बुधवार, 11 दिसंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
नवम स्कन्ध आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

सगर-चरित्र

सगरश्चक्रवर्त्यासीत् सागरो यत्सुतैः कृतः ।
यस्तालजंघान् यवनात् शकान् हैहयबर्बरान् ॥ ५ ॥
नावधीद् गुरुवाक्येन चक्रे विकृतवेषिणः ।
मुण्डान् श्मश्रुधरान् कांश्चित् मुक्तकेशार्धमुण्डितान् ॥ ६ ॥
अनन्तर्वाससः कांश्चिद् अबहिर्वाससोऽपरान् ।
सोऽश्वमेधैरयजत सर्ववेदसुरात्मकम् ॥ ७ ॥
और्वोपदिष्टयोगेन हरिमात्मानमीश्वरम् ।
तस्योत्सृष्टं पशुं यज्ञे जहाराश्वं पुरन्दरः ॥ ८ ॥
सुमत्यास्तनया दृप्ताः पितुरादेशकारिणः ।
हयं अन्वेषमाणास्ते समन्तात् न्यखनन् मन्महीम् ॥ ९ ॥
प्राग् उदीच्यां दिशि हयं ददृशुः कपिलान्तिके ।
एष वाजिहरश्चौर आस्ते मीलितलोचनः ॥ १० ॥
हन्यतां हन्यतां पाप इति षष्टिसहस्रिणः ।
उदायुधा अभिययुः उन्मिमेष तदा मुनिः ॥ ११ ॥
स्वशरीराग्निना तावन् महेन्द्रहृतचेतसः ।
महद्व्यतिक्रमहता भस्मसाद् अभवन् क्षणात् ॥ १२ ॥
न साधुवादो मुनिकोपभर्जिता
नृपेन्द्रपुत्रा इति सत्त्वधामनि ।
कथं तमो रोषमयं विभाव्यते
जगत्पवित्रात्मनि खे रजो भुवः ॥ १३ ॥
यस्येरिता सांख्यमयी दृढेह नौः
यया मुमुक्षुस्तरते दुरत्ययम् ।
भवार्णवं मृत्युपथं विपश्चितः
परात्मभूतस्य कथं पृथङ्‌मतिः ॥ १४ ॥

सगर चक्रवर्ती सम्राट् थे। उन्हींके पुत्रोंने पृथ्वी खोदकर समुद्र बना दिया था। सगरने अपने गुरुदेव और्वकी आज्ञा मानकर तालजङ्घ, यवन, शक, हैहय और बर्बर जातिके लोगोंका वध नहीं किया, बल्कि उन्हें विरूप बना दिया। उनमेंसे कुछके सिर मुड़वा दिये, कुछके मूँछ-दाढ़ी रखवा दी, कुछ को खुले बालों वाला बना दिया तो कुछको आधा मुँड़वा दिया ॥ ५-६ ॥ कुछ लोगोंको सगर ने केवल वस्त्र ओढऩे की ही आज्ञा दी, पहनने की नहीं। और कुछको केवल लँगोटी पहनने को ही कहा, ओढऩे को नहीं। इसके बाद राजा सगर ने और्व ऋषिके उपदेशानुसार अश्वमेध यज्ञ के द्वारा सम्पूर्ण वेद एवं देवतामय, आत्मस्वरूप, सर्वशक्तिमान् भगवान्‌ की आराधना की। उसके यज्ञमें जो घोड़ा छोड़ा गया था, उसे इन्द्रने चुरा लिया ॥ ७-८ ॥ उस समय महारानी सुमति के गर्भसे उत्पन्न सगरके पुत्रोंने अपने पिताके आज्ञानुसार घोड़ेके लिये सारी पृथ्वी छान डाली। जब उन्हें कहीं घोड़ा न मिला, तब उन्होंने बड़े घमंडसे सब ओरसे पृथ्वीको खोद डाला ॥ ९ ॥ खोदते-खोदते उन्हें पूर्व और उत्तर के कोने पर कपिल मुनिके पास अपना घोड़ा दिखायी दिया। घोड़ेको देखकर वे साठ हजार राजकुमार शस्त्र उठाकर यह कहते हुए उनकी ओर दौड़ पड़े कि यही हमारे घोड़ेको चुरानेवाला चोर है। देखो तो सही, इसने इस समय कैसे आँखें मूँद रखी हैं ! यह पापी है। इसको मार डालो, मार डालो !उसी समय कपिल मुनिने अपनी पलकें खोलीं ॥ १०-११ ॥ इन्द्रने राजकुमारों की बुद्धि हर ली थी, इसीसे उन्होंने कपिलमुनि-जैसे महापुरुष का तिरस्कार किया। इस तिरस्कार के फलस्वरूप उनके शरीरमें ही आग जल उठी, जिससे क्षणभरमें ही वे सब-के-सब जलकर खाक हो गये ॥ १२ ॥ परीक्षित्‌ ! सगरके लडक़े कपिलमुनिके क्रोधसे जल गये, ऐसा कहना उचित नहीं है। वे तो शुद्ध सत्त्वगुणके परम आश्रय हैं। उनका शरीर तो जगत् को पवित्र करता रहता है। उनमें भला, क्रोधरूप तमोगुण की सम्भावना कैसे की जा सकती है । भला, कहीं पृथ्वी की धूलका भी आकाशसे सम्बन्ध होता है ? ॥ १३ ॥ यह संसार-सागर एक मृत्युमय पथ है। इसके पार जाना अत्यन्त कठिन है। परंतु कपिलमुनि ने इस जगत् में सांख्यशास्त्रकी एक ऐसी दृढ़ नाव बना दी है, जिससे मुक्तिकी इच्छा रखनेवाला कोई भी व्यक्ति उस समुद्रके पार जा सकता है। वे केवल परम ज्ञानी ही नहीं, स्वयं परमात्मा हैं। उनमें भला यह शत्रु है और यह मित्रइस प्रकारकी भेदबुद्धि कैसे हो सकती है ? ॥ १४ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
नवम स्कन्ध आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

