गुरुवार, 14 मई 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – छठा अध्याय..(पोस्ट०३)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) छठा अध्याय..(पोस्ट०३)

पूतना-उद्धार

तां तीक्ष्णचित्तामतिवामचेष्टितां
वीक्ष्यान्तरा कोषपरिच्छदासिवत् ।
वरस्त्रियं तत्प्रभया च धर्षिते
निरीक्ष्यमाणे जननी ह्यतिष्ठताम् ॥ ९ ॥
तस्मिन् स्तनं दुर्जरवीर्यमुल्बणं ।
घोराङ्‌कमादाय शिशोर्ददावथ ।
गाढं कराभ्यां भगवान् प्रपीड्य तत्
प्राणैः समं रोषसमन्वितोऽपिबत् ॥ १० ॥
सा मुञ्च मुञ्चालमिति प्रभाषिणी
निष्पीड्य मानाखिलजीवमर्मणि ।
विवृत्य नेत्रे चरणौ भुजौ मुहुः
प्रस्विन्नगात्रा क्षिपती रुरोद ह ॥ ११ ॥
तस्याः स्वनेनातिगभीररंहसा
साद्रिर्मही द्यौश्च चचाल सग्रहा ।
रसा दिशश्च प्रतिनेदिरे जनाः
पेतुः क्षितौ वज्रनिपात शङ्‌कया ॥ १२ ॥
निशाचरीत्थं व्यथितस्तना व्यसुः
व्यादाय केशांश्चरणौ भुजावपि ।
प्रसार्य गोष्ठे निजरूपमास्थिता
वज्राहतो वृत्र इवापतन्नृप ॥ १३ ॥

मखमली म्यान के भीतर छिपी हुई तीखी धारवाली तलवार के समान पूतना का हृदय तो बड़ा कुटिल था; किन्तु ऊपरसे वह बहुत मधुर और सुन्दर व्यवहार कर रही थी । देखनेमें वह एक भद्र महिलाके समान जान पड़ती थी । इसलिये रोहिणी और यशोदाजीने उसे घरके भीतर आयी देखकर भी उसकी सौन्दर्यप्रभासे हतप्रतिभ-सी होकर कोई रोक-टोक नहीं की, चुपचाप खड़ी-खड़ी देखती रहीं ॥ ९ ॥ इधर भयानक राक्षसी पूतनाने बालक श्रीकृष्णको अपनी गोदमें लेकर उनके मुँहमें अपना स्तन दे दिया, जिसमें बड़ा भयङ्कर और किसी प्रकार भी पच न सकनेवाला विष लगा हुआ था । भगवान्‌ने क्रोधको अपना साथी बनाया और दोनों हाथोंसे उसके स्तनोंको जोरसे दबाकर उसके प्राणोंके साथ उसका दूध पीने लगे (वे उसका दूध पीने लगे और उनका साथी क्रोध प्राण पीने लगा !) [*] ॥ १० ॥ अब तो पूतना के प्राणोंके आश्रयभूत सभी मर्मस्थान फटने लगे। वह पुकारने लगी—‘अरे छोड़ दे, छोड़ दे, अब बस कर !वह बार-बार अपने हाथ और पैर पटक-पटककर रोने लगी। उसके नेत्र उलट गये। उसका सारा शरीर पसीनेसे लथपथ हो गया ॥ ११ ॥ उसकी चिल्लाहटका वेग बड़ा भयङ्कर था। उसके प्रभावसे पहाड़ोंके साथ पृथ्वी और ग्रहोंके साथ अन्तरिक्ष डगमगा उठा। सातों पाताल और दिशाएँ गूँज उठीं। बहुत-से लोग वज्रपातकी आशङ्कासे पृथ्वीपर गिर पड़े ॥ १२ ॥ परीक्षित्‌ ! इस प्रकार निशाचरी पूतनाके स्तनोंमें इतनी पीड़ा हुई कि वह अपनेको छिपा न सकी, राक्षसीरूपमें प्रकट हो गयी। उसके शरीरसे प्राण निकल गये, मुँह फट गया, बाल बिखर गये और हाथ-पाँव फैल गये। जैसे इन्द्रके वज्र से घायल होकर वृत्रासुर गिर पड़ा था, वैसे ही वह बाहर गोष्ठमें आकर गिर पड़ी ॥ १३ ॥
………………………..
[*] भगवान्‌ रोष के साथ पूतना के प्राणों के सहित स्तन-पान करने लगे, इसका यह अर्थ प्रतीत होता है कि रोष (रोषाधिष्ठातृ-देवता रुद्र) ने प्राणोंका पान किया और श्रीकृष्णने स्तनका ।

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श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – छठा अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) छठा अध्याय..(पोस्ट०२)

