सोमवार, 4 मई 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – तीसरा अध्याय..(पोस्ट०४)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) तीसरा अध्याय..(पोस्ट०४)

भगवान्‌ श्रीकृष्णका प्राकट्य

दिशः प्रसेदुर्गगनं निर्मलोडुगणोदयम् ।
मही मंगलभूयिष्ठ पुरग्राम-व्रजाकरा ॥ २ ॥
नद्यः प्रसन्नसलिला ह्रदा जलरुहश्रियः ।
द्विजालिकुल सन्नाद स्तबका वनराजयः ॥ ३ ॥
ववौ वायुः सुखस्पर्शः पुण्यगन्धवहः शुचिः ।
अग्नयश्च द्विजातीनां शान्तास्तत्र समिन्धत ॥ ४ ॥
मनांस्यासन् प्रसन्नानि साधूनां असुरद्रुहाम् ।
जायमानेऽजने तस्मिन् नेदुर्दुन्दुभयो दिवि ॥ ५ ॥
जगुः किन्नरगन्धर्वाः तुष्टुवुः सिद्धचारणाः ।
विद्याधर्यश्च ननृतुः अप्सरोभिः समं तदा ॥ ६ ॥
मुमुचुर्मुनयो देवाः सुमनांसि मुदान्विताः ।
मन्दं मन्दं जलधरा जगर्जुः अनुसागरम् ॥ ७ ॥
निशीथे तम उद्‍भूते जायमाने जनार्दने ।
देवक्यां देवरूपिण्यां विष्णुः सर्वगुहाशयः ।
आविरासीद् यथा प्राच्यां दिशि इन्दुरिव पुष्कलः ॥ ८ ॥

दिशाएँ स्वच्छ प्रसन्न थीं | पृथ्वीके बड़े बड़े नगर, छोटे छोटे गाँव, अहीरोंकी बस्तियाँ और हीरे आदिकी खानें मङ्गलमय हो रही थीं ॥ २ ॥ नदियोंका जल निर्मल हो गया था । रात्रिके समय भी सरोवरोंमें कमल खिल रहे थे । वनमें वृक्षोंकी पंक्तियाँ रंग-बिरंगे पुष्पोंके गुच्छोंसे लद गयी थीं । कहीं पक्षी चहक रहे थे, तो कहीं भौंरे गुनगुना रहे थे ॥ ३ ॥ उस समय परम पवित्र और शीतल-मन्द-सुगन्ध वायु अपने स्पर्शसे लोगोंको सुखदान करती हुई बह रही थी । ब्राह्मणोंके अग्निहोत्र की कभी न बुझनेवाली अग्नियाँ जो कंसके अत्याचारसे बुझ गयी थीं, वे इस समय अपने-आप जल उठीं ॥ ४ ॥
