शुक्रवार, 22 नवंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध – पहला अध्याय..(पोस्ट०३)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
नवम स्कन्ध पहला अध्याय..(पोस्ट०३)

वैवस्वत मनु के पुत्र राजा सुद्युम्न की कथा

निशम्य तद्वचः तस्य भगवान् प्रपितामहः ।
होतुर्व्यतिक्रमं ज्ञात्वा बभाषे रविनन्दनम् ॥ १९ ॥
एतत् संकल्पवैषम्यं होतुस्ते व्यभिचारतः ।
तथापि साधयिष्ये ते सुप्रजास्त्वं स्वतेजसा ॥ २० ॥
एवं व्यवसितो राजन् भगवान् स महायशाः ।
अस्तौषीद् आदिपुरुषं इलायाः पुंस्त्वकाम्यया ॥ २१ ॥
तस्मै कामवरं तुष्टो भगवान् हरिरीश्वरः ।
ददौ इविलाभवत् तेन सुद्युम्नः पुरुषर्षभः ॥ २२ ॥
स एकदा महाराज विचरन् मृगयां वने ।
वृतः कतिपयामात्यैः अश्वं आरुह्य सैन्धवम् ॥ २३ ॥
प्रगृह्य रुचिरं चापं शरांश्च परमाद्‍भुतान् ।
दंशितोऽनुमृगं वीरो जगाम दिशमुत्तराम् ॥ २४ ॥
सु कुमातो वनं मेरोः अधस्तात् प्रविवेश ह ।
यत्रास्ते भगवान् शर्वो रममाणः सहोमया ॥ २५ ॥
तस्मिन् प्रविष्ट एवासौ सुद्युम्नः परवीरहा ।
अपश्यत् स्त्रियमात्मानं अश्वं च वडवां नृप ॥ २६ ॥
तथा तदनुगाः सर्वे आत्मलिङ्‌ग विपर्ययम् ।
दृष्ट्वा विमनसोऽभूवन् विक्षमाणाः परस्परम् ॥ २७ ॥

परीक्षित्‌ ! हमारे वृद्धप्रपितामह भगवान्‌ वसिष्ठ ने उनकी यह बात सुनकर जान लिया कि होता ने विपरीत संकल्प किया है। इसलिये उन्होंने वैवस्वत मनुसे कहा॥ १९ ॥ राजन् ! तुम्हारे होता के विपरीत संकल्पसे ही हमारा संकल्प ठीक-ठीक पूरा नहीं हुआ। फिर भी अपने तपके प्रभाव से मैं तुम्हें श्रेष्ठ पुत्र दूँगा॥ २० ॥ परीक्षित्‌ ! परम यशस्वी भगवान्‌ वसिष्ठ ने ऐसा निश्चय करके उस इला नामकी कन्याको ही पुरुष बना देनेके लिये पुरुषोत्तम भगवान्‌ नारायणकी स्तुति की ॥ २१ ॥ सर्वशक्तिमान् भगवान्‌ श्रीहरि ने सन्तुष्ट होकर उन्हें मुँहमाँगा वर दिया, जिसके प्रभावसे वह कन्या ही सुद्युम्न नामक श्रेष्ठ पुत्र बन गयी ॥ २२ ॥
महाराज ! एक बार राजा सुद्युम्न शिकार खेलनेके लिये सिन्धुदेशके घोड़ेपर सवार होकर कुछ मन्त्रियों के साथ वनमें गये ॥ २३ ॥ वीर सुद्युम्न कवच पहनकर और हाथमें सुन्दर धनुष एवं अत्यन्त अद्भुत बाण लेकर हरिनोंका पीछा करते हुए उत्तर दिशामें बहुत आगे बढ़ गये ॥ २४ ॥ अन्तमें सुद्युम्न मेरुपर्वतकी तलहटी के एक वनमें चले गये। उस वनमें भगवान्‌ शङ्कर पार्वतीके साथ विहार करते रहते हैं ॥ २५ ॥ उसमें प्रवेश करते ही वीरवर सुद्युम्न ने देखा कि मैं स्त्री हो गया हूँ और घोड़ा घोड़ी हो गया है ॥ २६ ॥ परीक्षित्‌ ! साथ ही उनके सब अनुचरोंने भी अपने को स्त्रीरूप में देखा। वे सब एक-दूसरे का मुँह देखने लगे, उनका चित्त बहुत उदास हो गया ॥ २७ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




