॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)
देवासुर-संग्रामकी समाप्ति
श्रीशुक उवाच
अथो सुराः प्रत्युपलब्धचेतसः
परस्य पुंसः परयानुकम्पया
जघ्नुर्भृशं शक्रसमीरणादय-
स्तांस्तान्रणे यैरभिसंहताः पुरा ॥ १ ॥
वैरोचनाय संरब्धो भगवान्पाकशासनः
उदयच्छद्यदा वज्रं प्रजा हा हेति चुक्रुशुः ॥ २ ॥
वज्रपाणिस्तमाहेदं तिरस्कृत्य पुरःस्थितम्
मनस्विनं सुसम्पन्नं विचरन्तं महामृधे ॥ ३ ॥
नटवन्मूढ मायाभिर्मायेशान्नो जिगीषसि
जित्वा बालान्निबद्धाक्षान्नटो हरति तद्धनम् ॥ ४ ॥
आरुरुक्षन्ति मायाभिरुत्सिसृप्सन्ति ये दिवम्
तान्दस्यून्विधुनोम्यज्ञान्पूर्वस्माच्च पदादधः ॥ ५ ॥
सोऽहं दुर्मायिनस्तेऽद्य वज्रेण शतपर्वणा
शिरो हरिष्ये मन्दात्मन्घटस्व ज्ञातिभिः सह ॥ ६ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित् ! परम पुरुष भगवान् की अहैतुकी कृपा से देवताओं की घबराहट जाती
रही,
उनमें नवीन उत्साह का सञ्चार हो गया। पहले इन्द्र, वायु आदि देवगण रणभूमि में जिन-जिन दैत्यों से आहत हुए थे, उन्हीं के ऊपर अब वे पूरी शक्ति से प्रहार करने लगे ॥ १ ॥
परम ऐश्वर्यशाली इन्द्रने बलिसे लड़ते-लड़ते जब उनपर क्रोध करके वज्र उठाया, तब सारी प्रजामें हाहाकार मच गया ॥ २ ॥ बलि अस्त्र-शस्त्रसे
सुसज्जित होकर बड़े उत्साहसे युद्धभूमिमें बड़ी निर्भयतासे डटकर विचर रहे थे। उनको
अपने सामने ही देखकर हाथमें वज्र लिये हुए इन्द्रने उनका तिरस्कार करके कहा— ॥ ३ ॥ ‘मूर्ख ! जैसे
नट बच्चोंकी आँखें बाँधकर अपने जादूसे उनका धन ऐंठ लेता है, वैसे ही तू मायाकी चालोंसे हमपर विजय प्राप्त करना चाहता
है। तुझे पता नहीं कि हमलोग मायाके स्वामी हैं, वह हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकती ॥ ४ ॥ जो मूर्ख मायाके द्वारा स्वर्गपर-अधिकार
करना चाहते हैं और उसको लाँघकर ऊपरके लोकोंमें भी धाक जमाना चाहते हैं—उन लुटेरे मूर्खोंको मैं उनके पहले स्थानसे भी नीचे पटक
देता हूँ ॥ ५ ॥ नासमझ ! तूने मायाकी बड़ी-बड़ी चालें चली हैं। देख, आज मैं अपने सौ धारवाले वज्रसे तेरा सिर धड़से अलग किये
देता हूँ। तू अपने भाई-बन्धुओंके साथ जो कुछ कर सकता हो, करके देख ले’ ॥ ६ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से