॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – तीसरा
अध्याय..(पोस्ट११)
गजेन्द्र के द्वारा भगवान् की स्तुति और उसका संकट से
मुक्त होना
योगरन्धितकर्माणो हृदि योगविभाविते
योगिनो यं प्रपश्यन्ति योगेशं तं नतोऽस्म्यहम् ||२७||
नमो नमस्तुभ्यमसह्यवेग-
शक्तित्रयायाखिलधीगुणाय
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प्रपन्नपालाय दुरन्तशक्तये
कदिन्द्रि याणामनवाप्यवर्त्मने ||२८||
नायं वेद स्वमात्मानं यच्छक्त्याहंधिया हतम्
तं दुरत्ययमाहात्म्यं भगवन्तमितोऽस्म्यहम् ||२९||
योगीलोग योगके द्वारा कर्म, कर्म-वासना और कर्मफलको भस्म करके अपने योगशुद्ध हृदयमें जिन योगेश्वर भगवान्का
साक्षात्कार करते हैं—उन प्रभुको मैं नमस्कार करता हूँ ॥ २७ ॥ प्रभो ! आपकी तीन
शक्तियों—सत्त्व, रज और तमके
रागादि वेग असह्य हैं। समस्त इन्द्रियों और मनके विषयोंके रूपमें भी आप ही प्रतीत
हो रहे हैं। इसलिये जिनकी इन्द्रियाँ वशमें नहीं हैं, वे तो आपकी प्राप्तिका मार्ग भी नहीं पा सकते। आपकी शक्ति
अनन्त है। आप शरणागतवत्सल हैं। आपको मैं बार-बार नमस्कार करता हूँ ॥ २८ ॥ आपकी
माया अहंबुद्धिसे आत्माका स्वरूप ढक गया है, इसीसे यह जीव अपने स्वरूपको नहीं जान पाता। आपकी महिमा अपार है। उन
सर्वशक्तिमान् एवं माधुर्यनिधि भगवान्की मैं शरणमें हूँ ॥ २९ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से