सोमवार, 18 मई 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०३


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

शकट-भञ्जन और तृणावर्त-उद्धार

एकदारोहमारूढं लालयन्ती सुतं सती
गरिमाणं शिशोर्वोढुं न सेहे गिरिकूटवत् ॥ १८ ॥
भूमौ निधाय तं गोपी विस्मिता भारपीडिता
महापुरुषमादध्यौ जगतामास कर्मसु ॥ १९ ॥
दैत्यो नाम्ना तृणावर्तः कंसभृत्यः प्रणोदितः
चक्रवातस्वरूपेण जहारासीनमर्भकम् ॥ २० ॥
गोकुलं सर्वमावृण्वन्मुष्णंश्चक्षूंषि रेणुभिः
ईरयन्सुमहाघोर शब्देन प्रदिशो दिशः ॥ २१ ॥
मुहूर्तमभवद्गोष्ठं रजसा तमसावृतम्
सुतं यशोदा नापश्यत्तस्मिन्न्यस्तवती यतः ॥ २२ ॥
नापश्यत्कश्चनात्मानं परं चापि विमोहितः
तृणावर्तनिसृष्टाभिः शर्कराभिरुपद्रुतः ॥ २३ ॥
इति खरपवनचक्रपांशुवर्षे
सुतपदवीमबलाविलक्ष्य माता
अतिकरुमनुस्मरन्त्यशोचद्-
भुवि पतिता मृतवत्सका यथा गौः ॥ २४ ॥
रुदितमनुनिशम्य तत्र गोप्यो
भृशमनुतप्तधियोऽश्रुपूर्णमुख्यः
रुरुदुरनुपलभ्य नन्दसूनुं
पवन उपारतपांशुवर्षवेगे ॥ २५ ॥

एक दिनकी बात है, सती यशोदाजी अपने प्यारे लल्लाको गोदमें लेकर दुलार रही थीं । सहसा श्रीकृष्ण चट्टानके समान भारी बन गये । वे उनका भार न सह सकीं ॥ १८ ॥ उन्होंने भारसे पीडि़त होकर श्रीकृष्णको पृथ्वीपर बैठा दिया । इस नयी घटनासे वे अत्यन्त चकित हो रही थीं । इसके बाद उन्होंने भगवान्‌ पुरुषोत्तमका स्मरण किया और घरके काम में लग गयीं ॥ १९ ॥
तृणावर्त नामका एक दैत्य था । वह कंसका निजी सेवक था । कंसकी प्रेरणासे ही बवंडरके रूपमें वह गोकुलमें आया और बैठे हुए बालक श्रीकृष्णको उड़ाकर आकाशमें ले गया ॥ २० ॥ उसने व्रजरजसे सारे गोकुलको ढक दिया और लोगोंकी देखनेकी शक्ति हर ली । उसके अत्यन्त भयङ्कर शब्दसे दसों दिशाएँ काँप उठीं ॥ २१ ॥ सारा व्रज दो घड़ीतक रज और तमसे ढका रहा । यशोदाजीने अपने पुत्रको जहाँ बैठा दिया था, वहाँ जाकर देखा तो श्रीकृष्ण वहाँ नहीं थे ॥ २२ ॥ उस समय तृणावर्त ने बवंडररूप से इतनी बालू उड़ा रखी थी कि सभी लोग अत्यन्त उद्विग्र और बेसुध हो गये थे । उन्हें अपना-पराया कुछ भी नहीं सूझ रहा था ॥ २३ ॥ उस जोर की आँधी और धूलकी वर्षामें अपने पुत्रका पता न पाकर यशोदाको बड़ा शोक हुआ । वे अपने पुत्रकी याद करके बहुत ही दीन हो गयीं और बछड़ेके मर जानेपर गायकी जो दशा हो जाती है, वही दशा उनकी हो गयी । वे पृथ्वीपर गिर पड़ीं ॥ २४ ॥ बवंडरके शान्त होनेपर जब धूलकी वर्षाका वेग कम हो गया, तब यशोदाजीके रोनेका शब्द सुनकर दूसरी गोपियाँ वहाँ दौड़ आयीं । नन्दनन्दन श्यामसुन्दर श्रीकृष्णको न देखकर उनके हृदय में भी बड़ा संताप हुआ, आँखों से आँसू की धारा बहने लगी । वे फूट-फूटकर रोने लगीं ॥ २५ ॥