पूतना-उद्धार

विबुध्य तां बालक मारिकाग्रहं
चराचरात्मा स निमीलितेक्षणः ।
अनन्तमारोपयदङ्‌कमन्तकं
यथोरगं सुप्तमबुद्धिरज्जुधीः ॥ ८ ॥

भगवान्‌ श्रीकृष्ण चर-अचर सभी प्राणियों के आत्मा हैं । इसलिये उन्होंने उसी क्षण जान लिया कि यह बच्चों को मार डालनेवाला पूतना-ग्रह है और अपने नेत्र बंद कर लिये । [*] जैसे कोई पुरुष भ्रमवश सोये हुए साँपको रस्सी समझकर उठा ले, वैसे ही अपने कालरूप भगवान्‌ श्रीकृष्ण को पूतना ने अपनी गोद में उठा लिया ॥ ८ ॥
………………………………..
[*] पूतना को देखकर भगवान्‌ श्रीकृष्णने अपने नेत्र बंद कर लिये, इसपर भक्त कवियों और टीकाकारों ने अनेकों प्रकार की उत्प्रेक्षाएँ की हैं, जिनमें कुछ ये हैं---

१. श्रीमद्वल्लभाचार्यने सुबोधिनीमें कहा हैअविद्या ही पूतना है । भगवान्‌ श्रीकृष्णने सोचा कि मेरी दृष्टिके सामने अविद्या टिक नहीं सकती, फिर लीला कैसे होगी, इसलिये नेत्र बन्द कर लिये ।
२. यह पूतना बाल-घातिनी है पूतानपि नयति। यह पवित्र बालकोंको भी ले जाती है । ऐसा जघन्य कृत्य करनेवालीका मुँह नहीं देखना चाहिये, इसलिये नेत्र बंद कर लिये ।
३. इस जन्ममें तो इसने कुछ साधन किया नहीं है । संभव है मुझसे मिलनेके लिये पूर्व जन्ममें कुछ किया हो । मानो पूतनाके पूर्व-पूर्व जन्मोंके साधन देखनेके लिये ही श्रीकृष्णने नेत्र बंद कर लिये ।
४. भगवान्‌ ने अपने मनमें विचार किया कि मैंने पापिनीका दूध कभी नहीं पिया है । अब जैसे लोग आँख बंद करके चिरायतेका काढ़ा पी जाते हैं, वैसे ही इसका दूध भी पी जाऊँ । इसलिये नेत्र बंद कर लिये ।
५. भगवान्‌के उदरमें निवास करनेवाले असंख्य कोटि ब्रह्माण्डोंके जीव यह जानकर घबरा गये कि श्यामसुन्दर पूतनाके स्तनमें लगा हलाहल विष पीने जा रहे हैं । अत: उन्हें समझानेके लिये ही श्रीकृष्णने नेत्र बंद कर लिये ।
६. श्रीकृष्णशिशुने विचार किया कि मैं गोकुलमें यह सोचकर आया था कि माखन-मिश्री खाऊँगा । सो छठीके दिन ही विष पीनेका अवसर आ गया । इसलिये आँख बंद करके मानो शङ्करजीका ध्यान किया कि आप आकर अपना अभ्यस्त विष-पान कीजिये, मैं दूध पीऊँगा ।
७. श्रीकृष्णके नेत्रोंने विचार किया कि परम स्वतन्त्र ईश्वर इस दुष्टाको अच्छी-बुरी चाहे जो गति दे दें, परंतु हम दोनों इसे चन्द्रमार्ग अथवा सूर्यमार्ग दोनोंमेंसे एक भी नहीं देंगे । इसलिये उन्होंने अपने द्वार बंद कर लिये ।
८. नेत्रोंने सोचा पूतनाके नेत्र हैं तो हमारी जातिके; परंतु ये इस क्रूर राक्षसीकी शोभा बढ़ा रहे हैं । इसलिये अपने होनेपर भी ये दर्शनके योग्य नहीं हैं । इसलिये उन्होंने अपनेको पलकोंसे ढक लिया ।
९. श्रीकृष्णके नेत्रोंमें स्थित धर्मात्मा निमिने उस दुष्टाको देखना उचित न समझकर नेत्र बंद कर लिये ।
१०. श्रीकृष्णके नेत्र राज-हंस हैं । उन्हें बकी पूतनाके दर्शन करनेकी कोई उत्कण्ठा नहीं थी । इसलिये नेत्र बंद कर लिये ।
११. श्रीकृष्ण ने विचार किया कि बाहर से तो इसने माताका-सा रूप धारण कर रखा है, परंतु हृदय में अत्यन्त क्रूरता भरे हुए हैं । ऐसी स्त्रीका मुँह न देखना ही उचित है । इसलिये नेत्र बंद कर लिये ।
१२. उन्होंने सोचा कि मुझे निडर देखकर कहीं यह ऐसा न समझ जाय कि इसके ऊपर मेरा प्रभाव नहीं चला और फिर कहीं लौट न जाय । इसलिये नेत्र बंद कर लिये ।
