शनिवार, 5 अक्तूबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

देवासुर-संग्रामकी समाप्ति

श्रीशुक उवाच
अथो सुराः प्रत्युपलब्धचेतसः
परस्य पुंसः परयानुकम्पया
जघ्नुर्भृशं शक्रसमीरणादय-
स्तांस्तान्रणे यैरभिसंहताः पुरा ॥ १ ॥
वैरोचनाय संरब्धो भगवान्पाकशासनः
उदयच्छद्यदा वज्रं प्रजा हा हेति चुक्रुशुः ॥ २ ॥
वज्रपाणिस्तमाहेदं तिरस्कृत्य पुरःस्थितम्
मनस्विनं सुसम्पन्नं विचरन्तं महामृधे ॥ ३ ॥
नटवन्मूढ मायाभिर्मायेशान्नो जिगीषसि
जित्वा बालान्निबद्धाक्षान्नटो हरति तद्धनम् ॥ ४ ॥
आरुरुक्षन्ति मायाभिरुत्सिसृप्सन्ति ये दिवम्
तान्दस्यून्विधुनोम्यज्ञान्पूर्वस्माच्च पदादधः ॥ ५ ॥
सोऽहं दुर्मायिनस्तेऽद्य वज्रेण शतपर्वणा
शिरो हरिष्ये मन्दात्मन्घटस्व ज्ञातिभिः सह ॥ ६ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! परम पुरुष भगवान्‌ की अहैतुकी कृपा से देवताओं की घबराहट जाती रही, उनमें नवीन उत्साह का सञ्चार हो गया। पहले इन्द्र, वायु आदि देवगण रणभूमि में जिन-जिन दैत्यों से आहत हुए थे, उन्हीं के ऊपर अब वे पूरी शक्ति से प्रहार करने लगे ॥ १ ॥ परम ऐश्वर्यशाली इन्द्रने बलिसे लड़ते-लड़ते जब उनपर क्रोध करके वज्र उठाया, तब सारी प्रजामें हाहाकार मच गया ॥ २ ॥ बलि अस्त्र-शस्त्रसे सुसज्जित होकर बड़े उत्साहसे युद्धभूमिमें बड़ी निर्भयतासे डटकर विचर रहे थे। उनको अपने सामने ही देखकर हाथमें वज्र लिये हुए इन्द्रने उनका तिरस्कार करके कहा॥ ३ ॥ मूर्ख ! जैसे नट बच्चोंकी आँखें बाँधकर अपने जादूसे उनका धन ऐंठ लेता है, वैसे ही तू मायाकी चालोंसे हमपर विजय प्राप्त करना चाहता है। तुझे पता नहीं कि हमलोग मायाके स्वामी हैं, वह हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकती ॥ ४ ॥ जो मूर्ख मायाके द्वारा स्वर्गपर-अधिकार करना चाहते हैं और उसको लाँघकर ऊपरके लोकोंमें भी धाक जमाना चाहते हैंउन लुटेरे मूर्खोंको मैं उनके पहले स्थानसे भी नीचे पटक देता हूँ ॥ ५ ॥ नासमझ ! तूने मायाकी बड़ी-बड़ी चालें चली हैं। देख, आज मैं अपने सौ धारवाले वज्रसे तेरा सिर धड़से अलग किये देता हूँ। तू अपने भाई-बन्धुओंके साथ जो कुछ कर सकता हो, करके देख ले॥ ६ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से





शुक्रवार, 4 अक्तूबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – दसवाँ अध्याय..(पोस्ट१०)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – दसवाँ अध्याय..(पोस्ट१०)

देवासुर-संग्राम

तस्मिन्प्रविष्टेऽसुरकूटकर्मजा
माया विनेशुर्महिना महीयसः
स्वप्नो यथा हि प्रतिबोध आगते
हरिस्मृतिः सर्वविपद्विमोक्षणम् ॥ ५५ ॥
दृष्ट्वा मृधे गरुडवाहमिभारिवाह
आविध्य शूलमहिनोदथ कालनेमिः
तल्लीलया गरुडमूर्ध्नि पतद्गृहीत्वा
तेनाहनन्नृप सवाहमरिं त्र्यधीशः ॥ ५६ ॥
माली सुमाल्यतिबलौ युधि पेततुर्य-
च्चक्रेण कृत्तशिरसावथ माल्यवांस्तम्
आहत्य तिग्मगदयाहनदण्डजेन्द्रं
तावच्छिरोऽच्छिनदरेर्नदतोऽरिणाद्यः ॥ ५७ ॥