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



रविवार, 17 मई 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

शकट-भञ्जन और तृणावर्त-उद्धार

रुदन्तं सुतमादाय यशोदा ग्रहशङ्किता
कृतस्वस्त्ययनं विप्रैः सूक्तैः स्तनमपाययत् ॥ ११ ॥
पूर्ववत्स्थापितं गोपैर्बलिभिः सपरिच्छदम्
विप्रा हुत्वार्चयां चक्रुर्दध्यक्षतकुशाम्बुभिः ॥ १२ ॥
येऽसूयानृतदम्भेर्षा हिंसामानविवर्जिताः
न तेषां सत्यशीलानामाशिषो विफलाः कृताः ॥ १३ ॥
इति बालकमादाय सामर्ग्यजुरुपाकृतैः
जलैः पवित्रौषधिभिरभिषिच्य द्विजोत्तमैः ॥ १४ ॥
वाचयित्वा स्वस्त्ययनं नन्दगोपः समाहितः
हुत्वा चाग्निं द्विजातिभ्यः प्रादादन्नं महागुणम् ॥ १५ ॥
गावः सर्वगुणोपेता वासःस्रग्रुक्ममालिनीः
आत्मजाभ्युदयार्थाय प्रादात्ते चान्वयुञ्जत ॥ १६ ॥
विप्रा मन्त्रविदो युक्तास्तैर्याः प्रोक्तास्तथाशिषः
ता निष्फला भविष्यन्ति न कदाचिदपि स्फुटम् ॥ १७ ॥

यशोदाजीने समझा यह किसी ग्रह आदिका उत्पात है । उन्होंने अपने रोते हुए लाड़ले लाल को गोदमें लेकर, ब्राह्मणोंसे वेदमन्त्रोंके द्वारा शान्तिपाठ कराया और फिर वे उसे स्तन पिलाने लगीं ॥ ११ ॥ बलवान् गोपोंने छकड़ेको फिर सीधा कर दिया । उसपर पहलेकी तरह सारी सामग्री रख दी गयी । ब्राह्मणोंने हवन किया और दही अक्षत, कुश तथा जलके द्वारा भगवान्‌ और उस छकड़ेकी पूजा की ॥ १२ ॥ जो किसीके गुणोंमें दोष नहीं निकालते, झूठ नहीं बोलते, दम्भ, ईष्र्या और हिंसा नहीं करते तथा अभिमानसे रहित हैंउन सत्यशील ब्राह्मणोंका आशीर्वाद कभी विफल नहीं होता ॥ १३ ॥ यह सोचकर नन्दबाबाने बालकको गोदमें उठा लिया और ब्राह्मणोंसे साम, ऋक् और यजुर्वेद के मन्त्रों द्वारा संस्कृत एवं पवित्र ओषधियोंसे युक्त जलसे अभिषेक कराया ॥ १४ ॥ उन्होंने बड़ी एकाग्रता से स्वस्त्ययनपाठ और हवन कराकर ब्राह्मणोंको अति उत्तम अन्नका भोजन कराया ॥ १५ ॥ इसके बाद नन्दबाबाने अपने पुत्रकी उन्नति और अभिवृद्धिकी कामनासे ब्राह्मणोंको सर्वगुणसम्पन्न बहुत-सी गौएँ दीं । वे गौएँ वस्त्र, पुष्पमाला और सोनेके हारोंसे सजी हुई थीं । ब्राह्मणोंने उन्हें आशीर्वाद दिया ॥ १६ ॥ यह बात स्पष्ट है कि जो वेदवेत्ता और सदाचारी ब्राह्मण होते हैं, उनका आशीर्वाद कभी निष्फल नहीं होता ॥ १७ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

शकट-भञ्जन और तृणावर्त-उद्धार

श्रीराजोवाच
येन येनावतारेण भगवान्हरिरीश्वरः
करोति कर्णरम्याणि मनोज्ञानि च नः प्रभो ॥ १ ॥
यच्छृण्वतोऽपैत्यरतिर्वितृष्णा
सत्त्वं च शुद्ध्यत्यचिरेण पुंसः
भक्तिर्हरौ तत्पुरुषे च सख्यं
तदेव हारं वद मन्यसे चेत् ॥ २ ॥
अथान्यदपि कृष्णस्य तोकाचरितमद्भुतम्
मानुषं लोकमासाद्य तज्जातिमनुरुन्धतः ॥ ३ ॥

