगुणमयी महाकाली भगवान् विष्णु की योगनिद्रा कही गयी हैं। मधु और कैटभ का नाश करने के लिये ब्रह्माजी ने जिनकी स्तुति की थी, उन्हीं का नाम महाकाली है॥2  उनके दस मुख, दस भुजाएँ और दस पैर हैं। वे काजल के समान काले रंग की हैं अथा तीस नेत्रों की विशाल पंक्ति से सुशोभित होती हैं॥3 भूपाल! उनके दाँत और दाढें चमकती रहती हैं। यद्यपि उनका रूप भयंकर है, तथापि वे रूप, सौभाग्य, कान्ति एवं महती सम्पदा की अधिष्ठान (प्राप्तिस्थान) हैं॥4 वे अपने हाथों में खड्ग, बाण, गदा, शूल, चक्र, शङ्ख, भुशुण्डि, परिघ, धनुष तथा जिससे रक्त चूता रहता है, ऐसा कटा हुआ मस्तक धारण करती हैं॥5 

इन अवतारोंका क्रम इस प्रकार है--
चतुर्भुजा महालक्ष्मी (मूल प्रकृति)
चतुर्भुजा महाकाली
चतुर्भुजा महासरस्वती
शङ्कर-सरस्वती
विष्णु और गौरी
ब्रह्मा और लक्ष्मी

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीदुर्गासप्तशती पुस्तक कोड 1281 से





शनिवार, 23 मार्च 2019

श्रीदुर्गासप्तशती -अथ प्राधानिकं रहस्यम् (पोस्ट ०६)


श्रीदुर्गादेव्यै नमो नम:

अथ श्रीदुर्गासप्तशती
अथ प्राधानिकं रहस्यम् (पोस्ट ०६)

महालक्ष्मीर्महाराज सर्वसत्त्‍‌वमयीश्वरी।
निराकारा च साकारा सैव नानाभिधानभृत्॥30
नामान्तरैर्निरूप्यैषा नामन नान्येन केनचित्॥ॐ॥31

महाराज! महालक्ष्मी ही सर्वसत्त्‍‌वमयी तथा सब सत्त्‍‌वों की अधीश्वरी हैं। वे ही निराकार और साकाररूप में रहकर नाना प्रकार के नाम धारण करती हैं॥30॥ सगुणवाचक सत्य, ज्ञान, चित्, महामाया आदि नामान्तरों से इन महालक्ष्मी का निरूपण करना चाहिये। केवल एक नाम (महालक्ष्मी मात्र) से अथवा अन्य प्रत्यक्ष आदि प्रमाण से उनका वर्णन नहीं हो सकता॥31

