रविवार, 28 जुलाई 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – दसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – दसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

प्रह्लादजी के राज्याभिषेक और त्रिपुरदहन की कथा

श्रीप्रह्लाद उवाच
वरं वरय एतत्ते वरदेशान्महेश्वर
यदनिन्दत्पिता मे त्वामविद्वांस्तेज ऐश्वरम् ॥ १५ ॥
विद्धामर्षाशयः साक्षात्सर्वलोकगुरुं प्रभुम्
भ्रातृहेति मृषादृष्टिस्त्वद्भक्ते मयि चाघवान् ॥ १६ ॥
तस्मात्पिता मे पूयेत दुरन्ताद्दुस्तरादघात्
पूतस्तेऽपाङ्गसंदृष्टस्तदा कृपणवत्सल ॥ १७ ॥

श्रीभगवानुवाच
त्रिःसप्तभिः पिता पूतः पितृभिः सह तेऽनघ
यत्साधोऽस्य कुले जातो भवान्वै कुलपावनः ॥ १८ ॥
यत्र यत्र च मद्भक्ताः प्रशान्ताः समदर्शिनः
साधवः समुदाचारास्ते पूयन्तेऽपि कीकटाः ॥ १९ ॥
सर्वात्मना न हिंसन्ति भूतग्रामेषु किञ्चन
उच्चावचेषु दैत्येन्द्र मद्भावविगतस्पृहाः ॥ २० ॥
भवन्ति पुरुषा लोके मद्भक्तास्त्वामनुव्रताः
भवान्मे खलु भक्तानां सर्वेषां प्रतिरूपधृक् ॥ २१ ॥
कुरु त्वं प्रेतकृत्यानि पितुः पूतस्य सर्वशः
मदङ्गस्पर्शनेनाङ्ग लोकान्यास्यति सुप्रजाः ॥ २२ ॥
पित्र्यं च स्थानमातिष्ठ यथोक्तं ब्रह्मवादिभिः
मय्यावेश्य मनस्तात कुरु कर्माणि मत्परः ॥ २३ ॥

प्रह्लादजीने कहामहेश्वर ! आप वर देनेवालोंके स्वामी हैं। आपसे मैं एक वर और माँगता हूँ। मेरे पिताने आपके ईश्वरीय तेजको और सर्वशक्तिमान् चराचरगुरु स्वयं आपको न जानकर आपकी बड़ी निन्दा की है। इस विष्णुने मेरे भाईको मार डाला हैऐसी मिथ्या दृष्टि रखनेके कारण पिताजी क्रोधके वेगको सहन करनेमें असमर्थ हो गये थे। इसीसे उन्होंने आपका भक्त होनेके कारण मुझसे भी द्रोह किया ॥ १५-१६ ॥ दीनबन्धो ! यद्यपि आपकी दृष्टि पड़ते ही वे पवित्र हो चुके, फिर भी मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ कि उस जल्दी नाश न होनेवाले दुस्तर दोषसे मेरे पिता शुद्ध हो जायँ ॥ १७ ॥
श्रीनृसिंहभगवान्‌ने कहानिष्पाप प्रह्लाद ! तुम्हारे पिता स्वयं पवित्र होकर तर गये, इसकी तो बात ही क्या है, यदि उनकी इक्कीस पीढिय़ोंके पितर होते तो उन सबके साथ भी वे तर जाते। क्योंकि तुम्हारे-जैसा कुलको पवित्र करनेवाला पुत्र उनको प्राप्त हुआ ॥ १८ ॥ मेरे शान्त, समदर्शी और सुखसे सदाचार पालन करनेवाले प्रेमी भक्तजन जहाँ-जहाँ निवास करते हैं, वे स्थान चाहे कीकट ही क्यों न हों, पवित्र हो जाते हैं ॥ १९ ॥ दैत्यराज ! मेरे भक्तिभावसे जिनकी कामनाएँ नष्ट हो गयी हैं, वे सर्वत्र आत्मभाव हो जानेके कारण छोटे-बड़े किसी भी प्राणीको किसी भी प्रकारसे कष्ट नहीं पहुँचाते ॥ २० ॥ संसारमें जो लोग तुम्हारे अनुयायी होंगे, वे भी मेरे भक्त हो जायँगे। बेटा ! तुम मेरे सभी भक्तोंके आदर्श हो ॥ २१ ॥ यद्यपि मेरे अङ्गोंका स्पर्श होनेसे तुम्हारे पिता पूर्णरूपसे पवित्र हो गये हैं, तथापि तुम उनकी अन्त्येष्टि-क्रिया करो। तुम्हारे-जैसी सन्तानके कारण उन्हें उत्तम लोकोंकी प्राप्ति होगी ॥ २२ ॥ वत्स ! तुम अपने पिताके पदपर स्थित हो जाओ और वेदवादी मुनियोंकी आज्ञाके अनुसार मुझमें अपना मन लगाकर और मेरी शरणमें रहकर मेरी सेवाके लिये ही अपने सारे कार्य करो ॥ २३ ॥