श्रीशुक उवाच
कदाचिदौत्थानिककौतुकाप्लवे
जन्मर्क्षयोगे समवेतयोषिताम्
वादित्रगीतद्विजमन्त्रवाचकै-
श्चकार सूनोरभिषेचनं सती ॥ ४ ॥
नन्दस्य पत्नी कृतमज्जनादिकं
विप्रैः कृतस्वस्त्ययनं सुपूजितैः
अन्नाद्यवासःस्रगभीष्टधेनुभिः
सञ्जातनिद्रा क्षमशीशयच्छनैः ॥ ५ ॥
औत्थानिकौत्सुक्यमना मनस्विनी
समागतान्पूजयती व्रजौकसः
नैवाशृणोद्वै रुदितं सुतस्य सा
रुदन्स्तनार्थी चरणावुदक्षिपत् ॥ ६ ॥
अधःशयानस्य शिशोरनोऽल्पक
प्रवालमृद्वङ्घ्रिहतं व्यवर्तत
विध्वस्तनानारसकुप्यभाजनं
व्यत्यस्तचक्राक्षविभिन्नकूबरम् ॥ ७ ॥
दृष्ट्वा यशोदाप्रमुखा व्रजस्त्रिय
औत्थानिके कर्मणि याः समागताः
नन्दादयश्चाद्भुतदर्शनाकुलाः
कथं स्वयं वै शकटं विपर्यगात् ॥ ८ ॥
ऊचुरव्यवसितमतीन्गोपान्गोपीश्च बालकाः
रुदतानेन पादेन क्षिप्तमेतन्न संशयः ॥ ९ ॥
न ते श्रद्दधिरे गोपा बालभाषितमित्युत
अप्रमेयं बलं तस्य बालकस्य न ते विदुः ॥ १० ॥

राजा परीक्षित्‌ने पूछाप्रभो ! सर्वशक्तिमान् भगवान्‌ श्रीहरि अनेकों अवतार धारण करके बहुत-सी सुन्दर एवं सुननेमें मधुर लीलाएँ करते हैं । वे सभी मेरे हृदयको बहुत प्रिय लगती हैं ॥ १ ॥ उनके श्रवणमात्रसे भगवत्-सम्बन्धी कथासे अरुचि और विविध विषयोंकी तृष्णा भाग जाती है । मनुष्य का अन्त:करण शीघ्र-से-शीघ्र शुद्ध हो जाता है । भगवान्‌ के चरणों में भक्ति और उनके भक्तजनों से प्रेम भी प्राप्त हो जाता है । यदि आप मुझे उनके श्रवण का अधिकारी समझते हों, तो भगवान्‌ की उन्हीं मनोहर लीलाओं का वर्णन कीजिये ॥ २ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्ण ने मनुष्य-लोक में प्रकट होकर मनुष्य-जाति के स्वभाव का अनुसरण करते हुए जो बाललीलाएँ की हैं अवश्य ही वे अत्यन्त अद्भुत हैं, इसलिये आप अब उनकी दूसरी बाल-लीलाओं का भी वर्णन कीजिये ॥ ३ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! एक बार [*] भगवान्‌ श्रीकृष्ण के करवट बदलने का अभिषेक-उत्सव मनाया जा रहा था । उसी दिन उनका जन्मनक्षत्र भी था । घर में बहुत-सी स्त्रियों की भीड़ लगी हुई थी । गाना-बजाना हो रहा था । उन्हीं स्त्रियों के बीच में  खड़ी हुई सती साध्वी यशोदाजीने अपने पुत्रका अभिषेक किया । उस समय ब्राह्मणलोग मन्त्र पढक़र आशीर्वाद दे रहे थे ॥ ४ ॥ नन्दरानी यशोदाजीने ब्राह्मणोंका खूब पूजन-सम्मान किया । उन्हें अन्न, वस्त्र,माला, गाय आदि मुँहमाँगी वस्तुएँ दीं । जब यशोदा ने उन ब्राह्मणोंद्वारा स्वस्तिवाचन कराकर स्वयं बालकके नहलाने आदिका कार्य सम्पन्न कर लिया, तब यह देखकर कि मेरे लल्लाके नेत्रोंमें नींद आ रही है, अपने पुत्रको धीरेसे शय्यापर सुला दिया ॥ ५ ॥ थोड़ी देरमें श्यामसुन्दरकी आँखें खुलीं, तो वे स्तन-पानके लिये रोने लगे । उस समय मनस्विनी यशोदाजी उत्सवमें आये हुए व्रजवासियोंके स्वागत-सत्कारमें बहुत ही तन्मय हो रही थीं । इसलिये उन्हें श्रीकृष्णका रोना सुनायी नहीं पड़ा । तब श्रीकृष्ण रोते-रोते अपने पाँव उछालने लगे ॥ ६ ॥ शिशु श्रीकृष्ण एक छकड़ेके नीचे सोये हुए थे । उनके पाँव अभी लाल-लाल कोंपलोंके समान बड़े ही कोमल और नन्हे-नन्हे थे । परंतु वह नन्हा-सा पाँव लगते ही विशाल छकड़ा उलट गया [#] । उस छकड़े पर दूध-दही आदि अनेक रसोंसे भरी हुई मटकियाँ और दूसरे बर्तन रखे हुए थे । वे सब-के-सब फूट-फाट गये और छकड़ेके पहिये तथा धुरे अस्त-व्यस्त हो गये, उसका जूआ फट गया ॥ ७ ॥ करवट बदलनेके उत्सवमें जितनी भी स्त्रियाँ आयी हुई थीं, वे सब, और यशोदा, रोहिणी, नन्दबाबा और गोपगण इस विचित्र घटनाको देखकर व्याकुल हो गये । वे आपसमें कहने लगे—‘अरे, यह क्या हो गया ? यह छकड़ा अपने-आप कैसे उलट गया ?’ ॥ ८ ॥ वे इसका कोई कारण निश्चित न कर सके । वहाँ खेलते हुए बालकोंने गोपों और गोपियोंसे कहा कि इस कृष्ण ने ही तो रोते-रोते अपने पाँवकी ठोकरसे इसे उलट दिया है, इसमें कोई सन्देह नहीं॥ ९ ॥ परंतु गोपोंने उसे बालकोंकी बातमानकर उसपर विश्वास नहीं किया । ठीक ही है, वे गोप उस बालकके अनन्त बलको नहीं जानते थे ॥ १० ॥
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[*] यहाँ कदाचित् (एक बार) से तात्पर्य है तीसरे महीनेके जन्मनक्षत्रयुक्त कालसे । उस समय श्रीकृष्णकी झाँकी का ऐसा वर्णन मिलता है