गुरुवार, 21 नवंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध – पहला अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
नवम स्कन्ध पहला अध्याय..(पोस्ट०२)

वैवस्वत मनु के पुत्र राजा सुद्युम्न की कथा

अप्रजस्य मनोः पूर्वं वसिष्ठो भगवान् किल ।
मित्रावरुणयोः इष्टिं प्रजार्थं अकरोद् विभुः ॥ १३ ॥
तत्र श्रद्धा मनोः पत्‍नी होतारं समयाचत ।
दुहित्रर्थं उपागम्य प्रणिपत्य पयोव्रता ॥ १४ ॥
प्रेषितोऽध्वर्युणा होता ध्यायन् तत् सुसमाहितः ।
हविषि व्यचरत् तेन वषट्कारं गृणन् द्विजः ॥ १५ ॥
होतुस्तद् व्यभिचारेण कन्येला नाम साभवत् ।
तां विलोक्य मनुः प्राह नाति हृष्टमना गुरुम् ॥ १६ ॥
भगवन् किमिदं जातं कर्म वो ब्रह्मवादिनाम् ।
विपर्ययं अहो कष्टं मैवं स्याद् ब्रह्मविक्रिया ॥ १७ ॥
यूयं मंत्रविदो युक्ताः तपसा दग्धकिल्बिषाः ।
कुतः संकल्पवैषम्यं अनृतं विबुधेष्विव ॥ १८ ॥

वैवस्वत मनु पहले सन्तानहीन थे। उस समय सर्वसमर्थ भगवान्‌ वसिष्ठने उन्हें सन्तान-प्राप्ति करानेके लिये मित्रावरुणका यज्ञ कराया था ॥ १३ ॥ यज्ञके आरम्भमें केवल दूध पीकर रहनेवाली वैवस्वत मनुकी धर्मपत्नी श्रद्धाने अपने होताके पास जाकर प्रणामपूर्वक याचना की कि मुझे कन्या ही प्राप्त हो ॥ १४ ॥ तब अध्वर्युकी प्रेरणासे होता बने हुए ब्राह्मणने श्रद्धाके कथनका स्मरण करके एकाग्र चित्तसे वषट्कारका उच्चारण करते हुए यज्ञकुण्डमें आहुति दी ॥ १५ ॥ जब होताने इस प्रकार विपरीत कर्म किया, तब यज्ञके फलस्वरूप पुत्रके स्थानपर इला नामकी कन्या हुई। उसे देखकर श्राद्धदेव मनुका मन कुछ विशेष प्रसन्न नहीं हुआ। उन्होंने अपने गुरु वसिष्ठजीसे कहा॥ १६ ॥ भगवन् ! आपलोग तो ब्रह्मवादी हैं, आपका कर्म इस प्रकार विपरीत फल देनेवाला कैसे हो गया ? अरे, यह तो बड़े दु:खकी बात है। वैदिक कर्मका ऐसा विपरीत फल तो कभी नहीं होना चाहिये ॥ १७ ॥ आप लोगों का मन्त्रज्ञान तो पूर्ण है ही; इसके अतिरिक्त आपलोग जितेन्द्रिय भी हैं तथा तपस्या के कारण निष्पाप हो चुके हैं। देवताओं में असत्य की प्राप्ति के समान आपके संकल्पका यह उलटा फल कैसे हुआ ?’ ॥ १८ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध – पहला अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
नवम स्कन्ध पहला अध्याय..(पोस्ट०१)