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शनिवार, 27 जुलाई 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – दसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – दसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

प्रह्लादजी के राज्याभिषेक और त्रिपुरदहन की कथा

श्रीभगवानुवाच
नैकान्तिनो मे मयि जात्विहाशिष
आशासतेऽमुत्र च ये भवद्विधाः
तथापि मन्वन्तरमेतदत्र
दैत्येश्वराणामनुभुङ्क्ष्व भोगान् ॥ ११ ॥
कथा मदीया जुषमाणः प्रियास्त्व-
मावेश्य मामात्मनि सन्तमेकम्
सर्वेषु भूतेष्वधियज्ञमीशं
यजस्व योगेन च कर्म हिन्वन् ॥ १२ ॥
भोगेन पुण्यं कुशलेन पापं
कलेवरं कालजवेन हित्वा
कीर्तिं विशुद्धां सुरलोकगीतां
विताय मामेष्यसि मुक्तबन्धः ॥ १३ ॥
य एतत्कीर्तयेन्मह्यं त्वया गीतमिदं नरः
त्वां च मां च स्मरन्काले कर्मबन्धात्प्रमुच्यते ॥ १४ ॥

श्रीनृसिंहभगवान्‌ने कहाप्रह्लाद ! तुम्हारे-जैसे मेरे एकान्तप्रेमी इस लोक अथवा परलोककी किसी भी वस्तुके लिये कभी कोई कामना नहीं करते। फिर भी अधिक नहीं, केवल एक मन्वन्तर- तक मेरी प्रसन्नताके लिये तुम इस लोकमें दैत्याधिपतियोंके समस्त भोग स्वीकार कर लो ॥ ११ ॥ समस्त प्राणियोंके हृदयमें यज्ञोंके भोक्ता ईश्वरके रूपमें मैं ही विराजमान हूँ। तुम अपने हृदयमें मुझे देखते रहना और मेरी लीला-कथाएँ, जो तुम्हें अत्यन्त प्रिय हैं, सुनते रहना। समस्त कर्मोंके द्वारा मेरी ही आराधना करना और इस प्रकार अपने प्रारब्ध-कर्मका क्षय कर देना ॥ १२ ॥ भोगके द्वारा पुण्यकर्मोंके फल और निष्काम पुण्यकर्मोंके द्वारा पापका नाश करते हुए समयपर शरीरका त्याग करके समस्त बन्धनोंसे मुक्त होकर तुम मेरे पास आ जाओगे। देवलोकमें भी लोग तुम्हारी विशुद्ध कीर्तिका गान करेंगे ॥ १३ ॥ तुम्हारे द्वारा की हुई मेरी इस स्तुतिका जो मनुष्य कीर्तन करेगा और साथ ही मेरा और तुम्हारा स्मरण भी करेगा, वह समयपर कर्मोंके बन्धनसे मुक्त हो जायगा ॥ १४ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – दसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – दसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

प्रह्लादजी के राज्याभिषेक और त्रिपुरदहन की कथा

श्रीनारद उवाच
भक्तियोगस्य तत्सर्वमन्तरायतयार्भकः
मन्यमानो हृषीकेशं स्मयमान उवाच ह ॥ १