१३. बाल-लीला के प्रारम्भमें पहले-पहल स्त्री से ही मुठभेड़ हो गयी, इस विचारसे विरक्तिपूर्वक नेत्र बंद कर लिये ।
१४. श्रीकृष्णके मनमें यह बात आयी कि करुणा-दृष्टिसे देखूँगा तो इसे मारूँगा कैसे, और उग्र दृष्टिसे देखूँगा तो यह अभी भस्म हो जायगी । लीलाकी सिद्धिके लिये नेत्र बंद कर लेना ही उत्तम है । इसलिये नेत्र बंद कर लिये ।
१५. यह धात्री का वेष धारण करके आयी है, मारना उचित नहीं है । परंतु यह और ग्वालबालोंको मारेगी । इसलिये इसका यह वेष देखे बिना ही मार डालना चाहिये । इसलिये नेत्र बंद कर लिये ।
१६. बड़े-से-बड़ा अनिष्ट योग से निवृत्त हो जाता है । उन्होंने नेत्र बंद करके मानो योगदृष्टि सम्पादित की ।
१७. पूतना यह निश्चय करके आयी थी कि मैं व्रजके सारे शिशुओंको मार डालूँगी, परंतु भक्तरक्षापरायण भगवान्‌ की कृपासे व्रज का एक भी शिशु उसे दिखायी नहीं दिया और बालकोंको खोजती हुई वह लीलाशक्तिकी प्रेरणासे सीधी नन्दालयमें आ पहुँची, तब भगवान्‌ने सोचा कि मेरे भक्तका बुरा करनेकी बात तो दूर रही, जो मेरे भक्तका बुरा सोचता है, उस दुष्टका मैं मुँह नहीं देखता; व्रज-बालक सभी श्रीकृष्णके सखा हैं, परम भक्त हैं, पूतना उनको मारनेका सङ्कल्प करके आयी है, इसलिये उन्होंने नेत्र बंद कर लिये ।
१८. पूतना अपनी भीषण आकृतिको छिपाकर राक्षसी मायासे दिव्य रमणी रूप बनाकर आयी है । भगवान्‌की दृष्टि पडऩेपर माया रहेगी नहीं और इसका असली भयानकरूप प्रकट हो जायगा । उसे सामने देखकर यशोदा मैया डर जायँ और पुत्रकी अनिष्टाशङ्कासे कहीं उनके हठात् प्राण निकल जायँ, इस आशङ्कासे उन्होंने नेत्र बंद कर लिये ।
१९. पूतना हिंसापूर्ण हृदयसे आयी है, परंतु भगवान्‌ उसकी हिंसाके लिये उपयुक्त दण्ड न देकर उसका प्राण-वधमात्र करके परम कल्याण करना चाहते हैं । भगवान्‌ समस्त सद्गुणोंके भण्डार हैं । उनमें धृष्टता आदि दोषोंका लेश भी नहीं है, इसीलिये पूतनाके कल्याणार्थ भी उसका प्राण-वध करनेमें उन्हें लज्जा आती है । इस लज्जासे ही उन्होंने नेत्र बंद कर लिये ।
२०. भगवान्‌ जगत्पिता हैंअसुर-राक्षसादि भी उनकी सन्तान ही हैं । पर वे सर्वथा उच्छृङ्खल और उद्दण्ड हो गये हैं, इसलिये उन्हें दण्ड देना आवश्यक है । स्नेहमय माता-पिता जब अपने उच्छृङ्खल पुत्रको दण्ड देते हैं, तब उसके मनमें दु:ख होता है । परंतु वे उसे भय दिखलानेके लिये उसे बाहर प्रकट नहीं करते । इसी प्रकार भगवान्‌ भी जब असुरोंको मारते हैं, तब पिताके नाते उनको भी दु:ख होता है; पर दूसरे असुरोंको भय दिखलानेके लिये वे उसे प्रकट नहीं करते । भगवान्‌ अब पूतनाको मारनेवाले हैं, परंतु उसकी मृत्युकालीन पीड़ाको अपनी आँखों देखना नहीं चाहते, इसीसे उन्होंने नेत्र बंद कर लिये ।
२१. छोटे बालकोंका स्वभाव है कि वे अपनी मा के सामने खूब खेलते हैं, पर किसी अपरिचितको देखकर डर जाते हैं और नेत्र मूँद लेते हैं । अपरिचित पूतनाको देखकर इसीलिये बाल-लीला-विहारी भगवान्‌ ने नेत्र बंद कर लिये । यह उनकी बाललीलाका माधुर्य है ।

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बुधवार, 13 मई 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – छठा अध्याय..(पोस्ट०१)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) छठा अध्याय..(पोस्ट०१)