वैवस्वत मनु के पुत्र राजा सुद्युम्न की कथा

श्रीराजोवाच ।
मन्वन्तराणि सर्वाणि त्वयोक्तानि श्रुतानि मे ।
वीर्याणि अनन्तवीर्यस्य हरेस्तत्र कृतानि च ॥ १ ॥
योऽसौ सत्यव्रतो नाम राजर्षिः द्रविडेश्वरः ।
ज्ञानं योऽतीतकल्पान्ते लेभे पुरुषसेवया ॥ २ ॥
स वै विवस्वतः पुत्रो मनुः आसीद् इति श्रुतम् ।
त्वत्तस्तस्य सुताः प्रोक्ता इक्ष्वाकुप्रमुखा नृपाः ॥ ३ ॥
तेषां वंशं पृथग्ब्रह्मन् वंशानुचरितानि च ।
कीर्तयस्व महाभाग नित्यं शुश्रूषतां हि नः ॥ ४ ॥
ये भूता ये भविष्याश्च भवन्ति अद्यतनाश्च ये ।
तेषां नः पुण्यकीर्तीनां सर्वेषां वद विक्रमान् ॥ ५ ॥

श्रीसूत उवाच ।
एवं परीक्षिता राज्ञा सदसि ब्रह्मवादिनाम् ।
पृष्टः प्रोवाच भगवान् शुकः परमधर्मवित् ॥ ६ ॥

श्रीशुक उवाच ।
श्रूयतां मानवो वंशः प्राचुर्येण परंतप ।
न शक्यते विस्तरतो वक्तुं वर्षशतैरपि ॥ ७ ॥
परावरेषां भूतानां आत्मा यः पुरुषः परः ।
स एवासीद् इदं विश्वं कल्पान्ते अन्यत् न किञ्चन ॥ ८ ॥
तस्य नाभेः समभवत् पद्मकोषो हिरण्मयः ।
तस्मिन् जज्ञे महाराज स्वयंभूः चतुराननः ॥ ९ ॥
मरीचिः मनसस्तस्य जज्ञे तस्यापि कश्यपः ।
दाक्षायण्यां ततोऽदित्यां विवस्वान् अभवत् सुतः ॥ १० ॥
ततो मनुः श्राद्धदेवः संज्ञायामास भारत ।
श्रद्धायां जनयामास दश पुत्रान् स आत्मवान् ॥ ११ ॥
इक्ष्वाकुनृगशर्याति दिष्टधृष्ट करूषकान् ।
नरिष्यन्तं पृषध्रं च नभगं च कविं विभुः ॥ १२ ॥

राजा परीक्षित्‌ ने पूछाभगवन् ! आपने सब मन्वन्तरों और उनमें अनन्त शक्तिशाली भगवान्‌के द्वारा किये हुए ऐश्वर्यपूर्ण चरित्रोंका वर्णन किया और मैंने उनका श्रवण भी किया ॥ १ ॥ आपने कहा कि पिछले कल्प के अन्त में द्रविड़ देश के स्वामी राजर्षि सत्यव्रतने भगवान्‌ की सेवासे ज्ञान प्राप्त किया और वही इस कल्पमें वैवस्वत मनु हुए। आपने उनके इक्ष्वाकु आदि नरपति पुत्रोंका भी वर्णन किया ॥ २-३ ॥ ब्रह्मन् ! अब आप कृपा करके उनके वंश और वंश में होनेवालोंका अलग-अलग चरित्र वर्णन कीजिये। महाभाग ! हमारे हृदयमें सर्वदा ही कथा सुननेकी उत्सुकता बनी रहती है ॥ ४ ॥ वैवस्वत मनुके वंशमें जो हो चुके हों, इस समय विद्यमान हों और आगे होनेवाले होंउन सब पवित्रकीर्ति पुरुषोंके पराक्रमका वर्णन कीजिये ॥ ५ ॥
सूतजी कहते हैंशौनकादि ऋषियो ! ब्रह्मवादी ऋषियोंकी सभामें राजा परीक्षित्‌ने जब यह प्रश्र किया, तब धर्म के परम मर्मज्ञ भगवान्‌ श्रीशुकदेवजी ने कहा ॥ ६ ॥
श्रीशुकदेवजी ने कहापरीक्षित्‌ ! तुम मनुवंश का वर्णन संक्षेपसे सुनो। विस्तार से तो सैकड़ों वर्षमें भी उसका वर्णन नहीं किया जा सकता ॥ ७ ॥ जो परम पुरुष परमात्मा छोटे-बड़े सभी प्राणियोंके आत्मा हैं, प्रलयके समय केवल वही थे; यह विश्व तथा और कुछ भी नहीं था ॥ ८ ॥ महाराज ! उनकी नाभिसे एक सुवर्णमय कमलकोष प्रकट हुआ। उसीमें चतुर्मुख ब्रह्माजी का आविर्भाव हुआ ॥ ९ ॥ ब्रह्माजी के मनसे मरीचि और मरीचि के पुत्र कश्यप हुए। उनकी धर्मपत्नी दक्षनन्दिनी अदिति से विवस्वान् (सूर्य)का जन्म हुआ ॥ १० ॥ विवस्वान् की संज्ञा नामक पत्नी से श्राद्धदेव मनुका जन्म हुआ। परीक्षित्‌ ! परम मनस्वी राजा श्राद्धदेव ने अपनी पत्नी श्रद्धाके गर्भ से दस पुत्र उत्पन्न किये। उनके नाम थेइक्ष्वाकु, नृग, शर्याति, दिष्ट, धृष्ट, करूष, नरिष्यन्त, पृषध्र, नभग और कवि ॥ ११-१२ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




