॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)
शकट-भञ्जन
और तृणावर्त-उद्धार
श्रीराजोवाच
येन
येनावतारेण भगवान्हरिरीश्वरः
करोति
कर्णरम्याणि मनोज्ञानि च नः प्रभो ॥ १ ॥
यच्छृण्वतोऽपैत्यरतिर्वितृष्णा
सत्त्वं
च शुद्ध्यत्यचिरेण पुंसः
भक्तिर्हरौ
तत्पुरुषे च सख्यं
तदेव
हारं वद मन्यसे चेत् ॥ २ ॥
अथान्यदपि
कृष्णस्य तोकाचरितमद्भुतम्
मानुषं
लोकमासाद्य तज्जातिमनुरुन्धतः ॥ ३ ॥
श्रीशुक
उवाच
कदाचिदौत्थानिककौतुकाप्लवे
जन्मर्क्षयोगे
समवेतयोषिताम्
वादित्रगीतद्विजमन्त्रवाचकै-
श्चकार
सूनोरभिषेचनं सती ॥ ४ ॥
नन्दस्य
पत्नी कृतमज्जनादिकं
विप्रैः
कृतस्वस्त्ययनं सुपूजितैः
अन्नाद्यवासःस्रगभीष्टधेनुभिः
सञ्जातनिद्रा
क्षमशीशयच्छनैः ॥ ५ ॥
औत्थानिकौत्सुक्यमना
मनस्विनी
समागतान्पूजयती
व्रजौकसः
नैवाशृणोद्वै
रुदितं सुतस्य सा
रुदन्स्तनार्थी
चरणावुदक्षिपत् ॥ ६ ॥
अधःशयानस्य
शिशोरनोऽल्पक
प्रवालमृद्वङ्घ्रिहतं
व्यवर्तत
विध्वस्तनानारसकुप्यभाजनं
व्यत्यस्तचक्राक्षविभिन्नकूबरम्
॥ ७ ॥
दृष्ट्वा
यशोदाप्रमुखा व्रजस्त्रिय
औत्थानिके
कर्मणि याः समागताः
नन्दादयश्चाद्भुतदर्शनाकुलाः
कथं
स्वयं वै शकटं विपर्यगात् ॥ ८ ॥
ऊचुरव्यवसितमतीन्गोपान्गोपीश्च
बालकाः
रुदतानेन
पादेन क्षिप्तमेतन्न संशयः ॥ ९ ॥
न
ते श्रद्दधिरे गोपा बालभाषितमित्युत
अप्रमेयं
बलं तस्य बालकस्य न ते विदुः ॥ १० ॥
राजा
परीक्षित्ने पूछा—प्रभो ! सर्वशक्तिमान् भगवान् श्रीहरि अनेकों अवतार धारण करके बहुत-सी
सुन्दर एवं सुननेमें मधुर लीलाएँ करते हैं । वे सभी मेरे हृदयको बहुत प्रिय लगती
हैं ॥ १ ॥ उनके श्रवणमात्रसे भगवत्-सम्बन्धी कथासे अरुचि और विविध विषयोंकी तृष्णा
भाग जाती है । मनुष्य का अन्त:करण शीघ्र-से-शीघ्र शुद्ध हो जाता है । भगवान् के
चरणों में भक्ति और उनके भक्तजनों से प्रेम भी प्राप्त हो जाता है । यदि आप मुझे
उनके श्रवण का अधिकारी समझते हों, तो भगवान् की उन्हीं
मनोहर लीलाओं का वर्णन कीजिये ॥ २ ॥ भगवान् श्रीकृष्ण ने मनुष्य-लोक में प्रकट
होकर मनुष्य-जाति के स्वभाव का अनुसरण करते हुए जो बाललीलाएँ की हैं अवश्य ही वे
अत्यन्त अद्भुत हैं, इसलिये आप अब उनकी दूसरी बाल-लीलाओं का
भी वर्णन कीजिये ॥ ३ ॥
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—परीक्षित् ! एक बार [*] भगवान् श्रीकृष्ण के करवट बदलने का अभिषेक-उत्सव
मनाया जा रहा था । उसी दिन उनका जन्मनक्षत्र भी था । घर में बहुत-सी स्त्रियों की
भीड़ लगी हुई थी । गाना-बजाना हो रहा था । उन्हीं स्त्रियों के बीच में खड़ी हुई सती साध्वी यशोदाजीने अपने पुत्रका
अभिषेक किया । उस समय ब्राह्मणलोग मन्त्र पढक़र आशीर्वाद दे रहे थे ॥ ४ ॥ नन्दरानी
यशोदाजीने ब्राह्मणोंका खूब पूजन-सम्मान किया । उन्हें अन्न, वस्त्र,माला, गाय आदि मुँहमाँगी वस्तुएँ दीं । जब यशोदा ने उन ब्राह्मणोंद्वारा
स्वस्तिवाचन कराकर स्वयं बालकके नहलाने आदिका कार्य सम्पन्न कर लिया, तब यह देखकर कि मेरे लल्लाके नेत्रोंमें नींद आ रही है, अपने पुत्रको धीरेसे शय्यापर सुला दिया ॥ ५ ॥ थोड़ी देरमें श्यामसुन्दरकी