परम पुरुष परमात्मा के प्रकट होते ही उनके प्रभाव से असुरों की वह कपटभरी माया विलीन हो गयीठीक वैसे ही, जैसे जग जाने पर स्वप्न की वस्तुओं का पता नहीं चलता। ठीक ही है, भगवान्‌ की स्मृति समस्त विपत्तियों से मुक्त कर देती है ॥ ५५ ॥ इसके बाद कालनेमि दैत्य ने देखा कि लड़ाई के मैदान में गरुड़वाहन भगवान्‌ आ गये हैं, तब उसने अपने सिंह पर बैठे-ही-बैठे बड़े वेगसे उनके ऊपर एक त्रिशूल चलाया। वह गरुडक़े सिरपर लगनेवाला ही था कि खेल-खेलमें भगवान्‌ने उसे पकड़ लिया और उसी त्रिशूलसे उसके चलानेवाले कालनेमि दैत्य तथा उसके वाहनको मार डाला ॥ ५६ ॥ माली और सुमालीदो दैत्य बड़े बलवान् थे, भगवान्‌ने युद्धमें अपने चक्रसे उनके सिर भी काट डाले और वे निर्जीव होकर गिर पड़े। तदनन्तर माल्यवान्ने अपनी प्रचण्ड गदासे गरुड़पर बड़े वेगके साथ प्रहार किया। परंतु गर्जना करते हुए माल्यवान्के प्रहार करते-न-करते ही भगवान्‌ ने चक्रसे उसके सिर को भी धड़ से अलग कर दिया ॥ ५७ ॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायामष्टमस्कन्धे
देवासुरसङ्ग्रामे दशमोऽध्यायः

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – दसवाँ अध्याय..(पोस्ट०९)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – दसवाँ अध्याय..(पोस्ट०९)

देवासुर-संग्राम

एवं दैत्यैर्महामायैरलक्ष्यगतिभी रणे
सृज्यमानासु मायासु विषेदुः सुरसैनिकाः ॥ ५२ ॥
न तत्प्रतिविधिं यत्र विदुरिन्द्रादयो नृप
ध्यातः प्रादुरभूत्तत्र भगवान्विश्वभावनः ॥ ५३ ॥
ततः सुपर्णांसकृताङ्घ्रिपल्लवः
पिशङ्गवासा नवकञ्जलोचनः
अदृश्यताष्टायुधबाहुरुल्लस-
च्छ्रीकौस्तुभानर्घ्यकिरीटकुण्डलः ॥ ५४ ॥

इस प्रकार जब उन भयानक असुरों ने बहुत बड़ी मायाकी सृष्टि की और स्वयं अपनी मायाके प्रभावसे छिप रहेन दीखनेके कारण उनपर प्रहार भी नहीं किया जा सकता था, तब देवताओंके सैनिक बहुत दुखी हो गये ॥ ५२ ॥ परीक्षित्‌ ! इन्द्र आदि देवताओंने उनकी मायाका प्रतीकार करनेके लिये बहुत कुछ सोचा-विचारा, परंतु उन्हें कुछ न सूझा। तब उन्होंने विश्वके जीवनदाता भगवान्‌का ध्यान किया और ध्यान करते ही वे वहीं प्रकट हो गये ॥ ५३ ॥ बड़ी ही सुन्दर झाँकी थी। गरुडके कंधेपर उनके चरणकमल विराजमान थे। नवीन कमलके समान बड़े ही कोमल नेत्र थे। पीताम्बर धारण किये हुए थे। आठ भुजाओंमें आठ आयुध, गलेमें कौस्तुभमणि, मस्तक पर अमूल्य मुकुट एवं कानोंमें कुण्डल झलमला रहे थे। देवताओं ने अपने नेत्रों से भगवान्‌ की इस छबि का दर्शन किया ॥ ५४ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से





गुरुवार, 3 अक्तूबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – दसवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – दसवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)

देवासुर-संग्राम

यातुधान्यश्च शतशः शूलहस्ता विवाससः
छिन्धि भिन्धीति वादिन्यस्तथा रक्षोगणाः प्रभो ॥ ४८ ॥
ततो महाघना व्योम्नि गम्भीरपरुषस्वनाः
अङ्गारान्मुमुचुर्वातैराहताः स्तनयित्नवः ॥ ४९ ॥
सृष्टो दैत्येन सुमहान्वह्निः श्वसनसारथिः
सांवर्तक इवात्युग्रो विबुधध्वजिनीमधाक् ॥ ५० ॥
ततः समुद्र उद्वेलः सर्वतः प्रत्यदृश्यत
प्रचण्डवातैरुद्धूत तरङ्गावर्तभीषणः ॥ ५१ ॥