पूतना-उद्धार

श्रीशुक उवाच ।

नन्दः पथि वचः शौरेः न मृषेति विचिन्तयन् ।
हरिं जगाम शरणं उत्पातागमशङ्‌‍कितः ॥ १ ॥
कंसेन प्रहिता घोरा पूतना बालघातिनी ।
शिशूंश्चचार निघ्नन्ती पुरग्रामव्रजादिषु ॥ २ ॥
न यत्र श्रवणादीनि रक्षोघ्नानि स्वकर्मसु ।
कुर्वन्ति सात्वतां भर्तुः यातुधान्यश्च तत्र हि ॥ ३ ॥
सा खेचर्येकदोत्पत्य पूतना नन्दगोकुलम् ।
योषित्वा माययाऽऽत्मानं प्राविशत् कामचारिणी ॥ ४ ॥
तां केशबन्ध व्यतिषक्तमल्लिकां
बृहन्नितंब स्तनकृच्छ्रमध्यमाम् ।
सुवाससं कल्पितकर्णभूषण
त्विषोल्लसत् कुन्तलमण्डिताननाम् ॥ ५ ॥
वल्गुस्मितापाङ्‌‍ग विसर्गवीक्षितैः
मनो हरन्तीं वनितां व्रजौकसाम् ।
अमंसताम्भोजकरेण रूपिणीं
गोप्यः श्रियं द्रष्टुमिवागतां पतिम् ॥ ६ ॥
बालग्रहस्तत्र विचिन्वती शिशून्
यदृच्छया नन्दगृहेऽसदन्तकम् ।
बालं प्रतिच्छन्ननिजोरुतेजसं
ददर्श तल्पेऽग्निमिवाहितं भसि ॥ ७ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! नन्दबाबा जब मथुरा से चले, तब रास्ते में विचार करने लगे कि वसुदेवजीका कथन झूठा नहीं हो सकता । इससे उनके मनमें उत्पात होनेकी आशङ्का हो गयी। तब उन्होंने मन-ही-मन भगवान्‌ ही शरण हैं, वे ही रक्षा करेंगेऐसा निश्चय किया ॥ १ ॥ पूतना नाम की एक बड़ी क्रूर राक्षसी थी । उसका एक ही काम थाबच्चों को मारना । कंस की आज्ञा से वह नगर, ग्राम और अहीरों की बस्तियों में बच्चोंको मारने के लिये घूमा करती थी ॥ २ ॥ जहाँ के लोग अपने प्रतिदिनके कामों में राक्षसोंके भयको दूर भगानेवाले भक्तवत्सल भगवान्‌के नाम, गुण और लीलाओंका श्रवण, कीर्तन और स्मरण नहीं करतेवहीं ऐसी राक्षसियोंका बल चलता है ॥ ३ ॥ वह पूतना आकाशमार्गसे चल सकती थी और अपनी इच्छाके अनुसार रूप भी बना लेती थी । एक दिन नन्दबाबाके गोकुलके पास आकर उसने मायासे अपनेको एक सुन्दरी युवती बना लिया और गोकुलके भीतर घुस गयी ॥ ४ ॥ उसने बड़ा सुन्दर रूप बनाया था । उसकी चोटियोंमें बेलेके फूल गुँथे हुए थे । सुन्दर वस्त्र पहने हुए थी । जब उसके कर्णफूल हिलते थे, तब उनकी चमकसे मुखकी ओर लटकी हुई अलकें और भी शोभायमान हो जाती थीं । उसके नितम्ब और कुच-कलश ऊँचे-ऊँचे थे और कमर पतली थी ॥ ५ ॥ वह अपनी मधुर मुसकान और कटाक्षपूर्ण चितवनसे व्रजवासियोंका चित्त चुरा रही थी । उस रूपवती रमणीको हाथमें कमल लेकर आते देख गोपियाँ ऐसी उत्प्रेक्षा करने लगीं, मानो स्वयं लक्ष्मीजी अपने पतिका दर्शन करनेके लिये आ रही हैं ॥ ६ ॥
पूतना बालकों के लिये ग्रह के समान थी । वह इधर-उधर बालकों को ढूँढ़ती हुई अनायास ही नन्दबाबा के घर में घुस गयी । वहाँ उसने देखा कि बालक श्रीकृष्ण शय्यापर सोये हुए हैं । परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्ण दुष्टों के काल हैं । परंतु जैसे आग राख की ढेरी में अपने को छिपाये हुए हो, वैसे ही उस समय उन्होंने अपने प्रचण्ड तेजको छिपा रखा था ॥ ७ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

गोकुल में भगवान्‌ का जन्ममहोत्सव

श्रीनंद उवाच ।
अहो ते देवकी पुत्राः कंसेन बहवो हताः ।
एकावशिष्टावरजा कन्या सापि दिवं गता ॥ २९ ॥
नूनं ह्यदृष्टनिष्ठोऽयं अदृष्टपरमो जनः ।
अदृष्टमात्मनस्तत्त्वं यो वेद न स मुह्यति ॥ ३० ॥

