॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम
स्कन्ध – नवाँ
अध्याय..(पोस्ट०८)
प्रह्लादजी
के द्वारा नृसिंहभगवान् की स्तुति
दृष्टा
मया दिवि विभोऽखिलधिष्ण्यपानाम्
आयुः
श्रियो विभव इच्छति यान्जनोऽयम्
येऽस्मत्पितुः
कुपितहासविजृम्भितभ्रू
विस्फूर्जितेन
लुलिताः स तु ते निरस्तः ||२३||
तस्मादमूस्तनुभृतामहमाशिषोऽज्ञ
आयुः
श्रियं विभवमैन्द्रि यमाविरिञ्च्यात्
नेच्छामि
ते विलुलितानुरुविक्रमेण
कालात्मनोपनय
मां निजभृत्यपार्श्वम् ||२४||
कुत्राशिषः
श्रुतिसुखा मृगतृष्णिरूपाः
क्वेदं
कलेवरमशेषरुजां विरोहः
निर्विद्यते
न तु जनो यदपीति विद्वान्
कामानलं
मधुलवैः शमयन्दुरापैः ||२५||
भगवन्
! जिनके लिये संसारीलोग बड़े लालायित रहते हैं, स्वर्गमें
मिलनेवाली समस्त लोकपालोंकी वह आयु, लक्ष्मी और ऐश्वर्य मैंने
खूब देख लिये। जिस समय मेरे पिता तनिक क्रोध करके हँसते थे और उससे उनकी भौंहें
थोड़ी टेढ़ीं हो जाती थीं, तब उन स्वर्गकी सम्पत्तियोंके
लिये कहीं ठिकाना नहीं रह जाता था, वे लुटती फिरती थीं।
किन्तु आपने मेरे उन पिताको भी मार डाला ॥ २३ ॥ इसलिये मैं ब्रह्मलोकतककी आयु,
लक्ष्मी, ऐश्वर्य और वे इन्द्रियभोग, जिन्हें संसारके प्राणी चाहा करते हैं, नहीं चाहता;
क्योंकि मैं जानता हूँ कि अत्यन्त शक्तिशाली कालका रूप धारण करके
आपने उन्हें ग्रस रखा है। इसलिये मुझे आप अपने दासोंकी सन्निधिमें ले चलिये ॥ २४ ॥
विषयभोगकी बातें सुननेमें ही अच्छी लगती हैं, वास्तवमें वे
मृगतृष्णाके जलके समान नितान्त असत्य हैं और यह शरीर भी, जिससे
वे भोग भोगे जाते हैं, अगणित रोगोंका उद्गम स्थान है। कहाँ
वे मिथ्या विषयभोग और कहाँ यह रोगयुक्त शरीर ! इन दोनोंकी क्षणभङ्गुरता और असारता
जानकर भी मनुष्य इनसे विरक्त नहीं होता। वह कठिनाई से प्राप्त होनेवाले भोगके
नन्हें-नन्हें मधुविन्दुओंसे अपनी कामना की आग बुझाने की चेष्टा करता है ! ॥ २५ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से