इति प्राधानिकं * रहस्यं संपूर्णम्
********************************************
* प्रथम रहस्य में परा शक्ति महालक्ष्मी के स्वरूप का प्रतिपादन किया गया है; महालक्ष्मी ही देवी की के समस्त विकृतियों (अवतारों)- की प्रधान प्रकृति हैं, अतएव इस प्रकरण को प्राकृतिक या प्राधानिक रहस्य कहते हैं। इसके अनुसार महालक्ष्मी ही सब प्रपञ्च तथा सम्पूर्ण अवतारों का आदि कारण हैं। तीनों गुणों की   साम्यावस्थारूपा प्रकृति भी उनसे भिन्न नहीं है। स्थूल-सूक्ष्म, दृश्य-अदृश्य अथवा व्यक्त-अव्यक्त-सब है। उन्हींके स्वरूप हैं। वे सर्वत्र व्यापक हैं। अस्ति, भाति, प्रिय, नाम और रूप-सब वे ही हैं। वे सच्चिदानन्दमयी  ॥ परमेश्वरी सूक्ष्मरूपसे सर्वत्र व्याप्त होती हुई भी भक्तोंपर अनुग्रह करनेके लिये परम दिव्य चिन्मय सगुणरूपसे  भी सदा विराजमान रहती हैं। उनके उस श्रीविग्रह की कान्ति तपाये हुए सुवर्णकी भाँति है। वे अपने चार हाथों में मातुलुङ्ग (बिजौरा), गदा, खेट (ढाल) और पानपात्र धारण करती हैं तथा मस्तकपर नाग, लिङ्ग और योनि धारण किये रहती हैं। भुवनेश्वरी-संहिता के अनुसार मातुलुङ्ग कर्मराशिका, गदा क्रियाशक्तिका, खेट ज्ञानशक्तिका और पानपात्र तुरीय वृत्ति (अपने सच्चिदानन्दमय स्वरूप में स्थिति)- का सूचक है। इसी प्रकार नाग से कालका, योनि से प्रकृति का और लिङ्ग से पुरुष का ग्रहण होता है। तात्पर्य यह कि प्रकृति, पुरुष और कालतीनों का अधिष्ठान परमेश्वरी महालक्ष्मी ही हैं। उक्त चतुर्भुजा महालक्ष्मीके किस हाथमें कौन-से  आयुध हैं, इसमें भी मतभेद है। रेणुका-माहात्म्यमें बताया गया है, दाहिनी ओरके नीचेके हाथमें पानपात्र और ऊपर के हाथ में गदा है। बायीं ओर के ऊपर के हाथ में खेट तथा नीचे के हाथ में श्रीफल है, परंतु वैकृतिक रहस्य में 'दक्षिणाधःकरक्रमात्' कहकर जो क्रम दिखाया गया है, उसके अनुसार दाहिनी ओर के निचले हाथमें मातुलुङ्ग, ऊपरवाले हाथमें गदा, बायीं ओर के ऊपरवाले हाथ में खेट तथा नीचे वाले हाथमें पानपात्र है। चतुर्भुजा महालक्ष्मी ने क्रमशः तमोगुण और सत्त्वगुणरूप उपाधि के द्वारा अपने दो रूप और प्रकट किये, जिनकी क्रमशः महाकाली और महासरस्वतीके नामसे प्रसिद्धि हुई। ये दोनों सप्तशतीके प्रथम चरित्र और उत्तर  चरित्रमें वर्णित महाकाली और महासरस्वती से भिन्न हैं; क्योंकि ये दोनों ही चतुर्भुजा हैं और उक्त चरित्रों में वर्णित महाकाली के दस तथा महासरस्वती के आठ भुजाएँ हैं। चतुर्भुजा महाकाली के हाथों में खड्ग,पानपात्र,मस्तक और ढाल हैं; इनका क्रम भी पूर्ववत् ही है। चतुर्भुजा सरस्वतीके हाथों में अक्षमाला, अङ्कुश, वीणा और
पुस्तक शोभा पाते हैं। इनका भी पहले-जैसा ही क्रम है। फिर इन तीनों देवियोंने स्त्री-पुरुषका एक-एक जोड़ा उत्पन्न किया। महाकालीसे शङ्कर और सरस्वती, महालक्ष्मीसे ब्रह्मा और लक्ष्मी तथा महासरस्वतीसे विष्णु और गौरीका प्रादुर्भाव हुआ। इनमें लक्ष्मी विष्णुको, गौरी शङ्करको तथा सरस्वती ब्रह्माजी को प्राप्त हुईं। पत्नीसहित ब्रह्मा ने सृष्टि, विष्णु ने पालन और रुद्र ने संहारका कार्य सँभाला।

इति प्राधानिकं  रहस्यं संपूर्णम्

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीदुर्गासप्तशती पुस्तक कोड 1281 से




जय रघुनन्दन जय सियाराम

जय रघुनन्दन जय सियाराम ! हे दुखभंजन तुम्हे प्रणाम !!

