॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – बारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)
मोहिनीरूप को देखकर महादेवजी का मोहित होना
वृषध्वजो
निशम्येदं योषिद् रूपेण दानवान् ।
मोहयित्वा
सुरगणान् हरिः सोममपाययत् ॥ १ ॥
वृषमारुह्य
गिरिशः सर्वभूतगणैर्वृतः ।
सह
देव्या ययौ द्रष्टुं यत्रास्ते मधुसूदनः ॥ २ ॥
सभाजितो
भगवता सादरं सोमया भवः ।
सूपविष्ट
उवाचेदं प्रतिपूज्य स्मयन्हरिम् ॥ ३ ॥
श्रीमहादेव
उवाच -
देवदेव
जगद्व्यापिन् जगदीश जगन्मय ।
सर्वेषामपि
भावानां त्वमात्मा हेतुरीश्वरः ॥ ४ ॥
आद्यन्तौ
अस्य यन्मध्यं इदं अन्यदहं बहिः ।
यतोऽव्ययस्य
नैतानि तत्सत्यं ब्रह्म चिद्भवान् ॥ ५ ॥
तवैव
चरणाम्भोजं श्रेयस्कामा निराशिषः ।
विसृज्योभयतः
संगं मुनयः समुपासते ॥ ६ ॥
त्वं
ब्रह्म पूर्णममृतं विगुणं विशोकं
आनन्दमात्रमविकारमनन्यदन्यत् ।
विश्वस्य
हेतुरुदयस्थितिसंयमानां
आत्मेश्वरश्च तदपेक्षतयानपेक्षः ॥ ७ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित् ! जब भगवान् शङ्कर ने यह सुना कि श्रीहरि ने स्त्री का रूप धारण
करके असुरों को मोहित कर लिया और देवताओं को अमृत पिला दिया, तब वे सती देवी के साथ बैल पर सवार हो समस्त भूतगणों को
लेकर वहाँ गये,
जहाँ भगवान् मधुसूदन निवास करते हैं ॥ १-२ ॥ भगवान्
श्रीहरि ने बड़े प्रेम से गौरी-शङ्कर भगवान् का स्वागत-सत्कार किया। वे भी सुख से
बैठकर भगवान् का सम्मान करके मुसकराते हुए बोले ॥ ३ ॥
श्रीमहादेवजीने कहा—समस्त देवोंके आराध्यदेव ! आप विश्वव्यापी, जगदीश्वर एवं जगत्स्वरूप हैं। समस्त चराचर पदार्थोंके मूल कारण, ईश्वर और आत्मा भी आप ही हैं ॥ ४ ॥ इस जगत्के आदि, अन्त और मध्य आपसे ही होते हैं; परंतु आप आदि, मध्य और अन्तसे रहित हैं। आपके अविनाशी स्वरूपमें द्रष्टा, दृश्य, भोक्ता और
भोग्य का भेदभाव नहीं है। वास्तवमें आप सत्य, चिन्मात्र ब्रह्म ही हैं ॥ ५ ॥ कल्याणकामी महात्मालोग इस लोक और परलोक दोनोंकी
आसक्ति एवं समस्त कामनाओंका परित्याग करके आपके चरणकमलोंकी ही आराधना करते हैं ॥ ६
॥
आप अमृतस्वरूप, समस्त प्राकृत गुणोंसे रहित, शोककी छायासे
भी दूर,
स्वयं परिपूर्ण ब्रह्म हैं। आप केवल आनन्दस्वरूप हैं। आप
निर्विकार हैं। आपसे भिन्न कुछ नहीं है, परंतु आप सबसे भिन्न हैं। आप विश्वकी उत्पत्ति, स्थिति और प्रलयके परम कारण हैं। आप समस्त जीवोंके शुभाशुभ कर्मका फल देनेवाले
स्वामी हैं। परंतु यह बात भी जीवोंकी अपेक्षासे ही कही जाती है; वास्तवमें आप सबकी अपेक्षासे रहित, अनपेक्ष हैं ॥ ७ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से