संत पुरुष पहले से ही चाहते थे कि असुरों की बढ़ती न होने पाये । अब उनका मन सहसा प्रसन्नतासे भर गया । जिस समय भगवान्‌ के आविर्भावका अवसर आया, स्वर्गमें देवताओंकी दुन्दुभियाँ अपने-आप बज उठीं ॥ ५ ॥ किन्नर और गन्धर्व मधुर स्वरमें गाने लगे तथा सिद्ध और चारण भगवान्‌ के मङ्गलमय गुणोंकी स्तुति करने लगे । विद्याधरियाँ अप्सराओंके साथ नाचने लगीं ॥ ६ ॥ बड़े-बड़े देवता और ऋषि-मुनि आनन्दसे भरकर पुष्पोंकी वर्षा करने लगे[*] । जलसे भरे हुए बादल समुद्रके पास जाकर धीरे-धीरे गर्जना करने लगे[#] ॥ ७ ॥ जन्म-मृत्युके चक्रसे छुड़ानेवाले जनार्दनके अवतारका समय था निशीथ । चारों ओर अन्धकारका साम्राज्य था । उसी समय सबके हृदयमें विराजमान भगवान्‌ विष्णु देवरूपिणी देवकीके गर्भसे प्रकट हुए, जैसे पूर्व दिशा में सोलहों कलाओंसे पूर्ण चन्द्रमाका उदय हो गया हो ॥ ८ ॥
............................................
[*] ऋषि, मुनि और देवता जब अपने सुमनकी वर्षा करनेके लिये मथुराकी ओर दौड़े, तब उनका आनन्द भी पीछे छूट गया और उनके पीछे-पीछे दौडऩे लगा । उन्होंने अपने निरोध और बाधसम्बन्धी सारे विचार त्यागकर मनको श्रीकृष्णकी ओर जानेके लिये मुक्त कर दिया, उनपर न्योछावर कर दिया ।
[#] १. मेघ समुद्र के पास जाकर मन्द-मन्द गर्जना करते हुए कहतेजलनिधे ! यह तुम्हारे उपदेश (पास आने) का फल है कि हमारे पास जल-ही-जल हो गया । अब ऐसा कुछ उपदेश करो कि जैसे तुम्हारे भीतर भगवान्‌ रहते हैं, वैसे हमारे भीतर भी रहें ।
२. बादल समुद्र के पास जाते और कहते कि समुद्र ! तुम्हारे हृदयमें भगवान्‌ रहते हैं, हमें भी उनका दर्शन-प्यार प्राप्त करवा दो । समुद्र उन्हें थोड़ा-सा जल देकर कह देताअपनी उत्ताल तरङ्गों से ढकेल देताजाओ अभी विश्वकी सेवा करके अन्त:करण शुद्ध करो, तब भगवान्‌ के दर्शन होंगे । स्वयं भगवान्‌ मेघश्याम बनकर समुद्रसे बाहर व्रजमें आ रहे हैं । हम धूपमें उनपर छाया करेंगे, अपनी फुइयाँ बरसाकर जीवन न्योछावर करेंगे और उनकी बाँसुरीके स्वरपर ताल देंगे । अपने इस सौभाग्यका अनुसन्धान करके बादल समुद्रके पास पहुँचे और मन्द-मन्द गर्जना करने लगे । मन्द-मन्द इसलिये कि यह ध्वनि प्यारे श्रीकृष्णके कानोंतक न पहुँच जाय ।