तुम मेरे सेव्य हो और मैं तुम्हारा सेवक हूं--बस, हम दोनों में यही एक सम्बन्ध अनन्तकाल-पर्यन्त अक्षुण्ण बना रहे। पूरी कर देने को कहो तो दास की एक अभिलाषा और है। वह यह है-

अहं हरे तवपादैकमूल
दासानुदासो भवितास्मि भूयः।
मनः स्मरेताऽसुपतेर्गुणानां
गृणीत वाक्‌ कर्मकरोतु कायः॥


अर्थात्‌, हे भगवन्‌ ! मैं बार बार तुम्हारे चरणारविन्दों के सेवकों का ही दास होऊँ । हे प्राणेश्‍वर! मेरा मन तुम्हारे गुणोंका स्मरण करता रहे। मेरी वाणी तुम्हारा कीर्तन किया करे। और, मेरा शरीर सदा तुम्हारी सेवामें लगा रहे।

किसी भी योनिमें जन्म लूं, ‘त्वदीय’ ही कहा जाऊं, मुझे अपना कहीं और परिचय न देना पड़े। सेवक को इससे अधिक और क्या चाहिये। अन्तमें यही विनय है, नाथ!

अर्थ न धर्म न काम-रुचि, गति न चहौं निर्बान।
जन्म जन्म रति राम-पद, यह बरदान न आन॥
परमानन्द कृपायतन, मन परिपूरन काम।
प्रेम-भगति अनपायनी, देहु हमहिँ श्रीराम॥

------ -तुलसी


क्यों नहीं कह देते, कि ‘एवमस्तु !’ 

( श्रीवियोगी-हरिजी )
….००४. ०५.मार्गशीर्ष कृष्ण ११सं०१९८६(वि०),कल्याण ( पृ० ७५५ )



जय श्रीहरि




मूकं करोति वाचालं पङ्गुं लङ्घयते गिरिं 
यत्कृपा
 तमहं वन्दे परमानन्द माधवम् 

(जिनकी कृपा से गूंगे बोलने लगते हैं, लंगड़े पहाड़ों को पार कर लेते हैं, उन परम आनंद स्वरूप श्रीमाधव की मैं वंदना करता हूँ)





जय रघुनन्दन जय सियाराम !

जय रघुनन्दन जय सियाराम ! हे दुखभंजन तुम्हे प्रणाम !!
तुम मेरे सेव्य हो और मैं तुम्हारा सेवक हूं--बस, हम दोनों में यही एक सम्बन्ध अनन्तकाल-पर्यन्त अक्षुण्ण बना रहे। पूरी कर देने को कहो तो दास की एक अभिलाषा और है। वह यह है-
अहं हरे तवपादैकमूल
दासानुदासो भवितास्मि भूयः।
मनः स्मरेताऽसुपतेर्गुणानां
गृणीत वाक्‌ कर्मकरोतु कायः॥
अर्थात्‌, हे भगवन्‌ ! मैं बार बार तुम्हारे चरणारविन्दों के सेवकों का ही दास होऊँ । हे प्राणेश्‍वर! मेरा मन तुम्हारे गुणोंका स्मरण करता रहे। मेरी वाणी तुम्हारा कीर्तन किया करे। और, मेरा शरीर सदा तुम्हारी सेवामें लगा रहे।
किसी भी योनिमें जन्म लूं, ‘त्वदीयही कहा जाऊं, मुझे अपना कहीं और परिचय न देना पड़े। सेवक को इससे अधिक और क्या चाहिये। अन्तमें यही विनय है, नाथ!
अर्थ न धर्म न काम-रुचि, गति न चहौं निर्बान।
जन्म जन्म रति राम-पद, यह बरदान न आन॥
परमानन्द कृपायतन, मन परिपूरन काम।
प्रेम-भगति अनपायनी, देहु हमहिँ श्रीराम॥
------ -तुलसी
क्यों नहीं कह देते, कि एवमस्तु !
( श्रीवियोगी-हरिजी )
….००४. ०५.मार्गशीर्ष कृष्ण ११सं०१९८६(वि०),कल्याण ( पृ० ७५५ )




श्रीदुर्गासप्तशती -अथ प्राधानिकं रहस्यम् (पोस्ट ०५)


श्रीदुर्गादेव्यै नमो नम:

अथ श्रीदुर्गासप्तशती
अथ प्राधानिकं रहस्यम् (पोस्ट ०५)

