रविवार, 21 जुलाई 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – नवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – नवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)

प्रह्लादजी के द्वारा नृसिंहभगवान्‌ की स्तुति

दृष्टा मया दिवि विभोऽखिलधिष्ण्यपानाम्
आयुः श्रियो विभव इच्छति यान्जनोऽयम्
येऽस्मत्पितुः कुपितहासविजृम्भितभ्रू
विस्फूर्जितेन लुलिताः स तु ते निरस्तः ||२३||
तस्मादमूस्तनुभृतामहमाशिषोऽज्ञ
आयुः श्रियं विभवमैन्द्रि यमाविरिञ्च्यात्
नेच्छामि ते विलुलितानुरुविक्रमेण
कालात्मनोपनय मां निजभृत्यपार्श्वम् ||२४||
कुत्राशिषः श्रुतिसुखा मृगतृष्णिरूपाः
क्वेदं कलेवरमशेषरुजां विरोहः
निर्विद्यते न तु जनो यदपीति विद्वान्
कामानलं मधुलवैः शमयन्दुरापैः ||२५||

भगवन् ! जिनके लिये संसारीलोग बड़े लालायित रहते हैं, स्वर्गमें मिलनेवाली समस्त लोकपालोंकी वह आयु, लक्ष्मी और ऐश्वर्य मैंने खूब देख लिये। जिस समय मेरे पिता तनिक क्रोध करके हँसते थे और उससे उनकी भौंहें थोड़ी टेढ़ीं हो जाती थीं, तब उन स्वर्गकी सम्पत्तियोंके लिये कहीं ठिकाना नहीं रह जाता था, वे लुटती फिरती थीं। किन्तु आपने मेरे उन पिताको भी मार डाला ॥ २३ ॥ इसलिये मैं ब्रह्मलोकतककी आयु, लक्ष्मी, ऐश्वर्य और वे इन्द्रियभोग, जिन्हें संसारके प्राणी चाहा करते हैं, नहीं चाहता; क्योंकि मैं जानता हूँ कि अत्यन्त शक्तिशाली कालका रूप धारण करके आपने उन्हें ग्रस रखा है। इसलिये मुझे आप अपने दासोंकी सन्निधिमें ले चलिये ॥ २४ ॥ विषयभोगकी बातें सुननेमें ही अच्छी लगती हैं, वास्तवमें वे मृगतृष्णाके जलके समान नितान्त असत्य हैं और यह शरीर भी, जिससे वे भोग भोगे जाते हैं, अगणित रोगोंका उद्गम स्थान है। कहाँ वे मिथ्या विषयभोग और कहाँ यह रोगयुक्त शरीर ! इन दोनोंकी क्षणभङ्गुरता और असारता जानकर भी मनुष्य इनसे विरक्त नहीं होता। वह कठिनाई से प्राप्त होनेवाले भोगके नन्हें-नन्हें मधुविन्दुओंसे अपनी कामना की आग बुझाने की चेष्टा करता है ! ॥ २५ ॥

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – नवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – नवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)

प्रह्लादजी के द्वारा नृसिंहभगवान्‌ की स्तुति

माया मनः सृजति कर्ममयं बलीयः
कालेन चोदितगुणानुमतेन पुंसः
छन्दोमयं यदजयार्पितषोडशारं
संसारचक्रमज कोऽतितरेत्त्वदन्यः ||२१||
स त्वं हि नित्यविजितात्मगुणः स्वधाम्ना
कालो वशीकृतविसृज्यविसर्गशक्तिः
चक्रे विसृष्टमजयेश्वर षोडशारे
निष्पीड्यमानमुपकर्ष विभो प्रपन्नम् ||२२||