बुधवार, 20 नवंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – चौबीसवाँ अध्याय..(पोस्ट११)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – चौबीसवाँ अध्याय..(पोस्ट११)

भगवान्‌ के मत्स्यावतार की कथा

श्रीशुक उवाच -
इत्युक्तवन्तं नृपतिं भगवान् आदिपूरुषः ।
मत्स्यरूपी महाम्भोधौ विहरन् तत्त्वमब्रवीत् ॥ ५४ ॥
पुराणसंहितां दिव्यां सांख्ययोगक्रियावतीम् ।
सत्यव्रतस्य राजर्षेः आत्मगुह्यमशेषतः ॥ ५५ ॥
अश्रौषीद् ऋषिभिः साकं आत्मतत्त्वं असंशयम् ।
नाव्यासीनो भगवता प्रोक्तं ब्रह्म सनातनम् ॥ ५६ ॥
अतीतप्रलयापाय उत्थिताय स वेधसे ।
हत्वासुरं हयग्रीवं वेदान्प्रत्याहरद्धरिः ॥ ५७ ॥
स तु सत्यव्रतो राजा ज्ञानविज्ञानसंयुतः ।
विष्णोः प्रसादात् कल्पेऽस्मिन् आसीत् वैवस्वतो मनुः ॥ ५८ ॥
सत्यव्रतस्य राजर्षेः मायामत्स्यस्य शार्ङ्‌गिणः ।
संवादं महदाख्यानं श्रुत्वा मुच्येत किल्बिषात् ॥ ५९ ॥
अवतारं हरेर्योऽयं कीर्तयेद् अन्वहं नरः ।
संकल्पास्तस्य सिध्यन्ति स याति परमां गतिम् ॥ ६० ॥
प्रलयपयसि धातुः सुप्तशक्तेर्मुखेभ्यः
     श्रुतिगणमपनीतं प्रत्युपादत्त हत्वा ।
दितिजमकथयद् यो ब्रह्म सत्यव्रतानां
     तमहमखिलहेतुं जिह्ममीनं नतोऽस्मि ॥ ६१ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! जब राजा सत्यव्रत ने इस प्रकार प्रार्थना की, तब मत्स्यरूपधारी पुरुषोत्तम भगवान्‌ ने प्रलयके समुद्र में विहार करते हुए उन्हें आत्मतत्त्व का उपदेश किया ॥ ५४ ॥ भगवान्‌ने राजर्षि सत्यव्रतको अपने स्वरूपके सम्पूर्ण रहस्यका वर्णन करते हुए ज्ञान, भक्ति और कर्म- योग से परिपूर्ण दिव्य पुराण का उपदेश किया, जिसको मत्स्यपुराणकहते हैं ॥ ५५ ॥ सत्यव्रतने ऋषियोंके साथ नावमें बैठे हुए ही सन्देहरहित होकर भगवान्‌के द्वारा उपदिष्ट सनातन ब्रह्मस्वरूप आत्म- तत्त्व का श्रवण किया ॥ ५६ ॥ इसके बाद जब पिछले प्रलयका अन्त हो गया और ब्रह्माजीकी नींद टूटी, तब भगवान्‌ने हयग्रीव असुरको मारकर उससे वेद छीन लिये और ब्रह्माजीको दे दिये ॥ ५७ ॥ भगवान्‌की कृपासे राजा सत्यव्रत ज्ञान और विज्ञानसे संयुक्त होकर इस कल्पमें वैवस्वत मनु हुए ॥ ५८ ॥ अपनी योगमायासे मत्स्यरूप धारण करनेवाले भगवान्‌ विष्णु और राजर्षि सत्यव्रतका यह संवाद एवं श्रेष्ठ आख्यान सुनकर मनुष्य सब प्रकारके पापोंसे मुक्त हो जाता है ॥ ५९ ॥ जो मनुष्य भगवान्‌के इस अवतारका प्रतिदिन कीर्तन करता है, उसके सारे संकल्प सिद्ध हो जाते हैं और उसे परमगतिकी प्राप्ति होती है ॥ ६० ॥ प्रलयकालीन समुद्रमें जब ब्रह्माजी सो गये थे, उनकी सृष्टिशक्ति लुप्त हो चुकी थी, उस समय उनके मुखसे निकली हुई श्रुतियोंको चुराकर हयग्रीव दैत्य पातालमें ले गया था। भगवान्‌ने उसे मारकर वे श्रुतियाँ ब्रह्माजीको लौटा दीं एवं सत्यव्रत तथा सप्तर्षियोंको ब्रह्मतत्त्वका उपदेश किया। उन समस्त जगत्के परम कारण लीलामत्स्य भगवान्‌को मैं नमस्कार करता हूँ ॥ ६१ ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
अष्टमस्कन्धे मत्यावतारचरितानुवर्णनं चतुर्विंशोऽध्यायः ॥ २४ ॥