श्रीप्रह्लाद उवाच
मा मां प्रलोभयोत्पत्त्या सक्तंकामेषु तैर्वरैः
तत्सङ्गभीतो निर्विण्णो मुमुक्षुस्त्वामुपाश्रितः ॥ २ ॥
भृत्यलक्षणजिज्ञासुर्भक्तं कामेष्वचोदयत्
भवान्संसारबीजेषु हृदयग्रन्थिषु प्रभो ॥ ३ ॥
नान्यथा तेऽखिलगुरो घटेत करुणात्मनः
यस्त आशिष आशास्ते न स भृत्यः स वै वणिक् ॥ ४ ॥
आशासानो न वै भृत्यः स्वामिन्याशिष आत्मनः
न स्वामी भृत्यतः स्वाम्यमिच्छन्यो राति चाशिषः ॥ ५ ॥
अहं त्वकामस्त्वद्भक्तस्त्वं च स्वाम्यनपाश्रयः
नान्यथेहावयोरर्थो राजसेवकयोरिव ॥ ६ ॥
यदि दास्यसि मे कामान्वरांस्त्वं वरदर्षभ
कामानां हृद्यसंरोहं भवतस्तु वृणे वरम् ॥ ७ ॥
इन्द्रि याणि मनः प्राण आत्मा धर्मो धृतिर्मतिः
ह्रीः श्रीस्तेजः स्मृतिः सत्यं यस्य नश्यन्ति जन्मना ॥ ८ ॥
विमुञ्चति यदा कामान्मानवो मनसि स्थितान्
तर्ह्येव पुण्डरीकाक्ष भगवत्त्वाय कल्पते ॥ ९ ॥
ॐ नमो भगवते तुभ्यं पुरुषाय महात्मने
हरयेऽद्भुतसिंहाय ब्रह्मणे परमात्मने ॥ १० ॥


नारदजी कहते हैंप्रह्लादजीने बालक होनेपर भी यही समझा कि वरदान माँगना प्रेम-भक्ति का विघ्न है; इसलिये कुछ मुसकराते हुए वे भगवान्‌ से बोले ॥ १ ॥
प्रह्लादजीने कहाप्रभो ! मैं जन्म से ही विषय-भोगों में आसक्त हूँ, अब मुझे इन वरों के द्वारा आप लुभाइये नहीं । मैं उन भोगों के सङ्ग से डरकर, उनके द्वारा होने वाली तीव्र वेदना का अनुभव कर उनसे छूटने की अभिलाषा से ही आपकी शरणमें आया हूँ ॥ २ ॥ भगवन् ! मुझ में भक्त के लक्षण हैं या नहींयह जाननेके लिये आपने अपने भक्तको वरदान माँगने की ओर प्रेरित किया है। ये विषय-भोग हृदयकी गाँठको और भी मजबूत करनेवाले तथा बार-बार जन्म-मृत्युके चक्कर में डालनेवाले हैं ॥ ३ ॥ जगद्गुरो ! परीक्षा के सिवा ऐसा कहनेका और कोई कारण नहीं दीखता; क्योंकि आप परम दयालु हैं। (अपने भक्तको भोगोंमें फँसानेवाला वर कैसे दे सकते हैं ?) आपसे जो सेवक अपनी कामनाएँ पूर्ण करना चाहता है, वह सेवक नहीं; वह तो लेन-देन करनेवाला निरा बनिया है ॥ ४ ॥ जो स्वामीसे अपनी कामनाओंकी पूर्ति चाहता है, वह सेवक नहीं; और जो सेवकसे सेवा करानेके लिये, उसका स्वामी बननेके लिये, उसकी कामनाएँ पूर्ण करता है, वह स्वामी नहीं ॥ ५ ॥ मैं आपका निष्काम सेवक हूँ और आप मेरे निरपेक्ष स्वामी हैं। जैसे राजा और उसके सेवकोंका प्रयोजनवश स्वामी-सेवकका सम्बन्ध रहता है, वैसा तो मेरा और आपका सम्बन्ध है नहीं ॥ ६ ॥ मेरे वरदानिशिरोमणि स्वामी ! यदि आप मुझे मुँहमाँगा वर देना ही चाहते हैं तो यह वर दीजिये कि मेरे हृदयमें कभी किसी कामनाका बीज अङ्कुरित ही न हो ॥ ७ ॥ हृदयमें किसी भी कामनाके उदय होते ही इन्द्रिय, मन, प्राण, देह, धर्म, धैर्य, बुद्धि, लज्जा, श्री, तेज, स्मृति और सत्यये सब-के-सब नष्ट हो जाते हैं ॥ ८ ॥ कमलनयन ! जिस समय मनुष्य अपने मनमें रहनेवाली कामनाओंका परित्याग कर देता है, उसी समय वह भगवत्स्वरूपको प्राप्त कर लेता है ॥ ९ ॥ भगवन् ! आपको नमस्कार है। आप सबके हृदयमें विराजमान, उदारशिरोमणि स्वयं परब्रह्म परमात्मा हैं। अद्भुत नृसिंहरूपधारी श्रीहरिके चरणोंमें मैं बार-बार प्रणाम करता हूँ ॥ १० ॥