परीक्षित्‌ ! हाथोंमें शूल लिये मारो-काटोइस प्रकार चिल्लाती हुई सैकड़ों नंग-धड़ंग राक्षसियाँ और राक्षस भी वहाँ प्रकट हो गये ॥ ४८ ॥ कुछ ही क्षण बाद आकाश में बादलों की घनघोर घटाएँ मँडराने लगीं, उनके आपस में टकराने से बड़ी गहरी और कठोर गर्जना होने लगी, बिजलियाँ चमकने लगीं और आँधी के झकझोरने से बादल अंगारों की वर्षा करने लगे ॥ ४९ ॥ दैत्यराज बलिने प्रलयकी अग्नि के समान बड़ी भयानक आग की सृष्टि की। वह बात-की-बातमें वायु की सहायता से देवसेना को जलाने लगी ॥ ५० ॥ थोड़ी ही देर में ऐसा जान पड़ा कि प्रबल आँधी के थपेड़ों से समुद्र में बड़ी-बड़ी लहरें और भयानक भँवर उठ रहे हैं और वह अपनी मर्यादा छोडक़र चारों ओर से देव-सेना को घेरता हुआ उमड़ा आ रहा है ॥ ५१ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – दसवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – दसवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)

देवासुर-संग्राम

ससर्जाथासुरीं मायामन्तर्धानगतोऽसुरः
ततः प्रादुरभूच्छैलः सुरानीकोपरि प्रभो ॥ ४५ ॥
ततो निपेतुस्तरवो दह्यमाना दवाग्निना
शिलाः सटङ्कशिखराश्चूर्णयन्त्यो द्विषद्बलम् ॥ ४६ ॥
महोरगाः समुत्पेतुर्दन्दशूकाः सवृश्चिकाः
सिंहव्याघ्रवराहाश्च मर्दयन्तो महागजाः ॥ ४७ ॥

परीक्षित्‌ ! अब इन्द्र की फुर्ती से घबराकर पहले तो बलि अन्तर्धान हो गये, फिर उन्होंने आसुरी माया की सृष्टि की। तुरंत ही देवताओं की सेना के ऊपर एक पर्वत प्रकट हुआ ॥ ४५ ॥ उस पर्वत से दावाग्नि से जलते हुए वृक्ष और टाँकी-जैसी तीखी धारवाले शिखरों के साथ नुकीली शिलाएँ गिरने लगीं। इससे देवताओं की सेना चकनाचूर होने लगी ॥ ४६ ॥ तत्पश्चात् बड़े-बड़े साँप, दन्दशूक, बिच्छू और अन्य विषैले जीव उछल-उछलकर काटने और डंक मारने लगे। सिंह, बाघ और सूअर देव-सेनाके बड़े-बड़े हाथियोंको फाडऩे लगे ॥ ४७ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से





बुधवार, 2 अक्तूबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – दसवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – दसवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

देवासुर-संग्राम

बलिर्महेन्द्रं दशभिस्त्रिभिरैरावतं शरैः
चतुर्भिश्चतुरो वाहानेकेनारोहमार्च्छयत् ॥ ४१ ॥
स तानापततः शक्रस्तावद्भिः शीघ्रविक्रमः
चिच्छेद निशितैर्भल्लैरसम्प्राप्तान्हसन्निव ॥ ४२ ॥
तस्य कर्मोत्तमं वीक्ष्य दुर्मर्षः शक्तिमाददे
तां ज्वलन्तीं महोल्काभां हस्तस्थामच्छिनद्धरिः ॥ ४३ ॥
ततः शूलं ततः प्रासं ततस्तोमरमृष्टयः
यद्यच्छस्त्रं समादद्यात्सर्वं तदच्छिनद्विभुः ॥ ४४ ॥