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श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – तीसरा अध्याय..(पोस्ट०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) तीसरा अध्याय..(पोस्ट०३)

भगवान्‌ श्रीकृष्णका प्राकट्य

आकाश
१. आकाशकी एकता, आधारता, विशालता और समताकी उपमा तो सदासे ही भगवान्‌के साथ दी जाती रही, परंतु अब उसकी झूठी नीलिमा भी भगवान्‌के अङ्गसे उपमा देनेसे चरितार्थ हो जायगी, इसलिये आकाश ने मानो आनन्दोत्सव मनानेके लिये नीले चँदोवेमें हीरोंके समान तारोंकी झालरें लटका ली हैं ।
२. स्वामीके शुभागमनके अवसरपर जैसे सेवक स्वच्छ वेष-भूषा धारण करते हैं और शान्त हो जाते हैं, इसी प्रकार आकाशके सब नक्षत्र, ग्रह, तारे शान्त एवं निर्मल हो गये । वक्रता, अतिचार और युद्ध छोडक़र श्रीकृष्णका स्वागत करने लगे ।
नक्षत्र
मैं देवकीके गर्भसे जन्म ले रहा हूँ तो रोहिणीके संतोषके लिये कम-से-कम रोहिणी नक्षत्रमें जन्म तो लेना ही चाहिये । अथवा चन्द्रवंशमें जन्म ले रहा हूँ, तो चन्द्रमाकी सबसे प्यारी पत्नी रोहिणीमें ही जन्म लेना उचित है । यह सोचकर भगवान्‌ ने रोहिणी नक्षत्रमें जन्म लिया ।
मन
१. योगी मनका निरोध करते हैं, मुमुक्षु निर्विषय करते हैं और जिज्ञासु बाध करते हैं । तत्त्वज्ञोंने तो मनका सत्यानाश ही कर दिया । भगवान्‌के अवतारका समय जानकर उसने सोचा कि अब तो मैं अपनी पत्नीइन्द्रियाँ और विषयबाल-बच्चे सबके साथ ही भगवान्‌ के साथ खेलूँगा । निरोध और बाधसे पिण्ड छूटा । इसीसे मन प्रसन्न हो गया ।
२. निर्मलको ही भगवान्‌ मिलते हैं, इसलिये मन निर्मल हो गया ।
३. वैसे शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्धका परित्याग कर देनेपर भगवान्‌ मिलते हैं । अब तो स्वयं भगवान्‌ ही वह सब बनकर आ रहे हैं । लौकिक आनन्द भी प्रभुमें मिलेगा । यह सोचकर मन प्रसन्न हो गया ।
४. वसुदेवके मनमें निवास करके ये ही भगवान्‌ प्रकट हो रहे हैं । वह हमारी ही जातिका है, यह सोचकर मन प्रसन्न हो गया ।
५. सुमन (देवता और शुद्ध मन) को सुख देनेके लिये ही भगवान्‌का अवतार हो रहा है । यह जानकर सुमन प्रसन्न हो गये ।
६. संतोंमें, स्वर्गमें और उपवनमें सुमन (शुद्ध मन, देवता और पुष्प) आनन्दित हो गये । क्यों न हो, माधव (विष्णु और वसन्त) का आगमन जो हो रहा है ।
भाद्रमास
भद्र अर्थात् कल्याण देनेवाला है । कृष्णपक्ष स्वयं कृष्णसे सम्बद्ध है । अष्टमी तिथि पक्षके बीचोबीच सन्धि-स्थलपर पड़ती है । रात्रि योगीजनोंको प्रिय है । निशीथ यतियोंका सन्ध्याकाल और रात्रिके दो भागोंकी सन्धि है । उस समय श्रीकृष्णके आविर्भावका अर्थ हैअज्ञानके घोर अन्धकारमें दिव्य प्रकाश । निशानाथ चन्द्रके वंशमें जन्म लेना है, तो निशाके मध्यभागमें अवतीर्ण होना उचित भी है । अष्टमीके चन्द्रोदयका समय भी वही है । यदि वसुदेवजी मेरा जातकर्म नहीं कर सकते तो हमारे वंशके आदिपुरुष चन्द्रमा समुद्रस्नान करके अपने कर-किरणोंसे अमृतका वितरण करें ।

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रविवार, 3 मई 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – तीसरा अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) तीसरा अध्याय..(पोस्ट०२)