सगर-चरित्र

श्रीशुक उवाच ।
हरितो रोहितसुतः चंपः तस्माद्विनिर्मिता ।
चंपापुरी सुदेवोऽतो विजयो यस्य चात्मजः ॥ १ ॥
भरुकस्तत्सुतस्तस्माद् वृकस्तस्यापि बाहुकः ।
सोऽरिभिर्हृतभू राजा सभार्यो वनमाविशत् ॥ २ ॥
वृद्धं तं पञ्चतां प्राप्तं महिष्यनु मरिष्यती ।
और्वेण जानतात्मानं प्रजावन्तं निवारिता ॥ ३ ॥
आज्ञायास्यै सपत्‍नीभिः गरो दत्तोऽन्धसा सह ।
सह तेनैव सञ्जातः सगराख्यो महायशाः ॥ ४ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंरोहितका पुत्र था हरित। हरितसे चम्प हुआ। उसीने चम्पापुरी बसायी थी। चम्प से सुदेव और उसका पुत्र विजय हुआ ॥ १ ॥ विजय का भरुक, भरुक का वृक और वृक का पुत्र हुआ बाहुक। शत्रुओं ने बाहुक से राज्य छीन लिया, तब वह अपनी पत्नी के साथ वन में चला गया ॥ २ ॥ वनमें जानेपर बुढ़ापेके कारण जब बाहुक की मृत्यु हो गयी, तब उसकी पत्नी भी उसके साथ सती होनेको उद्यत हुई। परंतु महर्षि और्वको यह मालूम था कि इसे गर्भ है। इसलिये उन्होंने उसे सती होनेसे रोक दिया ॥ ३ ॥ जब उसकी सौतोंको यह बात मालूम हुई, तो उन्होंने उसे भोजनके साथ गर (विष) दे दिया। परंतु गर्भपर उस विषका कोई प्रभाव नहीं पड़ा; बल्कि उस विष को लिये हुए ही एक बालकका जन्म हुआ, जो गर के साथ पैदा होनेके कारण सगरकहलाया। सगर बड़े यशस्वी राजा हुए ॥ ४ ॥

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



मंगलवार, 10 दिसंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
नवम स्कन्ध सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

राजा त्रिशङ्कु और हरिश्चन्द्र की कथा

शुनःशेपस्य माहात्म्यं उपरिष्टात् प्रचक्ष्यते ।
सत्यंसारां धृतिं दृष्ट्वा सभार्यस्य च भूपतेः ॥ २४ ॥
विश्वामित्रो भृशं प्रीतो ददौ अविहतां गतिम् ।
मनः पृथिव्यां तामद्‌भिः तेजसापोऽनिलेन तत् ॥ २५ ॥
खे वायुं धारयन् तच्च भूतादौ तं महात्मनि ।
तस्मिन् ज्ञानकलां ध्यात्वा तयाज्ञानं विनिर्दहन् ॥ २६ ॥
हित्वा तां स्वेन भावेन निर्वाणसुखसंविदा ।
अनिर्देश्याप्रतर्क्येण तस्थौ विध्वस्तबन्धनः ॥ २७ ॥