पुरुष की अनुमति से काल के द्वारा गुणों में क्षोभ होने पर माया मन:प्रधान लिङ्गशरीर का निर्माण करती है। यह लिङ्गशरीर बलवान्, कर्ममय एवं अनेक नाम-रूपोंमें आसक्त छन्दोमय है। यही अविद्याके द्वारा कल्पित मन, दस इन्द्रिय और पाँच तन्मात्राइन सोलह विकाररूप अरोंसे युक्त संसार-चक्र है। जन्मरहित प्रभो ! आपसे भिन्न रहकर ऐसा कौन पुरुष है, जो इस मनरूप संसार- चक्रको पार कर जाय ? ॥ २१ ॥ सर्वशक्तिमान् प्रभो ! माया इस सोलह अरोंवाले संसार-चक्रमें डालकर ईखके समान मुझे पेर रही है। आप अपनी चैतन्यशक्तिसे बुद्धिके समस्त गुणोंको सर्वदा पराजित रखते हैं और कालरूपसे सम्पूर्ण साध्य और साधनोंको अपने अधीन रखते हैं। मैं आपकी शरण में आया हूँ, आप मुझे इससे बचाकर अपनी सन्निधि में खींच लीजिये ॥ २२ ॥

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शनिवार, 20 जुलाई 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – नवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – नवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

प्रह्लादजी के द्वारा नृसिंहभगवान्‌ की स्तुति

बालस्य नेह शरणं पितरौ नृसिंह
नार्तस्य चागदमुदन्वति मज्जतो नौः
तप्तस्य तत्प्रतिविधिर्य इहाञ्जसेष्टस्
तावद्विभो तनुभृतां त्वदुपेक्षितानाम् ||१९||
यस्मिन्यतो यर्हि येन च यस्य यस्माद्
यस्मै यथा यदुत यस्त्वपरः परो वा
भावः करोति विकरोति पृथक्स्वभावः
सञ्चोदितस्तदखिलं भवतः स्वरूपम् ||२०||

भगवान्‌ नृसिंह ! इस लोकमें दुखी जीवोंका दु:ख मिटानेके लिये जो उपाय माना जाता है, वह आपके उपेक्षा करनेपर एक क्षणके लिये ही होता है। यहाँतक कि मा-बाप बालककी रक्षा नहीं कर सकते, ओषधि रोग नहीं मिटा सकती और समुद्रमें डूबते हुएको नौका नहीं बचा सकती ॥ १९ ॥ सत्त्वादि गुणोंके कारण भिन्न-भिन्न स्वभावके जितने भी ब्रह्मादि श्रेष्ठ और कालादि कनिष्ठ कर्ता हैं, उनको प्रेरित करनेवाले आप ही हैं। वे आपकी प्रेरणासे जिस आधारमें स्थित होकर जिस निमित्तसे जिन मिट्टी आदि उपकरणोंसे जिस समय जिन साधनोंके द्वारा जिस अदृष्ट आदिकी सहायतासे जिस प्रयोजनके उद्देश्यसे जिस विधिसे जो कुछ उत्पन्न करते हैं या रूपान्तरित करते हैं, वे सब और वह सब आपका ही स्वरूप है ॥ २० ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – नवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – नवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

प्रह्लादजी के द्वारा नृसिंहभगवान्‌ की स्तुति

त्रस्तोऽस्म्यहं कृपणवत्सल दुःसहोग्र
संसारचक्रकदनाद्ग्रसतां प्रणीतः
बद्धः स्वकर्मभिरुशत्तम तेऽङ्घ्रिमूलं
प्रीतोऽपवर्गशरणं ह्वयसे कदा नु ||१६||
यस्मात्प्रियाप्रियवियोगसंयोगजन्म
शोकाग्निना सकलयोनिषु दह्यमानः
दुःखौषधं तदपि दुःखमतद्धियाहं
भूमन्भ्रमामि वद मे तव दास्ययोगम् ||१७||
सोऽहं प्रियस्य सुहृदः परदेवताया
लीलाकथास्तव नृसिंह विरिञ्चगीताः
अञ्जस्तितर्म्यनुगृणन्गुणविप्रमुक्तो
दुर्गाणि ते पदयुगालयहंससङ्गः ||१८||