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शुक्रवार, 26 जुलाई 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – नवाँ अध्याय..(पोस्ट१८)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – नवाँ अध्याय..(पोस्ट१८)

प्रह्लादजी के द्वारा नृसिंहभगवान्‌ की स्तुति

श्रीनारद उवाच
एतावद्वर्णितगुणो भक्त्या भक्तेन निर्गुणः
प्रह्रादं प्रणतं प्रीतो यतमन्युरभाषत ||५१||

श्रीभगवानुवाच
प्रह्लाद भद्र भद्रं ते प्रीतोऽहं तेऽसुरोत्तम
वरं वृणीष्वाभिमतं कामपूरोऽस्म्यहं नृणाम् ||५२||
मामप्रीणत आयुष्मन्दर्शनं दुर्लभं हि मे
दृष्ट्वा मां न पुनर्जन्तुरात्मानं तप्तुमर्हति ||५३||
प्रीणन्ति ह्यथ मां धीराः सर्वभावेन साधवः
श्रेयस्कामा महाभाग सर्वासामाशिषां पतिम् ||५४||
एवं प्रलोभ्यमानोऽपि वरैर्लोकप्रलोभनैः
एकान्तित्वाद्भगवति नैच्छत्तानसुरोत्तमः ||५५||
  
नारदजी कहते हैंइस प्रकार भक्त प्रह्लादने बड़े प्रेमसे प्रकृति और प्राकृत गुणोंसे रहित भगवान्‌के स्वरूपभूत गुणोंका वर्णन किया। इसके बाद वे भगवान्‌के चरणोंमें सिर झुकाकर चुप हो गये। नृसिंहभगवान्‌का क्रोध शान्त हो गया और वे बड़े प्रेम तथा प्रसन्नतासे बोले ॥ ५१ ॥
श्रीनृसिंहभगवान्‌ने कहापरम कल्याणस्वरूप प्रह्लाद ! तुम्हारा कल्याण हो। दैत्यश्रेष्ठ ! मैं तुमपर अत्यन्त प्रसन्न हूँ। तुम्हारी जो अभिलाषा हो, मुझसे माँग लो। मैं जीवोंकी इच्छाओंको पूर्ण करनेवाला हूँ ॥ ५२ ॥ आयुष्मन् ! जो मुझे प्रसन्न नहीं कर लेता, उसे मेरा दर्शन मिलना बहुत ही कठिन है। परंतु जब मेरे दर्शन हो जाते हैं, तब फिर प्राणीके हृदयमें किसी प्रकारकी जलन नहीं रह जाती ॥ ५३ ॥ मैं समस्त मनोरथोंको पूर्ण करनेवाला हूँ। इसलिये सभी कल्याणकामी परम भाग्यवान् साधुजन जितेन्द्रिय होकर अपनी समस्त वृत्तियोंसे मुझे प्रसन्न करनेका ही यत्न करते हैं ॥ ५४ ॥

असुरकुलभूषण प्रह्लाद जी भगवान्‌ के अनन्य प्रेमी थे। इसलिये बड़े-बड़े लोगों को प्रलोभन में डालनेवाले वरों के द्वारा प्रलोभित किये जाने पर भी उन्होंने उनकी इच्छा नहीं की ॥ ५५ ॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां सप्तमस्कन्धे प्रह्लादचरिते भगवत्स्तवो नाम नवमोऽध्यायः

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श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – नवाँ अध्याय..(पोस्ट१७)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – नवाँ अध्याय..(पोस्ट१७)