स्निग्धा: पश्यति सेष्मयीति भुजयोर्युग्मं मुहुश्चालयन्नत्यल्पं मधुरं च कूजति परिष्वङ्गाय चाकाङ्क्षति ।।
लाभालाभवशादमुष्य लसति क्रन्दत्यपि क्वाप्यसौ पीतस्तन्यतया स्वपित्यपि पुनर्जाग्रन्मुदं यच्छति ।।

स्नेहसे तर गोपियोंको आँख उठाकर देखते हैं और मुसकराते हैं । दोनों भुजाएँ बार-बार हिलाते हैं । बड़े मधुर स्वरसे थोड़ा-थोड़ा कूजते हैं । गोदमें आनेके लिये ललकते हैं । किसी वस्तुको पाकर उससे खेलने लग जाते हैं और न मिलनेसे क्रन्दन करते हैं । कभी-कभी दूध पीकर सो जाते हैं और फिर जागकर आनन्दित करते हैं ।

 [#] हिरण्याक्षका पुत्र था उत्कच । वह बहुत बलवान् एवं मोटा-तगड़ा था । एक बार यात्रा करते समय उसने लोमश ऋषिके आश्रमके वृक्षोंको कुचल डाला । लोमश ऋषिने क्रोध करके शाप दे दिया—‘अरे दुष्ट ! जा, तू देहरहित हो जा ।उसी समय साँपके केंचुलके समान उसका शरीर गिरने लगा । वह धड़ामसे लोमश ऋषिके चरणोंपर गिर पड़ा और प्रार्थना की—‘कृपासिन्धो ! मुझपर कृपा कीजिये । मुझे आपके प्रभावका ज्ञान नहीं था । मेरा शरीर लौटा दीजिये ।लोमशजी प्रसन्न हो गये । महात्माओंका शाप भी वर हो जाता है । उन्होंने कहा—‘वैवस्वत मन्वन्तरमें श्रीकृष्णके चरण-स्पर्शसे तेरी मुक्ति हो जायगी ।वही असुर छकड़ेमें आकर बैठ गया था और भगवान्‌ श्रीकृष्णके चरणस्पर्शसे मुक्त हो गया ।

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शनिवार, 16 मई 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – छठा अध्याय..(पोस्ट०७)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) छठा अध्याय..(पोस्ट०७)

