॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
नवम स्कन्ध –पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)
दुर्वासाजीकी दु:खनिवृत्ति
श्रीशुक उवाच ।
इति संस्तुवतो राज्ञो विष्णुचक्रं सुदर्शनम् ।
अशाम्यत् सर्वतो विप्रं प्रदहद् राजयाच्ञया ॥ १२ ॥
स मुक्तोऽस्त्राग्नितापेन दुर्वासाः स्वस्तिमान् ततः ।
प्रशशंस तमुर्वीशं युञ्जानः परमाशिषः ॥ १३ ॥
दुर्वासा उवाच ।
अहो अनन्तदासानां महत्त्वं दृष्टमद्य मे ।
कृतागसोऽपि यद् राजन् मंगलानि समीहसे ॥ १४ ॥
दुष्करः को नु साधूनां दुस्त्यजो वा महात्मनाम् ।
यैः संगृहीतो भगवान् सात्वतां ऋषभो हरिः ॥ १५ ॥
यन्नामश्रुतिमात्रेण पुमान् भवति निर्मलः ।
तस्य तीर्थपदः किं वा दासानां अवशिष्यते ॥ १६ ॥
राजन् अनुगृहीतोऽहं त्वयातिकरुणात्मना ।
मद् अघं पृष्ठतः कृत्वा प्राणा यन्मेऽभिरक्षिताः ॥ १७ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—जब राजा अम्बरीष ने दुर्वासाजी को सब ओर से जलानेवाले भगवान् के सुदर्शन चक्र की इस प्रकार स्तुति की, तब उनकी प्रार्थना से चक्र शान्त हो गया ॥ १२ ॥ जब दुर्वासा चक्रकी आगसे मुक्त हो गये और उनका चित्त स्वस्थ हो गया, तब वे राजा अम्बरीषको अनेकानेक उत्तम आशीर्वाद देते हुए उनकी प्रशंसा करने लगे ॥ १३ ॥
दुर्वासाजीने कहा—धन्य है ! आज मैंने भगवान्के प्रेमी भक्तोंका महत्त्व देखा। राजन् ! मैंने आपका अपराध किया, फिर भी आप मेरे लिये मङ्गलकामना ही कर रहे हैं ॥ १४ ॥ जिन्होंने भक्तवत्सल भगवान् श्रीहरिके चरणकमलोंको दृढ़ प्रेमभावसे पकड़ लिया है—उन साधुपुरुषोंके लिये कौन-सा कार्य कठिन है ? जिनका हृदय उदार है, वे महात्मा भला, किस वस्तुका परित्याग नहीं कर सकते ? ॥ १५ ॥ जिनके मङ्गलमय नामोंके श्रवणमात्रसे जीव निर्मल हो जाता है—उन्हीं तीर्थपाद भगवान्के चरणकमलोंके जो दास हैं, उनके लिये कौन-सा कर्तव्य शेष रह जाता है ? ॥ १६ ॥ महाराज अम्बरीष ! आपका हृदय करुणाभावसे परिपूर्ण है। आपने मेरे ऊपर महान् अनुग्रह किया। अहो, आपने मेरे अपराधको भुलाकर मेरे प्राणोंकी रक्षा की है ! ॥ १७ ॥
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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से