श्रीवसुदेव उवाच ।
करो वै वार्षिको दत्तो राज्ञे दृष्टा वयं च वः ।
नेह स्थेयं बहुतिथं सन्त्युत्पाताश्च गोकुले ॥ ३१ ॥

श्रीशुक उवाच ।
इति नंदादयो गोपाः प्रोक्तास्ते शौरिणा ययुः ।
अनोभिः अनडुद्युक्तैः तं अनुज्ञाप्य गोकुलम् ॥ ३२ ॥

नन्दबाबा ने कहाभाई वसुदेव ! कंसने देवकीके  गर्भ से उत्पन्न तुम्हारे कई पुत्र मार डाले । अन्तमें एक सबसे छोटी कन्या बच रही थी, वह भी स्वर्ग सिधार गयी ॥ २९ ॥ इसमें सन्देह नहीं कि प्राणियोंका सुख-दु:ख भाग्यपर ही अवलम्बित है । भाग्य ही प्राणीका एकमात्र आश्रय है । जो जान लेता है कि जीवनके सुख-दु:खका कारण भाग्य ही है, वह उनके प्राप्त होनेपर मोहित नहीं होता ॥ ३० ॥
वसुदेवजीने कहाभाई ! तुमने राजा कंसको उसका सालाना कर चुका दिया। हम दोनों मिल भी चुके। अब तुम्हें यहाँ अधिक दिन नहीं ठहरना चाहिये; क्योंकि आजकल गोकुलमें बड़े-बड़े उत्पात हो रहे हैं ॥ ३१ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! जब वसुदेवजी ने इस प्रकार कहा, तब नन्द आदि गोपोंने उनसे अनुमति ले, बैलों से जुते हुए छकड़ों पर सवार होकर गोकुल की यात्रा की ॥ ३२ ॥

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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मंगलवार, 12 मई 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

गोकुल में भगवान्‌ का जन्ममहोत्सव

गोपान् गोकुलरक्षायां निरूप्य मथुरां गतः ।
नंदः कंसस्य वार्षिक्यं करं दातुं कुरूद्वह ॥ १९ ॥
वसुदेव उपश्रुत्य भ्रातरं नंदमागतम् ।
ज्ञात्वा दत्तकरं राज्ञे ययौ तद् अवमोचनम् ॥ २० ॥
तं दृष्ट्वा सहसोत्थाय देहः प्राणमिवागतम् ।
प्रीतः प्रियतमं दोर्भ्यां सस्वजे प्रेमविह्वलः ॥ २१ ॥
पूजितः सुखमासीनः पृष्ट्वा अनामयमादृतः ।
प्रसक्तधीः स्वात्मजयोः इदमाह विशांपते ॥ २२ ॥
दिष्ट्या भ्रातः प्रवयस इदानीमप्रजस्य ते ।
प्रजाशाया निवृत्तस्य प्रजा यत् समपद्यत ॥ २३ ॥
दिष्ट्या संसारचक्रेऽस्मिन् वर्तमानः पुनर्भवः ।
उपलब्धो भवानद्य दुर्लभं प्रियदर्शनम् ॥ २४ ॥
नैकत्र प्रियसंवासः सुहृदां चित्रकर्मणाम् ।
ओघेन व्यूह्यमानानां प्लवानां स्रोतसो यथा ॥ २५ ॥
कच्चित् पशव्यं निरुजं भूर्यम्बुतृणवीरुधम् ।
बृहद्वनं तदधुना यत्रास्से त्वं सुहृद्‌वृतः ॥ २६ ॥
भ्रातर्मम सुतः कच्चित् मात्रा सह भवद्व्रजे ।
तातं भवन्तं मन्वानो भवद्‍भ्यामुपलालितः ॥ २७ ॥
पुंसस्त्रिवर्गो विहितः सुहृदो ह्यनुभावितः ।
न तेषु क्लिश्यमानेषु त्रिवर्गोऽर्थाय कल्पते ॥ २८ ॥