राजा बलि ने दस बाण इन्द्रपर, तीन उनके वाहन ऐरावतपर, चार ऐरावत के चार चरण-रक्षकों पर और एक मुख्य महावत परइस प्रकार कुल अठारह बाण छोड़े ॥ ४१ ॥ इन्द्र ने देखा कि बलि के बाण तो हमें घायल करना ही चाहते हैं। तब उन्होंने बड़ी फुर्ती से उतने ही तीखे भल्ल नामक बाणों से उनको वहाँ तक पहुँचने के पहले ही हँसते-हँसते काट डाला ॥ ४२ ॥ इन्द्र की यह प्रशंसनीय फुर्ती देखकर राजा बलि और भी चिढ़ गये। उन्होंने एक बहुत बड़ी शक्ति जो बड़े भारी लूके के समान जल रही थी, उठायी। किन्तु अभी वह उनके हाथमें ही थीछूटने नहीं पायी थी कि इन्द्र ने उसे भी काट डाला ॥ ४३ ॥ इसके बाद बलि ने एक के पीछे एक क्रमश: शूल, प्रास, तोमर और शक्ति उठायी। परंतु वे जो-जो शस्त्र हाथ में उठाते, इन्द्र उन्हें टुकड़े-टुकड़े कर डालते। इस हस्तलाघव से इन्द्रका ऐश्वर्य और भी चमक उठा ॥ ४४ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – दसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – दसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

देवासुर-संग्राम

शिरोभिरुद्धूतकिरीटकुण्डलैः
संरम्भदृग्भिः परिदष्टदच्छदैः
महाभुजैः साभरणैः सहायुधैः
सा प्रास्तृता भूः करभोरुभिर्बभौ ॥ ३९ ॥
कबन्धास्तत्र चोत्पेतुः पतितस्वशिरोऽक्षिभिः
उद्यतायुधदोर्दण्डैराधावन्तो भटान्मृधे ॥ ४० ॥

तदनन्तर लड़ाई का मैदान कटे हुए सिरों से भर गया। किसी के मुकुट और कुण्डल गिर गये थे, तो किसीकी आँखोंसे क्रोधकी मुद्रा प्रकट हो रही थी। किसी-किसीने अपने दाँतोंसे होंठ दबा रखा था। बहुतोंकी आभूषणों और शस्त्रोंसे सुसज्जित लंबी-लंबी भुजाएँ कटकर गिरी हुई थीं और बहुतोंकी मोटी-मोटी जाँघे कटी हुई पड़ी थीं। इस प्रकार वह रणभूमि बड़ी भीषण दीख रही थी ॥ ३९ ॥ तब वहाँ बहुत-से धड़ अपने कटकर गिरे हुए सिरोंके नेत्रोंसे देखकर हाथोंमें हथियार उठा वीरों की ओर दौडऩे और उछलने लगे ॥ ४० ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




मंगलवार, 1 अक्तूबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – दसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – दसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

देवासुर-संग्राम

त एवमाजावसुराः सुरेन्द्रा
द्वन्द्वेन संहत्य च युध्यमानाः
अन्योन्यमासाद्य निजघ्नुरोजसा
जिगीषवस्तीक्ष्णशरासितोमरैः ॥ ३५ ॥
भुशुण्डिभिश्चक्रगदर्ष्टिपट्टिशैः
शक्त्युल्मुकैः प्रासपरश्वधैरपि
निस्त्रिंशभल्लैः परिघैः समुद्गरैः
सभिन्दिपालैश्च शिरांसि चिच्छिदुः ॥ ३६ ॥
गजास्तुरङ्गाः सरथाः पदातयः
सारोहवाहा विविधा विखण्डिताः
निकृत्तबाहूरुशिरोधराङ्घ्रय-
श्छिन्नध्वजेष्वासतनुत्रभूषणाः ॥ ३७ ॥
तेषां पदाघातरथाङ्गचूर्णिता-
दायोधनादुल्बण उत्थितस्तदा
रेणुर्दिशः खं द्युमणिं च छादयन्-
न्यवर्ततासृक्स्रुतिभिः परिप्लुतात् ॥ ३८ ॥