परीक्षित्‌ ! आगे चलकर मैं शुन:शेपका माहात्म्य वर्णन करूँगा। हरिश्चन्द्रको अपनी पत्नीके साथ सत्यमें दृढ़तापूर्वक स्थित देखकर विश्वामित्रजी बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने उन्हें उस ज्ञानका उपदेश किया, जिसका कभी नाश नहीं होता। उसके अनुसार राजा हरिश्चन्द्रने अपने मनको पृथ्वीमें, पृथ्वीको जलमें, जलको तेजमें, तेजको वायुमें और वायुको आकाशमें स्थिर करके, आकाशको अहंकारमें लीन कर दिया। फिर अहंकारको महत्तत्त्वमें लीन करके उसमें ज्ञान-कलाका ध्यान किया और उससे अज्ञानको भस्म कर दिया ॥ २४२६ ॥ इसके बाद निर्वाण-सुखकी अनुभूतिसे उस ज्ञान-कलाका भी परित्याग कर दिया और समस्त बन्धनोंसे मुक्त होकर वे अपने उस स्वरूपमें स्थित हो गये, जो न तो किसी प्रकार बतलाया जा सकता है और न उसके सम्बन्धमें किसी प्रकारका अनुमान ही किया जा सकता है ॥ २७ ॥

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायां नवमस्कन्धे सप्तमोऽध्यायः ॥ ७ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
नवम स्कन्ध सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

राजा त्रिशङ्कु और हरिश्चन्द्र की कथा

इति पुत्रानुरागेण स्नेहयन् त्रितचेतसा ।
कालं वञ्चयता तं तमुक्तो देवस्तमैक्षत ॥ १५ ॥
रोहितस्तदभिज्ञाय पितुः कर्म चिकीर्षितम् ।
प्राणप्रेप्सुर्धनुष्पाणिः अरण्यं प्रत्यपद्यत ॥ १६ ॥
पितरं वरुणग्रस्तं श्रुत्वा जातमहोदरम् ।
रोहितो ग्राममेयाय तमिन्द्रः प्रत्यषेधत ॥ १७ ॥
भूमेः पर्यटनं पुण्यं तीर्थक्षेत्रनिषेवणैः ।
रोहितायादिशच्छक्रः सोऽप्यरण्येऽवसत् समाम् ॥ १८ ॥
एवं द्वितीये तृतीये चतुर्थे पञ्चमे तथा ।
अभ्येत्याभ्येत्य स्थविरो विप्रो भूत्वाऽऽह वृत्रहा ॥ १९ ॥
षष्ठं संवत्सरं तत्र चरित्वा रोहितः पुरीम् ।
उपव्रजन् अजीगर्ताद् अक्रीणान् मध्यमं सुतम् ॥ २० ॥
शुनःशेपं पशुं पित्रे प्रदाय समवन्दत ।
ततः पुरुषमेधेन हरिश्चन्द्रो महायशाः ॥ २१ ॥
मुक्तोदरोऽयजद् देवान् वरुणादीन् महत्कथः ।
विश्वामित्रोऽभवत् तस्मिन् होता चाध्वर्युरात्मवान् ॥ २२ ॥
जमदग्निरभूद् ब्रह्मा वसिष्ठोऽयास्यः सामगः ।
तस्मै तुष्टो ददौ इन्द्रः शातकौम्भमयं रथम् ॥ २३ ॥