परीक्षित्‌ ! कुछ दिनोंके बाद नन्दबाबाने गोकुलकी रक्षाका भार तो दूसरे गोपोंको सौंप दिया और वे स्वयं कंसका वाॢषक कर चुकानेके लिये मथुरा चले गये ॥ १९ ॥ जब वसुदेवजीको यह मालूम हुआ कि हमारे भाई नन्दजी मथुरामें आये हैं और राजा कंसको उसका कर भी दे चुके हैं, तब वे जहाँ नन्दबाबा ठहरे हुए थे, वहाँ गये ॥ २० ॥ वसुदेवजीको देखते ही नन्दजी सहसा उठकर खड़े हो गये मानो मृतक शरीरमें प्राण आ गया हो । उन्होंने बड़े प्रेमसे अपने प्रियतम वसुदेवजीको दोनों हाथोंसे पकडक़र हृदयसे लगा लिया । नन्दबाबा उस समय प्रेमसे विह्वल हो रहे थे ॥ २१ ॥ परीक्षित्‌ ! नन्दबाबाने वसुदेवजीका बड़ा स्वागत-सत्कार किया । वे आदरपूर्वक आरामसे बैठ गये । उस समय उनका चित्त अपने पुत्रोंमें लग रहा था । वे नन्दबाबासे कुशल-मङ्गल पूछकर कहने लगे ॥ २२ ॥
[वसुदेवजीने कहा—]‘भाई ! तुम्हारी अवस्था ढल चली थी और अबतक तुम्हें कोई सन्तान नहीं हुई थी । यहाँतक कि अब तुम्हें सन्तानकी कोई आशा भी न थी । यह बड़े सौभाग्यकी बात है कि अब तुम्हें सन्तान प्राप्त हो गयी ॥ २३ ॥ यह भी बड़े आनन्दका विषय है कि आज हमलोगोंका मिलना हो गया । अपने प्रेमियोंका मिलना भी बड़ा दुर्लभ है । इस संसारका चक्र ही ऐसा है । इसे तो एक प्रकारका पुनर्जन्म ही समझना चाहिये ॥ २४ ॥ जैसे नदीके प्रबल प्रवाहमें बहते हुए बेड़े और तिनके सदा एक साथ नहीं रह सकते, वैसे ही सगे-सम्बन्धी और प्रेमियोंका भी एक स्थानपर रहना सम्भव नहीं हैयद्यपि वह सबको प्रिय लगता है । क्योंकि सबके प्रारब्धकर्म अलग-अलग होते हैं ॥ २५ ॥ आजकल तुम जिस महावनमें अपने भाई-बन्धु और स्वजनोंके साथ रहते हो, उसमें जल, घास और लता-पत्रादि तो भरे-पूरे हैं न ? वह वन पशुओंके लिये अनुकूल और सब प्रकारके रोगोंसे तो बचा है ? ॥ २६ ॥ भाई ! मेरा लडक़ा अपनी मा (रोहिणी) के साथ तुम्हारे व्रजमें रहता है । उसका लालन-पालन तुम और यशोदा करते हो, इसलिये वह तो तुम्हींको अपने पिता-माता मानता होगा । वह अच्छी तरह है न ? ॥ २७ ॥ मनुष्यके लिये वे ही धर्म, अर्थ और काम शास्त्रविहित हैं, जिनसे उसके स्वजनोंको सुख मिले। जिनसे केवल अपनेको ही सुख मिलता है; किन्तु अपने स्वजनोंको दु:ख मिलता है, वे धर्म, अर्थ और काम हितकारी नहीं हैं॥ २८ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

गोकुल में भगवान्‌ का जन्ममहोत्सव

अवाद्यन्त विचित्राणि वादित्राणि महोत्सवे ।
कृष्णे विश्वेश्वरेऽनन्ते नंदस्य व्रजमागते ॥ १३ ॥
गोपाः परस्परं हृष्टा दधिक्षीरघृतांबुभिः ।
आसिञ्चन्तो विलिंपन्तो नवनीतैश्च चिक्षिपुः ॥ १४ ॥
नन्दो महामनास्तेभ्यो वासोऽलंकारगोधनम् ।
सूतमागधवन्दिभ्यो येऽन्ये विद्योपजीविनः ॥ १५ ॥
तैस्तैः कामैरदीनात्मा यथोचितं अपूजयत् ।
विष्णोराराधनार्थाय स्वपुत्रस्योदयाय च ॥ १६ ॥
रोहिणी च महाभागा नंदगोपाभिनंदिता ।
व्यचरद् दिव्यवासःस्रक् कण्ठाभरणभूषिता ॥ १७ ॥
तत आरभ्य नंदस्य व्रजः सर्वसमृद्धिमान् ।
हरेर्निवासात्मगुणै रमाक्रीडमभून् नृप ॥ १८ ॥