भगवान्‌ श्रीकृष्णका प्राकट्य

जल (नदियाँ)
१. नदियोंने विचार किया कि रामावतारमें सेतु-बन्धके बहाने हमारे पिता पर्वतोंको हमारी ससुराल समुद्रमें पहुँचाकर इन्होंने हमें मायकेका सुख दिया था । अब इनके शुभागमनके अवसरपर हमें भी प्रसन्न होकर इनका स्वागत करना चाहिये ।
२. नदियाँ सब गङ्गाजीसे कहती थीं—‘तुमने हमारे पिता पर्वत देखे हैं, अपने पिता भगवान्‌ विष्णुके दर्शन कराओ ।गङ्गाजीने सुनी-अनसुनी कर दी । अब वे इसलिये प्रसन्न हो गयीं कि हम स्वयं देख लेंगी ।
३. यद्यपि भगवान्‌ समुद्रमें नित्य निवास करते हैं, फिर भी ससुराल होनेके कारण वे उन्हें वहाँ देख नहीं पातीं । अब उन्हें पूर्णरूपसे देख सकेंगी, इसलिये वे निर्मल हो गयीं ।
४. निर्मल हृदयको भगवान्‌ मिलते हैं, इसलिये वे निर्मल हो गयीं ।
५. नदियोंको जो सौभाग्य किसी भी अवतारमें नहीं मिला । वह कृष्णावतारमें मिला । श्रीकृष्णकी चतुर्थ पटरानी हैंश्रीकालिन्दीजी । अवतार लेते ही यमुनाजीके तटपर जाना, ग्वालबाल एवं गोपियोंके साथ जलक्रीडा करना, उन्हें अपनी पटरानी बनानाइन सब बातोंको सोचकर नदियाँ आनन्दसे भर गयीं ।
ह्रद
कालिय-दमन करके कालिय-दहका शोधन, ग्वालबालों और अक्रूरको ब्रह्म-ह्रदमें ही अपने स्वरूपके दर्शन आदि स्व-सम्बन्धी लीलाओंका अनुसन्धान करके ह्रदोंने कमलके बहाने अपने प्रफुल्लित हृदयको ही श्रीकृष्णके प्रति अर्पित कर दिया । उन्होंने कहा कि प्रभो ! भले ही हमें लोग जड समझा करें, आप हमें कभी स्वीकार करेंगे, इस भावी सौभाग्यके अनुसन्धानसे हम सहृदय हो रहे हैं।
अग्नि
१. इस अवतारमें श्रीकृष्णने व्योमासुर, तृणावर्त, कालियके दमनसे आकाश, वायु और जलकी शुद्धि की है । मृद्-भक्षणसे पृथ्वीकी और अग्रिपानसे अग्रिकी । भगवान्‌ श्रीकृष्णने दो बार अग्रिको अपने मुँहमें धारण किया । इस भावी सुखका अनुसन्धान करके ही अग्रिदेव शान्त होकर प्रज्वलित होने लगे ।
२. देवताओंके लिये यज्ञ-भाग आदि बन्द हो जानेके कारण अग्निदेव भी भूखे ही थे । अब श्रीकृष्णावतारसे अपने भोजन मिलनेकी आशासे अग्रिदेव प्रसन्न होकर प्रज्वलित हो उठे ।
वायु
१. उदारशिरोमणि भगवान्‌ श्रीकृष्णके जन्मके अवसरपर वायुने सुख लुटाना प्रारम्भ किया; क्योंकि समान शीलसे ही मैत्री होती है । जैसे स्वामीके सामने सेवक, प्रजा अपने गुण प्रकट करके उसे प्रसन्न करती है, वैसे ही वायु भगवान्‌ के सामने अपने गुण प्रकट करने लगे ।
२. आनन्दकन्द श्रीकृष्णचन्द्रके मुखारविन्दपर जब श्रमजनित स्वेदविन्दु आ जायँगे, तब मैं ही शीतल-मन्द सुगन्ध गतिसे उसे सुखाऊँगायह सोचकर पहलेसे ही वायु सेवाका अभ्यास करने लगा ।
३. यदि मनुष्यको प्रभु-चरणारविन्दके दर्शनकी लालसा हो तो उसे विश्वकी सेवा ही करनी चाहिये, मानो यह उपदेश करता हुआ वायु सबकी सेवा करने लगा ।
४. रामावतारमें मेरे पुत्र हनुमान् ने भगवान्‌ की सेवा की, इससे मैं कृतार्थ ही हूँ; परंतु इस अवतारमें मुझे स्वयं ही सेवा कर लेनी चाहिये । इस विचारसे वायु लोगोंको सुख पहुँचाने लगा ।
५. सम्पूर्ण विश्वके प्राण वायु ने सम्पूर्ण विश्व की ओर से भगवान्‌ के स्वागत-समारोह में प्रतिनिधित्व किया ।

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श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – तीसरा अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) तीसरा अध्याय..(पोस्ट०१)

