॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – पाँचवाँ
अध्याय..(पोस्ट०२)
देवताओं का ब्रह्माजी के पास जाना और
ब्रह्माकृत भगवान् की स्तुति
षष्ठश्च चक्षुषः पुत्रः चाक्षुषो नाम वै मनुः ।
पूरु पूरुष सुद्युम्न प्रमुखाश्चाक्षुषात्मजाः ॥ ७ ॥
इन्द्रो मन्त्रद्रुमस्तत्र देवा आप्यादयो गणाः ।
मुनयस्तत्र वै राजन् हविष्मद् वीरकादयः ॥ ८ ॥
तत्रापि देवः सम्भूत्यां वैराजस्याभवत् सुतः ।
अजितो नाम भगवान् अंशेन जगतः पतिः ॥ ९ ॥
पयोधिं येन निर्मथ्य सुराणां साधिता सुधा ।
भ्रममाणोऽम्भसि धृतः कूर्मरूपेण मन्दरः ॥ १० ॥
श्रीराजोवाच -
यथा भगवता ब्रह्मन् मथितः क्षीरसागरः ।
यदर्थं वा यतश्चाद्रिं दधाराम्बुचरात्मना ॥ ११ ॥
यथामृतं सुरैः प्राप्तं किं चान्यद् अभवत् ततः ।
एतद्भगवतः कर्म वदस्व परमाद्भुतम् ॥ १२ ॥
त्वया संकथ्यमानेन महिम्ना सात्वतां पतेः ।
नातितृप्यति मे चित्तं सुचिरं तापतापितम् ॥ १३ ॥
श्रीसूत उवाच -
सम्पृष्टो भगवानेवं द्वैपायनसुतो द्विजाः ।
अभिनन्द्य हरेर्वीर्यं अभ्याचष्टुं प्रचक्रमे ॥ १४ ॥
छठे मनु चक्षु के पुत्र चाक्षुष थे। उनके पूरु, पूरुष, सुद्युम्न आदि
कई पुत्र थे ॥ ७ ॥ इन्द्रका नाम था मन्त्रद्रुम और प्रधान देवगण थे आप्य आदि। उस
मन्वन्तरमें हविष्यमान् और वीरक आदि सप्तर्षि थे ॥ ८ ॥ जगत्पति भगवान्ने उस समय
भी वैराजकी पत्नी सम्भूतिके गर्भसे अजित नामका अंशावतार ग्रहण किया था ॥ ९ ॥
उन्होंने ही समुद्र-मन्थन करके देवताओंको अमृत पिलाया था, तथा वे ही कच्छपरूप धारण करके मन्दराचलकी मथानीके आधार बने
थे ॥ १० ॥
राजा परीक्षित्ने पूछा—भगवन् ! भगवान्ने क्षीरसागरका मन्थन कैसे किया ? उन्होंने कच्छपरूप धारण करके किस कारण और किस उद्देश्यसे
मन्दराचलको अपनी पीठपर धारण किया ? ॥ ११ ॥ देवताओंको उस समय अमृत कैसे मिला ? और भी कौन-कौन-सी वस्तुएँ समुद्रसे निकलीं ? भगवान्की यह लीला बड़ी ही अद्भुत है, आप कृपा करके अवश्य सुनाइये ॥ १२ ॥ आप भक्तवत्सल भगवान् की महिमा का
ज्यों-ज्यों वर्णन करते हैं, त्यों-ही-त्यों
मेरा हृदय उसको और भी सुननेके लिये उत्सुक होता जा रहा है। अघानेका तो नाम ही नहीं
लेता। क्यों न हो,
बहुत दिनोंसे यह संसारकी ज्वालाओंसे जलता जो रहा है ॥ १३ ॥
सूतजीने कहा—शौनकादि ऋषियो ! भगवान् श्रीशुकदेवजी ने राजा परीक्षित् के इस प्रश्न का
अभिनन्दन करते हुए भगवान् की समुद्र-मन्थन लीला का वर्णन आरम्भ किया ॥ १४ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से