॥ इति अष्टम स्कन्ध समाप्त ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – चौबीसवाँ अध्याय..(पोस्ट१०)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – चौबीसवाँ अध्याय..(पोस्ट१०)

भगवान्‌ के मत्स्यावतार की कथा

अचक्षुरन्धस्य यथाग्रणीः कृतः
     तथा जनस्याविदुषोऽबुधो गुरुः ।
त्वं अर्कदृक् सर्वदृशां समीक्षणो
     वृतो गुरुर्नः स्वगतिं बुभुत्सताम् ॥ ५० ॥
जनो जनस्यादिशतेऽसतीं गतिं
     यया प्रपद्येत दुरत्ययं तमः ।
त्वं त्वव्ययं ज्ञानममोघमञ्जसा
     प्रपद्यते येन जनो निजं पदम् ॥ ५१ ॥
त्वं सर्वलोकस्य सुहृत् प्रियेश्वरो
     ह्यात्मा गुरुर्ज्ञानमभीष्टसिद्धिः ।
तथापि लोको न भवन्तमन्धधीः
     जानाति सन्तं हृदि बद्धकामः ॥ ५२ ॥
तं त्वामहं देववरं वरेण्यं
     प्रपद्य ईशं प्रतिबोधनाय ।
छिन्ध्यर्थदीपैर्भगवन् वचोभिः
     ग्रन्थीन् हृदय्यान् विवृणु स्वमोकः ॥ ५३ ॥