पूतना-उद्धार

पयांसि यासामपिबत् पुत्रस्नेहस्नुतान्यलम् ।
भगवान् देवकीपुत्रः कैवल्याद्यखिलप्रदः ॥ ३९ ॥
तासामविरतं कृष्णे कुर्वतीनां सुतेक्षणम् ।
न पुनः कल्पते राजन् संसारोऽज्ञानसंभवः ॥ ४० ॥
कटधूमस्य सौरभ्यं अवघ्राय व्रजौकसः ।
किमिदं कुत एवेति वदन्तो व्रजमाययुः ॥ ४१ ॥
ते तत्र वर्णितं गोपैः पूतना गमनादिकम् ।
श्रुत्वा तन्निधनं स्वस्ति शिशोश्चासन् सुविस्मिताः ॥ ४२ ॥                                                    नन्दः स्वपुत्रमादाय प्रेत्यागतमुदारधीः ।
मूर्ध्न्युपाघ्राय परमां मुदं लेभे कुरूद्वह ॥ ४३ ॥
य एतत्पूतनामोक्षं कृष्णस्यार्भकमद्‍भुतम् ।                                                                       श्रृणुयात् श्रद्धया मर्त्यो गोविन्दे लभते रतिम् ॥ ४४ ॥
                                                                                                                               परीक्षित्‌ ! देवकीनन्दन भगवान्‌ कैवल्य आदि सब प्रकार की मुक्ति और सब कुछ देनेवाले हैं । उन्होंने व्रजकी गोपियों और गौओं का वह दूध जो भगवान्‌ के प्रति पुत्र-भाव होनेसे वात्सल्य-स्नेह की अधिकता के कारण स्वयं ही झरता रहता थाभरपेट पान किया ॥ ३९ ॥ राजन् ! वे गौएँ और गोपियाँजो नित्य-निरन्तर भगवान्‌ श्रीकृष्ण को अपने पुत्र के ही रूपमें देखती थींफिर जन्म-मृत्युरूप संसार के चक्रमें कभी नहीं पड़ सकतींक्योंकि यह संसार तो अज्ञानके कारण ही है ॥ ४० ॥


नन्दबाबा के साथ आनेवाले व्रजवासियों की नाक में जब चिता के धूएँ की सुगन्ध पहुँचीतब यह क्या है कहाँसे ऐसी सुगन्ध आ रही है ?’ इस प्रकार कहते हुए वे व्रजमें पहुँचे ॥ ४१ ॥ वहाँ गोपोंने उन्हें पूतना के आने से लेकर मरने तक का सारा वृत्तान्त कह सुनाया । वे लोग पूतना की मृत्यु और श्रीकृष्ण के कुशलपूर्वक बच जाने की बात सुनकर बड़े ही आश्चर्यचकित हुए ॥ ४२ ॥ परीक्षित्‌ ! उदारशिरोमणि नन्दबाबा ने मृत्यु के मुख से बचे हुए अपने लालाको गोदमें उठा लिया और बार-बार उसका सिर सूँघकर मन-ही-मन बहुत आनन्दित हुए ॥ ४३ ॥ यह पूतना-मोक्ष’ भगवान्‌ श्रीकृष्ण की अद्भुत बाल-लीला है । जो मनुष्य श्रद्धापूर्वक इसका श्रवण करता हैउसे भगवान्‌ श्रीकृष्ण के प्रति प्रेम प्राप्त होता है ॥ ४४ ॥

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे षष्ठोऽध्यायः ॥ ६ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
                                                                                                                               शेष आगामी पोस्ट में --


गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                     
                                                                                                                                                                   




श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – छठा अध्याय..(पोस्ट०६)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) छठा अध्याय..(पोस्ट०६)