परीक्षित्‌ ! इस प्रकार राजा हरिश्चन्द्र पुत्रके प्रेमसे हीला-हवाला करके समय टालते रहे। इसका कारण यह था कि पुत्र-स्नेह की फाँसी ने उनके हृदय को जकड़ लिया था। वे जो-जो समय बताते वरुणदेवता उसीकी बाट देखते ॥ १५ ॥ जब रोहितको इस बातका पता चला कि पिताजी तो मेरा बलिदान करना चाहते हैं, तब वह अपने प्राणोंकी रक्षाके लिये हाथमें धनुष लेकर वनमें चला गया ॥ १६ ॥ कुछ दिनके बाद उसे मालूम हुआ कि वरुणदेवताने रुष्ट होकर मेरे पिताजीपर आक्रमण किया हैजिसके कारण वे महोदर रोगसे पीडि़त हो रहे हैं, तब रोहित अपने नगरकी ओर चल पड़ा। परंतु इन्द्रने आकर उसे रोक दिया ॥ १७ ॥ उन्होंने कहा—‘बेटा रोहित ! यज्ञपशु बनकर मरनेकी अपेक्षा तो पवित्र तीर्थ और क्षेत्रोंका सेवन करते हुए पृथ्वीमें विचरना ही अच्छा है।इन्द्रकी बात मानकर वह एक वर्षतक और वनमें ही रहा ॥ १८ ॥ इसी प्रकार दूसरे, तीसरे, चौथे और पाँचवें वर्ष भी रोहितने अपने पिताके पास जानेका विचार किया; परंतु बूढ़े ब्राह्मणका वेश धारण कर हर बार इन्द्र आते और उसे रोक देते ॥ १९ ॥ इस प्रकार छ: वर्षतक रोहित वनमें ही रहा। सातवें वर्ष जब वह अपने नगरको लौटने लगा, तब उसने अजीगर्तसे उनके मझले पुत्र शुन: शेपको मोल ले लिया और उसे यज्ञपशु बनानेके लिये अपने पिताको सौंपकर उनके चरणोंमें नमस्कार किया। तब परम यशस्वी एवं श्रेष्ठ चरित्रवाले राजा हरिश्चन्द्रने महोदर रोगसे छूटकर पुरुषमेध यज्ञद्वारा वरुण आदि देवताओंका यजन किया। उस यज्ञमें विश्वामित्रजी होता हुए। परम संयमी जमदग्नि ने अध्वर्यु का काम किया। वसिष्ठजी ब्रह्मा बने और अयास्य मुनि सामगान करनेवाले उद्गाता बने। उस समय इन्द्रने प्रसन्न होकर हरिश्चन्द्रको एक सोनेका रथ दिया था ॥ २०२३ ॥

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सोमवार, 9 दिसंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
नवम स्कन्ध सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

राजा त्रिशङ्कु और हरिश्चन्द्र की कथा

त्रैशङ्‌कवो हरिश्चन्द्रो विश्वामित्रवसिष्ठयोः ।
यन्निमित्तमभूद् युद्धं पक्षिणोर्बहुवार्षिकम् ॥ ७ ॥
सोऽनपत्यो विषण्णात्मा नारदस्योपदेशतः ।
वरुणं शरणं यातः पुत्रो मे जायतां प्रभो ॥ ८ ॥
यदि वीरो महाराज तेनैव त्वां यजे इति ।
तथेति वरुणेनास्य पुत्रो जातस्तु रोहितः ॥ ९ ॥
जातः सुतो ह्यनेनाङ्‌ग मां यजस्वेति सोऽब्रवीत् ।
यदा पशुर्निर्दशः स्याद् अथ मेध्यो भवेदिति ॥ १० ॥
निर्दशे च स आगत्य यजस्वेत्याह सोऽब्रवीत् ।
दन्ताः पशोर्यत् जायेरन् अथ मेध्यो भवेदिति ॥ ११ ॥
दन्ता जाता यजस्वेति स प्रत्याहाथ सोऽब्रवीत् ।
यदा पतन्त्यस्य दन्ता अथ मेध्यो भवेदिति ॥ १२ ॥
पशोर्निपतिता दन्ता यजस्वेत्याह सोऽब्रवीत् ।
यदा पशोः पुनर्दन्ता जायन्तेऽथ पशुः शुचिः ॥ १३ ॥
पुनर्जाता यजस्वेति स प्रत्याहाथ सोऽब्रवीत् ।
सान्नाहिको यदा राजन् राजन्योऽथ पशुः शुचिः ॥ १४ ॥