प्रह्लादजी के द्वारा नृसिंहभगवान्‌ की स्तुति

नैते गुणा न गुणिनो महदादयो ये
सर्वे मनः प्रभृतयः सहदेवमर्त्याः
आद्यन्तवन्त उरुगाय विदन्ति हि त्वाम्
एवं विमृश्य सुधियो विरमन्ति शब्दात् ||४९||
तत्तेऽर्हत्तम नमः स्तुतिकर्मपूजाः
कर्म स्मृतिश्चरणयोः श्रवणं कथायाम्
संसेवया त्वयि विनेति षडङ्गया किं
भक्तिं जनः परमहंसगतौ लभेत ||५०||

समग्र कीर्तिके आश्रय भगवन् ! ये सत्त्वादि गुण और इन गुणोंके परिणाम महत्तत्त्वादि, देवता, मनुष्य एवं मन आदि कोई भी आपका स्वरूप जाननेमें समर्थ नहीं है; क्योंकि ये सब आदि-अन्तवाले हैं और आप अनादि एवं अनन्त हैं। ऐसा विचार करके ज्ञानीजन शब्दोंकी मायासे उपरत हो जाते हैं ॥ ४९ ॥ परम पूज्य ! आपकी सेवाके छ: अङ्ग हैंनमस्कार, स्तुति, समस्त कर्मोंका समर्पण, सेवा-पूजा, चरणकमलोंका चिन्तन और लीला-कथाका श्रवण। इस षडङ्ग-सेवा के बिना आप के चरण कमलों की भक्ति कैसे प्राप्त हो सकती है ? और भक्ति के बिना आपकी प्राप्ति कैसे होगी ? प्रभो ! आप तो अपने परम प्रिय भक्तजनों के, परमहंसों के ही सर्वस्व हैं ॥ ५० ॥

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गुरुवार, 25 जुलाई 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – नवाँ अध्याय..(पोस्ट१६)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – नवाँ अध्याय..(पोस्ट१६)

प्रह्लादजी के द्वारा नृसिंहभगवान्‌ की स्तुति

मौनव्रतश्रुततपोऽध्ययनस्वधर्म
व्याख्यारहोजपसमाधय आपवर्ग्याः
प्रायः परं पुरुष ते त्वजितेन्द्रियाणां
वार्ता भवन्त्युत न वात्र तु दाम्भिकानाम् ||४६||
रूपे इमे सदसती तव वेदसृष्टे
बीजाङ्कुराविव न चान्यदरूपकस्य
युक्ताः समक्षमुभयत्र विचक्षन्ते त्वां
योगेन वह्निमिव दारुषु नान्यतः स्यात् ||४७||
त्वं वायुरग्निरवनिर्वियदम्बु मात्राः
प्राणेन्द्रि याणि हृदयं चिदनुग्रहश्च
सर्वं त्वमेव सगुणो विगुणश्च भूमन्
नान्यत्त्वदस्त्यपि मनोवचसा निरुक्तम् ||४८||

पुरुषोत्तम ! मोक्षके दस साधन प्रसिद्ध हैंमौन, ब्रह्मचर्य, शास्त्र-श्रवण, तपस्या, स्वाध्याय, स्वधर्मपालन, युक्तियोंसे शास्त्रोंकी व्याख्या, एकान्तसेवन, जप और समाधि। परंतु जिनकी इन्द्रियाँ वशमें नहीं हैं, उनके लिये ये सब जीविकाके साधनव्यापारमात्र रह जाते हैं। और दम्भियोंके लिये तो जबतक उनकी पोल खुलती नहीं, तभीतक ये जीवननिर्वाहके साधन रहते हैं और भंडाफोड़ हो जानेपर वह भी नहीं ॥ ४६ ॥ वेदोंने बीज और अङ्कुरके समान आपके दो रूप बताये हैंकार्य और कारण। वास्तवमें आप प्राकृत रूपसे रहित हैं। परंतु इन कार्य और कारणरूपोंको छोडक़र आपके ज्ञानका कोई और साधन भी नहीं है। काष्ठमन्थनके द्वारा जिस प्रकार अग्रि प्रकट की जाती है, उसी प्रकार योगीजन भक्तियोगकी साधनासे आपको कार्य और कारण दोनोंमें ही ढूँढ़ निकालते हैं। क्योंकि वास्तवमें ये दोनों आपसे पृथक् नहीं हैं, आपके स्वरूप ही हैं ॥ ४७ ॥ अनन्त प्रभो ! वायु, अग्रि, पृथ्वी, आकाश, जल, पञ्च तन्मात्राएँ, प्राण, इन्द्रिय, मन, चित्त, अहंकार, सम्पूर्ण जगत् एवं सगुण और निर्गुणसब कुछ केवल आप ही हैं। और तो क्या,मन और वाणीके द्वारा जो कुछ निरूपण किया गया है,वह सब आपसे पृथक् नहीं है ॥४८॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – नवाँ अध्याय..(पोस्ट१५)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – नवाँ अध्याय..(पोस्ट१५)