भगवान्‌ श्रीकृष्णका प्राकट्य

अथ सर्वगुणोपेतः कालः परमशोभनः ।
यर्हि एव अजनजन्मर्क्षं शान्तर्क्ष-ग्रहतारकम् ॥ १ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! अब समस्त शुभ गुणों से युक्त बहुत सुहावना समय आया । रोहिणी नक्षत्र था । आकाश के सभी नक्षत्र, ग्रह और तारे शान्तसौम्य हो रहे थे[*] ॥ १ ॥
...............................
[*] जैसे अन्त:करण शुद्ध होनेपर उसमें भगवान्‌ का आविर्भाव होता है, श्रीकृष्णावतार के अवसरपर भी ठीक उसी प्रकारका समष्टि की शुद्धिका वर्णन किया गया है । इसमें काल, दिशा, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन और आत्माइन नौ द्रव्योंका अलग-अलग नामोल्लेख करके साधकके लिये एक अत्यन्त उपयोगी साधन-पद्धतिकी ओर संकेत किया गया है ।
काल
भगवान्‌ काल से परे हैं । शास्त्रों और सत्पुरुषोंके द्वारा ऐसा निरूपण सुनकर काल मानो क्रुद्ध हो गया था और रुद्ररूप धारण करके सबको निगल रहा था । आज जब उसे मालूम हुआ कि स्वयं परिपूर्णतम भगवान्‌ श्रीकृष्ण मेरे अंदर अवतीर्ण हो रहे हैं, तब वह आनन्दसे भर गया और समस्त सद्गुणोंको धारणकर तथा सुहावना बनकर प्रकट हो गया ।
दिशा
१ . प्राचीन शास्त्रोंमें दिशाओंको देवी माना गया है । उनके एक-एक स्वामी भी होते हैंजैसे प्राचीके इन्द्र, प्रतीचीके वरुण आदि । कंसके राज्य-कालमें ये देवता पराधीनकैदी हो गये थे । अब भगवान्‌ श्रीकृष्णके अवतारसे देवताओंकी गणनाके अनुसार ग्यारह-बारह दिनोंमें ही उन्हें छुटकारा मिल जायगा, इसलिये अपने पतियोंके सङ्गम-सौभाग्यका अनुसंधान करके देवियाँ प्रसन्न हो गयीं । जो देव एवं दिशाके परिच्छेदसे रहित हैं, वे ही प्रभु भारत देशके व्रज-प्रदेशमें आ रहे हैं, यह अपूर्व आनन्दोत्सव भी दिशाओंकी प्रसन्नताका हेतु है ।
२. संस्कृत-साहित्यमें दिशाओंका एक नाम आशाभी है । दिशाओंकी प्रसन्नताका एक अर्थ यह भी है कि अब सत्पुरुषोंकी आशा-अभिलाषा पूर्ण होगी ।
३. विराट् पुरुषके अवयव-संस्थानका वर्णन करते समय दिशाओंको उनका कान बताया गया है । श्रीकृष्णके अवतारके अवसरपर दिशाएँ मानो यह सोचकर प्रसन्न हो गयीं कि प्रभु असुर-असाधुओंके उपद्रवसे दुखी प्राणियोंकी प्रार्थना सुननेके लिये सतत सावधान हैं ।
पृथ्वी
१. पुराणोंमें भगवान्‌ की दो पत्नियोंका उल्लेख मिलता हैएक श्रीदेवी और दूसरी भूदेवी । ये दोनों चल-सम्पत्ति और अचल-सम्पत्तिकी स्वामिनी हैं । इनके पति हैंभगवान्‌, जीव नहीं । जिस समय श्रीदेवीके निवासस्थान वैकुण्ठसे उतरकर भगवान्‌ भूदेवीके निवासस्थान पृथ्वीपर आने लगे, तब जैसे परदेशसे पतिके आगमनका समाचार सुनकर पत्नी सज-धजकर अगवानी करनेके लिये निकलती है, वैसे ही पृथ्वीका मङ्गलमयी होना, मङ्गलचिह्नोंको धारण करना स्वाभाविक ही है ।
२. भगवान्‌ के श्रीचरण मेरे वक्ष:स्थलपर पड़ेंगे, अपने सौभाग्यका ऐसा अनुसन्धान करके पृथ्वी आनन्दित हो गयी ।
३. वामन ब्रह्मचारी थे । परशुरामजीने ब्राह्मणोंको दान दे दिया । श्रीरामचन्द्रने मेरी पुत्री जानकीसे विवाह कर लिया । इसलिये उन अवतारोंमें मैं भगवान्‌ से जो सुख नहीं प्राप्त कर सकी, वही श्रीकृष्णसे प्राप्त करूँगी । यह सोचकर पृथ्वी मङ्गलमयी हो गयी ।
४. अपने पुत्र मङ्गलको गोदमें लेकर पतिदेवका स्वागत करने चली ।