पूतना-उद्धार

श्रीशुक उवाच ।

इति प्रणयबद्धाभिः गोपीभिः कृतरक्षणम् ।
पाययित्वा स्तनं माता संन्यवेशयदात्मजम् ॥ ३० ॥
तावन्नन्दादयो गोपा मथुराया व्रजं गताः ।
विलोक्य पूतनादेहं बभूवुः अतिविस्मिताः ॥ ३१ ॥
नूनं बतर्षिः सञ्जातो योगेशो वा समास सः ।
स एव दृष्टो ह्युत्पातो यद् आहानकदुन्दुभिः ॥ ३२ ॥
कलेवरं परशुभिः छित्त्वा तत्ते व्रजौकसः ।
दूरे क्षिप्त्वावयवशो न्यदहन् काष्ठवेष्टितम् ॥ ३३ ॥
दह्यमानस्य देहस्य धूमश्चागुरुसौरभः ।
उत्थितः कृष्णनिर्भुक्त सपद्याहतपाप्मनः ॥ ३४ ॥
पूतना लोकबालघ्नी राक्षसी रुधिराशना ।
जिघांसयापि हरये स्तनं दत्त्वाप सद्‍गतिम् ॥ ३५ ॥
किं पुनः श्रद्धया भक्त्या कृष्णाय परमात्मने ।
यच्छन्प्रियतमं किं नु रक्तास्तन्मातरो यथा ॥ ३६ ॥
पद्‍भ्यां भक्तहृदिस्थाभ्यां वन्द्याभ्यां लोकवन्दितैः ।
अङ्‌गं यस्याः समाक्रम्य भगवान् अपिबत् स्तनम् ॥ ३७ ॥
यातुधान्यपि सा स्वर्गं अवाप जननीगतिम् ।
कृष्णभुक्तस्तनक्षीराः किमु गावोऽनुमातरः ॥ ३८ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! इस प्रकार गोपियोंने प्रेमपाशमें बँधकर भगवान्‌ श्रीकृष्णकी रक्षा की । माता यशोदाने अपने पुत्रको स्तन पिलाया और फिर पालने पर सुला दिया ॥ ३० ॥ इसी समय नन्दबाबा और उनके साथी गोप मथुरासे गोकुलमें पहुँचे । जब उन्होंने पूतनाका भयङ्कर शरीर देखा, तब वे आश्चर्यचकित हो गये ॥ ३१ ॥ वे कहने लगे—‘यह तो बड़े आश्चर्य की बात है, अवश्य ही वसुदेवके रूपमें किसी ऋषिने जन्म ग्रहण किया है । अथवा सम्भव है वसुदेवजी पूर्व- जन्ममें कोई योगेश्वर रहे हों; क्योंकि उन्होंने जैसा कहा था, वैसा ही उत्पात यहाँ देखनेमें आ रहा है ॥ ३२ ॥ तबतक व्रजवासियोंने कुल्हाड़ीसे पूतनाके शरीरको टुकड़े-टुकड़े कर डाला और गोकुलसे दूर ले जाकर लकडिय़ोंपर रखकर जला दिया ॥ ३३ ॥ जब उसका शरीर जलने लगा, तब उसमेंसे ऐसा धूँआ निकला, जिसमेंसे अगरकी-सी सुगन्ध आ रही थी । क्यों न हो, भगवान्‌ ने जो उसका दूध पी लिया थाजिससे उसके सारे पाप तत्काल ही नष्ट हो गये थे ॥ ३४ ॥ पूतना एक राक्षसी थी । लोगोंके बच्चोंको मार डालना और उनका खून पी जानायही उसका काम था। भगवान्‌ को भी उसने मार डालनेकी इच्छासे ही स्तन पिलाया था । फिर भी उसे वह परमगति मिली, जो सत्पुरुषोंको मिलती है ॥ ३५ ॥ ऐसी स्थितिमें जो परब्रह्म परमात्मा भगवान्‌ श्रीकृष्णको श्रद्धा और भक्तिसे माताके समान अनुरागपूर्वक अपनी प्रिय-से-प्रिय वस्तु और उनको प्रिय लगनेवाली वस्तु समर्पित करते हैं, उनके सम्बन्धमें तो कहना ही क्या है ॥ ३६ ॥ भगवान्‌ के चरणकमल सबके वन्दनीय ब्रह्मा, शङ्कर आदि देवताओंके द्वारा भी वन्दित हैं । वे भक्तोंके हृदयकी पूँजी हैं । उन्हीं चरणोंसे भगवान्‌ ने पूतनाका शरीर दबाकर उसका स्तनपान किया था ॥ ३७ ॥ माना कि वह राक्षसी थी, परंतु उसे उत्तम-से-उत्तम गतिजो माताको मिलनी चाहियेप्राप्त हुई । फिर जिनके स्तनका दूध भगवान्‌ ने बड़े प्रेम से पिया, उन गौओं और माताओं की[*] तो बात ही क्या है ॥ ३८ ॥
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[*] जब ब्रह्माजी ग्वालबाल और बछड़ों को हर ले गये, तब भगवान्‌ स्वयं ही बछड़े और ग्वालबाल बन गये । उस समय अपने विभिन्न रूपोंसे उन्होंने अपने साथी अनेकों गोप और वत्सों की माताओं का स्तनपान किया । इसीलिये यहाँ बहुवचन का प्रयोग किया गया है ।

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शुक्रवार, 15 मई 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – छठा अध्याय..(पोस्ट०५)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) छठा अध्याय..(पोस्ट०५)

पूतना-उद्धार

अव्यादजोऽङ्‌घ्रि मणिमांस्तव जान्वथोरू
यज्ञोऽच्युतः कटितटं जठरं हयास्यः ।
हृत्केशवस्त्वदुर ईश इनस्तु कण्ठं
विष्णुर्भुजं मुखमुरुक्रम ईश्वरः कम् ॥ २२ ॥
चक्र्यग्रतः सहगदो हरिरस्तु पश्चात् ।
त्वत्पार्श्वयोर्धनुरसी मधुहाजनश्च ।
कोणेषु शङ्‌ख उरुगाय उपर्युपेन्द्रः
तार्क्ष्यः क्षितौ हलधरः पुरुषः समन्तात् ॥ २३ ॥
इन्द्रियाणि हृषीकेशः प्राणान्नारायणोऽवतु ।
श्वेतद्वीपपतिश्चित्तं मनो योगेश्वरोऽवतु ॥ २४ ॥
पृश्निगर्भस्तु ते बुद्धिं आत्मानं भगवान्परः ।
क्रीडन्तं पातु गोविन्दः शयानं पातु माधवः ॥ २५ ॥
व्रजन्तमव्याद् वैकुण्ठ आसीनं त्वां श्रियः पतिः ।
भुञ्जानं यज्ञभुक् पातु सर्वग्रहभयङ्‌करः ॥ २६ ॥
डाकिन्यो यातुधान्यश्च कुष्माण्डा येऽर्भकग्रहाः ।
भूतप्रेत पिशाचाश्च यक्षरक्षो विनायकाः ॥ २७ ॥
कोटरा रेवती ज्येष्ठा पूतना मातृकादयः ।
उन्मादा ये ह्यपस्मारा देह प्राणेन्द्रियद्रुहः ॥ २८ ॥
स्वप्नदृष्टा महोत्पाता वृद्धा बालग्रहाश्च ये ।
सर्वे नश्यन्तु ते विष्णोः नामग्रहणभीरवः ॥ २९ ॥