प्रह्लादजी के द्वारा नृसिंहभगवान्‌ की स्तुति

प्रायेण देव मुनयः स्वविमुक्तिकामा
मौनं चरन्ति विजने न परार्थनिष्ठाः
नैतान्विहाय कृपणान्विमुमुक्ष एको
नान्यं त्वदस्य शरणं भ्रमतोऽनुपश्ये ||४४||
यन्मैथुनादिगृहमेधिसुखं हि तुच्छं
कण्डूयनेन करयोरिव दुःखदुःखम्
तृप्यन्ति नेह कृपणा बहुदुःखभाजः
कण्डूतिवन्मनसिजं विषहेत धीरः ||४५||

मेरे स्वामी ! बड़े-बड़े ऋषि-मुनि तो प्राय: अपनी मुक्तिके लिये निर्जन वनमें जाकर मौनव्रत धारण कर लेते हैं। वे दूसरोंकी भलाईके लिये कोई विशेष प्रयत्न नहीं करते। परंतु मेरी दशा तो दूसरी ही हो रही है। मैं इन भूले हुए असहाय गरीबोंको छोडक़र अकेला मुक्त होना नहीं चाहता। और इन भटकते हुए प्राणियोंके लिये आपके सिवा और कोई सहारा भी नहीं दिखायी पड़ता ॥ ४४ ॥ घर में फँसे हुए लोगों को जो मैथुन आदि का सुख मिलता है, वह अत्यन्त तुच्छ एवं दु:खरूप ही हैजैसे कोई दोनों हाथों से खुजला रहा हो तो उस खुजली में पहले उसे कुछ थोड़ा-सा सुख मालूम पड़ता है, परंतु पीछेसे दु:ख-ही-दु:ख होता है। किन्तु ये भूले हुए अज्ञानी मनुष्य बहुत दु:ख भोगनेपर भी इन विषयोंसे अघाते नहीं। इसके विपरीत धीर पुरुष जैसे खुजलाहटको सह लेते हैं, वैसे ही कामादि वेगोंको भी सह लेते हैं। सहनेसे ही उनका नाश होता है ॥ ४५ ॥

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बुधवार, 24 जुलाई 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – नवाँ अध्याय..(पोस्ट१४)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – नवाँ अध्याय..(पोस्ट१४)

प्रह्लादजी के द्वारा नृसिंहभगवान्‌ की स्तुति

को न्वत्र तेऽखिलगुरो भगवन्प्रयास
उत्तारणेऽस्य भवसम्भवलोपहेतोः
मूढेषु वै महदनुग्रह आर्तबन्धो
किं तेन ते प्रियजनाननुसेवतां नः ||४२||
नैवोद्विजे पर दुरत्ययवैतरण्यास्
त्वद्वीर्यगायनमहामृतमग्नचित्तः
शोचे ततो विमुखचेतस इन्द्रि यार्थ
मायासुखाय भरमुद्वहतो विमूढान् ||४३||