दीनबन्धो ! मैं भयभीत हूँ तो केवल इस असह्य और उग्र संसार-चक्रमें पिसनेसे। मैं अपने कर्मपाशोंसे बँधकर इन भयङ्कर जन्तुओंके बीचमें डाल दिया गया हूँ। मेरे स्वामी ! आप प्रसन्न होकर मुझे कब अपने उन चरणकमलोंमें बुलायेंगे, जो समस्त जीवोंकी एकमात्र शरण और मोक्षस्वरूप हैं ? ॥ १६ ॥ अनन्त ! मैं जिन-जिन योनियोंमें गया, उन सभी योनियोंमें प्रियके वियोग और अप्रियके संयोगसे होनेवाले शोककी आगमें झुलसता रहा। उन दु:खोंको मिटानेकी जो दवा है, वह भी दु:खरूप ही है। मैं न जाने कबसे अपनेसे अतिरिक्त वस्तुओंको आत्मा समझकर इधर-उधर भटक रहा हूँ। अब आप ऐसा साधन बतलाइये जिससे कि आपकी सेवा-भक्ति प्राप्त कर सकूँ ॥ १७ ॥ प्रभो ! आप हमारे प्रिय हैं। अहैतुक हितैषी सुहृद् हैं। आप ही वास्तवमें सबके परमाराध्य हैं। मैं ब्रह्माजीके द्वारा गायी हुई आपकी लीला-कथाओंका गान करता हुआ बड़ी सुगमतासे रागादि प्राकृत गुणोंसे मुक्त होकर इस संसारकी कठिनाइयोंको पार कर जाऊँगा; क्योंकि आपके चरणयुगलोंमें रहनेवाले भक्त परमहंस महात्माओंका सङ्ग तो मुझे मिलता ही रहेगा ॥ १८ ॥

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शुक्रवार, 19 जुलाई 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – नवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – नवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

प्रह्लादजी के द्वारा नृसिंहभगवान्‌ की स्तुति

सर्वे ह्यमी विधिकरास्तव सत्त्वधाम्नो
ब्रह्मादयो वयमिवेश न चोद्विजन्तः
क्षेमाय भूतय उतात्मसुखाय चास्य
विक्रीडितं भगवतो रुचिरावतारैः ||१३||
तद्यच्छ मन्युमसुरश्च हतस्त्वयाद्य
मोदेत साधुरपि वृश्चिकसर्पहत्या
लोकाश्च निर्वृतिमिताः प्रतियन्ति सर्वे
रूपं नृसिंह विभयाय जनाः स्मरन्ति ||१४||
नाहं बिभेम्यजित तेऽतिभयानकास्य
जिह्वार्कनेत्रभ्रुकुटीरभसोग्रदंष्ट्रात्
आन्त्रस्रजःक्षतजकेशरशङ्कुकर्णान्
निर्ह्रादभीतदिगिभादरिभिन्नखाग्रात् ||१५||