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शनिवार, 2 मई 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – दूसरा अध्याय..(पोस्ट०६)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) दूसरा अध्याय..(पोस्ट०६)

भगवान्‌ का गर्भ-प्रवेश और देवताओं द्वारा गर्भ-स्तुति

न तेऽभवस्येश भवस्य कारणं
विना विनोदं बत तर्कयामहे
भवो निरोधः स्थितिरप्यविद्यया
कृता यतस्त्वय्यभयाश्रयात्मनि ॥ ३९ ॥
मत्स्याश्वकच्छपनृसिंहवराहहंस
राजन्यविप्रविबुधेषु कृतावतारः
त्वं पासि नस्त्रिभुवनं च यथाधुनेश
भारं भुवो हर यदूत्तम वन्दनं ते ॥ ४० ॥
दिष्ट्याम्ब ते कुक्षिगतः परः पुमान्
अंशेन साक्षाद्भगवान्भवाय नः
माभूद्भयं भोजपतेर्मुमूर्षोर्
गोप्ता यदूनां भविता तवात्मजः ॥ ४१ ॥

श्रीशुक उवाच
इत्यभिष्टूय पुरुषं यद्रू पमनिदं यथा
ब्रह्मेशानौ पुरोधाय देवाः प्रतिययुर्दिवम् ॥ ४२ ॥

प्रभो ! आप अजन्मा हैं । यदि आपके जन्मके कारणके सम्बन्धमें हम कोई तर्कना करें, तो यही कह सकते हैं कि यह आपका एक लीला-विनोद है । ऐसा कहनेका कारण यह है कि आप तो द्वैतके लेशसे रहित सर्वाधिष्ठानस्वरूप हैं और इस जगत्की उत्पत्ति, स्थिति तथा प्रलय अज्ञानके द्वारा आपमें आरोपित हैं ॥ ३९ ॥ प्रभो ! आपने जैसे अनेकों बार मत्स्य, हयग्रीव, कच्छप, नृसिंह, वराह, हंस, राम, परशुराम और वामन अवतार धारण करके हमलोगोंकी और तीनों लोकोंकी रक्षा की हैवैसे ही आप इस बार भी पृथ्वीका भार हरण कीजिये । यदुनन्दन ! हम आपके चरणोंमें वन्दना करते हैं॥ ४० ॥ [देवकीजीको सम्बोधित करके] माताजी ! यह बड़े सौभाग्यकी बात है कि आपकी कोखमें हम सबका कल्याण करनेके लिये स्वयं भगवान्‌ पुरुषोत्तम अपने ज्ञान, बल आदि अंशोंके साथ पधारे हैं । अब आप कंससे तनिक भी मत डरिये । अब तो वह कुछ ही दिनों का मेहमान है । आपका पुत्र यदुवंश की रक्षा करेगा॥ ४१ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! ब्रह्मादि देवताओं ने इस प्रकार भगवान्‌ की स्तुति की । उनका रूप यह हैइस प्रकार निश्चितरूप से तो कहा नहीं जा सकता, सब अपनी-अपनी मति के अनुसार उसका निरूपण करते हैं । इसके बाद ब्रह्मा और शङ्करजी को आगे करके देवगण स्वर्ग में चले गये ॥ ४२ ॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे गर्भगतिविष्णोर्ब्रह्मादिकृतस्तुतिर्नाम द्वितीयोऽध्यायः

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श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – दूसरा अध्याय..(पोस्ट०५)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) दूसरा अध्याय..(पोस्ट०५)