वे कहने लगीं—‘अजन्मा भगवान्‌ तेरे पैरोंकी रक्षा करें, मणिमान् घुटनों की, यज्ञपुरुष जाँघोंकी, अच्युत कमरकी, हयग्रीव पेटकी, केशव हृदयकी, ईश वक्ष:स्थल की, सूर्य कण्ठकी, विष्णु बाँहोंकी, उरुक्रम मुखकी और ईश्वर सिर की रक्षा करें ॥ २२ ॥ चक्रधर भगवान्‌ रक्षाके लिये तेरे आगे रहें, गदाधारी श्रीहरि पीछे, क्रमश: धनुष और खड्ग धारण करनेवाले भगवान्‌ मधुसूदन और अजन दोनों बगलमें, शङ्खधारी उरुगाय चारों कोनोंमें, उपेन्द्र ऊपर, हलधर पृथ्वीपर और भगवान्‌ परमपुरुष तेरे सब ओर रक्षाके लिये रहें ॥ २३ ॥ हृषीकेश भगवान्‌ इन्द्रियोंकी और नारायण प्राणोंकी रक्षा करें । श्वेतद्वीपके अधिपति चित्तकी और योगेश्वर मनकी रक्षा करें ॥ २४ ॥ पृश्निगर्भ  तेरी बुद्धिकी और परमात्मा भगवान्‌ तेरे अहंकारकी रक्षा करें । खेलते समय गोविन्द रक्षा करें, सोते समय माधव रक्षा करें ॥ २५ ॥ चलते समय भगवान्‌ वैकुण्ठ और बैठते समय भगवान्‌ श्रीपति तेरी रक्षा करें। भोजनके समय समस्त ग्रहोंको भयभीत करनेवाले यज्ञभोक्ता भगवान्‌ तेरी रक्षा करें ॥ २६ ॥ डाकिनी, राक्षसी और कूष्माण्डा आदि बालग्रह; भूत, प्रेत, पिशाच, यक्ष, राक्षस और विनायक, कोटरा, रेवती, ज्येष्ठा, पूतना, मातृका आदि; शरीर, प्राण तथा इन्द्रियोंका नाश करनेवाले उन्माद (पागलपन) एवं अपस्मार (मृगी) आदि रोग; स्वप्न में देखे हुए महान् उत्पात, वृद्धग्रह और बालग्रह आदिये सभी अनिष्ट भगवान्‌ विष्णुका नामोच्चारण करनेसे भयभीत होकर नष्ट हो जायँ[*] ॥ २७२९ ॥
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[*] इस प्रसङ्ग को पढक़र भावुक भक्त भगवान्‌ से कहता है—‘भगवन् ! जान पड़ता है, आपकी अपेक्षा भी आपके नाम में शक्ति अधिक है; क्योंकि आप त्रिलोकी की रक्षा करते हैं और नाम आपकी रक्षा कर रहा है ।

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श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – छठा अध्याय..(पोस्ट०४)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) छठा अध्याय..(पोस्ट०४)