आँखें खुलीं, तो वे स्तन-पानके लिये रोने लगे । उस समय
मनस्विनी यशोदाजी उत्सवमें आये हुए व्रजवासियोंके स्वागत-सत्कारमें बहुत ही तन्मय
हो रही थीं । इसलिये उन्हें श्रीकृष्णका रोना सुनायी नहीं पड़ा । तब श्रीकृष्ण
रोते-रोते अपने पाँव उछालने लगे ॥ ६ ॥ शिशु श्रीकृष्ण एक छकड़ेके नीचे सोये हुए थे
। उनके पाँव अभी लाल-लाल कोंपलोंके समान बड़े ही कोमल और नन्हे-नन्हे थे । परंतु
वह नन्हा-सा पाँव लगते ही विशाल छकड़ा उलट गया [#] । उस छकड़े पर दूध-दही आदि अनेक
रसोंसे भरी हुई मटकियाँ और दूसरे बर्तन रखे हुए थे । वे सब-के-सब फूट-फाट गये और छकड़ेके
पहिये तथा धुरे अस्त-व्यस्त हो गये, उसका जूआ फट गया ॥ ७ ॥
करवट बदलनेके उत्सवमें जितनी भी स्त्रियाँ आयी हुई थीं, वे
सब, और यशोदा, रोहिणी, नन्दबाबा और गोपगण इस विचित्र घटनाको देखकर व्याकुल हो गये । वे आपसमें
कहने लगे—‘अरे, यह क्या हो गया ?
यह छकड़ा अपने-आप कैसे उलट गया ?’ ॥ ८ ॥ वे
इसका कोई कारण निश्चित न कर सके । वहाँ खेलते हुए बालकोंने गोपों और गोपियोंसे कहा
कि ‘इस कृष्ण ने ही तो रोते-रोते अपने पाँवकी ठोकरसे इसे उलट
दिया है, इसमें कोई सन्देह नहीं’ ॥ ९ ॥
परंतु गोपोंने उसे ‘बालकोंकी बात’ मानकर
उसपर विश्वास नहीं किया । ठीक ही है, वे गोप उस बालकके अनन्त
बलको नहीं जानते थे ॥ १० ॥
......................................................
[*]
यहाँ कदाचित् (एक बार) से तात्पर्य है तीसरे महीनेके जन्मनक्षत्रयुक्त कालसे । उस
समय श्रीकृष्णकी झाँकी का ऐसा वर्णन मिलता है—
स्निग्धा:
पश्यति सेष्मयीति भुजयोर्युग्मं मुहुश्चालयन्नत्यल्पं मधुरं च कूजति परिष्वङ्गाय
चाकाङ्क्षति ।।
लाभालाभवशादमुष्य
लसति क्रन्दत्यपि क्वाप्यसौ पीतस्तन्यतया स्वपित्यपि पुनर्जाग्रन्मुदं यच्छति ।।
‘स्नेहसे तर गोपियोंको आँख उठाकर देखते हैं और मुसकराते हैं । दोनों भुजाएँ
बार-बार हिलाते हैं । बड़े मधुर स्वरसे थोड़ा-थोड़ा कूजते हैं । गोदमें आनेके लिये
ललकते हैं । किसी वस्तुको पाकर उससे खेलने लग जाते हैं और न मिलनेसे क्रन्दन करते
हैं । कभी-कभी दूध पीकर सो जाते हैं और फिर जागकर आनन्दित करते हैं ।’
[#] हिरण्याक्षका पुत्र था उत्कच । वह बहुत
बलवान् एवं मोटा-तगड़ा था । एक बार यात्रा करते समय उसने लोमश ऋषिके आश्रमके
वृक्षोंको कुचल डाला । लोमश ऋषिने क्रोध करके शाप दे दिया—‘अरे दुष्ट ! जा, तू देहरहित हो जा ।’ उसी समय साँपके केंचुलके समान उसका शरीर गिरने लगा । वह धड़ामसे लोमश
ऋषिके चरणोंपर गिर पड़ा और प्रार्थना की—‘कृपासिन्धो ! मुझपर
कृपा कीजिये । मुझे आपके प्रभावका ज्ञान नहीं था । मेरा शरीर लौटा दीजिये ।’
लोमशजी प्रसन्न हो गये । महात्माओंका शाप भी वर हो जाता है ।
उन्होंने कहा—‘वैवस्वत मन्वन्तरमें श्रीकृष्णके चरण-स्पर्शसे
तेरी मुक्ति हो जायगी ।’ वही असुर छकड़ेमें आकर बैठ गया था
और भगवान् श्रीकृष्णके चरणस्पर्शसे मुक्त हो गया ।
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से