भगवन् ! आप सत्त्वगुण के आश्रय हैं। ये ब्रह्मा आदि सभी देवता आपके आज्ञाकारी भक्त हैं। ये हम दैत्योंकी तरह आपसे द्वेष नहीं करते। प्रभो ! आप बड़े-बड़े सुन्दर-सुन्दर अवतार ग्रहण करके इस जगत्के कल्याण एवं अभ्युदयके लिये तथा उसे आत्मानन्दकी प्राप्ति करानेके लिये अनेकों प्रकार की लीलाएँ करते हैं ॥ १३ ॥ जिस असुरको मारनेके लिये आपने क्रोध किया था, वह मारा जा चुका। अब आप अपना क्रोध शान्त कीजिये। जैसे बिच्छू और साँपकी मृत्युसे सज्जन भी सुखी ही होते हैं, वैसे ही इस दैत्यके संहारसे सभी लोगोंको बड़ा सुख मिला है। अब सब आपके शान्त स्वरूपके दर्शनकी बाट जोह रहे हैं। नृसिंहदेव ! भयसे मुक्त होनेके लिये भक्तजन आपके इस रूपका स्मरण करेंगे ॥ १४ ॥ परमात्मन् ! आपका मुख बड़ा भयावना है। आपकी जीभ लपलपा रही है। आँखें सूर्यके समान हैं। भौंहें चढ़ी हुई हैं। बड़ी पैनी दाढ़ें हैं। आँतोंकी माला, खूनसे लथपथ गरदनके बाल, बर्छेकी तरह सीधे खड़े कान और दिग्गजोंको भी भयभीत कर देनेवाला सिंहनाद एवं शत्रुओंको फाड़ डालनेवाले आपके इन नखोंको देखकर मैं तनिक भी भयभीत नहीं हुआ हूँ ॥ १५ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – नवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – नवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

प्रह्लादजी के द्वारा नृसिंहभगवान्‌ की स्तुति

नैवात्मनः प्रभुरयं निजलाभपूर्णो
मानं जनादविदुषः करुणो वृणीते
यद्यज्जनो भगवते विदधीत मानं
तच्चात्मने प्रतिमुखस्य यथा मुखश्रीः ||११||
तस्मादहं विगतविक्लव ईश्वरस्य
सर्वात्मना महि गृणामि यथा मनीषम्
नीचोऽजया गुणविसर्गमनुप्रविष्टः
पूयेत येन हि पुमाननुवर्णितेन ||१२||

सर्वशक्तिमान् प्रभु अपने स्वरूपके साक्षात्कारसे ही परिपूर्ण हैं। उन्हें अपने लिये क्षुद्र पुरुषोंसे पूजा ग्रहण करनेकी आवश्यकता नहीं है। वे करुणावश ही भोले भक्तोंके हितके लिये उनके द्वारा की हुई पूजा स्वीकार कर लेते हैं। जैसे अपने मुखका सौन्दर्य दर्पणमें दीखनेवाले प्रतिबिम्बको भी सुन्दर बना देता है, वैसे ही भक्त भगवान्‌के प्रति जो-जो सम्मान प्रकट करता है, वह उसे ही प्राप्त होता है ॥ ११ ॥ इसलिये सर्वथा अयोग्य और अनधिकारी होनेपर भी मैं बिना किसी शङ्का के अपनी बुद्धिके अनुसार सब प्रकारसे भगवान्‌ की महिमा का वर्णन कर रहा हूँ। इस महिमा के गान का ही ऐसा प्रभाव है कि अविद्यावश संसार-चक्र में पड़ा हुआ जीव तत्काल पवित्र हो जाता है ॥ १२ ॥

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गुरुवार, 18 जुलाई 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – नवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – नवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

प्रह्लादजी के द्वारा नृसिंहभगवान्‌ की स्तुति

श्रीप्रह्लाद उवाच
ब्रह्मादयः सुरगणा मुनयोऽथ सिद्धाः
सत्त्वैकतानगतयो वचसां प्रवाहैः
नाराधितुं पुरुगुणैरधुनापि पिप्रुः
किं तोष्टुमर्हति स मे हरिरुग्रजातेः ||८||
मन्ये धनाभिजनरूपतपःश्रुतौजस्
तेजःप्रभावबलपौरुषबुद्धियोगाः
नाराधनाय हि भवन्ति परस्य पुंसो
भक्त्या तुतोष भगवान्गजयूथपाय ||९||
विप्राद्द्विषड्गुणयुतादरविन्दनाभ
पादारविन्दविमुखात्श्वपचं वरिष्ठम्
मन्ये तदर्पितमनोवचनेहितार्थ
प्राणं पुनाति स कुलं न तु भूरिमानः ||१०||