त्रिशङ्कु के पुत्र थे हरिश्चन्द्र। उनके लिए विश्वामित्र और वसिष्ठ एक-दूसरे को शाप देकर पक्षी हो गये और बहुत वर्षों तक लड़ते रहे ॥ ७ ॥ हरिश्चन्द्र के कोई सन्तान न थी। इससे वे बहुत उदास रहा करते थे। नारदके उपदेश से वे वरुणदेवता की शरण में गये और उनसे प्रार्थना की कि प्रभो ! मुझे पुत्र प्राप्त हो ॥ ८ ॥ महाराज ! यदि मेरे वीर पुत्र होगा तो मैं उसी से आपका यजन करूँगा।वरुणने कहा—‘ठीक है।तब वरुणकी कृपासे हरिश्चन्द्र के रोहित नाम का पुत्र हुआ ॥ ९ ॥ पुत्र होते ही वरुणने आकर कहा—‘हरिश्चन्द्र ! तुम्हें पुत्र प्राप्त हो गया। अब इसके द्वारा मेरा यज्ञ करो।हरिश्चन्द्रने कहा—‘जब आपका यह यज्ञपशु (रोहित) दस दिन से अधिक का हो जायगा, तब यज्ञके योग्य होगा॥ १० ॥ दस दिन बीतनेपर वरुणने आकर फिर कहा—‘अब मेरा यज्ञ करो।हरिश्चन्द्रने कहा—‘जब आपके यज्ञपशु के मुँहमें दाँत निकल आयँगे, तब वह यज्ञके योग्य होगा॥ ११ ॥ दाँत उग आनेपर वरुणने कहा—‘अब इसके दाँत निकल आये, मेरा यज्ञ करो।हरिश्चन्द्रने कहा—‘जब इसके दूधके दाँत गिर जायँगे, तब यह यज्ञके योग्य होगा॥ १२ ॥ दूधके दाँत गिर जानेपर वरुणने कहा—‘अब इस यज्ञपशुके दाँत गिर गये, मेरा यज्ञ करो।हरिश्चन्द्रने कहा—‘जब इसके दुबारा दाँत आ जायँगे, तब यह पशु यज्ञके योग्य हो जायगा॥ १३ ॥ दाँतोंके फिर उग आनेपर वरुणने कहा—‘अब मेरा यज्ञ करो।हरिश्चन्द्रने कहा—‘वरुणजी महाराज ! क्षत्रिय पशु तब यज्ञके योग्य होता है, जब वह कवच धारण करने लगे॥ १४ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
नवम स्कन्ध सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

राजा त्रिशङ्कु और हरिश्चन्द्र की कथा

श्रीशुक उवाच ।
मान्धातुः पुत्रप्रवरो योऽम्बरीषः प्रकीर्तितः ।
पितामहेन प्रवृतो यौवनाश्वश्च तत्सुतः ।
हारीतस्तस्य पुत्रोऽभूत् मान्धातृप्रवरा इमे ॥ १ ॥
नर्मदा भ्रातृभिर्दत्ता पुरुकुत्साय योरगैः ।
तया रसातलं नीतो भुजगेन्द्रप्रयुक्तया ॥ २ ॥
गन्धर्वान् अवधीत् तत्र वध्यान् वै विष्णुशक्तिधृक् ।
नागाल्लब्धवरः सर्पात् अभयं स्मरतामिदम् ॥ ३ ॥
त्रसद्दस्युः पौरुकुत्सो योऽनरण्यस्य देहकृत् ।
हर्यश्वः तत्सुतः तस्मात् अरुणोऽथ त्रिबन्धनः ॥ ४ ॥
तस्य सत्यव्रतः पुत्रः त्रिशङ्‌कुरिति विश्रुतः ।
प्राप्तश्चाण्डालतां शापाग् गुरोः कौशिकतेजसा ॥ ५ ॥
सशरीरो गतः स्वर्गं अद्यापि दिवि दृश्यते ।
पातितोऽवाक्‌शिरा देवैः तेनैव स्तम्भितो बलात् ॥ ६ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! मैं वर्णन कर चुका हूँ कि मान्धाता के पुत्रों में सबसे श्रेष्ठ अम्बरीष थे। उनके दादा युवनाश्वने उन्हें पुत्र रूप में स्वीकार कर लिया। उनका पुत्र हुआ यौवनाश्व और यौवनाश्वका हारीत। मान्धाता के वंश में ये तीन अवान्तर गोत्रों के प्रवर्तक हुए ॥ १ ॥ नागों ने अपनी बहिन नर्मदाका विवाह पुरुकुत्स से कर दिया था। नागराज वासुकि की आज्ञा से नर्मदा अपने पतिको रसातलमें ले गयी ॥ २ ॥ वहाँ भगवान्‌ की शक्ति से सम्पन्न होकर पुरुकुत्स ने वध करने योग्य गन्धर्वों को मार डाला। इसपर नागराज ने प्रसन्न होकर पुरुकुत्सको वर दिया कि जो इस प्रसङ्ग का स्मरण करेगा, वह सर्पोंसे निर्भय हो जायगा ॥ ३ ॥ राजा पुरुकुत्सका पुत्र त्रसद्दस्यु था। उसके पुत्र हुए अनरण्य। अनरण्यके हर्यश्व, उसके अरुण और अरुणके त्रिबन्धन हुए ॥ ४ ॥ त्रिबन्धन के पुत्र सत्यव्रत हुए। यही सत्यव्रत त्रिशङ्कु के नाम से विख्यात हुए। यद्यपि त्रिशङ्कु अपने पिता और गुरुके शापसे चाण्डाल हो गये थे, परंतु विश्वामित्रजी के प्रभाव से वे सशरीर स्वर्ग में चले गये। देवताओं ने उन्हें वहाँसे ढकेल दिया और वे नीचेको सिर किये हुए गिर पड़े; परंतु विश्वामित्रजी ने अपने तपोबल से उन्हें आकाशमें ही स्थिर कर दिया। वे अब भी आकाश में लटके हुए दीखते हैं ॥ ५-६ ॥