विष्णु: कृष्णो हृषीकेशो वासुदेवो जनार्दन:।
उमा गौरी सती चण्डी सुन्दरी सुभगा शिवा॥ 24 
एवं युवतय: सद्य: पुरुषत्वं प्रपेदिरे।
चक्षुष्मन्तो नु पश्यन्ति नेतरेऽतद्विदो जना:॥25
ब्रह्मणे प्रददौ पत्‍‌नीं महालक्ष्मीर्नृप त्रयीम्।
रुद्राय गौरीं वरदां वासुदेवाय च श्रियम्॥26 
स्वरया सह सम्भूय विरिञ्चोऽण्डमजीजनत्।
बिभेद भगवान् रुद्रस्तद् गौर्या सह वीर्यवान्॥ 27॥
अण्डमध्ये प्रधानादि कार्यजातमभून्नृप।
महाभूतात्मकं सर्व जगत्स्थावरजङ्गमम्॥28
पुपोष पालयामास तल्लक्ष्म्या सह केशव:।
संजहार जगत्सर्व सह गौर्या महेश्वर:॥29 

उनमें पुरुष के नाम विष्णु, कृष्ण, हृषीकेश, वासुदेव और जनार्दन हुए तथा स्त्री उमा, गौरी, सती, चण्डी, सुन्दरी, सुभगा और शिवा- इन नामों से प्रसिद्ध हुई॥24॥ इस प्रकार तीनों युवतियाँ ही तत्काल पुरुषरूप को प्राप्त हुई। इस बात को ज्ञाननेत्र वाले लोग ही समझ सकते हैं। दूसरे अज्ञानीजन इस रहस्य को नहीं जान सकते॥25॥ राजन्! महालक्ष्मी ने त्रयीविद्यारूपा सरस्वती को ब्रह्मा के लिये पत्‍‌नीरूप में समर्पित किया, रुद्र को वरदायिनी गौरी तथा भगवान् वासुदेव को लक्ष्मी दे दी॥26॥ इस प्रकार सरस्वती के साथ संयुक्त होकर ब्रह्माजी ने ब्रह्माण्ड को उत्पन्न किया और परम पराक्रमी भगवान् रुद्र ने गौरी के साथ मिलकर उसका भेदन किया॥27
राजन्! उस ब्रह्माण्ड में प्रधान (महत्तत्त्‍‌व) आदि कार्यसमूह- पञ्चमहाभूतात्मक समस्त स्थावर-जङ्गमरूप जगत् की उत्पत्ति हुई॥28॥फिर लक्ष्मी के साथ भगवान् विष्णु ने उस जगत् का पालन-पोषण किया और प्रलयकाल में गौरी के साथ महेश्वर ने उस सम्पूर्ण जगत् का संहार किया॥29

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीदुर्गासप्तशती पुस्तक कोड 1281 से




शुक्रवार, 22 मार्च 2019

श्रीदुर्गासप्तशती -अथ प्राधानिकं रहस्यम् (पोस्ट ०४)


श्रीदुर्गादेव्यै नमो नम:

अथ श्रीदुर्गासप्तशती
अथ प्राधानिकं रहस्यम् (पोस्ट ०४)

इत्युक्त्वा ते महालक्ष्मी: ससर्ज मिथुनं स्वयम्।
हिरण्यगभरै रुचिरौ स्त्रीपुंसौ कमलासनौ॥18
ब्रह्मन् विधे विरिञ्चेति धातरित्याह तं नरम्।
श्री: पद्मे कमले लक्ष्मीत्याह माता च तां स्त्रियम्॥19
महाकाली भारती च मिथुने सृजत: सह।
एतयोरपि रूपाणि नामानि च वदामि ते॥20
नीलकण्ठं रक्त बाहुं श्वेताङ्गं चन्द्रशेखरम्।
जनयामास पुरुषं महाकाली सितां स्त्रियम्॥21
स रुद्र: शंकर: स्थाणु: कपर्दी च त्रिलोचन:।
त्रयी विद्या कामधेनु: सा स्त्री भाषाक्षरा स्वरा॥22 
सरस्वती स्त्रियं गौरीं कृष्णं च पुरुषं नृप।
नयामास नामानि तयोरपि वदामि ते॥23 