भगवान्‌ का गर्भ-प्रवेश और देवताओं द्वारा गर्भ-स्तुति

सत्त्वं विशुद्धं श्रयते भवान्स्थितौ
शरीरिणां श्रेयौपायनं वपुः
वेदक्रियायोगतपःसमाधिभिस्
तवार्हणं येन जनः समीहते ॥ ३४ ॥
सत्त्वं न चेद्धातरिदं निजं भवेद्
विज्ञानमज्ञानभिदापमार्जनम्
गुणप्रकाशैरनुमीयते भवान्
प्रकाशते यस्य च येन वा गुणः ॥ ३५ ॥
न नामरूपे गुणजन्मकर्मभि-
र्निरूपितव्ये तव तस्य साक्षिणः
मनोवचोभ्यामनुमेयवर्त्मनो
देव क्रियायां प्रतियन्त्यथापि हि ॥ ३६ ॥
शृण्वन्गृणन्संस्मरयंश्च चिन्तयन्
नामानि रूपाणि च मङ्गलानि ते
क्रियासु यस्त्वच्चरणारविन्दयोर्
आविष्टचेता न भवाय कल्पते ॥ ३७ ॥
दिष्ट्या हरेऽस्या भवतः पदो भुवो
भारोऽपनीतस्तव जन्मनेशितुः
दिष्ट्याङ्कितां त्वत्पदकैः सुशोभनैर्
द्रक्ष्याम गां द्यां च तवानुकम्पिताम् ॥ ३८ ॥

आप संसारकी स्थितिके लिये समस्त देहधारियोंको परम कल्याण प्रदान करनेवाला विशुद्ध सत्त्वमय, सच्चिदानन्दमय परम दिव्य मङ्गल-विग्रह प्रकट करते हैं। उस रूपके प्रकट होनेसे ही आपके भक्त वेद, कर्मकाण्ड, अष्टाङ्गयोग, तपस्या और समाधिके द्वारा आपकी आराधना करते हैं। बिना किसी आश्रयके वे किसकी आराधना करेंगे ? ॥ ३४ ॥ प्रभो ! आप सबके विधाता हैं। यदि आपका यह विशुद्ध सत्त्वमय निज स्वरूप न हो, तो अज्ञान और उसके द्वारा होनेवाले भेद- भावको नष्ट करनेवाला अपरोक्ष ज्ञान ही किसीको न हो। जगत् में दीखनेवाले तीनों गुण आपके हैं और आपके द्वारा ही प्रकाशित होते हैं, यह सत्य है। परंतु इन गुणोंकी प्रकाशक वृत्तियोंसे आपके स्वरूपका केवल अनुमान ही होता है, वास्तविक स्वरूपका साक्षात्कार नहीं होता। (आपके स्वरूपका साक्षात्कार तो आपके इस विशुद्ध सत्त्वमय स्वरूपकी सेवा करनेपर आपकी कृपासे ही होता है) ॥ ३५ ॥ भगवन् ! मन और वेद-वाणीके द्वारा केवल आपके स्वरूपका अनुमानमात्र होता है। क्योंकि आप उनके द्वारा दृश्य नहीं; उनके साक्षी हैं। इसलिये आपके गुण, जन्म और कर्म आदिके द्वारा आपके नाम और रूपका निरूपण नहीं किया जा सकता। फिर भी प्रभो ! आपके भक्तजन उपासना आदि क्रियायोगोंके द्वारा आपका साक्षात्कार तो करते ही हैं ॥ ३६ ॥ जो पुरुष आपके मङ्गलमय नामों और रूपोंका श्रवण, कीर्तन, स्मरण और ध्यान करता है और आपके चरण-कमलोंकी सेवामें ही अपना चित्त लगाये रहता हैउसे फिर जन्म-मृत्युरूप संसारके चक्रमें नहीं आना पड़ता ॥ ३७ ॥ सम्पूर्ण दु:खोंके हरनेवाले भगवन् ! आप सर्वेश्वर हैं । यह पृथ्वी तो आपका चरणकमल ही है । आपके अवतारसे इसका भार दूर हो गया । धन्य है ! प्रभो ! हमारे लिये यह बड़े सौभाग्यकी बात है कि हमलोग आपके सुन्दर-सुन्दर चिह्नोंसे युक्त चरणकमलोंके द्वारा विभूषित पृथ्वीको देखेंगे और स्वर्गलोकको भी आपकी कृपासे कृतार्थ देखेंगे ॥ ३८ ॥