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रविवार, 8 दिसंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –छठा अध्याय..(पोस्ट०६)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
नवम स्कन्ध छठा अध्याय..(पोस्ट०६)

इक्ष्वाकु के वंशका वर्णन, मान्धाता और सौभरि ऋषि की कथा

स कदाचिद् उपासीन आत्मापह्नवमात्मनः ।
ददर्श बह्वृचाचार्यो मीनसङ्‌गसमुत्थितम् ॥ ४९ ॥
अहो इमं पश्यत मे विनाशं
तपस्विनः सच्चरितव्रतस्य ।
अन्तर्जले वारिचरप्रसङ्‌गात्
प्रच्यावितं ब्रह्म चिरं धृतं यत् ॥ ५० ॥
सङ्‌गं त्यजेत मिथुनव्रतीनां मुमुक्षुः ।
सर्वात्मना न विसृजेद् बहिरिन्द्रियाणि ॥
एकश्चरन् रहसि चित्तमनन्त ईशे ।
युञ्जीत तद्व्रतिषु साधुषु चेत् प्रसङ्‌गः ॥ ५१ ॥
एकस्तपस्व्यहमथाम्भसि मत्स्यसङ्‌गात्
पञ्चाशदासमुत पञ्चसहस्रसर्गः ।
नान्तं व्रजाम्युभयकृत्यमनोरथानां
मायागुणैः हृतमतिर्विषयेऽर्थभावः ॥ ५२ ॥
एवं वसन् गृहे कालं विरक्तो न्यासमास्थितः ।
वनं जगाम अनुययुः तत्पत्‍न्यः पतिदेवताः ॥ ५३ ॥
तत्र तप्त्वा तपस्तीक्ष्णं आत्मदर्शनमात्मवान् ।
सहैवाग्निभिरात्मानं युयोज परमात्मनि ॥ ५४ ॥
ताः स्वपत्युर्महाराज निरीक्ष्याध्यात्मिकीं गतिम् ।
अन्वीयुस्तत्प्रभावेण अग्निं शान्तमिवार्चिषः ॥ ५५ ॥