प्रह्लादजीने कहाब्रह्मा आदि देवता, ऋषि-मुनि और सिद्ध पुरुषोंकी बुद्धि निरन्तर सत्त्वगुणमें ही स्थित रहती है। फिर भी वे अपनी धारा-प्रवाह स्तुति और अपने विविध गुणोंसे आपको अबतक भी सन्तुष्ट नहीं कर सके। फिर मैं तो घोर असुर जातिमें उत्पन्न हुआ हूँ ! क्या आप मुझसे सन्तुष्ट हो सकते हैं ? ॥ ८ ॥ मैं समझता हूँ कि धन, कुलीनता, रूप, तप, विद्या, ओज, तेज, प्रभाव, बल, पौरुष, बुद्धि और योगये सभी गुण परमपुरुष भगवान्‌को सन्तुष्ट करनेमें समर्थ नहीं हैंपरंतु भक्तिसे तो भगवान्‌ गजेन्द्रपर भी सन्तुष्ट हो गये थे ॥ ९ ॥ मेरी समझसे इन बारह गुणोंसे युक्त ब्राह्मण भी यदि भगवान्‌ कमलनाभके चरण-कमलोंसे विमुख हो तो उससे वह चाण्डाल श्रेष्ठ है, जिसने अपने मन, वचन, कर्म, धन और प्राण भगवान्‌के चरणोंमें समर्पित कर रखे हैं; क्योंकि वह चाण्डाल तो अपने कुलतकको पवित्र कर देता है और बड़प्पनका अभिमान रखनेवाला वह ब्राह्मण अपनेको भी पवित्र नहीं कर सकता ॥ १० ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से





श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – नवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – नवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

प्रह्लादजी के द्वारा नृसिंहभगवान्‌ की स्तुति

श्रीनारद उवाच
एवं सुरादयः सर्वे ब्रह्मरुद्र पुरः सराः
नोपैतुमशकन्मन्यु संरम्भं सुदुरासदम् ||१||
साक्षात्श्रीः प्रेषिता देवैर्दृष्ट्वा तं महदद्भुतम्
अदृष्टाश्रुतपूर्वत्वात्सा नोपेयाय शङ्किता ||२||
प्रह्रादं प्रेषयामास ब्रह्मावस्थितमन्तिके
तात प्रशमयोपेहि स्वपित्रे कुपितं प्रभुम् ||३||
तथेति शनकै राजन्महाभागवतोऽर्भकः
उपेत्य भुवि कायेन ननाम विधृताञ्जलिः ||४||
स्वपादमूले पतितं तमर्भकं
विलोक्य देवः कृपया परिप्लुतः
उत्थाप्य तच्छीर्ष्ण्यदधात्कराम्बुजं
कालाहिवित्रस्तधियां कृताभयम् ||५||
स तत्करस्पर्शधुताखिलाशुभः
सपद्यभिव्यक्तपरात्मदर्शनः
तत्पादपद्मं हृदि निर्वृतो दधौ
हृष्यत्तनुः क्लिन्नहृदश्रुलोचनः ||६||
अस्तौषीद्धरिमेकाग्र मनसा सुसमाहितः
प्रेमगद्गदया वाचा तन्न्यस्तहृदयेक्षणः ||७||