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शुक्रवार, 1 मई 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – दूसरा अध्याय..(पोस्ट०४)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) दूसरा अध्याय..(पोस्ट०४)

भगवान्‌ का गर्भ-प्रवेश और देवताओं द्वारा गर्भ-स्तुति

त्वय्यम्बुजाक्षाखिलसत्त्वधाम्नि
समाधिनावेशितचेतसैके
त्वत्पादपोतेन महत्कृतेन
कुर्वन्ति गोवत्सपदं भवाब्धिम् ॥ ३० ॥
स्वयं समुत्तीर्य सुदुस्तरं द्युमन्
भवार्णवं भीममदभ्रसौहृदाः
भवत्पदाम्भोरुहनावमत्र ते
निधाय याताः सदनुग्रहो भवान् ॥ ३१ ॥
येऽन्येऽरविन्दाक्ष विमुक्तमानिनस्
त्वय्यस्तभावादविशुद्धबुद्धयः
आरुह्य कृच्छ्रेण परं पदं ततः
पतन्त्यधोऽनादृतयुष्मदङ्घ्रयः ॥ ३२ ॥
तथा न ते माधव तावकाः क्वचिद्- 
भ्रश्यन्ति मार्गात्त्वयि बद्धसौहृदाः
त्वयाभिगुप्ता विचरन्ति निर्भया
विनायकानीकपमूर्धसु प्रभो ॥ ३३ ॥

कमलके समान कोमल अनुग्रहभरे नेत्रोंवाले प्रभो ! कुछ बिरले लोग ही आपके समस्त पदार्थों और प्राणियोंके आश्रयस्वरूप रूपमें पूर्ण एकाग्रतासे अपना चित्त लगा पाते हैं और आपके चरणकमलरूपी जहाज का आश्रय लेकर इस संसारसागर को बछड़े के खुर के गढ़े के समान अनायास ही पार कर जाते हैं । क्यों न हो, अबतकके संतोंने इसी जहाजसे संसारसागरको पार जो किया है ॥ ३० ॥ परम प्रकाशस्वरूप परमात्मन् ! आपके भक्तजन सारे जगत् के निष्कपट प्रेमी, सच्चे हितैषी होते हैं । वे स्वयं तो इस भयङ्कर और कष्टसे पार करनेयोग्य संसारसागरको पार कर ही जाते हैं, किन्तु औरों के कल्याण के लिये भी वे यहाँ आपके चरण-कमलोंकी नौका स्थापित कर जाते हैं । वास्तवमें सत्पुरुषोंपर आपकी महान् कृपा है । उनके लिये आप अनुग्रहस्वरूप ही हैं ॥ ३१ ॥ कमलनयन ! जो लोग आपके चरणकमलोंकी शरण नहीं लेते तथा आपके प्रति भक्तिभावसे रहित होनेके कारण जिनकी बुद्धि भी शुद्ध नहीं है, वे अपनेको झूठ-मूठ मुक्त मानते हैं । वास्तवमें तो वे बद्ध ही हैं । वे यदि बड़ी तपस्या और साधनाका कष्ट उठाकर किसी प्रकार ऊँचे-से-ऊँचे पदपर भी पहुँच जायँ, तो भी वहाँसे नीचे गिर जाते हैं ॥ ३२ ॥ परंतु भगवन् ! जो आपके अपने निज जन हैं, जिन्होंने आपके चरणोंमें अपनी सच्ची प्रीति जोड़ रखी है, वे कभी उन ज्ञानाभिमानियों की भाँति अपने साधन-मार्गसे गिरते नहीं। प्रभो ! वे बड़े-बड़े विघ्र डालनेवालों की सेना के सरदारों के सिर पर पैर रखकर निर्भय विचरते हैं, कोई भी विघ्न उनके मार्गमें रुकावट नहीं डाल सकते; क्योंकि उनके रक्षक आप जो हैं ॥ ३३ ॥

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट१०)

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