भगवान्‌ श्रीकृष्ण समस्त जगत् के एकमात्र स्वामी हैं। उनके ऐश्वर्य, माधुर्य, वात्सल्यसभी अनन्त हैं। वे जब नन्दबाबा के व्रजमें प्रकट हुए, उस समय उनके जन्मका महान् उत्सव मनाया गया। उसमें बड़े-बड़े विचित्र और मङ्गलमय बाजे बजाये जाने लगे ॥ १३ ॥ आनन्दसे मतवाले होकर गोपगण एक-दूसरेपर दही, दूध, घी और पानी उड़ेलने लगे। एक-दूसरेके मुँहपर मक्खन मलने लगे और मक्खन फेंक-फेंककर आनन्दोत्सव मनाने लगे ॥ १४ ॥ नन्दबाबा स्वभावसे ही परम उदार और मनस्वी थे। उन्होंने गोपोंको बहुत-से वस्त्र, आभूषण और गौएँ दीं। सूत-मागध-वंदीजनों, नृत्य, वाद्य आदि विद्याओंसे अपना जीवन-निर्वाह करनेवालों तथा दूसरे गुणीजनोंको भी नन्दबाबाने प्रसन्नतापूर्वक उनकी मुँहमाँगी वस्तुएँ देकर उनका यथोचित सत्कार किया। यह सब करनेमें उनका उद्देश्य यही था कि इन कर्मोंसे भगवान्‌ विष्णु प्रसन्न हों और मेरे इस नवजात शिशुका मङ्गल हो ॥ १५-१६ ॥ नन्दबाबाके अभिनन्दन करनेपर परम सौभाग्यवती रोहिणीजी दिव्य वस्त्र, माला और गलेके भाँति-भाँतिके गहनोंसे सुसज्जित होकर गृहस्वामिनीकी भाँति आने-जानेवाली स्त्रियोंका सत्कार करती हुई विचर रही थीं ॥ १७ ॥ परीक्षित्‌ ! उसी दिनसे नन्दबाबाके व्रजमें सब प्रकारकी ऋद्धि-सिद्धियाँ अठखेलियाँ करने लगीं और भगवान्‌ श्रीकृष्णके निवास तथा अपने स्वाभाविक गुणोंके कारण वह लक्ष्मीजीका क्रीडास्थल बन गया ॥ १८ ॥

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सोमवार, 11 मई 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

गोकुल में भगवान्‌ का जन्ममहोत्सव

गोप्यश्चाकर्ण्य मुदिता यशोदायाः सुतोद्‍भवम् ।
आत्मानं भूषयां चक्रुः वस्त्राकल्पाञ्जनादिभिः ॥ ९ ॥
नवकुंकुमकिञ्जल्क मुखपंकजभूतयः ।
बलिभिस्त्वरितं जग्मुः पृथुश्रोण्यश्चलत्कुचाः ॥ १० ॥
गोप्यः सुमृष्टमणिकुण्डल निष्ककण्ठ्यः ।
चित्राम्बराः पथि शिखाच्युतमाल्यवर्षाः ।
नन्दालयं सवलया व्रजतीर्विरेजुः
व्यालोलकुण्डल पयोधरहारशोभाः ॥ ११ ॥
ता आशिषः प्रयुञ्जानाः चिरं पाहीति बालके ।
हरिद्राचूर्णतैलाद्‌भिः सिञ्चन्त्यो जनमुज्जगुः ॥ १२ ॥

यशोदाजीके पुत्र हुआ है, यह सुनकर गोपियोंको भी बड़ा आनन्द हुआ । उन्होंने सुन्दर-सुन्दर वस्त्र, आभूषण और अञ्जन आदिसे अपना शृङ्गार किया ॥ ९ ॥ गोपियोंके मुखकमल बड़े ही सुन्दर जान पड़ते थे । उनपर लगी हुई कुंकुम ऐसी लगती मानो कमलकी केशर हो । उनके नितम्ब बड़े- बड़े थे । वे भेंट की सामग्री ले-लेकर जल्दी-जल्दी यशोदाजीके पास चलीं । उस समय उनके पयोधर हिल रहे थे ॥ १० ॥ गोपियोंके कानोंमें चमकती हुई मणियोंके कुण्डल झिलमिला रहे थे । गलेमें सोनेके हार (हैकल या हुमेल) जगमगा रहे थे । वे बड़े सुन्दर-सुन्दर रंग-बिरंगे वस्त्र पहने हुए थीं । मार्गमें उनकी चोटियोंमें गुँथे हुए फूल बरसते जा रहे थे । हाथोंमें जड़ाऊ कंगन अलग ही चमक रहे थे । उनके कानोंके कुण्डल, पयोधर और हार हिलते जाते थे । इस प्रकार नन्दबाबाके घर जाते समय उनकी शोभा बड़ी अनूठी जान पड़ती थी ॥ ११ ॥ नन्दबाबाके घर जाकर वे नवजात शिशुको आशीर्वाद देतीं यह चिरजीवी हो, भगवन् ! इसकी रक्षा करो ।और लोगोंपर हल्दी-तेलसे मिला हुआ पानी छिडक़ देतीं तथा ऊँचे स्वरसे मङ्गलगान करती थीं ॥ १२ ॥