नारदजी कहते हैंइस प्रकार ब्रह्मा, शंकर आदि सभी देवगण नृसिंहभगवान्‌ के क्रोधावेश को शान्त न कर सके और न उनके पास जा सके। किसीको उसका ओर-छोर नहीं दीखता था ॥ १ ॥ देवताओं ने उन्हें शान्त करनेके लिये स्वयं लक्ष्मीजी को भेजा। उन्होंने जाकर जब नृसिंहभगवान्‌ का वह महान् अद्भुत रूप देखा, तब भयवश वे भी उनके पासतक न जा सकीं। उन्होंने ऐसा अनूठा रूप न कभी देखा और न सुना ही था ॥ २ ॥ तब ब्रह्माजीने अपने पास ही खड़े प्रह्लादको यह कहकर भेजा कि बेटा ! तुम्हारे पितापर ही तो भगवान्‌ कुपित हुए थे। अब तुम्हीं उनके पास जाकर उन्हें शान्त करो ॥ ३ ॥ भगवान्‌के परम प्रेमी प्रह्लाद जो आज्ञाकहकर और धीरेसे भगवान्‌के पास जाकर हाथ जोड़ पृथ्वीपर साष्टाङ्ग लोट गये ॥ ४ ॥ नृसिंहभगवान्‌ने देखा कि नन्हा-सा बालक मेरे चरणोंके पास पड़ा हुआ है। उनका हृदय दयासे भर गया। उन्होंने प्रह्लादको उठाकर उनके सिरपर अपना वह कर-कमल रख दिया, जो कालसर्पसे भयभीत पुरुषोंको अभयदान करनेवाला है ॥ ५ ॥ भगवान्‌के करकमलोंका स्पर्श होते ही उनके बचे-खुचे अशुभ संस्कार भी झड़ गये। तत्काल उन्हें परमात्मतत्त्वका साक्षात्कार हो गया। उन्होंने बड़े प्रेम और आनन्दमें मग्र होकर भगवान्‌के चरणकमलोंको अपने हृदयमें धारण किया। उस समय उनका सारा शरीर पुलकित हो गया, हृदयमें प्रेमकी धारा प्रवाहित होने लगी और नेत्रोंसे आनन्दाश्रु झरने लगे ॥ ६ ॥ प्रह्लादजी भावपूर्ण हृदय और निॢनमेष नयनोंसे भगवान्‌को देख रहे थे। भावसमाधिसे स्वयं एकाग्र हुए मनके द्वारा उन्होंने भगवान्‌के गुणोंका चिन्तन करते हुए प्रेमगद्गद वाणीसे स्तुति की ॥ ७ ॥

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बुधवार, 17 जुलाई 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट१५)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट१५)

नृसिंहभगवान्‌ का प्रादुर्भाव, हिरण्यकशिपु का वध
एवं ब्रह्मादि देवताओं द्वारा भगवान्‌ की स्तुति

श्रीकिम्पुरुषा ऊचुः

वयं किम्पुरुषास्त्वं तु महापुरुष ईश्वरः
अयं कुपुरुषो नष्टो धिक्कृतः साधुभिर्यदा ५३

श्रीवैतालिका ऊचुः

सभासु सत्रेषु तवामलं यशो
गीत्वा सपर्यां महतीं लभामहे
यस्तामनैषीद्वशमेष दुर्जनो
द्विष्ट्या हतस्ते भगवन्यथाऽऽमयः ||५४||

श्रीकिन्नरा ऊचुः

वयमीश किन्नरगणास्तवानुगा
दितिजेन विष्टिममुनानुकारिताः
भवता हरे स वृजिनोऽवसादितो
नरसिंह नाथ विभवाय नो भव ||५५||

श्रीविष्णुपार्षदा ऊचुः
अद्यैतद्धरिनररूपमद्भुतं ते
दृष्टं नः शरणद सर्वलोकशर्म
सोऽयं ते विधिकर ईश विप्रशप्त-
स्तस्येदं निधनमनुग्रहाय विद्मः ||५६||