इस प्रकार असुर और देवता रणभूमि में द्वन्द्व युद्ध और सामूहिक आक्रमण द्वारा एक-दूसरे से भिडक़र परस्पर विजय की इच्छा से उत्साहपूर्वक तीखे, तलवार और भालों से प्रहार करने लगे। वे तरह-तरहसे युद्ध कर रहे थे ॥ ३५ ॥ भुशुण्डि, चक्र, गदा, ऋष्टि, पट्टिश, शक्ति, उल्मुक, प्रास, फरसा, तलवार, भाले, मुद्गर, परिघ और भिन्दिपाल से एक-दूसरे का सिर काटने लगे ॥ ३६ ॥ उस समय अपने सवारोंके साथ हाथी, घोड़े, रथ आदि अनेकों प्रकारके वाहन और पैदल सेना छिन्न-भिन्न होने लगी। किसीकी भुजा, किसीकी जङ्घा, किसीकी गरदन और किसीके पैर कट गये तो किसी-किसीकी ध्वजा, धनुष, कवच और आभूषण ही टुकड़े-टुकड़े हो गये ॥ ३७ ॥ उनके चरणोंकी धमक और रथके पहियोंकी रगड़से पृथ्वी खुद गयी। उस समय रणभूमिसे ऐसी प्रचण्ड धूल उठी कि उसने दिशा, आकाश और सूर्यको भी ढक दिया। परंतु थोड़ी ही देरमें खूनकी धारासे भूमि आप्लावित हो गयी और कहीं धूलका नाम भी न रहा ॥ ३८ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – दसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – दसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

देवासुर-संग्राम

तेऽन्योन्यमभिसंसृत्य क्षिपन्तो मर्मभिर्मिथः
आह्वयन्तो विशन्तोऽग्रे युयुधुर्द्वन्द्वयोधिनः ॥ २७ ॥
युयोध बलिरिन्द्रे ण तारकेण गुहोऽस्यत
वरुणो हेतिनायुध्यन्मित्रो राजन्प्रहेतिना ॥ २८ ॥
यमस्तु कालनाभेन विश्वकर्मा मयेन वै
शम्बरो युयुधे त्वष्ट्रा सवित्रा तु विरोचनः ॥ २९ ॥
अपराजितेन नमुचिरश्विनौ वृषपर्वणा
सूर्यो बलिसुतैर्देवो बाणज्येष्ठैः शतेन च ॥ ३० ॥
राहुणा च तथा सोमः पुलोम्ना युयुधेऽनिलः
निशुम्भशुम्भयोर्देवी भद्र काली तरस्विनी ॥ ३१ ॥
वृषाकपिस्तु जम्भेन महिषेण विभावसुः
इल्वलः सह वातापिर्ब्रह्मपुत्रैररिन्दम ॥ ३२ ॥
कामदेवेन दुर्मर्ष उत्कलो मातृभिः सह
बृहस्पतिश्चोशनसा नरकेण शनैश्चरः ॥ ३३ ॥
मरुतो निवातकवचैः कालेयैर्वसवोऽमराः
विश्वेदेवास्तु पौलोमै रुद्रा: क्रोधवशैः सह ॥ ३४ ॥

दोनों सेनाएँ आमने-सामने खड़ी हो गयीं। दो-दो की जोडिय़ाँ बनाकर वे लोग लडऩे लगे। कोई आगे बढ़ रहा था, तो कोई नाम ले-लेकर ललकार रहा था। कोई-कोई मर्मभेदी वचनों के द्वारा अपने प्रतिद्वन्द्वीको धिक्कार रहा था ॥ २७ ॥ बलि इन्द्रसे, स्वामिकार्तिक तारकासुर से, वरुण हेतिसे और मित्र प्रहेतिसे भिड़ गये ॥ २८ ॥ यमराज कालनाभसे, विश्वकर्मा मयसे, शम्बरासुर त्वष्टासे तथा सविता विरोचनसे लडऩे लगे ॥ २९ ॥ नमुचि अपराजितसे, अश्विनीकुमार वृषपर्वासे तथा सूर्यदेव बलिके बाण आदि सौ पुत्रोंसे युद्ध करने लगे ॥ ३० ॥ राहुके साथ चन्द्रमा और पुलोमाके साथ वायुका युद्ध हुआ। भद्रकाली देवी निशुम्भ और शुम्भपर झपट पड़ीं ॥ ३१ ॥ परीक्षित्‌ ! जम्भासुरसे महोदवजीकी, महिषासुरसे अग्रिदेवकी और वातापि तथा इल्वलसे ब्रह्माके पुत्र मरीचि आदिकी ठन गयी ॥ ३२ ॥ दुर्मर्षकी कामदेवसे, उत्कलकी मातृगणोंसे, शुक्राचार्यकी बृहस्पतिसे और नरकासुरकी शनैश्चरसे लड़ाई होने लगी ॥ ३३ ॥ निवातकवचोंके साथ मरुदगण, कालेयोंके साथ वसुगण, पौलोमोंके साथ विश्वेदेवगण तथा क्रोधवशोंके साथ रुद्रगणका संग्राम होने लगा ॥ ३४ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट०९)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट०९) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन देव...