जगद्गुरो ! आप इस सृष्टिकी उत्पत्ति, स्थिति तथा पालन करनेवाले हैं। ऐसी अवस्थामें इन जीवोंको इस भव-नदीके पार उतार देनेमें आपको क्या प्रयास है ? दीनजनों के परमहितैषी प्रभो ! भूले-भटके मूढ़ ही महान् पुरुषोंके विशेष अनुग्रहपात्र होते हैं। हमें उसकी कोई आवश्यकता नहीं है। क्योंकि हम आपके प्रियजनोंकी सेवामें लगे रहते हैं, इसलिये पार जानेकी हमें कभी चिन्ता ही नहीं होती ॥ ४२ ॥ परमात्मन् ! इस भव-वैतरणीसे पार उतरना दूसरे लोगोंके लिये अवश्य ही कठिन है, परंतु मुझे तो इससे तनिक भी भय नहीं है। क्योंकि मेरा चित्त इस वैतरणीमें नहीं, आपकी उन लीलाओंके गानमें मग्न रहता है, जो स्वर्गीय अमृत को भी तिरस्कृत करनेवालीपरमामृतस्वरूप हैं। मैं उन मूढ़ प्राणियोंके लिये शोक कर रहा हूँ, जो आपके गुणगानसे विमुख रहकर इन्द्रियोंके विषयोंका मायामय झूठा सुख प्राप्त करेनेके लिये अपने सिरपर सारे संसारका भार ढोते रहते हैं ॥ ४३ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – नवाँ अध्याय..(पोस्ट१३)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – नवाँ अध्याय..(पोस्ट१३)

प्रह्लादजी के द्वारा नृसिंहभगवान्‌ की स्तुति

नैतन्मनस्तव कथासु विकुण्ठनाथ
सम्प्रीयते दुरितदुष्टमसाधु तीव्रम्
कामातुरं हर्षशोकभयैषणार्तं
तस्मिन्कथं तव गतिं विमृशामि दीनः ||३९||
जिह्वैकतोऽच्युत विकर्षति मावितृप्ता
शिश्नोऽन्यतस्त्वगुदरं श्रवणं कुतश्चित्
घ्राणोऽन्यतश्चपलदृक्क्व च कर्मशक्तिर्
बह्व्यः सपत्न्य इव गेहपतिं लुनन्ति ||४०||
एवं स्वकर्मपतितं भववैतरण्याम्
अन्योन्यजन्ममरणाशनभीतभीतम्
पश्यन्जनं स्वपरविग्रहवैरमैत्रं
हन्तेति पारचर पीपृहि मूढमद्य ||४१||

वैकुण्ठनाथ ! मेरे मनकी बड़ी दुर्दशा है। वह पाप-वासनाओंसे तो कलुषित है ही, स्वयं भी अत्यन्त दुष्ट है। वह प्राय: ही कामनाओंके कारण आतुर रहता है और हर्ष-शोक, भय एवं लोक-परलोक, धन, पत्नी, पुत्र आदिकी चिन्ताओंसे व्याकुल रहता है। इसे आपकी लीला- कथाओंमें तो रस ही नहीं मिलता। इसके मारे मैं दीन हो रहा हूँ। ऐसे मनसे मैं आपके स्वरूपका चिन्तन कैसे करूँ ? ॥ ३९ ॥ अच्युत ! यह कभी न अघानेवाली जीभ मुझे स्वादिष्ट रसोंकी ओर खींचती रहती है। जननेन्द्रिय सुन्दरी स्त्रीकी ओर, त्वचा सुकोमल स्पर्शकी ओर, पेट भोजनकी ओर, कान मधुर सङ्गीतकी ओर, नासिका भीनी-भीनी सुगन्धकी ओर और ये चपल नेत्र सौन्दर्यकी ओर मुझे खींचते रहते हैं। इनके सिवा कर्मेन्द्रियाँ भी अपने-अपने विषयोंकी ओर ले जानेको जोर लगाती ही रहती हैं। मेरी तो वह दशा हो रही है, जैसे किसी पुरुषकी बहुत-सी पत्नियाँ उसे अपने- अपने शयनगृहमें ले जानेके लिये चारों ओरसे घसीट रही हों ॥ ४० ॥ इस प्रकार यह जीव अपने कर्मोंके बन्धनमें पडक़र इस संसाररूप वैतरणी नदीमें गिरा हुआ है। जन्मसे मृत्यु, मृत्युसे जन्म और दोनोंके द्वारा कर्मभोग करते-करते यह भयभीत हो गया है। यह अपना है, यह पराया हैइस प्रकारके भेद-भावसे युक्त होकर किसीसे मित्रता करता है तो किसीसे शत्रुता। आप इस मूढ़ जीव-जातिकी यह दुर्दशा देखकर करुणासे द्रवित हो जाइये। इस भव-नदीसे सर्वदा पार रहनेवाले भगवन् ! इन प्राणियोंको भी अब पार लगा दीजिये ॥ ४१ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट१०)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट१०) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन विश...