जैसे कोई अंधा अंधेको ही अपना पथप्रदर्शक बना ले, वैसे ही अज्ञानी जीव अज्ञानीको ही अपना गुरु बनाते हैं। आप सूर्यके समान स्वयंप्रकाश और समस्त इन्द्रियोंके प्रेरक हैं। हम आत्मतत्त्वके जिज्ञासु आपको ही गुरुके रूपमें वरण करते हैं ॥ ५० ॥ अज्ञानी मनुष्य अज्ञानियोंको जिस ज्ञानका उपदेश करता है, वह तो अज्ञान ही है। उसके द्वारा संसाररूप घोर अन्धकारकी अधिकाधिक प्राप्ति होती है। परंतु आप तो उस अविनाशी और अमोघ ज्ञानका उपदेश करते हैं, जिससे मनुष्य अनायास ही अपने वास्तविक स्वरूपको प्राप्त कर लेता है ॥ ५१ ॥ आप सारे लोकके सुहृद्, प्रियतम, ईश्वर और आत्मा हैं। गुरु, उसके द्वारा प्राप्त होनेवाला ज्ञान और अभीष्ट की सिद्धि भी आपका ही स्वरूप है। फिर भी कामनाओं के बन्धनमें जकड़े जाकर लोग अंधे हो रहे हैं। उन्हें इस बात का पता ही नहीं है कि आप उनके हृदयमें ही विराजमान् हैं ॥ ५२ ॥ आप देवताओंके भी आराध्यदेव, परम पूजनीय परमेश्वर हैं। मैं आपसे ज्ञान प्राप्त करनेके लिये आपकी शरणमें आया हूँ। भगवन् ! आप परमार्थको प्रकाशित करनेवाली अपनी वाणीके द्वारा मेरे हृदयकी ग्रन्थि काट डालिये और अपने स्वरूपको प्रकाशित कीजिये ॥ ५३ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




मंगलवार, 19 नवंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – चौबीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०९)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – चौबीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०९)

भगवान्‌ के मत्स्यावतार की कथा

श्रीराजोवाच -
अनाद्यविद्योपहतात्मसंविदः
     तन्मूलसंसारपरिश्रमातुराः ।
यदृच्छयेहोपसृता यमाप्नुयुः
     विमुक्तिदो नः परमो गुरुर्भवान् ॥ ४६ ॥
जनोऽबुधोऽयं निजकर्मबन्धनः
     सुखेच्छया कर्म समीहतेऽसुखम् ।
यत्सेवया तां विधुनोत्यसन्मतिं
     ग्रन्थिं स भिन्द्याद् हृदयं स नो गुरुः ॥ ४७ ॥
यत्सेवयाग्नेरिव रुद्ररोदनं
     पुमान् विजह्यान् मलमात्मनस्तमः ।
भजेत वर्णं निजमेष सोऽव्ययो
     भूयात् स ईशः परमो गुरोर्गुरुः ॥ ४८ ॥
न यत्प्रसादायुतभागलेशं
     अन्ये च देवा गुरवो जनाः स्वयम् ।
कर्तुं समेताः प्रभवन्ति पुंसः
     तं ईश्वरं त्वां शरणं प्रपद्ये ॥ ४९ ॥

राजा सत्यव्रत ने कहाप्रभो ! संसारके जीवोंका आत्मज्ञान अनादि-अविद्यासे ढक गया है। इसी कारण वे संसारके अनेकानेक क्लेशोंके भारसे पीडि़त हो रहे हैं। जब अनायास ही आपके अनुग्रहसे वे आपकी शरणमें पहुँच जाते हैं, तब आपको प्राप्त कर लेते हैं। इसलिये हमें बन्धनसे छुड़ाकर वास्तविक मुक्ति देनेवाले परम गुरु आप ही हैं ॥ ४६ ॥ यह जीव अज्ञानी है, अपने ही कर्मोंसे बँधा हुआ है। वह सुखकी इच्छासे दु:खप्रद कर्मोंका अनुष्ठान करता है। जिनकी सेवासे उसका यह अज्ञान नष्ट हो जाता है, वे ही मेरे परम गुरु आप मेरे हृदयकी गाँठ काट दें ॥ ४७ ॥ जैसे अग्रिमें तपानेसे सोने- चाँदीके मल दूर हो जाते हैं और उनका सच्चा स्वरूप निखर आता है, वैसे ही आपकी सेवासे जीव अपने अन्त:करणका अज्ञानरूप मल त्याग देता है और अपने वास्तविक स्वरूपमें स्थित हो जाता है। आप सर्वशक्तिमान् अविनाशी प्रभु ही हमारे गुरुजनोंके भी परम गुरु हैं। अत: आप ही हमारे भी गुरु बनें ॥ ४८ ॥ जितने भी देवता, गुरु और संसारके दूसरे जीव हैंवे सब यदि स्वतन्त्ररूपसे एक साथ मिलकर भी कृपा करें, तो आपकी कृपाके दस हजारवें अंशके अंशकी भी बराबरी नहीं कर सकते। प्रभो ! आप ही सर्वशक्तिमान् हैं। मैं आपकी शरण ग्रहण करता हूँ ॥ ४९ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – चौबीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – चौबीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)