उन दोनों से यों कहकर महालक्ष्मी ने पहले स्वयं ही स्त्री-पुरुष का एक जोडा उत्पन्न किया। वे दानों हिरण्यगर्भ (निर्मल ज्ञान से सम्पन्न) सुन्दर तथा कमल के आसन पर विराजमान थे। उनमें से एक स्त्री थी और दूसरा पुरुष॥18॥ तत्पश्चात् माता महालक्ष्मी ने पुरुष को ब्रह्मन्! विधे! विरिञ्च! तथा धात:! इस प्रकार सम्बोधित किया और स्त्री को श्री! पद्मा! कमला! लक्ष्मी! इत्यादि नामों से पुकारा॥19॥ इसके बाद महाकाली और महासरस्वती ने भी एक-एक जोडा उत्पन्न किया। इनके भी रूप और नाम मैं तुम्हें बतलाता हूँ॥20॥ महाकाली ने कण्ठ में नील चिह्न से युक्त , लाल भुजा, श्वेत शरीर और मस्तक पर चन्द्रमा का मुकुट धारण करने वाले पुरुष को तथा गोरे रंग की स्त्री को जन्म दिया॥21॥ वह पुरुष रुद्र, शंकर, स्थाणु, कपर्दी और त्रिलोचन के नाम से प्रसिद्ध हुआ तथा स्त्री के त्रयी, विद्या, कामधेनु, भाषा, अक्षरा और स्वरा- ये नाम हुए॥22
राजन्! महासरस्वती ने गोरे रंग की स्त्री और श्याम रंग के पुरुष को प्रकट किया। उन दोनों के नाम भी मैं तुम्हें बतलाता हूँ॥23

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दीवानों की दुनियाँ (पोस्ट 05)

❈ श्री हरिः शरणम् ❈

दीवानों की दुनियाँ (पोस्ट 05)


संसारके लोग जिन सब वस्तुओं के नाश हो जानेपर रोते और पुनः मिलने की आकांक्षा करते हैं या जिनकी अप्राप्ति में अभावका अनुभव कर दुखी होते हैं और प्राप्त होने पर हर्षसे फूल जाते हैं, तत्त्वदर्शीं पुरुष इस तरह नहीं करते, वे इस रहस्यको समझते हैं, इसलिये वे समय समयपर बच्चोंके साथ बच्चे बनकर खेलते हैं, बच्चोंके खेलमें शामिल हो जाते हैं, परन्तु होते हैं उन बच्चोंको खेलका असली तत्त्व समझाकर सदाको शोक-मुक्त कर देनेके लिये ही !

ऐसे भगवान्‌के प्यारे भक्त विश्वकी प्रत्येक क्रियामें परमात्माकी लीलाका अनुभव करते हैं, वे सभी अनुकूल और प्रतिकूल घटनाओंमें परमात्माको ओतप्रोत समझकर , लीलारूपमें उनको अवतरित समझकर, उनके नित्य नये नये खेलोंको देखकर प्रसन्न होते हैं और सब समय सब तरहसे और सब ओरसे सन्तुष्ट रहते हैं। ऐसे लोगोंको जगत्‌के लोग-जिनका मन भोगोंमें, उन्हें सुखरूप समझकर फँसा हुआ है, स्वार्थी, अकर्मण्य, आलसी, पागल, दीवाने और भ्रान्त समझते हैं, परन्तु वे क्या होते हैं, इस बातका पता वास्तवमें उन्हींको रहता है। ऐसे दीवानोंकी दुनियाँ दूसरी ही होती है, उस दुनियाँमें कभी राग-द्वेष, रोग-शोक, सुख-दुःख नहीं होते। वह दुनियाँ सूर्य चन्द्रसे प्रकाशित नहीं होती, स्वतः प्रकाशित रहती है। इतना ही नहीं, उसी दुनिया के परम प्रकाश से ही सारे विश्व को प्रकाश मिलता है।

!! ॐ तत्सत् !!

...............००४. ०५. मार्गशीर्ष कृष्ण ११ सं०१९८६वि०. कल्याण ( पृ० ७५९ )


श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-छठा अध्याय..(पोस्ट०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - छठा अध्याय..(पोस्ट०३) विराट् शरीर की उत्पत्ति स्मरन्विश्वसृजामीशो विज्ञापितं ...