॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम
स्कन्ध – बारहवाँ
अध्याय..(पोस्ट०५)
ब्रह्मचर्य
और वानप्रस्थ-आश्रमोंके नियम
यदाकल्पः
स्वक्रियायां व्याधिभिर्जरयाथवा ।
आन्वीक्षिक्यां
वा विद्यायां कुर्यादनशनादिकम् ॥ २३ ॥
आत्मन्यग्नीन्
समारोप्य सन्न्यस्याहं ममात्मताम् ।
कारणेषु
न्यसेत् सम्यक् संघातं तु यथार्हतः ॥ २४ ॥
खे
खानि वायौ निश्वासान् तजःसूष्माणमात्मवान् ।
अप्स्वसृक्श्लेष्मपूयानि
क्षितौ शेषं यथोद्भवम् ॥ २५ ॥
वाचमग्नौ
सवक्तव्यां इन्द्रे शिल्पं करावपि ।
पदानि
गत्या वयसि रत्योपस्थं प्रजापतौ ॥ २६ ॥
मृत्यौ
पायुं विसर्गं च यथास्थानं विनिर्दिशेत् ।
दिक्षु
श्रोत्रं सनादेन स्पर्शेनाध्यात्मनि त्वचम् ॥ २७ ॥
रूपाणि
चक्षुषा राजन् ज्योतिष्यभिनिवेशयेत् ।
अप्सु
प्रचेतसा जिह्वां घ्रेयैर्घ्राणं क्षितौ न्यसेत् ॥ २८ ॥
मनो
मनोरथैश्चन्द्रे बुद्धिं बोध्यैः कवौ परे ।
कर्माण्यध्यात्मना
रुद्रे यदहं ममताक्रिया ।
सत्त्वेन
चित्तं क्षेत्रज्ञे गुणैर्वैकारिकं परे ॥ २९ ॥
अप्सु
क्षितिमपो ज्योतिषि अदो वायौ नभस्यमुम् ।
कूटस्थे
तच्च महति तदव्यक्तेऽक्षरे च तत् ॥ ३० ॥
इत्यक्षरतयाऽऽत्मानं
चिन्मात्रमवशेषितम् ।
ज्ञात्वाद्वयोऽथ
विरमेद् दग्धयोनिरिवानलः ॥ ३१ ॥
वानप्रस्थी
पुरुष जब रोग अथवा बुढ़ापे के कारण अपने कर्म पूरे न कर सके और वेदान्त- विचार
करने की भी सामर्थ्य न रहे,
तब उसे अनशन आदि व्रत करने चाहिये ॥ २३ ॥ अनशन के पूर्व ही वह अपने
आहवनीय आदि अग्नियों को अपनी आत्मा में लीन कर ले। ‘मैंपन’
और ‘मेरेपन’ का त्याग
करके शरीरको उसके कारण भूत तत्त्वों में यथायोग्य भलीभाँति लीन करे ॥ २४ ॥
जितेन्द्रिय पुरुष अपने शरीरके छिद्राकाशोंको आकाशमें, प्राणोंको
वायुमें, गरमीको अग्रिमें, रक्त,
कफ, पीब आदि जलीय तत्त्वोंको जलमें और हड्डी
आदि ठोस वस्तुओंको पृथ्वीमें लीन करे ॥ २५ ॥ इसी प्रकार वाणी और उसके कर्म भाषणको
उसके अधिष्ठातृ-देवता अग्रिमें, हाथ और उसके द्वारा होनेवाले
कला-कौशलको इन्द्रमें, चरण और उसकी गतिको कालस्वरूप
विष्णुमें, रति और उपस्थको प्रजापतिमें एवं पायु और
मलोत्सर्गको उनके आश्रयके अनुसार मृत्युमें लीन कर दे। श्रोत्र और उसके द्वारा
सुने जानेवाले शब्दको दिशाओंमें, स्पर्श और त्वचाको वायुमें,
नेत्रसहित रूपको ज्योतिमें, मधुर आदि रसके
सहित[*] रसनेन्द्रियको जलमें और युधिष्ठिर ! घ्राणेन्द्रिय
एवं उसके द्वारा सूँघे जानेवाले गन्धको पृथ्वीमें लीन कर दे ॥ २६—२८ ॥ मनोरथोंके साथ मनको चन्द्रमामें, समझमें
आनेवाले पदार्थोंके सहित बुद्धिको ब्रह्मामें तथा अहंता और ममतारूप क्रिया
करनेवाले अहंकारको उसके कर्मोंके साथ रुद्रमें लीन कर दे। इसी प्रकार चेतना-सहित
चित्तको क्षेत्रज्ञ (जीव)में और गुणोंके कारण विकारी-से प्रतीत होनेवाले जीवको
परब्रह्ममें लीन कर दे ॥ २९ ॥ साथ ही पृथ्वीका जलमें, जलका
अग्रिमें, अग्रिका वायुमें, वायुका
आकाशमें, आकाशका अहंकारमें, अहंकारका
महत्तत्त्वमें, महत्तत्त्वका अव्यक्तमें और अव्यक्तका
अविनाशी परमात्मामें लय कर दे ॥ ३० ॥ इस प्रकार अविनाशी परमात्माके रूपमें अवशिष्ट
जो चिद्वस्तु है, वह आत्मा है, वह मैं
हूँ—यह जानकर अद्वितीय भावमें स्थित हो जाय। जैसे अपने आश्रय
काष्ठादि के भस्म हो जानेपर अग्रि शान्त होकर अपने स्वरूपमें स्थित हो जाता है,
वैसे ही वह भी उपरत हो जाय ॥ ३१ ॥
.......................................................................
[*] यहाँ मूलमें ‘प्रचेतसा’
पद है, जिसका अर्थ ‘वरुणके
सहित’ होता है। वरुण रसनेन्द्रियके अधिष्ठाता हैं।
श्रीधरस्वामीने भी इसी मतको स्वीकार किया है। परंतु इस प्रसङ्गमें सर्वत्र
इन्द्रिय और उसके विषयका अधिष्ठातृदेवमें लय करना बताया गया है, फिर रसनेन्द्रियके लिये ही नया क्रम युक्तियुक्त नहीं जँचता। इसलिये यहाँ
श्रीविश्वनाथ चक्रवर्तीके मतानुसार ‘प्रचेतसा’ पदका (‘प्रकृष्टं चेतो यत्र स प्रचेतो
मधुरादिरसस्तेन’—जिसकी ओर चित्त अधिक आकृष्ट हो, वह मधुरादि रस ‘प्रचेतस्’ है,
उसके सहित) इस विग्रहके अनुसार प्रस्तुत अर्थ किया गया है और यही
युक्तियुक्त मालूम होता है।
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
सप्तमस्कन्धे
युधिष्ठिरनारदसंवादे सदाचारनिर्णयो नाम द्वादशोऽध्यायः ॥ १२ ॥
हरिः
ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से