भगवान्‌ के मत्स्यावतार की कथा

आस्तीर्य दर्भान् प्राक्कूलान् राजर्षिः प्रागुदंमुखः ।
निषसाद हरेः पादौ चिन्तयन् मत्स्यरूपिणः ॥ ४० ॥
ततः समुद्र उद्वेलः सर्वतः प्लावयन् महीम् ।
वर्धमानो महामेघैः वर्षद्‌भिः समदृश्यत ॥ ४१ ॥
ध्यायन् भगवदादेशं ददृशे नावमागताम् ।
तामारुरोह विप्रेन्द्रैः आदायौषधिवीरुधः ॥ ४२ ॥
तं ऊचुर्मुनयः प्रीता राजन् ध्यायस्व केशवम् ।
स वै नः संकटादस्मादविता शं विधास्यति ॥ ४३ ॥
सोऽनुध्यातस्ततो राज्ञा प्रादुरासीन् महार्णवे ।
एकशृंगधरो मत्स्यो हैमो नियुतयोजनः ॥ ४४ ॥
निबध्य नावं तत् श्रृंगे यथोक्तो हरिणा पुरा ।
वरत्रेणाहिना तुष्टः तुष्टाव मधुसूदनम् ॥ ४५ ॥

कुशोंका अग्रभाग पूर्वकी ओर करके राजर्षि सत्यव्रत उनपर पूर्वोत्तर मुखसे बैठ गये और मत्स्यरूप भगवान्‌के चरणोंका चिन्तन करने लगे ॥ ४० ॥ इतनेमें ही भगवान्‌ का बताया हुआ वह समय आ पहुँचा। राजाने देखा कि समुद्र अपनी मर्यादा छोडक़र बढ़ रहा है। प्रलयकालके भयङ्कर मेघ वर्षा करने लगे। देखते-ही-देखते सारी पृथ्वी डूबने लगी ॥ ४१ ॥ तब राजाने भगवान्‌की आज्ञाका स्मरण किया और देखा कि नाव भी आ गयी है। तब वे धान्य तथा अन्य बीजोंको लेकर सप्तर्षियोंके साथ उसपर सवार हो गये ॥ ४२ ॥ सप्तर्षियोंने बड़े प्रेमसे राजा सत्यव्रतसे कहा—‘राजन् ! तुम भगवान्‌का ध्यान करो। वे ही हमें इस संकटसे बचायेंगे और हमारा कल्याण करेंगे॥ ४३ ॥ उनकी आज्ञासे राजाने भगवान्‌का ध्यान किया। उसी समय उस महान् समुद्रमें मत्स्यके रूपमें भगवान्‌ प्रकट हुए। मत्स्यभगवान्‌का शरीर सोनेके समान देदीप्यमान था और शरीरका विस्तार था चार लाख कोस। उनके शरीरमें एक बड़ा भारी सींग भी था ॥ ४४ ॥ भगवान्‌ ने पहले जैसी आज्ञा दी थी, उसके अनुसार वह नौका वासुकि नाग के द्वारा भगवान्‌ के सींग में बाँध दी गयी और राजा सत्यव्रत ने प्रसन्न होकर भगवान्‌ की स्तुति की ॥ ४५ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - सत्ताईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - सत्ताईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४) प्रकृति-पुरुषके विवेक से मोक्ष-प्राप्ति का वर्णन...