पूतना-उद्धार

पतमानोऽपि तद्देह त्रिगव्यूत्यन्तरद्रुमान् ।
चूर्णयामास राजेन्द्र महदासीत् तदद्‍भुतम् ॥ १४ ॥
ईषामात्रोग्रदंष्ट्रास्यं गिरिकन्दर नासिकम् ।
गण्डशैलस्तनं रौद्रं प्रकीर्णारुणमूर्धजम् ॥ १५ ॥
अन्धकूपगभीराक्षं पुलिनारोह भीषणम् ।
बद्धसेतुभुजोर्वङ्‌घ्रि शून्यतोय ह्रदोदरम् ॥ १६ ॥
सन्तत्रसुः स्म तद्वीक्ष्य गोपा गोप्यः कलेवरम् ।
पूर्वं तु तन्निःस्वनित भिन्नहृत्कर्ण मस्तकाः ॥ १७ ॥
बालं च तस्या उरसि क्रीडन्तं अकुतोभयम् ।
गोप्यस्तूर्णं समभ्येत्य जगृहुर्जातसंभ्रमाः ॥ १८ ॥
यशोदा रोहिणीभ्यां ताः समं बालस्य सर्वतः ।
रक्षां विदधिरे सम्यक् गोपुच्छभ्रमणादिभिः ॥ १९ ॥
गोमूत्रेण स्नापयित्वा पुनर्गोरजसार्भकम् ।
रक्षां चक्रुश्च शकृता द्वादशाङ्‌गेषु नामभिः ॥ २० ॥
गोप्यः संस्पृष्टसलिला अङ्‌गेषु करयोः पृथक् ।
न्यस्यात्मन्यथ बालस्य बीजन्यासमकुर्वत ॥ २१ ॥

राजेन्द्र ! पूतना के शरीर ने गिरते-गिरते भी छ: कोसके भीतरके वृक्षोंको कुचल डाला। यह बड़ी ही अद्भुत घटना हुई ॥ १४ ॥ पूतनाका शरीर बड़ा भयानक था, उसका मुँह हलके समान तीखी और भयङ्कर दाढ़ोंसे युक्त था। उसके नथुने पहाडक़ी गुफाके समान गहरे थे और स्तन पहाड़से गिरी हुई चट्टानों की तरह बड़े-बड़े थे। लाल-लाल बाल चारों ओर बिखरे हुए थे ॥ १५ ॥ आँखें अंधे कूएँ के समान गहरी नितम्ब नदी के करार की तरह भयङ्कर; भुजाएँ, जाँघें और पैर नदी के पुलके समान तथा पेट सूखे हुए सरोवरकी भाँति जान पड़ता था ॥ १६ ॥ पूतना के उस शरीर को देखकर सब-के-सब ग्वाल और गोपी डर गये। उसकी भयङ्कर चिल्लाहट सुनकर उनके हृदय, कान और सिर तो पहले ही फटसे रहे थे ॥ १७ ॥ जब गोपियोंने देखा कि बालक श्रीकृष्ण उसकी छातीपर निर्भय होकर खेल रहे हैं,[*] तब वे बड़ी घबराहट और उतावलीके साथ झटपट वहाँ पहुँच गयीं तथा श्रीकृष्णको उठा लिया ॥ १८ ॥ इसके बाद यशोदा और रोहिणीके साथ गोपियोंने गायकी पूँछ घुमाने आदि उपायोंसे बालक श्रीकृष्णके अङ्गोंकी सब प्रकारसे रक्षा की ॥ १९ ॥ उन्होंने पहले बालक श्रीकृष्ण को गोमूत्र से स्नान कराया, फिर सब अङ्गों में गो-रज लगायी और फिर बारहों अङ्गों में गोबर लगाकर भगवान्‌ के केशव आदि नामों से रक्षा की ॥२०॥ इसके बाद गोपियों ने आचमन करके अजआदि ग्यारह बीज-मन्त्रों से अपने शरीरों में अलग-अलग अङ्गन्यास एवं करन्यास किया और फिर बालक के अङ्गों में बीजन्यास किया ॥२१॥
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[*] पूतनाके वक्ष:स्थलपर क्रीडा करते हुए मानो मन-ही-मन कह रहे थे

स्तनन्धयस्य स्तन एव जीविका दत्तस्त्वया स स्वयमानने मम ।।
मया च पीतो म्रियते यदि त्वया ङ्क्षक वा ममाग: स्वयमेव कथ्यताम् ।।

मैं दुधमुँहाँ शिशु हूँ, स्तनपान ही मेरी जीविका है । तुमने स्वयं अपना स्तन मेरे मुँहमें दे दिया और मैंने पिया । इससे यदि तुम मर जाती हो तो स्वयं तुम्हीं बताओ इसमें मेरा क्या अपराध है ।

राजा बलिकी कन्या थी रत्नमाला । यज्ञशालामें वामनभगवान्‌ को देखकर उसके हृदय में पुत्रस्नेह का भाव उदय हो आया । वह मन-ही-मन अभिलाषा करने लगी कि यदि मुझे ऐसा बालक हो और मैं उसे स्तन पिलाऊँ तो मुझे बड़ी प्रसन्नता होगी । वामनभगवान्‌ने अपने भक्त बलिकी पुत्रीके इस मनोरथका मन-ही-मन अनुमोदन किया । वही द्वापरमें पूतना हुई और श्रीकृष्णके स्पर्शसे उसकी लालसा पूर्ण हुई ।

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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट१०)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट१०) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन विश...