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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – छठा अध्याय..(पोस्ट०४)
पूतना-उद्धार
पतमानोऽपि
तद्देह त्रिगव्यूत्यन्तरद्रुमान् ।
चूर्णयामास
राजेन्द्र महदासीत् तदद्भुतम् ॥ १४ ॥
ईषामात्रोग्रदंष्ट्रास्यं
गिरिकन्दर नासिकम् ।
गण्डशैलस्तनं
रौद्रं प्रकीर्णारुणमूर्धजम् ॥ १५ ॥
अन्धकूपगभीराक्षं
पुलिनारोह भीषणम् ।
बद्धसेतुभुजोर्वङ्घ्रि
शून्यतोय ह्रदोदरम् ॥ १६ ॥
सन्तत्रसुः
स्म तद्वीक्ष्य गोपा गोप्यः कलेवरम् ।
पूर्वं
तु तन्निःस्वनित भिन्नहृत्कर्ण मस्तकाः ॥ १७ ॥
बालं
च तस्या उरसि क्रीडन्तं अकुतोभयम् ।
गोप्यस्तूर्णं
समभ्येत्य जगृहुर्जातसंभ्रमाः ॥ १८ ॥
यशोदा
रोहिणीभ्यां ताः समं बालस्य सर्वतः ।
रक्षां
विदधिरे सम्यक् गोपुच्छभ्रमणादिभिः ॥ १९ ॥
गोमूत्रेण
स्नापयित्वा पुनर्गोरजसार्भकम् ।
रक्षां
चक्रुश्च शकृता द्वादशाङ्गेषु नामभिः ॥ २० ॥
गोप्यः
संस्पृष्टसलिला अङ्गेषु करयोः पृथक् ।
न्यस्यात्मन्यथ
बालस्य बीजन्यासमकुर्वत ॥ २१ ॥
राजेन्द्र
! पूतना के शरीर ने गिरते-गिरते भी छ: कोसके भीतरके वृक्षोंको कुचल डाला। यह बड़ी
ही अद्भुत घटना हुई ॥ १४ ॥ पूतनाका शरीर बड़ा भयानक था, उसका मुँह हलके समान तीखी और भयङ्कर दाढ़ोंसे युक्त था। उसके नथुने पहाडक़ी
गुफाके समान गहरे थे और स्तन पहाड़से गिरी हुई चट्टानों की तरह बड़े-बड़े थे।
लाल-लाल बाल चारों ओर बिखरे हुए थे ॥ १५ ॥ आँखें अंधे कूएँ के समान गहरी नितम्ब
नदी के करार की तरह भयङ्कर; भुजाएँ, जाँघें
और पैर नदी के पुलके समान तथा पेट सूखे हुए सरोवरकी भाँति जान पड़ता था ॥ १६ ॥
पूतना के उस शरीर को देखकर सब-के-सब ग्वाल और गोपी डर गये। उसकी भयङ्कर चिल्लाहट
सुनकर उनके हृदय, कान और सिर तो पहले ही फटसे रहे थे ॥ १७ ॥
जब गोपियोंने देखा कि बालक श्रीकृष्ण उसकी छातीपर निर्भय होकर खेल रहे हैं,[*] तब वे बड़ी घबराहट और उतावलीके साथ झटपट वहाँ पहुँच गयीं तथा
श्रीकृष्णको उठा लिया ॥ १८ ॥ इसके बाद यशोदा और रोहिणीके साथ गोपियोंने गायकी पूँछ
घुमाने आदि उपायोंसे बालक श्रीकृष्णके अङ्गोंकी सब प्रकारसे रक्षा की ॥ १९ ॥
उन्होंने पहले बालक श्रीकृष्ण को गोमूत्र से स्नान कराया, फिर
सब अङ्गों में गो-रज लगायी और फिर बारहों अङ्गों में गोबर लगाकर भगवान् के केशव
आदि नामों से रक्षा की ॥२०॥ इसके बाद गोपियों ने आचमन करके ‘अज’
आदि ग्यारह बीज-मन्त्रों से अपने शरीरों में अलग-अलग अङ्गन्यास एवं
करन्यास किया और फिर बालक के अङ्गों में बीजन्यास किया ॥२१॥
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पूतनाके वक्ष:स्थलपर क्रीडा करते हुए मानो मन-ही-मन कह रहे थे—
स्तनन्धयस्य
स्तन एव जीविका दत्तस्त्वया स स्वयमानने मम ।।
मया
च पीतो म्रियते यदि त्वया ङ्क्षक वा ममाग: स्वयमेव कथ्यताम् ।।
‘मैं दुधमुँहाँ शिशु हूँ, स्तनपान ही मेरी जीविका है
। तुमने स्वयं अपना स्तन मेरे मुँहमें दे दिया और मैंने पिया । इससे यदि तुम मर
जाती हो तो स्वयं तुम्हीं बताओ इसमें मेरा क्या अपराध है ।’
राजा
बलिकी कन्या थी रत्नमाला । यज्ञशालामें वामनभगवान् को देखकर उसके हृदय में
पुत्रस्नेह का भाव उदय हो आया । वह मन-ही-मन अभिलाषा करने लगी कि यदि मुझे ऐसा
बालक हो और मैं उसे स्तन पिलाऊँ तो मुझे बड़ी प्रसन्नता होगी । वामनभगवान्ने अपने
भक्त बलिकी पुत्रीके इस मनोरथका मन-ही-मन अनुमोदन किया । वही द्वापरमें पूतना हुई
और श्रीकृष्णके स्पर्शसे उसकी लालसा पूर्ण हुई ।
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से