ऋग्वेदाचार्य सौभरि जी एक दिन स्वस्थ चित्त से बैठे हुए थे। उस समय उन्होंने देखा कि मत्स्यराज के क्षणभर के सङ्ग से मैं किस प्रकार अपनी तपस्या तथा अपना आपा तक खो बैठा ॥ ४९ ॥ वे सोचने लगे— ‘अरे, मैं तो बड़ा तपस्वी था। मैंने भलीभाँति अपने व्रतों का अनुष्ठान भी किया था। मेरा यह अध:पतन तो देखो ! मैंने दीर्घकालसे अपने ब्रह्मतेजको अक्षुण्ण रखा था, परंतु जलके भीतर विहार करती हुई एक मछलीके संसर्गसे मेरा वह ब्रह्मतेज नष्ट हो गया ॥ ५० ॥ अत: जिसे मोक्षकी इच्छा है, उस पुरुषको चाहिये कि वह भोगी प्राणियोंका सङ्ग सर्वथा छोड़ दे और एक क्षणके लिये भी अपनी इन्द्रियोंको बहिर्मुख न होने दे। अकेला ही रहे और एकान्तमें अपने चित्तको सर्वशक्तिमान् भगवान्‌में ही लगा दे। यदि सङ्ग करनेकी आवश्यकता ही हो तो भगवान्‌के अनन्यप्रेमी निष्ठावान् महात्माओंका ही सङ्ग करे ॥ ५१ ॥ मैं पहले एकान्तमें अकेला ही तपस्यामें संलग्र था। फिर जलमें मछलीका सङ्ग होनेसे विवाह करके पचास हो गया और फिर सन्तानोंके रूपमें पाँच हजार। विषयोंमें सत्यबुद्धि होनेसे मायाके गुणोंने मेरी बुद्धि हर ली। अब तो लोक और परलोकके सम्बन्धमें मेरा मन इतनी लालसाओंसे भर गया है कि मैं किसी तरह उनका पार ही नहीं पाता ॥ ५२ ॥ इस प्रकार विचार करते हुए वे कुछ दिनोंतक तो घरमें ही रहे। फिर विरक्त होकर उन्होंने संन्यास ले लिया और वे वनमें चले गये। अपने पतिको ही सर्वस्व माननेवाली उनकी पत्नियोंने भी उनके साथ ही वनकी यात्रा की ॥ ५३ ॥ वहाँ जाकर परम संयमी सौभरिजीने बड़ी घोर तपस्या की, शरीरको सुखा दिया तथा आहवनीय आदि अग्नियोंके साथ ही अपने-आपको परमात्मामें लीन कर दिया ॥ ५४ ॥ परीक्षित्‌ ! उनकी पत्नियोंने जब अपने पति सौभरि मुनिकी आध्यात्मिक गति देखी, तब जैसे ज्वालाएँ शान्त अग्नि में लीन हो जाती हैंवैसे ही वे उनके प्रभावसे सती होकर उन्हींमें लीन हो गयीं, उन्हींकी गतिको प्राप्त हुर्ईं ॥ ५५ ॥

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायां नवमस्कन्धे षष्ठोऽध्यायः ॥ ६ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से





श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –छठा अध्याय..(पोस्ट०५)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
नवम स्कन्ध छठा अध्याय..(पोस्ट०५)

इक्ष्वाकु के वंशका वर्णन, मान्धाता और सौभरि ऋषि की कथा

शशबिन्दोर्दुहितरि बिन्दुमत्यामधान् नृपः ।
पुरुकुत्सं अंबरीषं मुचुकुन्दं च योगिनम् ।
तेषां स्वसारः पञ्चाशत् सौभरिं वव्रिरे पतिम् ॥ ३८॥
यमुनान्तर्जले मग्नः तप्यमानः परंतपः ।
निर्वृतिं मीनराजस्य दृष्ट्वा मैथुनधर्मिणः ॥ ३९ ॥
जातस्पृहो नृपं विप्रः कन्यां एकां अयाचत ।
सोऽप्याह गृह्यतां ब्रह्मन् कामं कन्या स्वयंवरे ॥ ४० ॥
स विचिन्त्याप्रियं स्त्रीणां जरठोऽयं असम्मतः ।
वलीपलित एजत्क इत्यहं प्रत्युदाहृतः ॥ ४१ ॥
साधयिष्ये तथात्मानं सुरस्त्रीणामभीप्सितम् ।
किं पुनर्मनुजेन्द्राणां इति व्यवसितः प्रभुः ॥ ४२ ॥
मुनिः प्रवेशितः क्षत्त्रा कन्यान्तःपुरमृद्धिमत् ।
वृतः स राजकन्याभिः एकं पञ्चाशता वरः ॥ ४३ ॥
तासां कलिरभूद् भूयान् तत् अर्थेऽपोह्य सौहृदम् ।
ममानुरूपो नायं व इति तद्‍गतचेतसाम् ॥ ४४ ॥
स बह्वृचस्ताभिरपारणीय
तपःश्रियानर्घ्यपरिच्छदेषु ।
गृहेषु नानोपवनामलाम्भः
सरःसु सौगन्धिककाननेषु ॥ ४५ ॥
महार्हशय्यासनवस्त्रभूषण
स्नानानुलेपाभ्यवहारमाल्यकैः ।
स्वलङ्‌कृतस्त्रीपुरुषेषु नित्यदा
रेमेऽनुगायद् द्विजभृङ्‌गवन्दिषु ॥ ४६ ॥
यद्‍गार्हस्थ्यं तु संवीक्ष्य सप्तद्वीपवतीपतिः ।
विस्मितः स्तम्भमजहात् सार्वभौमश्रियान्वितम् ॥ ४७ ॥
एवं गृहेष्वभिरतो विषयान् विविधैः सुखैः ।
सेवमानो न चातुष्यद् आज्यस्तोकैरिवानलः ॥ ४८ ॥