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से





श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

गोकुल में भगवान्‌ का जन्ममहोत्सव

नन्दस्त्वात्मज उत्पन्ने जाताह्लादो महामनाः ।
आहूय विप्रान् वेदज्ञान् स्नातः शुचिरलंकृतः ॥ १ ॥
वाचयित्वा स्वस्त्ययनं जातकर्मात्मजस्य वै ।
कारयामास विधिवत् पितृदेवार्चनं तथा ॥ २ ॥
धेनूनां नियुते प्रादाद् विप्रेभ्यः समलंकृते ।
तिलाद्रीन् सप्त रत्‍नौघ शातकौंभांबरावृतान् ॥ ३ ॥
कालेन स्नानशौचाभ्यां संस्कारैः तपसेज्यया ।
शुध्यन्ति दानैः सन्तुष्ट्या द्रव्याण्यात्माऽऽत्मविद्यया ॥ ४ ॥
सौमंगल्यगिरो विप्राः सूतमागधवन्दिनः ।
गायकाश्च जगुर्नेदुः भेर्यो दुन्दुभयो मुहुः ॥ ५ ॥
व्रजः सम्मृष्टसंसिक्त द्वाराजिरगृहान्तरः ।
चित्रध्वज पताकास्रक् चैलपल्लवतोरणैः ॥ ६ ॥
गावो वृषा वत्सतरा हरिद्रातैलरूषिताः ।
विचित्र धातुबर्हस्रग् वस्त्रकाञ्चनमालिनः ॥ ७ ॥
महार्हवस्त्राभरण कञ्चुकोष्णीषभूषिताः ।
गोपाः समाययू राजन् नानोपायनपाणयः ॥ ८ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! नन्दबाबा बड़े मनस्वी और उदार थे । पुत्र का जन्म होने पर तो उनका हृदय विलक्षण आनन्दसे भर गया । उन्होंने स्नान किया और पवित्र होकर सुन्दर-सुन्दर वस्त्राभूषण धारण किये । फिर वेदज्ञ ब्राह्मणोंको बुलवाकर स्वस्तिवाचन और अपने पुत्रका जातकर्म-संस्कार करवाया । साथ ही देवता और पितरोंकी विधिपूर्वक पूजा भी करवायी ॥ १-२ ॥ उन्होंने ब्राह्मणोंको वस्त्र और आभूषणोंसे सुसज्जित दो लाख गौएँ दान कीं । रत्नों और सुनहले वस्त्रोंसे ढके हुए तिलके सात पहाड़ दान किये ॥ ३ ॥ (संस्कारोंसे ही गर्भशुद्धि होती हैयह प्रदर्शित करनेके लिये अनेक दृष्टान्तोंका उल्लेख करते हैं—) समयसे (नूतनजल, अशुद्ध भूमि आदि), स्नानसे (शरीर आदि), प्रक्षालनसे (वस्त्रादि), संस्कारोंसे (गर्भादि), तपस्यासे (इन्द्रियादि), यज्ञसे (ब्राह्मणादि), दानसे (धन-धान्यादि) और संतोषसे (मन आदि) द्रव्य शुद्ध होते हैं । परंतु आत्माकी शुद्धि तो आत्मज्ञानसे ही होती है ॥ ४ ॥ उस समय ब्राह्मण, सूत,१ मागध२ और वंदीजन३ [*] मङ्गलमय आशीर्वाद देने तथा स्तुति करने लगे । गायक गाने लगे, भेरी और दुन्दुभियाँ बार-बार बजने लगीं ॥ ५ ॥ व्रजमण्डल के सभी घरोंके द्वार, आँगन और भीतरी भाग झाड़-बुहार दिये गये; उनमें सुगन्धित जलका छिडक़ाव किया गया; उन्हें चित्र-विचित्र ध्वजा- पताका, पुष्पोंकी मालाओं, रंग-बिरंगे वस्त्र और पल्लवोंके वन्दनवारोंसे सजाया गया ॥ ६ ॥ गाय, बैल और बछड़ोंके अङ्गोंमें हल्दी-तेलका लेप कर दिया गया और उन्हें गेरू आदि रंगीन धातुएँ, मोरपंख, फूलोंके हार, तरह-तरहके सुन्दर वस्त्र और सोनेकी जंजीरोंसे सजा दिया गया ॥ ७ ॥ परीक्षित्‌ ! सभी ग्वाल बहुमूल्य वस्त्र, गहने, अँगरखे और पगडिय़ोंसे सुसज्जित होकर और अपने हाथोंमें भेंटकी बहुत-सी सामग्रियाँ ले-लेकर नन्दबाबाके घर आये ॥ ८ ॥
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[*] १. पौराणिक । २. वंशका वर्णन करनेवाले । ३. समयानुसार उक्तियोंसे स्तुति करनेवाले भाट । जैसा कि कहा है—‘सूता: पौराणिका: प्रोक्ता मागधा वंशशंसका: । वन्दिनस्त्वमलप्रज्ञा: प्रस्तावसदृशोक्तय: ।।

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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट१०)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट१०) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन विश...