किम्पुरुषोंने कहाहमलोग अत्यन्त तुच्छ किम्पुरुष हैं और आप सर्वशक्तिमान् महापुरुष हैं। जब सत्पुरुषोंने इसका तिरस्कार कियाइसे धिक्कारा, तभी आज आपने इस कुपुरुषअसुराधम को नष्ट कर दिया ॥ ५३ ॥
वैतालिकोंने कहाभगवन् ! बड़ी-बड़ी सभाओं और ज्ञानयज्ञोंमें आपके निर्मल यशका गान करके हम बड़ी प्रतिष्ठा-पूजा प्राप्त करते थे। इस दुष्टने हमारी वह आजीविका ही नष्ट कर दी थी। बड़े सौभाग्यकी बात है कि महारोग के समान इस दुष्टको आपने जड़मूल से उखाड़ दिया ॥ ५४ ॥
किन्नरोंने कहाहम किन्नरगण आपके सेवक हैं । यह दैत्य हमसे बेगारमें ही काम लेता था। भगवन् ! आपने कृपा करके आज इस पापीको नष्ट कर दिया। प्रभो ! आप इसी प्रकार हमारा अभ्युदय करते रहें ॥ ५५ ॥
भगवान्‌ के पार्षदों ने कहाशरणागतवत्सल ! सम्पूर्ण लोकों को शान्ति प्रदान करनेवाला आपका यह अलौकिक नृसिंहरूप हमने आज ही देखा है। भगवन् ! यह दैत्य आपका वही आज्ञाकारी सेवक था, जिसे सनकादिने शाप दे दिया था। हम समझते हैं, आपने कृपा करके इसके उद्धार के लिये ही इसका वध किया है ॥ ५६ ॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां सप्तमस्कन्धे प्रह्लादानुचरिते दैत्यराजवधे नृसिंहस्तवो नामाष्टमोऽध्यायः

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श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट१४)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट१४)

नृसिंहभगवान्‌ का प्रादुर्भाव, हिरण्यकशिपु का वध
एवं ब्रह्मादि देवताओं द्वारा भगवान्‌ की स्तुति

श्रीगन्धर्वा ऊचुः
वयं विभो ते नटनाट्यगायका
येनात्मसाद्वीर्यबलौजसा कृताः
स एष नीतो भवता दशामिमां
किमुत्पथस्थः कुशलाय कल्पते ||५०||

श्रीचारणा ऊचुः
हरे तवाङ्घ्रिपङ्कजं भवापवर्गमाश्रिताः
यदेष साधुहृच्छयस्त्वयासुरः समापितः ||५१||

श्रीयक्षा ऊचुः
वयमनुचरमुख्याः कर्मभिस्ते मनोज्ञै-
स्त इह दितिसुतेन प्रापिता वाहकत्वम्
स तु जनपरितापं तत्कृतं जानता ते
नरहर उपनीतः पञ्चतां पञ्चविंश ||५२||

गन्धर्वों ने कहाप्रभो ! हम आपके नाचने वाले, अभिनय करने वाले और संगीत सुनाने वाले सेवक हैं । इस दैत्य ने अपने बल, वीर्य और पराक्रम से हमें अपना गुलाम बना रखा था । उसे आपने इस दशा को पहुँचा दिया। सच है, कुमार्ग से चलनेवाले का भी क्या कभी कल्याण हो सकता है ? ॥ ५० ॥
चारणोंने कहाप्रभो ! आपने सज्जनोंके हृदयको पीड़ा पहुँचानेवाले इस दुष्टको समाप्त कर दिया। इसलिये हम आपके उन चरणकमलोंकी शरणमें हैं, जिनके प्राप्त होते ही जन्म-मृत्युरूप संसारचक्र से छुटकारा मिल जाता है ॥ ५१ ॥
यक्षोंने  कहाभगवन् ! अपने श्रेष्ठ कर्मों के कारण हमलोग आपके सेवकों में प्रधान गिने जाते थे। परंतु हिरण्यकशिपुने हमें अपनी पालकी ढोनेवाला कहार बना लिया। प्रकृतिके नियामक परमात्मा ! इसके कारण होनेवाले अपने निजजनोंके कष्ट जानकर ही आपने इसे मार डाला है ॥ ५२ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट१०)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट१०) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन विश...