राजा मान्धाताकी पत्नी शशबिन्दु की पुत्री बिन्दुमती थी। उसके गर्भसे उनके तीन पुत्र हुएपुरुकुत्स, अम्बरीष (ये दूसरे अम्बरीष हैं) और योगी मुचुकुन्द। इनकी पचास बहनें थीं। उन पचासोंने अकेले सौभरि ऋषिको पतिके रूपमें वरण किया ॥ ३८ ॥ परम तपस्वी सौभरिजी एक बार यमुनाजलमें डुबकी लगाकर तपस्या कर रहे थे। वहाँ उन्होंने देखा कि एक मत्स्यराज अपनी पत्नियोंके साथ बहुत सुखी हो रहा है ॥ ३९ ॥ उसके इस सुखको देखकर ब्राह्मण सौभरिके मनमें भी विवाह करनेकी इच्छा जग उठी और उन्होंने राजा मान्धाताके पास आकर उनकी पचास कन्याओंमेंसे एक कन्या माँगी। राजाने कहा—‘ब्रह्मन् ! कन्या स्वयंवरमें आपको चुन ले तो आप उसे ले लीजिये॥ ४० ॥ सौभरि ऋषि राजा मान्धाताका अभिप्राय समझ गये। उन्होंने सोचा कि राजाने इसलिये मुझे ऐसा सूखा जवाब दिया है कि अब मैं बूढ़ा हो गया हूँ, शरीरमें झुर्रियाँ पड़ गयी हैं, बाल पक गये हैं और सिर काँपने लगा है। अब कोई स्त्री मुझसे प्रेम नहीं कर सकती ॥ ४१ ॥ अच्छी बात है । मैं अपनेको ऐसा सुन्दर बनाऊँगा कि राजकन्याएँ तो क्या, देवाङ्गनाएँ भी मेरे लिये लालायित हो जायँगी।ऐसा सोचकर समर्थ सौभरिजीने वैसा ही किया ॥ ४२ ॥
फिर क्या था, अन्त:पुर के रक्षक ने सौभरि मुनि को कन्याओं के सजे-सजाये महल में पहुँचा दिया। फिर तो उन पचासों राजकन्याओंने एक सौभरिको ही अपना पति चुन लिया ॥ ४३ ॥ उन कन्याओं का मन सौभरिजी में इस प्रकार आसक्त हो गया कि वे उनके लिये आपस के प्रेमभावको तिलाञ्जलि देकर परस्पर कलह करने लगीं और एक-दूसरीसे कहने लगीं कि ये तुम्हारे योग्य नहीं, मेरे योग्य हैं॥ ४४ ॥ ऋग्वेदी सौभरिने उन सभीका पाणिग्रहण कर लिया। वे अपनी अपार तपस्याके प्रभावसे बहुमूल्य सामग्रियोंसे सुसज्जित, अनेकों उपवनों और निर्मल जलसे परिपूर्ण सरोवरोंसे युक्त एवं सौगन्धिक पुष्पोंके बगीचोंसे घिरे महलोंमें बहुमूल्य शय्या, आसन, वस्त्र, आभूषण, स्नान, अनुलेपन, सुस्वादु भोजन और पुष्पमालाओंके द्वारा अपनी पत्नियोंके साथ विहार करने लगे। सुन्दर-सुन्दर वस्त्राभूषण धारण किये स्त्री-पुरुष सर्वदा उनकी सेवामें लगे रहते। कहीं पक्षी चहकते रहते, तो कहीं भौंरे गुंजार करते रहते और कहीं-कहीं वन्दीजन उनकी विरदावलीका बखान करते रहते ॥ ४५-४६ ॥ सप्तद्वीपवती पृथ्वीके स्वामी मान्धाता सौभरिजीकी इस गृहस्थीका सुख देखकर आश्चर्यचकित हो गये। उनका यह गर्व कि, मैं सार्वभौम सम्पत्तिका स्वामी हूँ, जाता रहा ॥ ४७ ॥ इस प्रकार सौभरिजी गृहस्थीके सुखमें रम गये और अपनी नीरोग इन्द्रियोंसे अनेकों विषयोंका सेवन करते रहे। फिर भी जैसे घीकी बूँदोंसे आग तृप्त नहीं होती, वैसे ही उन्हें सन्तोष नहीं हुआ ॥ ४८ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




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